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Nov 6, 2023

हाइबनः दिव्य सम्बन्ध

  - अनिता ललित

हमारे कमरे के सामने बाल्कनी और उससे लगी हुई, खुली छत है, जिसकी शोभा सुंदर रंग-बिरंगे फूल और हरे-भरे पौधे बढ़ाते रहते हैं। वहाँ बैठना परिवार के हम सभी सदस्यों को बहुत भाता है, विशेषकर जब मौसम थोड़ा ठंडा हो या बारिश हो रही हो। बारिश की बूँदें जब फूलों की पँखुड़ियों और हरी-हरी पत्तियों पर नाचती हुई गिरतीं हैं तो यूँ लगता है, जैसे मोतियों की अनगिनत लड़ियाँ खनक रही हों। सर्दियों में धूप के पीछे जितना भागो, वो उतनी ही छिटककर दूर... और दूर भागती चली जाती है -धूप के साथ इस लुकाछिपी के खेल का अपना अलग ही मज़ा है।

   पता नहीं कब और कैसे, वहाँ हमने पंछियों को दाना डालना शुरू कर दिया। पहले गिलहरी आती थी, फिर कबूतर आए, फिर गौरैया ... और अब तो न जाने कितनी तरह की सुंदर-सुंदर नन्ही-मुन्नी और थोड़ी बड़ी चिड़ियाँ भी आने लगीं। किसी के गले में लाल धारी और पेट का कुछ हिस्सा सफ़ेद है, सिर पर कलगी जैसी बनी हुई है -इसकी बोली बहुत ही मीठी है; कोई पूरी धानी रंग की -ऐसी कि पत्तियों में छिप जाए; कोई ऐसी तराशी हुई कि लटकती बेल की टहनी पर टेढ़े बैठकर अपनी लंबी व तीखी चोंच सीधे फूलों के अंदर घुसा देती है -शायद फूलों का रस पीती होगी; कोई पीली चोंच वाली -जो बारी-बारी से पानी में डुबकी लगाकर गमलों के सिरे पर या छत की रेलिंग पर बैठ जाती हैं; कुछ फ़ाख़्ता हैं -वो भी ऊपर बिजली के तार पर बैठकर इंतज़ार करती रहती हैं, दाना डलने का। सब समूह में चार-पाँच इकट्ठे आतीं हैं। सुंदर रंगों से सजी हुई तितलियाँ और उनके बच्चे भी इधर से उधर पंख झुलाते हुए दौड़ते रहते हैं, जैसे छुआ-छुआई खेल रहे हों, काले भँवरे भी वहीं मँडराते रहते हैं। अब ये सारे हमारे ही परिवार का हिस्सा बन गए हैं।  

 पहले पानी का एक बर्तन रखा हुआ था, मगर वो जल्दी ही खाली होने लगा, तो दो रखे, फिर तीन और अब चार बर्तन रखे हैं हम लोगों ने -किसी में आकर वे छई-छप्पा-छई करती हैं, तो किसी में से पानी पीती हैं। कबूतर भी उसमें नहा जाते हैं। यही नहीं, कौवे महाराज भी कुछ महीनों से आकर अब काँव -काँव करने लगे, तो उनके लिए भी रोटी बनने लगी, वो भी समय-समय पर आने लगे। कभी-कभी तो कौवे महाराज किसी और के यहाँ से रूखी रोटी लाकर यहाँ पानी के बर्तन में भिगो देते, फिर मुलायम होने पर उठा ले जाते। गिलहरी तो सबसे अधिक शैतान और पेटू! कोई खाए या न खाए, वो आंटी तो सबका खाना खा जाती हैं। चाहे बाजरा हो या ब्रेड या रोटी या बिस्किट  ... ये सब चट कर जाती हैं, मुँह में दबाकर भाग जाती हैं। एक नहीं, इनका पूरा मोहल्ला यहाँ दावत खाने आ जाता है, सात-आठ गिलहरियाँ! किसी से नहीं डरतीं। भगाना पड़ता है उन्हें। उनका बस चले, तो बाजरे का डिब्बा भी खा जाएँ!

   ये सिलसिला अब रोज़ का हो गया है। सुबह से ही गिलहरी की कर्र-कर्र, कबूतर की गुटरगूँ, गौरैया की चीं-चीं और कौवे महाशय की काँव-काँव शुरू हो जाती है। सवेरे उठकर सबसे पहला काम छत पर दाना डालना होता है। फिर नाश्ते के समय चिड़ियों के लिए ब्रेड, फिर दोपहर खाने के पहले फिर दाना डाला जाता है, और शाम को एक बार और। अब तो छत पर किसी काम से निकलने पर ही एक-दो सफ़ेद कबूतर आकर सामने बैठ जाते हैं, डरते नहीं वो! एक तो आकर पास ही टहलता रहता है और हर थोड़ी देर बाद आकर हमारी कुर्सी पर बैठकर कमरे में झाँकता रहता है। कुछ बोलो, तो गर्दन टेढ़ी करके आँखें भी घुमाता है और दाने के डिब्बे की तरफ़ देखता है। दाना डालो, तो भागकर खाने लगता है। कभी-कभी डर लगता है कि ज़्यादा खाने से उसकी तबीयत न ख़राब हो जाए। मगर जिस तरह से वो सामने आकर बैठ जाता है, तो थोड़ा- सा देना पड़ता है कि इतनी आस लगाए हुए है। उसका नाम हमने ‘नॉटी’ रख दिया है।

    कौवे महाराज भी आकर कभी रेलिंग, फिर गमले पर और फिर ज़मीन पर फुदकते रहते हैं और ब्रेड या रोटी का टुकड़ा उठाकर खाते हैं। कभी-कभी जब उनका दूसरा साथी भी आ जाता है, तो उस टुकड़े को लेकर अपनी चोंच से उसकी चोंच में खिलाते हैं -कौवे को हमने ऐसा करते पहली बार देखा है।

    कुछ दिनों के लिए घर से बाहर जाएँ, तो छत का रास्ता खोलकर जाना पड़ता है, जिससे घर के कामों में मदद करने वाले अंदर आकर, पौधों को पानी व इन सबको समय पर दाना-रोटी दे सकें। फ़ोन से उन्हें याद भी दिलाते रहते हैं। एक ख़ूबसूरत दैवीय रिश्ता -सा बन गया है सबसे, जो दिल को बहुत सुकून देता है।

बिन बोले ही

समझे दिल की बात

मन विभोर।

 

दैवीय रिश्ता

पंछियों ने बनाया

सुकून देता। 


1 comment:

Anonymous said...

पशु-पक्षी भी प्यार को समझते हैं। आपने बहुत सुंदर ढंग से हाइबन में चित्रित किया है। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर