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May 10, 2011

उदंती.com-मई 2011


उदंती.com-मई 2011



प्रकृति का तमाशा भी ख़ूब है।
 सृजन में समय लगता है 
जबकि विनाश
 कुछ ही पलों में हो जाता है।
- ज़किय़ा ज़ुबैरी

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अनकही: पाकिस्तान + ओसामा बिन लादेन...
स्वच्छताः हम सब हाथ धोकर पीछे पड़ें हैं! - सुशील जोशी
पर्यटनः प्रकृति की गोद में बसा 'मिनी कश्मीर' - लोकेन्द्र सिंह राजपूत
बाघ संरक्षणः बाघों की अनोखी शरणस्थली 'टाइगर टेम्पल' - अशोक सिंघई
बाघ संरक्षणः क्या बच पाएगा 'बाघ' - संदीप पौराणिक
बाघ संरक्षणः वनराज जंगल की सल्तनत छोड़कर बाहर ... -देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
जीवनशैलीः मार्क्स और उनकी जीवनसंगिनी
वाह भई वाह
विश्व तम्बाकू निषेध दिवसः धुएं से तबाह होती जिंदगी - कृष्ण कुमार यादव
कविता: कालिंग बेल - अरुण चन्द्र रॉय
यादेः उनके बाल छू लेने की ख्वाहिश ... - रश्मि प्रभा
आजीविकाः बेकिंग से 'पौपी' और उसके दोस्तों ... - टेरेसा रहमान
कहानी: मास्टरनी - भुवनेश्वर
लघुकथाः 1. इस्तेमाल 2. कबाड़ 3. धर्म- विधर्म -सुभाष नीरव
जिनके लिए मीठा खाना जहर .....
संसाधनः बूंद- बूंद से ही भरता है घड़ा - नवनीत कुमार गुप्ता
गज़ल : हरसिंगार - जहीर कुरेशी
पिछले दिनों
आपके पत्र/ मेल बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया

आवरण तथा भीतर प्रकाशित बाघों के सभी चित्र- वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर सीज़र सेनगुप्त, मुंबई द्वारा
ईमेल: workcaesar@gmail.com

पाकिस्तान + ओसामा बिन लादेन = 65,000 करोड़ रुपए का धंधा !


पाकिस्तान + ओसामा बिन लादेन = 65,000 करोड़ रुपए का धंधा !

- डॉ. रत्ना वर्मा
अलकायदा का संस्थापक, संचालक ओसामा बिन लादेन 11 सितम्बर 2001 को न्यूयार्क में वल्र्ड टे्रड सेंटर टॉवर्स पर आतंकवादी हमले से हजारों निरीह मनुष्यों की निर्मम हत्या करके गर्व से मुस्कुराया था। उसी दिन अमरीकी राष्ट्रपति ने अमरीकी नागरिकों से वादा किया था कि विश्व के सबसे निमर्म और बर्बर आतंकवादी ओसामा को ढूंढकर उचित दंड अवश्य दिया जायेगा। 2 मई को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट वहां के प्रमुख फौजी ठिकाने ऐबटाबाद में पाकिस्तानी फौज के संरक्षण में कई वर्षों से अपने परिवार के साथ चैन से रह रहे ओसामा बिन लादेन को अमरीकी नौसैनिकों ने हेलीकॉप्टर से उतरकर मार गिराया। अपने राष्ट्रपति के आदेश का पूर्ण रूप से पालन करने के सबूत के रूप में अमरीकी नौसैनिक ओसामा की लाश भी अपने साथ हेलीकॉप्टर में रखकर ले गए। अमरीकी राष्ट्रपति ने जो वादा किया था वो निभाया। कृतज्ञ अमरीकी नागरिकों ने पूरे देश में दिन- रात वैसा ही विजयोत्सव मनाया जैसा द्वितीय विश्वयुद्ध में एटमबम की विनाशलीला से ध्वस्त होकर जापान द्वारा बिना शर्त घुटने टेक देने पर विजयोत्सव मनाया था।
विश्व के अधिकांश देशों की तरह भारत ने भी इस भयानक आतंकवादी के विनाश का स्वागत किया। परंतु उसके पाकिस्तान की राजधानी के निकट कैन्टूनमेन्ट में वर्षों से सुरक्षित निवास करने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वास्तविकता तो यह है कि अमरीकी सेना द्वारा दस वर्ष पहले अफगानिस्तान की तोरा- बोरा पहाडिय़ों की गुफाओं से भगाए जाने के बाद से ही भारत में यह आम विश्वास था कि ओसामा बिन लादेन तब से पाकिस्तानी सेना द्वारा बेशकीमती खजाने की तरह सुरक्षित रखा जा रहा था। ठीक भी था क्योंकि आर्थिक रूप से पूर्णतया दीवालिया पाकिस्तान के लिए तो ओसामा बिन लादेन सोने की अंडा देने वाली मुर्गी ही था। अमेरिका के ओसामा बिन लादेन तथा अलकायदा के विनाश अभियान में उनका प्रमुख सहयोगी बनने का झूठा आश्वासन देकर पाकिस्तान ने 2001 से 2009 के बीच अमेरिका से 65 हजार करोड़ रुपयों (45 हजार करोड़ रुपए सैनिक हथियारों के लिए और 20 हजार करोड़ रुपए असैनिक कार्यों के लिए) से अधिक की रकम वसूली है। स्वाभाविक ही था कि पाकिस्तानी सेना ओसामा को ऐबटाबाद जैसी स्वस्थ जलवायु वाले कैन्टूनमेंट में वर्षों से सुरक्षित छुपाए रखकर अमेरिका को दुहता रहा। धोखेबाजी हमेशा से पाकिस्तान की विदेश नीति का मूलमंत्र रही है।
पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन को संरक्षण दिए जाने ने इस तथ्य की मजबूती से पुष्टि कर दी है कि पाकिस्तान ही विश्व में आतंकवादियों के प्रशिक्षण, संरक्षण और निर्यात का मुख्य केंद्र है। अतएव पूरे विश्व में पाकिस्तान की पहचान एक आतंकवादी देश के रूप में है। अमेरिका ने पिछले 10 वर्षों में अलकायदा के खिलाफ अभियान चलाकर अलकायदा को काफी कमजोर कर दिया है। परंतु इन्हीं 10 वर्षों में अलकायदा जैसे कई आतंकवादी संगठनों जैसे- जैशे मोहम्मद, लश्करे तैबा, तालिबान इत्यादि को पाकिस्तान ने राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत पाल- पोसकर खड़ा किया है। पाकिस्तान में दर्जनों आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं जिनमें हजारों नवयुवक आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण पा रहे हैं। पाकिस्तान द्वारा तैयार की जा रही इस आतंकवादी फौज का एक मात्र उद्देश्य भारत पर 26 सितंबर वाले मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले जैसे हमले करते रहना है। अतएव ओसामा की मृत्यु से आतंकवाद में कोई कमी नहीं आनी है।
ओसामा बिन लादेन के विनाश में भारत के लिए भी कई संदेश हैं। अमरीकी राष्ट्रपति जो एक संवैधानिक संस्था है, ने अमरीकी जनता से किए गए वायदे को पूरा करने में दस वर्ष लगाए। परंतु वायदे को पूरा कर दिखाया। यही कारण है कि अमेरिका में वहां का राष्ट्रपति एक बहुत ही सम्मानित संस्था है। जनतांत्रिक देशों में संवैधानिक संस्थाएं सरकार के स्तंभ होती हैं। अतएव ये बहुत जरूरी है कि संवैधानिक संस्थाएं जनता की निगाह में विश्वसनीय बनी रहें।
ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हमले के बारे में दुनिया में किसी को भी कानोंकान भनक तक न लगी थी। इस संदर्भ में भारत में कुछ हफ्तों में मीडिया में बेहद बचकानी चर्चा सुनी गई जिसमें सार्वजनिक रूप से यह पता लगाने की कोशिश हो रही थी कि क्या भारतीय सेना भी अमेरिका जैसी कार्रवाई कर सकती है। ये कुछ वैसी ही आपत्तिजनक हरकत थी जैसे मुम्बई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के समय सुरक्षा सैनिकों की कार्रवाई पल- पल दिखाकर मीडिया ने वास्तव में (अनजाने में) आतंकवादियों की ही मदद की थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में मीडिया को विवेक और संयम से निर्णय लेना चाहिए।
सबसे बड़ा संदेश है कि आतंकवाद से छुटकारा हमें सिर्फ अपने ही बलबूते पर पाना होगा। अमेरिका या कोई भी अन्य देश इस मामले में हमारी सार्थक मदद नहीं करेगा। ये हम भलीभांति जानते हैं कि राष्ट्र में आतंकवाद से निर्णायक रूप में छुटकारा पाने की पूर्ण क्षमता है। परंतु इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। जो अभी दिखलाई नहीं पड़ रही है। शायर ने ठीक ही कहा है -
जहां ऊसूलों पर आँच आए, वहाँ टकराना जरूरी है,
जिन्दा हो, तो जिन्दा दिखना जरूरी है।



बाघ-संरक्षण

बाघों की अनोखी शरणस्थली टाइगर टेम्पल
- अशोक सिंघई
5 फरवरी 2011 को साहित्यिक गतिविधि- स्वरूप थाईलैण्ड प्रवास हुआ। यह देश से बाहर जाने का मेरा पहला अवसर था। थाईलैण्ड के विभिन्न शहरों में जाना हुआ, प्रवासी भारतीयों से परिचय हुआ। बैंकाक में राजभवन भी जाना हुआ जहाँ हर बड़े शहर की तरह म्यूजियम भी हम लोगों ने विस्तार से देखा। मुझे लगा कि हथियारों के विकास की भी एक समानान्तर गाथा है। आखिरकार मनुष्य ने साथ- साथ जीने के साथ, साथ- साथ मरने के भी पुख्ता इंतजाम कर रखे हैं।
पत्थरों को नोंकीला बनाने वाले हाथों ने ही मिसाइल तक बना लिये हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध 'नाखून क्यों बढ़ते हैं' मुझे झकझोरता रहता है। बैंकाक से लगभग 200 किलोमीटर दूरी पर 'टाइगर टेम्पल' के बारे में थोड़ा बहुत सुन- पढ़ रखा था। थाईलैण्ड के 'कंचनबुरी' प्रदेश के 'साइयोक' जिले में यह अद्भुत जगह है। यह स्थान म्याँमार की सीमा से मात्र 24 किलोमीटर दूर है। 'टाइगर टेम्पल' (वैट फॉ लुआँग ताबुआ) दरअसल एक वन्य प्राणी संरक्षण क्षेत्र है जिसे वहाँ के लोग 'फॉरेस्ट टेम्पल' कहते हैं। अन्य वन्य प्राणियों की अपेक्षा वहाँ टाइगर संरक्षित किये गये हैं इसलिये जनता इसे 'टाइगर टेम्पल' के नाम से जानती है। सन् 1994 में इसकी शुरूआत हुई थी।
मैंने वहाँ के वरिष्ठ बौद्ध लामा से बातें की। उन्होंने कहा कि आप जैन धर्म के हैं और हम बौद्ध धर्मानुआयी हैं। हमारे पुराणों में यह वर्णन आता है कि भिक्षु जंगलों में शेर, चीते आदि हिंसक जानवरों को लकड़ी से वैसे ही हकालते थे जैसे कि बकरियाँ चराई जाती हैं। यह भी जिक्रआता है कि बुद्ध, महावीर आदि को सुनने के लिये जंगल के सभी जीव- जन्तु आते थे, आपके भारत में तो शेर और हिरण के एक ही घाट पर पानी पीने की धार्मिक चर्चायें सुनी- सुनाई जाती हैं। 'टाइगर टेम्पल' आज के अत्याधुनिक समय में इस बात को सिद्ध करने का एक आस्था जन्य प्रयोग है। एक बात और शेर आदि वन्य प्राणियों का अवैध शिकार करने वाले यह नहीं सोचते कि इनके नाजुक और नादान बच्चे भी हो सकते हैं। ऐसे निरीह शिशु- जीवों की प्राणरक्षा भी तो अहिंसा है, मनुष्य की हिंसा के अहिंसक प्रतिकार में यह भी एक कदम है। मैंने टोकते हुये कहा कि मेरे शहर भिलाई में भी एक 'मैत्री बाग' है जिसका चिडिय़ाघर मध्य भारत में मशहूर है। वहाँ हम लोगों को भी 'व्हाइट टाइगर' प्राप्त हुआ था, फिर जोड़ा जुटाया गया और इस अति दुर्लभ प्रजाति के 'व्हाइट टाइगरों' की 'केप्टिविटी' में वंशवृद्धि सम्भव हुई। इस विलुप्तप्राय प्रजाति के सफेद शेर हमारे यहां दर्जन भर हैं जो स्वस्थ व हृष्टपुष्ट भी हैं। उन बौद्ध लामा ने अपना नाम नहीं बताया, पूछने पर वे मुस्कुरा दिये।
स्वामीजी ने बताया कि, 'टाइगर टेम्पल' के लिये 1999 में हमें पहला शावक प्राप्त हुआ था जो कि ग्रामीणों को मिला था। शायद उसकी माँ शिकारियों की शिकार हो गई हो। हम उसे नहीं बचा सके। यह शेरों के संरक्षण की पहल थी। ऐसे शावकों के लिये एक 'शरणस्थल' 'टाइगर टेम्पल' के रूप में चर्चा में आने लगा था। कुछेक ऐसे भी मामले हैं जिसमें लोग शावकों को शौकिया घर में पालते हैं पर उनके बड़े होने पर वे उन्हें बवाल और जी का जंजाल लगने लगते हैं। बच्चों की तरह पाले इन 'पेट्स' को मारा भी तो नहीं जा सकता। ऐसे शावक भी हमें मिलने लगे।
2007 में इनके घर में रखने पर कानूनी पाबंदी लगभग समूचे विश्व में एकसाथ लागू की गई। इस तरह 'टाइगर टेम्पल' भरने लगा। 2007 तक 21 शावक 'केप्टिविटी' में जन्मे। दिसम्बर 2009 तक हमारे पास लगभग 50 टाइगर हो गये थे। बड़े- छोटे सब मिलाकर दिसम्बर 2010 में इनकी संख्या 84 हो चुकी है। डी.एन.ए. परीक्षण के नतीजे जगजाहिर नहीं हैं पर ये टाइगर इंडो-चाइनीज तथा बेंगाल टाइगर ही हैं। ये टाइगर बौद्ध भिक्षुओं के साथ रहते हैं। 'एक्सरसाइज' (अभ्यास) करते हैं, इन्हें प्रेम, दुलार, विश्वास और संरक्षण मिलता है जो इनकी हिंसक प्रवृत्तियों को शान्त रखता है।
यहाँ रोज सैकड़ों- हजारों लोग विश्व के हर कोने से आते हैं, इन्हें छूते हैं, दुलारते हैं, इनके साथ चित्र खिंचवाते हैं। प्रेम की ताकत का मनुष्य को इससे बड़ा और कौन सा सबूत चाहिये। 'हमारी आलोचना भी कम नहीं हो रही है। पर हम तो 'टेम्पल' की विशिष्टता के विश्वासी हैं, होंगे आप माक्र्सवादी, पर यह विश्वास तो आपमें भी होगा ही, यदि आप भारतीय हैं। प्रेम और अहिंसा भारतीयता के सिर- पैर हैं।'
आलोचना के संदर्भ में गौरतलब है कि थाई सरकार ने निरीक्षण के बाद यह पाया कि 'टाइगर टेम्पल' में इनकी समुचित देख रेख हो रही है। अब तो केप्टिविटी में ब्रीडिंग की शासकीय अनुमति भी मिल चुकी है। इन सबसे परे हटकर मुझे लगता है कि जब हम पेड़- पौधों को सींचते हैं तो दरअसल स्वयं को सींचते हैं। जब हम वन्य प्राणियों की चिन्ता में दुबले होते हैं तो वास्तव में हम स्वयं के अस्तित्व की चिन्ता में होते हैं। हमें खबर हो गई है कि समय के साथ इस वसुन्धरा पर हम अकेले स्वीकार नहीं होंगे। प्रकृति का सबसे बड़ा शोषक मनुष्य सबसे जिम्मेदार पोषक होने की मजबूरी में गिरफ्तार हो चुका है।
पता: 7 बी, सड़क 20, सेक्टर 5, भिलाई नगर (छ.ग.)
मोबाइल 09907182061, ईमेल- ashoksinghai@ymail.com

बाघ- संरक्षण

क्या बच  पाएगा बाघ
 संदीप पौराणिक
आज सारी दुनिया में इस बात की बहस हो रही है कि क्या जंगल के राजा का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा या उसे हमारी आने वाली पीढ़ी जंगल में नहीं देख पायेगी। क्या भारत के जंगल बिना बाघ के सूने ही रह जाएंगे।
सन 1900 के आसपास भारत में लगभग एक लाख बाघ थे। उस समय एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि सूरज ढलने के बाद लोग घरों से बाहर नहीं निकलते थे और ऐसा लगता था कि भारत में बाघ रहेगा या आदमी। बाघ सहित अन्य जंगली जानवर भी शहरों और गांवों के आसपास प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे। वर्ष 1948 में दिल्ली के व्यापारियों का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिला और उन्होंने गुहार लगाई कि बड़ी संख्या में हिंसक वन्य प्राणी कनाट प्लेस स्थित उनकी दुकानों में घुस जाते हैं और व्यापारियों और ग्राहकों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे जनहानि हो रही है एवं इससे व्यापार प्रभावित होगा। तब नेहरूजी ने उस जगह गनर रखने के आदेश दिए थे। सन 1972 में जब बाघ बचाओ योजना शुरू की गयी तब ऐसा लग रहा था कि अब बाघ सुरक्षित हो जाएगा और वर्ष 1984 में इसकी संख्या 4005 और वर्ष 1989 में सर्वोच्च 4394 तक हो गयी किन्तु यह सब सरकारी आंकड़े थेे। इन्हें बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया।
उस समय तक भारत में बाघ की गिनती उनके पैरों के निशान से की जाती थी तथा कहा जाता था कि हर बाघ का पंजा दूसरे बाघ के पंजे से अलग होता है। जब एक बाघ प्रेमी एवं विशेषज्ञ ने जो कि सरकारी नौकर नहीं था, इस पूरी गणना के तरीके पर एतराज जताया तो हमारे सरकारी वन अधिकारियों ने इसे एक षडय़ंत्र कहा और पंजा आधारित गणना को सही ठहराया, किंतु जब उस बाघ विशेषज्ञ ने 20 नग बाघ के पंजों के निशान दिये तब पोलपट्टी खुली और उन्हें वन अधिकारियों ने चार अलग- अलग बाघों के बतलाए जबकि वे एक ही बाघ के थे। तब पूरी गणना पर प्रश्न चिन्ह लग गया। इसके बाद वैज्ञानिक पद्धति से गणना प्रारंभ हुई। कई बार ऐसा होता है कि कोई भी वन अधिकारी अपने यहां बाघों की संख्या कम बतलाना चाहता है पर इस पूरे सिस्टम में सिर्फ वन अधिकारी ही दोषी नहीं हैं। हमारा लोकतांत्रिक नजरिया भी इसके लिए जिम्मेवार है ।
आज भारत में असम और कर्नाटक दो ऐसे राज्य हैं जहां बाघ सहित हाथी, गैंडा तथा अन्य प्रजातियां काफी तेजी से फल- फूल रही हैं। असम में जंगलों की रक्षा की कमान वहां के वे वन अधिकारी करते हैं जिनके हाथों में ए. के. 47 जैसे हथियार होतेहैं। इसके परिणामस्वरूप तस्कर और शिकारी वहां जाने से डरता है जबकि भारत के अधिकांश राज्यों में जिम्मेवार वन अधिकारी सिर्फ डंडे से काम चलाते हैं। दूसरी बात हमारा खुफिया तंत्र बहुत कमजोर है। आज भी भारत में सिर्फ 50 रू. से 500 रू तक ईनाम ही खुफियागिरी करने वाले व्यक्ति को मिल सकता है जबकि बाघ की पूंछ का बाल ही हजारों रूपये में बिकता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति शिकार करते पकड़ भी जाए तो उसे सजा शायद ही हो। लगभग बाघ सहित अन्य शिकार के 95 प्रतिशत मामलों में शिकारी बच निकलता है। अधिकांश मामलों में वन अधिकारियों को चालान पेश करने के बाद मुद्दों के संबंध में जानकारी ही नहीं रहती दूसरा पक्ष यह कि सरकारी वकील ज्यादा ध्यान नहीं देता उसे भी फीस कम मिलती है, जबकि होना यह चाहिये कि वन अधिकारियों को अलग से प्रायवेट वकील रखने की सुविधा मिले तथा प्रत्येक पेशी पर उसके लिए फीस की व्यवस्था हो तथा वन अपराधों का न्यायालय भी अलग हो।
सच्चाई यही है कि आज भारत में सिर्फ 1400 के आसपास ही बाघ बचे हैं। यह बड़ी निराशा एवं लज्जा की बात है। एक ओर भारत विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में लगा है तथा दूसरी ओर भारत के वनों से बाघ, तेंदुआ, हाथी, वनभैंसा, बाइसन, (गौर) के अतिरिक्त गीदड़, कौआ, बाज, उल्लू तथा सरीसृपों की कई प्रजातियां अपने अस्तित्व के समाप्त होने की कगार पर हैं। अत: हम सारा दोष सिर्फ सरकारी सिस्टम पर थोप कर आंखे नहीं मूंद सकते, भारत में आज वन्य जीव से जुड़े तमाम स्वयंसेवी संगठनों, राजनेताओं तथा हमारे समाज के जिम्मेवार अन्य लोगों को बहस करने की जरूरत है।
जब बांग्लादेश में बाघ की मौत के जिम्मेवार लोगों को फांसी की सजा हो सकती है तो भारत में क्यों नहीं। भारत में सैकड़ों बाघों की हत्या करने वाले संसारचंद को बड़ी मुश्किल से जेल हुई। कई जातियां इस अवैध कार्य में लिप्त हैं, जिन्हें चिन्हित करके उनके पुर्नवास करने की जरूरत है, साथ निपटारा भी जरूरी है एवं ऐसे गांव जो प्रोजेक्ट टाइगर की सीमा में है, उन्हें तुरंत बाहर किया जाना चाहिये। इसके लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति की बहुत आवश्यकता है। आज नेशनल पार्कों एवं उद्यानों में लगभग 60 प्रतिशत कर्मचारियों की कमी है, इन्हें यथा शीघ्र भरा जाना चाहिये।
स्कूल में मैंने प्रसिद्ध लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख पढ़ा था कि 'क्या निराश हुआ जाए' मुझे लगता है कि बाघ यदि बच सकता है तो सिर्फ भारत में। इसके लिए सारे राज्यों को कर्नाटक तथा असम जैसा रवैया अपनाना होगा। बाघ बिल्ली प्रजाति का सदस्य है। यदि उसे समुचित सुरक्षा मुहैया कराई जाए और उसके अनुकूल वातावरण बनाया जाए तो इसमें तेजी से वंशवृद्धि की क्षमता है।
कुछ दिनों पहले हुई बाघों की गणना के जो नए आंकड़े भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने जारी किए उसके अनुसार देश में बाघों की संख्या 1800 के पार होने की बात कही गई है। यह एक सुखद समाचार है, इससे सारे विश्व में बाघों को बचाने की मुहिम में भारत की विश्वसनीयता बढ़ेगी और भारत टाइगर लैंड बना रहेगा किंतु इस मुहिम में वन्य प्राणी विशेषज्ञों, स्वयं सेवी संगठनों तथा वन वासियों को जोड़ा जाना आवश्यक है क्योंकि इनके बिना हम इस लड़ाई को नहीं जीत सकते।
मेरे बारे में-
वन्यजीवन संरक्षण में अभिरूचि। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में विगत 20 वर्षों से वन्य जीवन संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लेख व न्यूज चैनलों में साक्षात्कार और वार्ताओं के प्रसारण के माध्यम से वन्य उत्पादों व वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति जनसाधारण में जागरूकता लाने का प्रयास। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, बारनवापारा, उदंती और चिल्फी घाटी जिला कवर्धा आदि में वन्य जीवों का छायांकन। संप्रति- वन्य जीव सलाहकार बोर्ड छत्तीसगढ़ शासन के सदस्य एवं सतपुड़ा वन्य जीव फाउंडेशन के माध्यम से वन्य जीव संरक्षण और संवर्धन का कार्य।
पता: एफ -11 शांति नगर सिंचाई कालोनी, रायपुर- मो. 9329116267

बाघ- संरक्षण

वनराज जंगल की सल्तनत छोड़कर बाहर क्यों आते हैं?
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
केंद्र सरकार बाघों के संरक्षण के लिए दो दशक पूर्व से 'प्रोजेक्ट टाइगर' चला रही है। किंतु प्रोजेक्ट टाइगर को यूं सफल नहीं कहा जा सकता है क्योंकि राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघों से खाली हो गया। पन्ना टाइगर रिजर्व एवं मध्य प्रदेश के रणथम्भौर नेशनल पार्क के बाघों की दशा दयनीय हो चली है। उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में बाघों की संख्या आंकड़ेबाजी की भेंट चढ़ी हुई है। इसके बाद भी देश के वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने विगत माह घोषणा की थी कि देश में 1411 से बढ़कर बाघों की संख्या 1700 से ऊपर हो गई है। इसमें पिछली गणना में सुंदरवन को शामिल नहीं किया गया था जबकि इस बार सुंदरवन के बाघ शामिल हैं। फिर बाघों की संख्या कैसे बढ़ गई यह स्वयं में विचारणीय प्रश्न है। आंकड़े भले ही देश में बाघों की संख्या बढ़ा रहे हों किंतु हकीकत एकदम से विपरीत है। भारत में बाघों की दुनिया सिमटती ही जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि पिछले कुछ सालों में मानव और बाघों के बीच शुरू हुआ संघर्ष। बढ़ती आबादी के साथ प्राकृतिक संपदा एवं जंगलों का दोहन और अनियोजित विकास, वनराज को अपनी सल्तनत छोडऩे के लिए विवश होना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो या फिर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि प्रदेशों के जंगल हों उसमें से बाहर निकलने वाले बाघ चारों तरफ अक्सर अपना आतंक फैलाते रहते हैं और बेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाघ और मानव के बीच संघर्ष क्यों बढ़ रहा है? और बाघ जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों विवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत की धरा से बाघ विलुप्त हो जाएंगे।
उत्तर प्रदेश के जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से बाहर निकले बाघों ने विगत साल जिला खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद में करीब दो दर्जन व्यक्तियों को अपना शिकार बनाया था। इसमें मौत का वारंट जारी करके दो बाघों को गोली मारी गयी थी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। इसके अतिरिक्त उत्तरांचलमें भी जंगल से बाहर आकर मानवभक्षी बनने वाले दो बाघों को गोली मारी जा चुकी है। देहरादून के पास मानवभक्षी एक बेजुबान तेंदुआ को गुस्साई भीड़ ने आग में जिंदा जलाकर वहिशयाना ढंग से मौत के घाट उतार दिया था। इसे हम इंसानों के लिए त्रासदी कह सकते हैं लेकिन जितनी त्रासदी यह इंसानों के लिए है उससे अधिक त्रासदी उन बाघों के लिए जो इंसानों का शिकार कर रहे हैं। बाघ जन्म से हिंसक और खूंखार तो होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं।
उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। इसी प्रकार दुधवा नेशनल पार्क तथा कतरनिया वन्यजीव प्रभाग का वनक्षेत्र भारत-नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय खुली सीमा से सटा है। साथ ही आसपास जंगल के किनारे तमाम गांव आबाद हैं। जिससे सीमा पर नेपाली नागरिकों के साथ ही भारतीय क्षेत्र में मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही पड़ता है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन जाते हैं। सन् 2007 में किशनपुर परिक्षेत्र में आबाद गांवों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ ने एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया था। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। सन् 2010 पीलीभीत के जंगल से निकले बाघ द्वारा खीरी, शाहजहांपुर में आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे गए थे। इस पर वन विभाग ने प्रयास करके बाघ को पिंजरे में कैद करके लखनऊ प्राणी उद्यान में भेज दिया था। उत्तर प्रदेश में ही नहीं वरन उत्तरांचल में भी बाघ जंगल से बाहर भाग रहे हैं। 2011 के माह जनवरी व फरवरी के बीते एक पखवाड़े के भीतर उत्तरांचल के जिम कार्बेट पार्क के ग्रामीण सीमाई क्षेत्रों में दो बाघों को मानवभक्षी घोषित करके गोली मारी जा चुकी है। इस साल भी दुधवा टाइगर रिजर्व से सटे किशनपुर वन्यजीव विहार एवं साउथ खीरी फारेस्ट डिवीजन के जंगल के किनारे शिकारियों ने दो तेंदुओं को फांसी पर लटकाकर क्रूरता पूर्वक मौत के घाट उतार दिया था। दुधवा पार्क के जंगलों के साथ ही उससे सटे जिला बहराइच, पीलीभीत, गोंडा के जंगलों में बाघों का शिकार एवं उसके अंगों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अवैध कारोबार करने वाले गैंग की कुख्यात महिला सरगना दलीपों को माह मार्च 2011 में खीरी की निचली अदालत ने पांच साल की सश्रम कठोर कारावास एवं दस हजार रुपए के दंड की सजा सुनाई है। चीन में बाघ के अंगों की बढ़ती मांग के कारण पैसों के लालच में भी भारत के वनक्षेत्रों में बाघों का अवैध शिकार किया जा रहा है। अवैध शिकार के कारण ही राजस्थान के सारिस्का नेशनल पार्क और मध्यप्रदेश के रणथम्भौर नेशनल पार्क से बाघ गायब हो चुके हैं। देश में संकटापन्न दशा से गुजर रहे बाघों की दुनिया को एक तरफ जहां शिकारी समेट रहे हैं वहीं दूसरी तरफ वनक्षेत्रों से बाहर आने वाले बाघों को आतंकी या मानवभक्षी घोषित करके मौत के घाट उतार देना न समस्या का समाधान है और न ही यह बाघों के हित में है।
जन्म से खंूखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना था कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो जाये अथवा जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हों या फिर प्राकृतिक या मानवजनित उसके लिए विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ इंसानों पर हमला करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खंूखार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।
बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे- मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढऩे पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असामान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर- उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में चार साल के बजाय एक साल में बाघों की गणना करने की बात कही है उनका मानना है कि इससे बाघों की सही ढंग से निगरानी हो सकेगी, पर्वेक्षण की दृष्टि से यह बात ठीक है। किंतु सरकार इस तरह की कोई भी दीर्घकालिक योजना बनाने में असफल है जिसमें वन्यजीव जंगल के बाहर न आए। इधर प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारियों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए इससे जंगल में चारा की कमी हो गई है। परिणाम स्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आने को विवश हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे- पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा जंगल के भीतर अनुपयोगी हो रहे चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वास स्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जाएं जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।
(www.dudhwalive.com से )
पता : हिन्दुस्तान ऑफिस, पलिया कला, जिला- खीरी (उप्र) मो. 09415166103, ईमेल- dpmishra7@gmail.com

तीन मेहमान

पिता अपने बेटे से- बेटा, तीन बिस्तर क्यों लगा रहे हो।
बेटा- घर पर तीन मेहमान आएंगे। नानी का इकलौता बेटा, मम्मी के भाई और मेरे मामा।
पिता बेटे से- बेवकूफ, एक बिस्तर और लगा। मैं बताना भूल गया था, मेरा साला भी तो आ रहा है।

प्रीपेड के फायदे

टूटू ने मिठू से पूछा- तुम पोस्टपेड के बजाए प्रीपेड क्यों इस्तेमाल करते हो।
मिठू- प्रीपेड के बहुत फायदे हैं, इसमें कॉल के बाद बिल बढऩे के बजाए कम होता
जाता है।

प्रेरक

मार्क्स और उनकी जीवनसंगिनी
महान दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवनपर्यंत घोर अभाव में जीना पड़ा। परिवार में सदैव आर्थिक संकट रहता था और चिकित्सा के अभाव में उनकी कई संतानें काल-कवलित हो गईं। मार्क्स की पत्नी जेनी माक्र्स बहुत सुंदर महिला थीं। उनके पिता जर्मनी के एक धनी परिवार से सम्बन्ध रखते थे। जेनी वास्तविक अर्थों में कार्ल मार्क्स की जीवनसंगिनी थीं और उन्होंने अपने पति के आदर्शों और युगांतरकारी प्रयासों की सफलता के लिए स्वेच्छा से गरीबी और दरिद्रता में जीना पसंद किया।
जर्मनी से निर्वासित हो जाने के बाद मार्क्स लन्दन में आ बसे। लन्दन के जीवन का वर्णन जेनी ने इस प्रकार किया है - 'मैंने फ्रेंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन गिरवी रख दिए और कोलोन में फर्नीचर बेच दिया। लन्दन के मंहगे जीवन में हमारी सारी जमा पूँजी जल्द ही समाप्त हो गई। सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बहुत बीमार था। मैं स्वयं एक दिन छाती और पीठ के दर्द से पीडि़त होकर बैठी थी कि मकान मालकिन किराये के बकाया पाँच पौंड मांगने आ गई। उस समय हमारे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था। वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी। उन्होंने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने, और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए। सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी। दूसरे दिन हमें घर से निकाल दिया गया। उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठण्ड थी। पूरे वातावरण में मनहूसियत छाई हुई थी।'
और ऐसे में ही दवावाले, राशनवाले, और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उनके सामने खड़े हो गए। मार्क्स परिवार ने बिस्तर आदि बेचकर उनके बिल चुकाए।
ऐसे कष्टों और मुसीबतों से भी जेनी की हिम्मत नहीं टूटी। वे बराबर अपने पति को ढांढ़स बांधती थीं कि वे धीरज न खोएं।
कार्ल मार्क्स के प्रयासों की सफलता में जेनी का अकथनीय योगदान था। वे अपने पति से हमेशा यह कहा करती थीं: 'दुनिया में सिर्फ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं।' (www.hindizen.com से )

विश्व तम्बाकू निषेध दिवसः धुएं से तबाह होती जिंदगी

- कृष्ण कुमार यादव
अकेले भारत में हर साल लगभग आठ लाख मौतें तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं। आज बच्चे- बूढ़े- जवान से लेकर पुरुष- नारी तक सभी वर्गों में तम्बाकू की लत देखी जा सकती है। कभी फैशन में तो, कभी नशे के चस्के में और कई बार थकान मिटाने या गम भुलाने की आड़ में भी इसे लिया जा रहा है।
31 मई को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस है। मई माह की भी अपनी महिमा है। मजदूर दिवस से आरंभ होकर यह तम्बाकू निषेध दिवस पर खत्म हो जाता है। दुनिया के 170 राष्ट्रों ने व्यापक तम्बाकू नियंत्रण संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं पर वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई ठोस पहल नहीं की जाती है। इसके पीछे राजस्व नुकसान से लेकर कार्पोरेट जगत के निहित तत्व तक शामिल हैं, जिनकी सरकारों में जबरदस्त घुसपैठ होती है। ऐसे में तम्बाकू के धुँए का यह जहर धीरे- धीरे सुरसा के मुँह की तरह पूरी दुनिया को निगलने पर आमदा है। 450 ग्राम तम्बाकू में निकोटीन की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी 6 ग्राम मात्रा से एक कुत्ता 3 मिनट में मर जाता है। तम्बाकू के प्रयोग से अनेक दंत रोग, मंदाग्नि रोग हो जाता है। आंखों की ज्योति कम हो सकती है तो दुष्प्रभाव रूप में व्यक्ति बहरा व अन्धा तक हो जाता है। तम्बाकू के निकोटीन से ब्लड प्रेशर बढ़ता है, रक्त संचार मंद पड़ जाता है। फेफड़ों की टीबी में तो इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। यही नहीं तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति नपुंसक भी हो सकता है। कहना गलत न होगा कि तम्बाकू का नियमित सेवन धीरे- धीरे व्यक्ति को मृत्यु के करीब ला देता है और वह असमय ही काल- कवलित हो जाता है।
अकेले भारत में हर साल लगभग आठ लाख मौत तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं। आज बच्चे- बूढ़े- जवान से लेकर पुरुष- नारी तक सभी वर्गों में तम्बाकू की लत देखी जा सकती है। कभी फैशन में तो, कभी नशे के चस्के में और कई बार थकान मिटाने या गम भुलाने की आड़ में भी इसे लिया जा रहा है। घर में बड़ों द्वारा लिया जा रहा तम्बाकू कब छोटों के पास पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता। दुर्भाग्यवश भारत में धर्म की आड़ में भी तम्बाकू का स्वाद लेने वालों की कमी नहीं है। गौरतलब है कि आयुर्वेद के चरक तथा सुश्रुत जैसे हजारों वर्ष पूर्व रचे गए ग्रन्थों में धूम्रपान का विधान है। वैसे, वहाँ पर उसका वर्णन औषधि के रूप में हुआ है, जैसे कहा गया है कि आम के सूखे पत्ते को चिलम जैसी किसी उपकरण में रखकर धुआं खींचने से गले के रोगों में आराम होता है। दमा तथा श्वास संबंधी रोगों में वासा (अडूसा) के सूखे पत्तों को चिलम में रखकर पीना एक प्रभावशाली उपाय माना गया है। आज भी ऐसे लोग मिल जायेंगे जो तम्बाकू को दवा बताते हैं। पवित्र तीर्थ स्थलों पर धुनी पर बैठकर सुलफा, गांजा अथवा तम्बाकू के दम लगाने वाले तथाकथित बाबाओं की तो पूरी फौज ही भरी पड़ी है। सरकारी दफ्तरों में तम्बाकू या धूम्रपान का सेवन करते पकड़े गए तमाम लोगों ने इसे अपने पक्ष में उपयोग किया है। पर ऐसे लोग उस पक्ष को भूल जाते हैं, जहाँ स्कन्दपुराण में कहा गया है कि- 'स्वधर्म का आचरण करके जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह धूम्रपान से नष्ट हो जाता है। इस कारण समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि को इसका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।'
इधर हाल के वर्षों में जिस तरह से इसने तेजी से महिलाओं को चंगुल में लेना आरंभ किया है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बन चुका है। अधिकतर महिलाओं का यह नशा उनकी अगली पीढ़ी में भी जा रहा है क्योंकि मातृत्व की स्थिति में इसका बुरा असर बच्चों पर पडऩा तय है। अब तो महिलाओं के लिए बाकायदा अलग से तम्बाकू उत्पाद भी बनने लगे हैं। स्कूल जाते लड़के- लड़कियां कम उम्र में ही इनका लुत्फ उठाने लगे हैं। उस पर से विज्ञापनों की चकाचौंध भी उन्हें इसका स्वाद लेने की तरफ अग्रसर करती है। फिल्मों- धारावाहिकों में जिस धड़ल्ले से नायक- नायिकाएं तम्बाकू वाले सिगरेट या सिगार को स्टाइल में पीते नजर आते हैं, वह नवयुवकों- नवयुवतियों पर गहरा असर डालता है। ऐसे में यह पता होते हुए भी कि यह स्वस्थ्य के अनुकूल नहीं है, यह स्टेट्स सिम्बल या फैशन का प्रतीक बन जाता है।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद घाटे की भरपाई और बदलते मूल्यों के चक्कर में व्यावसायिक कंपनियों ने तम्बाकू उत्पादों की बिक्री के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करना आरंभ किया। लारीवार्ड कंपनी ने पहल करते हुए पहली बार तम्बाकू उत्पादों के विज्ञापन हेतु सर्वप्रथम 1919 में महिलाओं के चित्रों का उपयोग किया। इसके अगले साल ही सिगरेट को नारी- स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया। 1927 के दौर में तो बाकायदा मार्लबोरो ब्रांड में सिगरेट को फैशन व दुबलेपन से जोड़ कर पेश किया गया। इसी के साथ ही कई नामी- गिरामी कंपनियों ने तमाम अभिनेत्रियों को तम्बाकू उत्पादों के कैम्पेन से जोडऩा आरंभ किया। बाद के वर्षों में जैसे- जैसे नारी- स्वतंत्रता के नारे बुलंद होते गए, स्लिम होने को फैशन माना जाने लगा, इन कंपनियों ने भी इसे भुनाना आरंभ कर दिया। फिलिप मौरिस कंपनी ने 60 के दशक में बाकायदा वर्जिनिया स्लिम्स नाम से मार्केटिंग अभियान आरंभ किया, जिसकी पंच लाइन थी - 'यू हैव कम ए लांग वे बेबी।' इसके बाद तो लगभग हर कंपनी ही तम्बाकू उत्पादों के प्रचार के लिए नारी मॉडलों व फिल्मी नायिकाओं का इस्तेमाल कर रही है। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस वर्ष तम्बाकू निषेध दिवस को महिलाओं पर फोकस किया जाना महत्वपूर्ण व प्रासंगिक भी है।
गौरतलब है कि भारत कि कुल जितनी आबादी है, लगभग उतने ही लोग दुनिया में धुम्रपान करने वाले भी हैं, अर्थात 1 अरब से ज्यादा। इस 1 अरब में धूम्रपान करने वाली करीब 20 फीसदी महिलाएं भी शामिल हैं। आज महिलाओं में धूम्रपान का यह शौक भारत में भी बढ़ते चला जा रहा है। यह हाई सोसायटी तथा समाज के निचले तबके में बखूबी देखने को मिलता है। आंकड़े गवाह हैं कि भारत में करीब 1.4 फीसदी महिलाएं धूम्रपान और करीब 8.4 फीसदी महिलाएं खाने योग्य तम्बाकू का सेवन करती हैं। ऐसे में तम्बाकू सेवन से उनमें तमाम रोग व विकार उत्पन्न होते हैं। इनमें सांस सम्बन्धी बीमारी, फेफड़े का कैंसर, दिल का दौरा, निमोनिया, माहवारी सम्बंधित समस्याएं एवं प्रजनन विकार जैसी बीमारियाँ शामिल हैं। यही नहीं तम्बाकू का नियमित सेवन करने वाली महिलाओं में अक्सर पूर्व- प्रसव भी देखा गया है तथा पैदा होने वाले बच्चे औसत वजन से लगभग 400- 500 ग्राम कम के पैदा होते हैं। इसके साथ ही तम्बाकू सेवन करने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर भी सामान्य महिलाओं की तुलना में 95 फीसदी ज्यादा होती है।
आज जरुरत है कि इस ओर गंभीर पहल की जाय। इन्हीं सबके चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन अब तम्बाकू- उत्पादों का भ्रामक बाजारीकरण, जिसमें परोक्ष- अपरोक्ष रूप में तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रायोजित किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध लगाना भी शामिल है, के बारे में भी सोच रहा है।
जानकर आश्चर्य होगा कि तम्बाकू कंपनियाँ हर साल विज्ञापन पर करीब दस अरब रूपये खर्च करतीं हैं। पर बेहतर होगा कि सरकारों और संगठनों की बजाय इस सम्बन्ध में अपने घर और उससे पहले खुद से शुरुआत की जाय। क्योंकि सक्रियरूप में जहाँ यह खुद के लिए घातक है, वही निष्क्रिय रूप में हमारे परिवेश, परिवार, समाज और अंतत: पूरी सभ्यता को लीलने के लिए तैयार बैठी है!

मेरे बारे में-
जवाहर नवोदय विद्यालय जीयनपुर आजमगढ़ से इंटर तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति-शास्त्र में परास्नातक। डाक सेवाओं मूलत: चिट्ठियों से मेरा गहरा नाता है, इसलिए नहीं कि मैं डाक विभाग से जुड़ा हूं बल्कि इसलिए भी कि मैं साहित्य से जुड़ा हूं। 250 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं व वेब-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। आकाशवाणी पर कविताओं के प्रसारण के साथ तीन दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित काव्य संकलनों में कविताएं प्रकाशित। एक काव्य संकलन 'अभिलाषा' सहित दो निबंध-संकलन 'अभिव्यक्तियों के बहाने' तथा 'अनुभूतियाँ और विमर्श' एवं संपादित कृति 'क्रांति-यज्ञ' का प्रकाशन।
पता: निदेशक, भारतीय डाक सेवा, अंडमान- निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर- 744101,
मो. 09476046232, ईमेल: kkyadav.y@rediffmail.com

कालिंग बेल

- अरुण चन्द्र रॉय
पहली बार
जब लगी होगी
कालिंग बेल
थोड़ी दूर हुई होगी
आत्मीयता और सहजता
जीवन में
प्रवेश हुआ होगा
यांत्रिकता का।
ठिठक गए होंगे
कई बेलौस बेफिक्र कदम
खामोश हो गई होगी
कई अपनापे से भरी पुकार
देहरी से ही
इनके बदले आई होगी
थोड़ी औपचारिकता
रिश्तों में।
कालिंग बेल की
घनघनाहट के बीच
चुप से हुए सांकल
उभरा कुछ अजनबीपन
आपस में।
आज जब
जीवन का अहम् हिस्सा
बन गयी है कालिंग बेल
इनके बजने के साथ ही
ठीक कर लिए जाते हैं
परदे, कपड़े, चादर
मेज पर पड़ी किताबें
सही स्थान पर रख दी जाती हैं
चीजें सजाकर
एक हंसी पसर जाती है
अधरों पर, छद्म ही भले।
कई बार
इनके बजने से
उभर आते हैं दर्जनों चेहरे
उनसे जुड़ी यादें
उनसे जुड़े मुद्दे
कुछ देते हुई खुशी
कुछ बेमौसम सी।
संगीतमय होती नहीं है
कालिंग बेल
फिर भी कई बार
कर्णप्रिय लगती है यह
खास तौर पर
जब हो रहा हो किसी का
इन्तजार।
कालिंग बेल
वैसे तो है
निर्जीव ही लेकिन
सच कहूँ तो
कई बार
होते हैं भाव, संवेदना
इनमें भी
जैसे किसी के फुर्सत में
तो किसी के
जल्दी में होने के बारे में
बता देती है
कालिंग बेल
क्योंकि
अखबार वाले पाण्डेय जी
जब लेने आते हैं
महीने का बिल
बजा देते हैं जल्दी जल्दी
कई बार कालिंग बेल
समय नहीं है उनके पास भी।
आज के बदलते दौर में
कई बार आशंकित भी
करती है कालिंग बेल
खासतौर पर
जब भुगतान नहीं की गई हो
बैंक की कोई किस्त
चुकाया नहीं हो
आधुनिक महाजनों का
आकर्षक सा दिखने वाला उधार
ऐसे में युद्ध के मैदान में
बजते इमरजेंसी अलार्म सी
लगती है कालिंग बेल।
पहली बार जब मैं
आया था तुम्हारे द्वार
बजाई थी कालिंग बेल
थरथराते हाथों से
कहो ना
कैसा लगा था तुम्हें
क्या पहचान पाई थी
मेरे तेजी से
धड़कते ह्रदय का स्पंदन।
माँ को कभी
प्रिय नहीं लगी यह
कालिंग बेल
अच्छी लगती है
उसे अब भी
सांकल की आवाज
जिससे पहचान लेती है वह
बाबूजी को, मुझे, छुटकी को,
पूरे मोहल्ले को
डरती नहीं थी वह
सांकल की आवाज से
समय- असमय कभी भी।

मेरे बारे में -
पेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार। दिल्ली और एनसीआर की कई विज्ञापन एजेंसियों और नामी- गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो का संचालन। देश, समाज व अपने लोगों से सरोकार बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया।
पता: प्लाट नं.- 99, ज्ञान खंड -।।। , इंदिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश 201012
मो. 09811721147, www.aruncroy.blogspot.com

उनके बाल छू लेने की ख्वाहिश मेरे दिल में ही रह गई ...

कवि सुमित्रानंदन पन्त से अबोध मन की एक मुलाकात...
- रश्मि प्रभा
आज मैं आपको प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पन्त जी से मिलवाने, समय के उस बिन्दु पर ले चलती हूं, जहाँ मुझे नहीं पता था कि वे कौन हैं, उनकी महत्ता क्या है!
नन्हा बचपन, नन्हें पैर, नन्ही तिलस्मी उड़ान सपनों की और नन्ही- नन्ही शैतानियां। उम्र के इसी अबोध, मासूमियत भरे दिनों में मैं अपने परिवार के साथ इलाहाबाद गई थी। मेरे पापा, मेरी अम्मा, हम पांच भाई- बहन अपने छोटे भाई के फूल संगम में प्रवाहित करने गए थे। उम्र को मौत के मायने नहीं मालूम थे, बस इतना पता था कि वह नहीं है- फूल, संगम... अर्थ से बहुत परे थे।
आंसुओं में डूबे दर्द के कुछ टुकड़े मेरे पापा, मेरी अम्मा ने संगम को समर्पित किया, पानी की लहरों के साथ लौटती यादों को समेटा और लौट चले वहां, जहां हम ठहरे थे। हां, संगम का पानी और मां की आंखों से गिरते टप- टप आंसू याद हैं और याद है कि हम कवि पन्त के घर गए (जो स्टेनली रोड पर था)। मां उन्हें 'पिता जी' कहती थीं, कवि ने उनको अपनी पुत्री का दर्जा दिया था, और वे हमारे घर की प्रकृति में सुवासित थे, बाकी मैं अनजान थी।
उस उम्र में भी सौंदर्य और विनम्रता का एक आकर्षण था, शायद इसलिए कि वह हमारे घर की परम्परा में था।
जब हम उनके घर पहुंचे, माथे पर लट गिराए जो व्यक्ति निकला... उनके बाल मुझे बहुत अच्छे लगे, बिल्कुल रेशम की तरह। मैं बार- बार उनकी कुर्सी के पीछे जाती... एक बार बाल को छू लेने की ख्वाहिश थी। पर जब भी पीछे जाती, वे मुड़कर हंसते... और इस तरह मेरी हसरत दिल में ही रह गई।
उनके साथ उनकी बहन 'शांता जोशी' थीं, जो हमारे लिए कुछ बनाने में व्यस्त थीं। मेरे लिए मीठा, नमकीन का लोभ था, सो उनके इर्द-गिर्द मंडराती मैंने न जाने कितनी छोटी- छोटी बेकार की कविताएं उन्हें सुनाईं...
उन्होंने कितनी सुनीं, कितनी उबन हुई पता नहीं, मैं बस रिकॉर्ड- प्लेयर की तरह बजती गई।
दीदी और भैया ने एक जुगलबंदी बनाई थी।
'सुमित्रानंदन पन्त, जिनके खाने का न अंत', ... मैं भी फक्र से यह सुनाने वाली ही थी कि दीदी, भैया ने आंख दिखाया और मैं बड़ी मायूसी लिए चुप हो गई।
फिर पन्त जी ने अपनी कवितायें गाकर सुनाईं, मां और दीदी ने भी सुनाया... मैं कब पीछे रहती - मैंने भी सुनाया, 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए ...'
उसके बाद मैंने सौन्दर्य प्रिय कवि के समक्ष अपने जिज्ञासु प्रश्न रखे - 'नाना जी, पापा हैं तो अम्मा हैं, मामा हैं तो मामी, दादा हैं तो दादी...फिर यहां नानी कहां हैं?' प्रकृति कवि किसी शून्य में डूब गए, अम्मा, पापा सकपकाए, मैं निडर उत्तर की प्रतीक्षा में थी (बचपन में मां, पिता की उपस्थिति में किसी से डर भी नहीं लगता)।
कुछ देर की खामोशी के बाद कवि ने कहा ,'बेटे, तुमने तो मुझे निरुत्तर कर दिया, इस प्रश्न का जवाब मेरे पास नहीं...' क्या था इन बातों का अर्थ, इससे अनजान मैं अति प्रसन्न थी कि मैंने उनको निरुत्तर कर दिया, यानी हरा दिया।
इसके बाद सुकुमार कवि ने सबका पूरा नाम पूछा - रेणु प्रभा, मंजु प्रभा, नीलम प्रभा, अजय कुमार और मिन्नी।
सबके नाम कुछ पंक्तियां लिखते वे रुक गए, सवाल किया- 'मिन्नी? कोई प्रभा नहीं'- और आंखें बंदकर कुछ सोचने लगे फिर अचानक कहा- 'कहिये रश्मि प्रभा, क्या हाल है?'
अम्मा, पापा के चेहरे की चमक से अनजान मैंने इतराते हुए कहा-'छि:! मुझे नहीं रखना ये नाम, बहुत खराब है। एक लड़की- जिसकी नाक बहती है, उसका नाम भी रश्मि है....'पापा ने डांटा -'चुप रहो', पर कवि पन्त ने बड़ी सहजता से कहा, 'कोई बात नहीं, दूसरा नाम रख देता हूं'- तब मेरे पापा ने कहा- 'अरे इसे क्या मालूम, इसने क्या पाया है... जब बड़ी होगी तब जानेगी और समझेगी'
जैसे- जैसे समय गुजरता गया, वह पल और नाम मुझे एक पहचान देते गए।
वह डायरी अम्मा ने संभालकर रखा है, जिसमें उन्होंने सबके नाम कुछ लिखा था। मेरे नाम के आगे ये पंक्तियां थीं,
'अपने उर की सौरभ से
जग का आंगन भर देना'...
कवि का यह आशीर्वाद मेरी जिन्दगी का अहम हिस्सा बन गया... इस नाम के साथ उन्होंने मुझे पूरी प्रकृति में व्याप्त कर दिया।
'पन्त की बेटी' का संबोधन क्या मिला महाविद्यालय में, कि खुशी के आवेग में मेरी माँ (सरस्वती प्रसाद) ने कवि पन्त तक अपनी खुशी के चंद शब्द भेजे, लौटती डाक में पिता का स्नेहिल आशीष मिला और संबोधन को सार्थकता मिली। 1964 में कवि पन्त से हम सपरिवार मिले और उन्होंने विदाई में अपनी पुस्तक 'लोकायतन' की प्रति के साथ अपनी भावनाओं का सौभाग्य अपनी बेटी के नाम लिखा- बेटी सरस्वती (मेरी माँ) के प्रयाग आगमन पर ....
16/10/६४

चन्द्रकिरण किरीटिनी

तुम कौन आती
मौन स्वप्नों के चरण धर।
हृदय के एकांत शांत स्फटिक क्षणों को
स्वर्ग के संगीत से भर।
मचल उठता ज्वार, शोभा सिन्धु में जग
नाचता आनंद पागल
शिखर लहरों पर
थिरकते प्रेरणा पग।
सप्तहीरक रश्मि दीपित
मर्म के चैतन्य का
खुलता गवाक्ष रहस्य भरकर
अमर वीणाएं निरंतर
गूँज उठतीं- गूँज उठतीं
भाव नि: स्वर ...
तारकों का हो खुला स्वप्नाभ अम्बर।
वैश्य लय में बाँध जीवन को
छिपाता मुख पराशर
मर्त्य से उठ स्वर्ग तक
प्रासाद जीवन का अनश्वर
रूप के भरता दिगंतर।
चन्द्रकिरण किरीटिनी, तुम कौन आती
मौन स्वप्न सजग चरण धर।

पता: NECO NX flat no- 42,
Near Dutt mandir chauk ,
Viman Nagar pune - 14,
मो. 09371022446

बेकिंग से 'पौपी' और उसके दोस्तों के जीवन में घुली मिठास

- टेरेसा रहमान
पौपी और उसके साथियों का परिचय जब से बेकिंग से हुआ है, उनकी जिंदगी लगभग पूरी तरह से हल्की और मीठी हो गई है, बिल्कुल खाने की उन चीजों की तरह जो वे क्लास में बनाती हैं। उनमें से अधिकाँश के लिए बेकिंग कुछ नया है क्योंकि क्लास में आने से पहले उन्होंने कभी ओवन देखा भी नहीं था।
जब 26 वर्षीय, पौपी बोरगोहाइन, जोश में बताती है कि उनके कुरकुरे सुनहरे- भूरे बिस्कुट खाते समय अंदर से इतने खस्ता और अलग क्यों होते हैं, हवा में ताजे बने केक और बिस्कुटों की खुशबू फैल जाती है। पौपी को बेक करना (सेंक कर पकाना) बेहद पसंद है। वो तब सबसे ज्यादा खुश होती है जब वह किचन में अलग- अलग सामग्रियों के साथ काम करती है, नई चीजें बनाती है और मीठी या कुरकुरी खाने की चीजें बना रही होती है।
युवा पौपी जिसने काफी बुरे दिन देखें हैं, के जीवन में बेकिंग एक नया चाव है। जब पौपी केवल सात साल की थी उसके शरीर के एक हिस्से में लकवा मार गया था और जब वह दसवीं की परीक्षा में फेल हुई, वो बहुत ही दुखी थी और उसे अपने भविष्य के बारे में कोई खबर नहीं थी। वो और उसका परिवार, खासकर उसकी गृहणी माँ अनीता को उसकी अक्षमता को स्वीकारने में बहुत मुश्किल हो रही थी। अनीता कहती हैं, 'मेरी इच्छा होती कि मेरी बेटी कुछ ढंग का काम करे और आत्मनिर्भर बने। मैं नहीं चाहती थी कि वो खाली बैठी रहे।' इसी समय पौपी ने गौहाटी में बहु-अक्षमता वाले युवाओं के पुनर्वास और प्रशिक्षण देने वाले एक केंद्र शिशु सरोथी द्वारा केटरिंग, हाउसकीपिंग और फूड प्रोसेसिंग में एक वर्ष के व्यवसायिक कोर्स के बारे में सुना। फाउंडेशन फॉर सोशल ट्राँसफॉरमेशन (एफ.एस.टी.) द्वारा समर्थित और शहर के जाने माने संस्थानों दि इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, केटरिंग टेक्नॉलजी एण्ड अप्लाइड न्यूट्रिशन (आई.एच.एम.) और दि नार्थ ईस्ट होटल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (एन.ई.एचएमआई.) के प्राध्यापकों के साथ केंद्र विभिन्न अक्षमता- पोलिया और सेरेब्रल पालिसी से लेकर मल्टीपल स्केलेरोसिस और लोकोमोटर डिस्फंगक्शन- वाले युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है।
जब से पौपी और उसके दस सहपाठियों- जिसमें से नौ लड़कियाँ का परिचय बेकिंग से हुआ है, उनकी जिंदगी लगभग पूरी तरह से हल्की और मीठी हो गई है, बिल्कुल खाने की उन चीजों की तरह जो वे क्लास में बनाती हैं। उनमें से अधिकाँश के लिए बेकिंग कुछ नया है क्योंकि शिशु सरोथी में आने से पहले उन्होंने कभी ओवन देखा भी नहीं था। अब, जाहिर है ओवन के बिना वो रोजमर्रा की जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। पौपी, जो बैसाखियों के सहारे चलती फिरती है, अपने भविष्य के बारे में उत्साहित है और उसकी माँ भी जिन्हें उसके बनाए बिस्कुट बाजार में मिलने वाले बिस्कुटों से ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं। अब पौपी को गौहाटी के किसी बड़े होटल के बेकरी विभाग में नौकरी मिलने की उम्मीद है। पौपी की तरह, 20 वर्ष की व्हील चेयर इस्तेमाल करने वाली सिलसिला दास जिसे बचपन में पोलियो हो गया था, अपने बेंकिग के पाठों का मजा लेती है। वो जल्दी जल्दी उन चीजों के नाम गिनाती है जो वो आसानी से बना सकती है- केक, पेस्ट्री, बन, पीजा, ब्रेड और बिस्कुट। वो मुस्कुरा कर कहती है- 'उम्मीद है मैं किसी दिन अपनी बेकरी शुरू कर सकूंगी'। शिशु सरोथी में प्रोजेक्ट की कॉडिनेटर, रश्मि बरुआ, पौपी और सिलसिला जैसी लड़कियों की आकाँक्षाओं को समझती हैं।
वे जानती हैं कि पोलियो और अन्य अवस्थाओं के कारण अक्षमता से प्रभावित होना इनमें से कुछ बच्चों का दुर्भाग्य था, जबकि कुछ जन्म से अक्षम थे। वे यह भी समझती हैं कि ये बच्चे भी अपने अन्य सक्षम साथियों के समान हकदार हैं लेकिन उनमें से केवल कुछ को ही समान शिक्षा और प्रशिक्षण अवसरों का लाभ मिला है। एक अक्षम महिला के लिए जीवन और भी अधिक चुनौती भरा होता है। इसीलिए शिशु सरोथी में किया जाने वाला कार्य और भी महत्वपूर्ण है। रश्मि कहती हैं, 'हमारा उद्देश्य भिन्न- क्षमताओं वाले युवाओं को कुशल, आत्मनिर्भर और समाज के उत्पादक सदस्य बनने में सशक्त बनाना है। यह कार्यक्रम शैक्षिक विभाजन को पाटने, बहु अवसर और भेदभाव समाप्त करने के लिए है।' इस प्रयास में ट्रेनियों को केटरिंग तकनीक के उप-क्षेत्रों पर काम होते हुए दिखाने के लिए आई.एच.एम. ले जाया जाता है। सिलसिला को खासतौर पर अभ्यास सत्रों में आनंद आता है जहाँ वह फलों के रस, चटनी, अचार वगैरह के साथ बिस्कुट, ब्रेड, केक, पेस्ट्री, मफिन, बन, पीजा और सेंडविच जैसी अलग- अलग चीजें बनाने की कोशिश करती है। वह गर्व से कहती है, 'अभ्यास के दौरान बनाई गई ये चीजें वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को बेची जाती हैं और उनसे होने वाली आमदनी का इस्तेमाल अभ्यास सत्रों के लिए कच्चा सामान और सामग्री खरीदने के लिए किया जाता है। हम पार्टियों और मीटिंगों के लिए भी आर्डर लेते हैं और सफल रूप से उन्हें पूरा भी करते आ रहे हैं। अब वो क्रिसमस केकों के लिए आर्डर लेने की आशा लगाए हैं।' भिन्न- क्षमताओं वाले युवाओं के समूह के साथ काम करना प्रशिक्षकों के लिए भी एक चुनौती रहा। बरुआ कहती हैं, 'हमारी सबसे बड़ी बाधा चलने- फिरने और बोलने में सीमितता वाले, अधिक सामान्य सामाजिक कौशल और व्यवहार न रखने वाले, कमजोर याददाश्त वाले और कम सक्रियता स्तर के भिन्न- क्षमताओं वाले युवाओं के समूह के साथ काम करना रही है। कभी कभी, हमें पाठ दोहराने पड़ते हैं। लेकिन ये छात्र बहुत अच्छी तरह से सीख रहे हैं।'
झरना सिन्हा, एक बेकरी की प्रशिक्षिका आज एक संतुष्ट महिला हैं। वे कहती हैं 'पहले मैंने गृहणियों, दुल्हन बनने वाली लड़कियों और पेशेवरों को सिखाया है। लेकिन यह भिन्न क्षमताओं वाले भिन्न छात्रों का अलग समूह है। कुछ लिख नहीं सकते तो कुछ वजन नहीं कर सकते। लेकिन मिलजुल कर वे अपनी इनकमियों को पूरा कर लेते हैं।' मैं उनकी प्रगति से वाकई खुश हूँ।
राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा 'महिलाओं के रोजगार या अक्षमता अधिकार' पर प्रोयाजित और दिल्ली स्थित सोसाइटी फॉर डिएबिलिटि एण्ड रिहैबिलिटेशन स्टडीज द्वारा संपन्न अध्ययन, उल्लेख करता है कि जनगणना 2001 के अनुसार, भारत में अक्षमता वाले 2.19 करोड़ लोग हैं जो कुल जनसंख्या का 2.13 प्रतिशत हिस्सा हैं। इनमेंं देखने, सुनने, बोलने, चलने-फिरने और मानसिक अक्षमता वाले व्यक्ति शामिल हैं। अक्षमताओं के साथ 75 प्रतिशत व्यक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, 49 प्रतिशत अक्षम जनसंख्या साक्षर है और केवल 34 प्रतिशत किसी न किसी रोजगार में हैं। जनगणना 2001 के अनुसार 93.01 लाख महिलाएँ अक्षमताओं के साथ हैं, जो करीब- करीब कुल अक्षम जनसंख्या का आधा (42.46 प्रतिशत) हिस्सा हैं। अक्षमता वाली महिलाओं को शोषण और दुव्र्यवहार से सुरक्षा की आवश्यकता होती है। चूंकि ऐसी महिलाओं के लिए उत्पादक कार्य या अर्थपूर्ण रोजगार के बहुत कम अवसर मौजूद हैं, वे अपनी तरह के पुरुष के मुकाबले अपने परिवार के लिए और भी बड़े बोझ के तौर पर देखी जाती हैं। उनकी मजबूरी में वित्तीय निर्भरता के साथ, वे एक बहुत अधिक कमजोर समूह बन जाती हैं। इसी कारण शिशु सिरोथी के भूतपूर्व छात्रों द्वारा दिया गया संदेश इतना महत्वपूर्ण है।
सिन्हा इंगित करती हैं कि हो सकता है कि उनके कुछ छात्रों के लिए सामान्य बेकरी में काम करना मुश्किल हो लेकिन कांउटर पर बिक्री, दस्तावेजीकरण, उद्यमियों और सुपरवाइजरों के तौर पर वे जरूर अच्छा काम कर सकते हैं। वे कहती हैं, 'उन्हें बेकिंग में विभिन्न प्रक्रियाओं की बुनयादी जानकारी है। मुझे पूरा विश्वास है कि उनके कौशलों को किसी भी बेकरी में सराहा जाएगा। अंतत: बेकरी एक व्यापार ही है- और फायदा मायने रखता है। ज्ञान और काम के साथ सम्मान मिलता है। यदि एक अक्षम व्यक्ति ईमानदारी से काम कर सकता है, तो वे निश्चय ही इस क्षेत्र में संपत्ति बन सकते हैं।' इसी दौरान, शिशु सिरोथी पर आकर्षक खाने की चीजें बनाने का प्रशिक्षण पाने वाली महिलाएँ अपने भविष्य की योजना बना सकती हैं कि वे अपना खुद का काम करना चाहती हैं, चलती-फिरती दुकान चलाना चाहती हैं या किसी सामान्य बेकरी में काम करना चाहती हैं। उनके प्रशिक्षण के साथ वो ऑफिसों और संस्थानों में नाश्ता/खाना देने के साथ साथ शाम के समारोहों के लिए चीजें बनाने का काम भी कर सकती हैं। सिन्हा आगे यह भी कहती हैं, 'कुछ घर पर चीजें बनाना और विभिन्न होटलों और दुकानों में देने का काम भी चुन सकती हैं। बाकी घर पर सिखाने का काम कर सकते हैं। बहुत सारे अवसर हैं बस चुन जाने के इंतजार में हैं।' (विमेन्स फीचर सर्विस)

हम सब हाथ धोकर पीछे पड़ें हैं!

- सुशील जोशी
आजकल तो साबुन से भी काम नहीं चलता, हैंड सेनिटाइजर चाहिए। कुल मिलाकर समाज का एक तबका स्वच्छता के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। और स्वच्छता एक बड़ा कारोबार बन गया है।
मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि देवास के राजा के बच्चों को जब खेलने के लिए खिलौने दिए जाते थे तो उबालकर दिए जाते थे। कहने का मतलब कि उन्हें आधुनिक भाषा में निर्जीवीकृत या स्टेरिलाइज कर दिया जाता था। मुझे यकीन है कि यह गप है मगर आजकल स्वच्छता का बहुत बोलबाला है। फर्श को पोंछा लगाना है तो सिर्फ पानी से नहीं, एयर कंडीशनर लगवाना है तो स्वच्छ हवा वाला, खाने की चीजें लेना है तो एकदम स्वच्छ होनी चाहिए, बार- बार हाथ धोना है तो सिर्फ पानी से नहीं, साबुन से। आजकल तो साबुन से भी काम नहीं चलता, हैंड सेनिटाइजर चाहिए। कुल मिलाकर समाज का एक तबका स्वच्छता के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। और स्वच्छता एक बड़ा कारोबार बन गया है।
स्वच्छता के प्रति इस ललक को देखते हुए मुझे याद आई स्वच्छता परिकल्पना (हायजीन हायपोथीसिस) की। मोटे तौर पर यह परिकल्पना कहती है कि बहुत अधिक स्वच्छता कई रोगों को न्यौता है। खासतौर से बहुत अधिक स्वच्छता के कारण एलर्जी (जैसे दमा और एक्जीमा) तथा कई अन्य ऐसे रोगों में वृद्धि होती है जिन्हें चिकित्सा की भाषा में स्व- प्रतिरक्षी रोग कहते हैं। सुनने में यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है मगर इस परिकल्पना के पीछे अब काफी ठोस तथ्यों व समझ का आधार है।
सबसे पहले स्वच्छता परिकल्पना लंदन स्कूल ऑफ हायजीन एण्ड ट्रॉपिकल मेडिसिन के व्याख्याता डेविड स्ट्रेचेन ने 1989 में प्रस्तुत की थी। उन्होंने अपने अध्ययन के दौरान पाया था कि बड़े परिवारों की अपेक्षा छोटे परिवारों में बच्चों को हे फीवर (मौसमी बुखार), एक्जीमा व दमा होने की आशंका ज्यादा होती है। डा. स्ट्रेचेन के मुताबिक मौसमी बुखार 'औद्योगिक क्रांति के बाद का राग है।' उन्होंने देखा कि जिन परिवारों में 4- 5 बच्चे होते हैं उनमें ये रोग कम होते हैं जबकि एक बच्चे वाले परिवारों में ज्यादा। और तो और, उन्होंने यह भी देखा कि यदि परिवार में एक से ज्यादा बच्चे हैं तो छोटे बच्चों में ये बीमारियां कम होती हैं। मतलब सवाल यह नहीं है कितने बच्चे पैदा हुए हैं, बल्कि यह है कि जब कोई बच्चा पैदा हुआ, उस समय परिवार में कितने बच्चे थे।
अपने अवलोकनों की व्याख्या के लिए उन्होंने स्वच्छता परिकल्पना दी थी। उनका कहना था कि संभवत: 'छोटे बच्चों को बचपन में हुए संक्रमणों ने एलर्जी रोगों की रोकथाम की है। यह संक्रमण उन तक बड़े भाई- बहनों के साथ अस्वच्छ (अन- हायजीनिक) संपर्क के कारण पहुंचा होगा।' तो वे कह रहे थे कि अस्वच्छता के कारण जो संक्रमण होते हैं वे कई एलर्जी जन्य रोगों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। यही मूल स्वच्छता परिकल्पना है।
इससे कई बरसों पहले एक अन्य परिकल्पना प्रतिपादित की गई थी जिसे कीटाणु परिकल्पना कहते हैं। इतिहास में झांके तो पता चलता है कि सदियों से लोगों को यह अनुमान था कि शरीर में बाहर से प्रवेश करने वाली कुछ चीजें मनुष्य को बीमार बनाती हैं मगर कीटाणु सिद्धांत के आधुनिक संस्करण का श्रेय मुख्य रूप से जॉन स्नो, फ्रांसेस्को रेडी, रॉबर्ट कोच और जोसेफ लिस्टर के कार्यों को जाता है। अधिकांश रोग कीटाणुओं के कारण होते हैं, यह सिद्धांत 1870 के आसपास प्रचलित हुआ और इसने आधुनिक चिकित्सा पर गहरा प्रभाव डाला। एंटीबायोटिक का बड़े पैमाने पर उपयोग इसी सिद्धांत की देन है। पर्यावरण को कीटाणु मुक्त रखने की बात भी इसी सिद्धांत का नतीजा कही जा सकती है। मगर स्वच्छता परिकल्पना ने हमारा ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया है कि रोग फैलाने के साथ- साथ कई 'कीटाणु' रोगों की रोकथाम में भी सहायक हैं।
समय के साथ स्वच्छता परिकल्पना में नए- नए आयाम जुड़ते गए हैं। इस सफर पर थोड़ी चर्चा हो जाए। सबसे पहली बात तो यह कहना होगा कि परिकल्पना में कहा यह जा रहा है कि आधुनिक विकास के साथ जब रहन- सहन में परिवर्तन हुए और स्वच्छता बढ़ी तो हमारा संपर्क कई सूक्ष्म व अन्य जीवों से समाप्त या बहुत कम होता गया। यह स्थिति तथाकथित विकसित देशों में ज्यादा देखने में आती है। इसके बाद अगली बात यह कही जा रही है कि उक्त सूक्ष्म व अन्य जीवों से संपर्क हमारे शरीर व शरीरक्रिया पर कई असर डालता है। इनमें से एक असर हमारी प्रतिरोध क्षमता पर भी होता है। प्रतिरोध क्षमता पर असर होने के परिणामस्वरूप एलर्जी- जन्य रोगों में वृद्धि होती है। एलर्जी का मतलब ही होता है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र बाहरी पदार्थों के खिलाफ अति- सक्रिय हो जाए। इनके अलावा कई अन्य रोग ऐसे भी होते हैं जिनमें हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं हम पर ही हमला कर देता है। एक किस्म का मधुमेह, गठिया वगैरह इसी तरह के रोग हैं। इन्हें आत्म- प्रतिरक्षी रोग कहते हैं। आजकल तो यहां तक कहा जा रहा है कि कोलाइटिस, क्रोह्न्स रोग और ऑटिज़्म भी अति- स्वच्छता के कारण बढ़ते हैं।
मगर इस तरह की परिकल्पनाओं की जांच खासी मुश्किल होती है। जब स्वच्छता के हालात बदलते हैं, तो कई अन्य बातें भी साथ- साथ बदलती हैं। जैसे खानपान बदलेगा, जीवन के तौर- तरीके बदलेंगे, शारीरिक मेहनत में फर्क पड़ेगा वगैरह। तो इन सबका मिला- जुला असर सेहत पर होगा। इन सब अलग- अलग कारकों में किसी एक कारक को अलग करके उसका असर परखना आसान नहीं है। इसमें हमारे पास दो ही रास्ते होते हैं। पहला है रोग प्रसार विज्ञान यानी एपिडिमियोलॉजी का रास्ता जिसमें बड़े पैमाने पर तरह- तरह के आंकड़े इकट्ठे करके कार्य- कारण सम्बंध ढूंढने के प्रयास होते हैं। और दूसरा है यह स्थापित करना कि यदि किसी कारक का असर होने की संभावना है तो उस असर की क्रियाविधि क्या है।
स्वच्छता परिकल्पना इन दोनों कसौटियों पर बार- बार खरी उतरी है। जैसे आंकड़े दर्शाते हैं कि कई सारे एलर्जी जन्य रोग सिर्फ 'विकसित' देशों में होते हैं। तथाकथित अल्प या अविकसित देशों में ये रोग अनसुने हैं या इनका प्रकोप नगण्य है। इसी प्रकार से अध्ययनों से पता चला है कि जो लोग अल्प विकसित देशों से औद्योगिक देशों में जाकर बसते हैं उन्हें प्रतिरक्षा तंत्र सम्बंधी दिक्कतें शुरू हो जाती हैं और समय के साथ बढ़ती जाती हैं। कुछ प्रयोगों में यह भी देखा गया है कि यदि बचपन में चूहों का संपर्क वायरसों से करवा दिया जाए तो उनमें डायबीटिज की संभावना कम हो जाती है।
पिछले वर्षों में मिले प्रमाणों के आधार पर स्वच्छता परिकल्पना का दायरा बढ़ता गया है। 1989 में स्ट्रेचेन ने इसमें मात्र सूक्ष्मजीव संक्रमणों को शामिल किया था। मगर धीरे- धीरे पता चला है कि तमाम किस्म के परजीवी, जिनमें कृमि भी शामिल हैं, हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को गढऩे में भूमिका निभाते हैं और इनकी अनुपस्थिति में प्रतिरक्षा तंत्र का विकास प्रतिकूल प्रभावित हाता है। एक ओर तो इस परिकल्पना के दायरे में नए- नए जीवों से हमारा संपर्क शामिल होता गया है, वहीं दूसरी ओर नई- नई बीमारियां भी इसके दायरे में आती गई हैं। जैसे 2009 में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि कृमियों का संक्रमण भी हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को ढालता है। देखा गया है कि कुछ जिनेटिक परिवर्तन भी कृमियों के असर से ही हुए हैं।
इस संदर्भ में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक उदाहरण हमारी आंतों में पलने वाले जीवाणुओं का है। ये जीवाणु हमारी पाचन क्रिया में तो मदद करते ही हैं, हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को भी प्रशिक्षित करते हैं। इस बात को कई अध्ययनों में देखा गया है। जैसे 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि पेट की एक गड़बड़ी इरिटेबल बॉवेल सिंड्राम से ग्रस्त व्यक्तियों को आठ सप्ताह तक बाइफिडाबैक्टीरियम इंफैंटिस नामक जीवाणु की खुराक देने पर उनके लक्षणों में नाटकीय सुधार आया और उनमें प्रतिरक्षा कोशिकाओं का संतुलन भी बेहतर हो गया।
इसी प्रकार से 2010 में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि क्लॉस्ट्रिडियम परफ्रिंजेंस बड़ी आंत में प्रतिरक्षा तंत्र को नियंत्रण में रखता है। यह बैक्टीरिया सामान्यत: आंतों का बाश्ंिादा है। यह भी देखा गया है कि खंडित तंतुयुक्त बैक्टीरिया उन टी कोशिकाओं की वृद्धि को बढ़ावा देते हैं जो रोगकारी तत्वों से लडऩे में मददगार होती हैं। टी कोशिकाओं का एक प्रकार होता है टीएच-17 कोशिका। यदि इनका उत्पादन बहुत ज्यादा मात्रा में होने लगे तो ये स्वयं अपनी ही कोशिकाओं पर हमला बोल देती हैं। इनके इस हमले को रोकने का काम नियामक टी कोशिकाएं करती हैं। ऐसा लगता है कि आंतों में पलने वाले कुछ बैक्टीरिया नियामक टी कोशिकाएं पैदा करने में मददगार होते हैं। अर्थात बैक्टीरिया की आबादी में एक संतुलन भी जरूरी है।
उदाहरण के लिए मिनेसोटा विश्वविद्यालय में एक दिलचस्प मामला आया था। एक महिला को जानलेवा दस्त लगे हुए थे। सारे उपचार आजमाने के बाद डाक्टर ने तय किया कि उसे किसी स्वस्थ व्यक्ति के मल में उपस्थित बैक्टीरिया का मिश्रण दिया जाए। यह मिश्रण उसकी आंत में पहुंचने के 48 घंटे के अंदर उसके दस्त बंद हो गए। दरअसल, बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीवों और हमारे प्रतिरक्षा तंत्र के विकास व कामकाज के बीच सम्बंध को देखते हुए चिकित्सा वैज्ञानिक आजकल इन पर आधारित उपचारों की बातें कर रहे हैं। स्विस इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एण्ड आस्थमा रिसर्च के प्रतिरक्षा तंत्र वैज्ञानिक बताते हैं कि नियामक टी कोशिकाओं का असंतुलन सीधे- सीधे एलर्जी रोगों के लिए जिम्मेदार पाया गया है। एक अन्य वैज्ञानिक पौल फोरसाइथ का तो मत है कि यदि हम यह पता लगा सकें कि ये सूक्ष्मजीव प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज को किस विधि से प्रभावित करते हैं, तो हम कई ऐसे रोगों के लिए इनका उपयोग कर पाएंगे जो प्रतिरक्षा तंत्र की गड़बड़ी की वजह से होते हैं। और बात सिर्फ सूक्ष्मजीवों तक सीमित नहीं है। कृमियों का उपयोग भी चिकित्सा में करने की बातें हो रही है। इस संदर्भ में एक अनोखा उदाहरण हाल ही में सामने आया है। एक बच्चा ऑटिज़्म से पीडि़त था। ऑटिज़्म एक रोग है जिसमें बच्चे या तो किसी बात पर ध्यान नहीं लगा पाते या लंबे समय तक किसी एक ही चीज में उलझे रहते हैं। कुछ मामलों में बच्चों में खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति भी होती है। इस बच्चे को तमाम किस्म की दवाइयां दी गर्इं मगर वे कुछ ही दिनों के लिए असरकारक रहती थीं। उसके बाद लक्षण फिर लौट आते थे। खासतौर से उसका खुद को नुकसान पहुंचाना उसके पिता के लिए सिरदर्द बन गया था। काफी खोजबीन के बाद उन्होंने पाया कि कुछ प्रयोगशालाओं में इसके लिए एक कृमि ट्राइचुरिस सुइस की भूमिका पर काम चल रहा है। उन्होंने एक प्रयोगशाला से संपर्क किया और ट्राइचुरिस सुइस के अंडे प्राप्त किए। डाक्टरों की सलाह पर उस बच्चे को हर सप्ताह 2500 अंडे देने पर बच्चे के लक्षणों में उल्लेखनीय सुधार आया। कम से कम उसके अतिवादी व्यवहार में तो जबर्दस्त कमी आई।
यह कोई चमत्कार नहीं था। आयोवा विश्वविद्यालय में इस संदर्भ में हुआ शोध कार्य इसकी पृष्ठभूमि में था। आयोवा के शोधकर्ता जानते थे कि जब लोग कम विकसित देशों से विकसित देशों में पहुंचते हैं, तो उनमें क्रोह्न्स रोग का प्रकोप अचानक बढ़ जाता है। इसी प्रकार से यह भी देखा गया था कि 1930- 40 के दशक में ग्रामीण अमरीका में पेट की गड़बडिय़ां लगभग न के बराबर थीं। इन दोनों के पीछे स्वच्छता परिकल्पना काम कर रही थी। तो आयोवा के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि हो न हो इसके पीछे कृमि संक्रमण का हाथ है। अपनी बात की जांच के लिए उन्होंने एक आम कृमि को चुना और क्रोह्न्स रोग तथा अल्सर युक्त कोलाइटिस के 7 मरीजों को इस कृमि की खुराक दी। सातों मरीजों की हालत में सुधार आया। बाद में 29 मरीजों पर किए गए एक अध्ययन में 80 प्रतिशत मरीजों की हालत में सुधार देखा गया। यह रिपोर्ट प्रकाशित तो हुई मगर इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। मगर उक्त बच्चे के मामले ने इसे एक बार फिर केंद्र में ला दिया।
तो स्वच्छता परिकल्पना कोरी कल्पना नहीं है। धीरे- धीरे इसके पक्ष में काफी प्रमाण एकत्रित होते जा रहे हैं। यह भी काफी हद तक समझा गया है कि हमारे साथी सूक्ष्म व अन्य जीव हमारे प्रतिरक्षा तंत्र के साथ किस तरह अंतरक्रिया करते हैं। इसके आधार पर चिकित्सा जगत में उपचार विकसित करने की कोशिशें चल रही हैं। मगर जो बात ज्यादा साफ तौर पर समझ में आती है, वह है स्वच्छता, खास तौर से पर्यावरण को निर्जीवीकृत करने की कोशिश अति नुकसानदेह है। मानव का विकास इन सारे जीवों के साथ ही हुआ है, और विकास की इस लंबी प्रक्रिया ने हमें इन पर काफी निर्भर भी बना दिया है।
यह कोई नहीं कह रहा है कि पिछले वर्षों में हमने रोग नियंत्रण के बारे में जो कुछ सीखा है उसे भुला दिया जाए, टीकाकरण और सामान्य साफ- सफाई को तिलांजलि दे दी जाए। इन चीजों की वजह से मानव स्वास्थ्य में बहुत फायदा हुआ है। कहने का मतलब यह है कि अपने पर्यावरण से सामान्य संपर्क को एक समस्या न माना जाए। स्वच्छता परिकल्पना के प्रकाश में, धूल में खेलने की मुमानियत की नहीं बल्कि परिवेश से ऐसे स्वस्थ संपर्क को बढ़ावा देने की जरूरत है। (स्रोत फीचर्स)

प्रकृति की गोद में बसा 'मिनी कश्मीर'

- लोकेन्द्र सिंह राजपूत
नरसिंहगढ़ मध्यप्रदेश का मिनी कश्मीर कहलाता है। इस उपमा ने मेरे मन में नरसिंहगढ़ के लिए खास आकर्षण बनाए रखा। 2006 में मैंने पहली बार नरसिंहगढ़ के सौंदर्य के बारे सुना था। तभी से वहां जाकर उसे करीब से देखने का लोभ मन में था। मेरी इच्छा इस वर्ष मार्च माह में पूरी हो सकी। जिस सुकून की आस में मैं नरसिंहगढ़ पहुंचा था, उसे उससे कहीं अधिक बढ़कर पाया। वैसे कहते हैं कि नरसिंहगढ़ बरसात के मौसम में अलौकिक रूप धर लेता है। यहां के पहाड़ हरी चुनरी ओढ़ लेते हैं। धरती तो फूली नहीं समाती है। नरसिंहगढ़ का अप्रतिम सौंदर्य देखकर बादलों से भी नहीं रहा जाता, वे भी उसे करीब से देखने के मोह में बहुत नीचे चले आते हैं। सावन में वह कैसा रूप धरता होगा, मैं इसकी सहज कल्पना कर सकता हूं। क्योंकि मार्च में भी वह अद्वितीय लग रहा था।
शाम के वक्त मैं और मेरे दो दोस्त किले पर थे। किले से कस्बे के बीच तालाब में स्थित मंदिर बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। इस तालाब की वजह से निश्चित ही कभी नरसिंहगढ़ में भू-जलस्तर नीचे जाने की समस्या नहीं होती होगी। तालाब की खूबसूरती के लिए स्थानीय शासन- प्रशासन के प्रयास जारी हैं। एक बात का क्षोभ हुआ कि खूबसूरत किले को बचाने का प्रयास होता कहीं नहीं दिखा।
नरसिंहगढ़ का किला बेहद खूबसूरत है इस किले में आधुनिक स्नानागार भी है। फिलहाल बदहाली के दिन काट रहा यह किला एक समय निश्चित ही वैभवशाली रहा होगा। तब यह आकाश की ओर सीना ताने अकड़ में रहता होगा। संभवत: उसकी वर्तमान दुर्दशा के लिए स्थानीय लोग ही जिम्मेदार रहे होंगे। आज इस किले के खिड़की, दरवाजे , चौखट सब गायब हैं। लोग पत्थर निकाल ले गए हैं। पूरे परिसर में झाड़- झंखाड़ उग आए हैं। एक बात उल्लेखनीय है कि इस पर ध्यान न देने के कारण यह अपराधियों की शरणस्थली भी बन गई है।
नरसिंहगढ़ की एक खास बात यह भी है कि यहां अधिकांश स्थापत्य दो हैं। जैसे बड़े महादेव-छोटे महादेव, बड़ा ताल-छोटा ताल, बड़ी हनुमान गढ़ी-छोटी हनुमान गढ़ी आदि। नरसिंहगढ़ के समीप ही वन्यजीव अभयारण्य है। जिसे मोर के लिए स्वर्ग कहा जाता है। सर्दियों में प्रतिवर्ष नरसिंहगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जाता है। यह भी आकर्षण का केन्द्र है।
नरसिंहगढ़ फिलहाल पर्यटन के मानचित्र पर धुंधला है। मेरा मानना है कि नरसिंहगढ़ को पर्यटन की दृष्टि से और अधिक विकसित किया जा सकता है। इसकी काफी संभावनाएं हैं। इससे स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर तो बढ़ेंगे ही, साथ ही मध्यप्रदेश के कोष में भी बढ़ोतरी होगी। बरसात में नरसिंहगढ़ के हुस्न का दीदार करने की इच्छा प्रबल हो उठी है। कोशिश रहेगी कि इस बारिश के मौसम में मैं पुन: मिनी कश्मीर की वादियों का लुत्फ उठा सकूंगा।
पता: गली नंबर-1 किरार कालोनी, एस.ए.एफ. रोड, कम्पू, लश्कर, ग्वालियर (म.प्र.) 474001,
मो.09893072930, ईमेल-lokendra777@gmail.com

मास्टरनी

- भुवनेश्वर
उस रोज सुबह से पानी बरस रहा था। साँझ तक वह पहाड़ी बस्ती एक अपार और पीले धुंधलके में डूब सी गई थी। छिपे हुए सुनसान रास्ते, बदनुमा खेत, छोटे- छोटे एकरस मकान- सब उसी पीली धुंध के साथ मिलकर जैसे एकाकार हो गए थे।
औरतें घरों के दरवाजे बंद किये सूत सुलझा रही थीं। आदमी पास के एक गांव में गए थे। वहां मिशन का एक क्वार्टर था और एक भट्टी। वाकई, वहां बारिश की धीमी, एकरस और मुलायम छपाछप के कोई और आवाज नहीं आ रही थी।
चार बजने से कुछ ही मिनट पहले एक कॉटेज का दरवाजा खुला। यह कॉटेज मामूली मकानों से भी नीची और छोटी थी। उसके चरमराते हुए लकड़ी के जीने से पांच- छह लड़के- लड़कियां उतरकर, बूढ़े किसानों की तरह झुककर, अपने बस्तों से बारिश बचाते, चुपचाप घुमावदार रास्ते पर चलकर आँखों से ओझल हो गए। जब तक वह दिखलाई देते रहे, उनकी मास्टरनी तनी हुई चुपचाप खड़ी उसी ओर देखती रही। फिर वह दरवाजे को मजबूती और अवज्ञा से बंद करके भीतर चली गई।
वह एक अधेड़ इसाई औरत थी- कठिन और गंभीर। दो साल पहले इसाईयों के इस गांव में आकर, एक हिन्दुस्तानी मिशनरी की मदद से उसने यह स्कूल खोला था। इन दो सालों में उसका चेहरा और भी लंबा, और भी पीला और स्वाभाव और भी चिड़चिड़ा हो गया था। गांव में रहते हुए भी वह गांव से जैसे अलग थी। स्त्रियां उससे डरती थीं मर्द उसको एक मर्दानी अवज्ञा से देखते थे।
आज के इतने नीले- नीले पहाड़ों और इस घने धुंध के सामने वह काँप सी उठी और दिन भर अपने दोनों हाथों को बगल में इधर- उधर फिराती रही।
इसके बाद बस्ती फिर सुनसान हो गई। सिर्फ एक बार मास्टरनी ने अपना द्वार खोलकर झाँका और फिर तुरंत ही बंद कर लिया।
करीब छह बजे जब धुंध का पीलापन पहाड़ों के साथ नीला हो रहा था, आखिरकार बस्ती में एक मानव दिखाई दिया। लंबा रोगी सा एक सोलह- सत्रह साल का लड़का। पुराना फौजी कोट पहने था। कालर के बाहर उसने अपनी मैली कमीज निकाल रखी थी। कीचड़ बचाने के लिए वह सड़क के इस तरफ से उस तरफ मेंढकों की तरह फुदक रहा था। लकड़ी के जीने पर आकर उसने संतोष की सांस ली और एक भीगे कुत्ते की तरह अपने आपको झाड़कर जीने पर चढ़ गया।
'लूसी बहन, बड़ा अँधेरा है।' पास आते ही वह चिल्ला उठा था। 'टूटू।' मास्टरनी ने अपने हाथ

छोड़कर कहा और और फिर धीरे- धीरे चलकर छत से टंगी हुई लालटेन जला दी। उस छोटे से गंदे और अँधेरे कमरे में रौशनी लालटेन से खून की तरह बहने लगी।
इस बीच टूटू बारिश और रास्ते पर भुनभुनाकर अपने बड़े और भारी कोट को टांगने की जगह खोज रहा था।
'मैं कहता हूँ, तुम्हारे पास कोई कपड़ा है- कम्बल का टुकड़ा- उकड़ा। मैं जूते साफ करूँगा।'
मास्टरनी ने चुपचाप झुककर उसके जूते साफ कर दिए। टूटू बराबर अपने जूतों की तरफ देखता हुआ 'नहीं- नहीं' कह रहा था।
मास्टरनी ने वैसे ही झुके- झुके पूछा, 'घर पर सब अच्छे हैं।'
मेरे पास तुम्हारे लिए सैकड़ों खत हैं, सिर्फ मुरली तुमसे खफा है। तुमने उसके मोजे खूब बुने। वह जाड़े से नीली पड़ी जा रही है।
उसने अपनी बहिन को खत दे दिया और रौशनी के पास जाकर अपने भींगे बालों पर हाथ फेरने लगा। बीच- बीच में वह कुछ बुदबुदा उठता था। मास्टरनी पत्रों से सिर उठाकर उसकी तरफ देखती और फिर पढऩे लग जाती थी।
अब उसने खत एक ओर रखकर इस सोलह साल के लंबे- चिकने युवक की तरफ देखना और उसके बारे में सोचना शुरू कर दिया। वह उसके बिल्कुल बचपन के बारे में सोचने लगी। जबकि उसके गरम मुलायम जिस्म को चिपटाकर वह एक पके हुए फल की तरह हो जाती थी।
अपने बस्तों से बारिश बचाते, चुपचाप घुमावदार रास्ते पर चलकर आँखों से ओझल हो गए। जब तक वह दिखलाई देते रहे, उनकी मास्टरनी तनी हुई चुपचाप खड़ी उसी ओर देखती रही।
'तुम खत नहीं पढ़ रही हो', उसने सहसा घूमकर कहा।
'पढ़ लिया।'
उसका भाई खड़ा- खड़ा उसकी तरफ देखता रहा और फिर यह देखकर कि वह खत पढ़ चुकी है, बुदबुदा सा उठा, 'मुरली के मोजे। और मम्मी ने कहा है...'
मास्टरनी ने जैसे चाकू से काटा, 'और पापा कैसे हैं।'
टूटू ने भांडों सा मुंह बनाकर कहा- 'वैसे ही।'
पापा रोगी, परित्यक्त, उपेक्षित- उसे कभी भी न लिखते थे और इसीलिए उससे कुछ मांगते भी न थे।
'तुम क्या करते हो।'
'मैं- मैं रोज सवेरे- शाम पादरी तिवारी के साथ काम करता हूँ। मम्मी जान ले लें अगर मैं काम न करूँ। मुरली और मम्मी झमकती फिरती हैं।'
'तुम मर्द हो', उसकी बहिन ने जैसे स्वप्न में कहा और फिर वह वैसे ही टहलने लगी।
'मैं दो साल में पादरी हो जाऊंगा', टूटू ने कुछ गर्व और दिल्लगी से कहा।
कुछ देर वह दोनों चुप रहे। मास्टरनी ने एक संदूक पर बैठकर जल्दी- जल्दी बुनना शुरू कर दिया। बीच- बीच में एक अजीब और कड़वी मुस्कान उसके पीले और दागदार होंठों पर छा जाती थी।
टूटू एन उसी वक्त अपने चारों ओर के गंदे कमरे की टूटी कुर्सियों और मैले तकिये की ओर देखकर बार- बार सहम जाता था।
'यह क्या। मुरली की स्टोकिंग है।'
'देखते नहीं हो', और मास्टरनी चौंक सी उठीं।
जबसे वह यहाँ आया था, टूटू का मन भीगते हुए कम्बल की तरह हर मिनट भारी होता जा रहा था। वह अपनी बहिन, अपने घर के बारे में इस तरह सोच रहा था जैसे वह दूरबीन से नए नक्षत्र देख रहा हो।
किसी के पैरों का जीने पर शोर हुआ। दो छोटी- छोटी लड़कियां हाथ पकड़े हुए अंदर आई। वह गबरून की ऊंचे- ऊंचे फ्राकें पहने थीं और उनके चेहरों पर किसानों की सी झुलस थी।
उनमें से बड़ी लड़की ने खाट पर एक मैली तामचीनी की प्लेट रख दी। उस पर एक लाल रुमाल पड़ा था। फिर अपनी छोटी बहन का हाथ पकड़कर वह खड़ी हो गई।
'तुम क्या प्लेट चाहती हो?'
दोनों लड़कियों ने एक साथ सिर हिलाकर कहा, 'हाँ।'
उसने उठकर उसमें से चार अंडे और अधपके टमाटर और एक सस्ता पीतल का बूच निकाल लिया।
'अपने बाप से कहना कि टीचर ने कहा है- हाँ' और उसने खड़े होकर फिर दोनों हाथ बगलों में भींच लिए।
लड़कियां चुपचाप जैसे आई थीं वैसे ही चली गईं।
टूटू उनको बराबर एक विचित्र दिलचस्पी से देखता रहा। उनके जाने पर वह खिड़की की तरफ मुंह करके बोला, 'तुम चाय नहीं पीती लूसी बहिन।'
मास्टरनी एकाएक बीच कमरे में खड़ी हो गई।
'सुनो, यह पांच रुपये हैं, और यह मुरली का स्टोकिंग और यह मम्मी का सिंगारदान। और कहना कि कोई मुझसे और कुछ न मांगे। सब मर जाएँ, गिरजे में जा पड़ें।'
पागलों की तरह दो छोटे- छोटे और सिकुड़े हाथों से रुपये, स्टोकिंग और सिंगारदान का अभिनय कर रही थी और बोल ऐसे रही थी जैसे उसका सारा खून जम रहा हो।
टूटू ने बड़ी पीड़ा से कहा, 'लूसी बहिन।'
'मेरे पास कुछ नहीं है- कुछ नहीं है। तुम मेरा घर झाड़ लो।' और उसने खिड़की धमाके से बंद कर दी।
मास्टरनी अपने पलंग पर जाकर बैठ गई। उसके दोनों हाथ उसकी पत्तियों को जकड़े थे। आज सारी जिंदगी के छोटे- बड़े घाव अचानक चसक उठे थे। कुछ सोचने की ताब उसमें न थी।
बाहर से किसी ने भर्राई हुई आवाज में कहा, 'टीचर मैं आ सकता हूँ।'
टूटू उस तरफ बढ़ा। पर घृणा से दौड़ते हुए मास्टरनी ने दरवाजा आधा खोल, बाहर जा बंद कर लिया। टूटू ने उसकी झलक ही देखी थी। वह एक बुझे हुए चेहरे का अधेड़ किसान था- ऐसे जैसे संडे को गिरजों में टोपियां उतारकर भीख मांगते हैं।
एक मिनट में मास्टरनी लौट आई। उसका चेहरा पहले से भी सख्त था। उसने टूटू को देखकर उधर से मुंह फेर लिया और अपने आप बुदबुदाकर कहा-
'मैं ही क्यों... तुमसे मुझे कोई सरोकार नहीं- तुम लोगों से मैं पूछती हूँ...'
और वह हथेलियों को बगलों में भींचकर और तेजी से टहलने लगी।
'मैं जैसे जिंदा दफन हो गई हूँ। पर मुझे कब्र की शांति दे दो।' वह वाकई हाथ फैलाकर शांति मांग रही थी।
टूटू गुमसुम बैठा हुआ रौशनी को घूर रहा था। सहसा उसने टूटू का हाथ पकड़ लिया।
'जाओ, सोओ।'
टूटू ने आज्ञा का पालन किया।
मास्टरनी वैसे ही टहल रही थी। फिर चूर होकर उसी चारपाई पर गिर पड़ी।
टूटू आखिर चुप हो रहा। कमरे में सन्नाटा छा गया था।
केवल दूर- दूर पर रात के पोर वो पहरेदारों... के विचित्र स्वर चारों तरफ पहाड़ों से टकराकर इस कमरे में गिर- गिर पड़ते थे।

भुवनेश्वर की गुमनाम कहानी

भुवनेश्वर का जन्म 1910 उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। एक प्रतिष्ठित वकील का पुत्र होने के बावजूद उनका जीवन अर्थाभाव में बीता। भुवनेश्वर की माँ बचपन में ही गुजर गई थी। इसके कारण उनको घर में घोर उपेक्षा झेलनी पड़ी। कम उम्र में घर छोड़कर वे इलाहबाद आ गए। शाहजहांपुर में महज इंटरमीडिएट तक पढ़े भुवनेश्वर को अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। उन्हें एकांकी का जनक माना जाता है, किन्तु उन्हें प्रसिद्धि मिली अपनी कहानी 'भेडिय़े' से। उनके बारे में तरह- तरह की किवदंतियां फैलने लगी कहा गया कि उनके नाटकों पर जॉर्ज बर्नार्ड शा तथा डी. एच. लॉरेंस का प्रभाव है और उनकी कहानी 'भेडिय़े' पर जैक लंडन के 'कॉल ऑफ वाइल्ड' की छाया देखी गई। भुवनेश्वर के जन्म-शताब्दी के साल में उनकी एक लगभग गुमनाम कहानी 'मास्टरनी' प्रस्तुत है। 1938 में प्रकाशित यह अपने समय की रचनाओं से अलग संवेदना से भरी कहानी है।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा, एलआईजी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494

लघुकथाएँ

इस्तेमाल- सुभाष नीरव
डोर- बेल बजने पर दरवाजा खोला तो मोहक मुस्कान बिखेरती एक सुन्दर युवती खड़ी मिली। 'आओ, कनक। मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।' जाने- माने वयोवृद्ध लेखक श्रीयुत दीपांकर जी उसे देखकर चहक उठे।
कनक लता ने झुककर दीपांकर जी के चरण छुए और आशीर्वाद पाकर बैठक में पड़े सोफे पर बैठ गई। दीपांकर जी पत्नी को चाय के लिए कहकर सामने वाले सोफे पर आ बैठे।
'आदरणीय, पिछली संगोष्ठी पर आपने जो बात मुझसे कही थी, उस पर मैंने अमल करना आरंभ कर दिया है।' कनक ने बात की शुरुआत की।
'कौन-सी बात?' दीपांकर जी कुछ स्मरण करते-से सिर खुजलाते हुए बोले। फिर, यकायक जैसे उन्हें स्मरण हो आया, 'अच्छा- अच्छा...।' 'त्रिवेदी जी का फोन आया था।' कनक ने सोफे से पीठ टिकाकर बताना आरंभ किया, 'बहुत जोर दे रहे थे कि मैं उनकी पुस्तक पर होने वाली आगामी गोष्ठी का संचालन करुँ। पर मैंने संचालन करने इन्कार कर दिया।'
'त्रिवेदी जी तो नाराज हो गये होंगे?' दीपांकर जी ने कनक के चेहरे पर अपनी नजरें स्थिर करते हुए कहा।
'होते हैं तो हो जाएँ। बहुत बरस हो गये संचालन करते-करते। सचमुच, मेरा अपना लेखन किल होता रहा, इन संचालनों के चक्कर में। दायरा तो बढ़ा, लोग मुझे जानने- पहचानने भी लगे, पर एक संचालिका के रूप में, एक लेखक के रूप में नहीं।' कनक ने भौंहें सिकोड़कर अपना रोष और पीड़ा व्यक्त की। कुछ रुककर फिर बोली, 'आप ही की कहीं बात पर सोचती हूँ तो लगता है, आपने ठीक कहा था कि आखिर कब तक मैं दूसरों का नाम मंच से पुकारती रहूँगी। मुझे एक लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनानी होगी लोगों के बीच। कोई मेरा भी नाम स्टेज से पुकारे, एक लेखक के तौर पर।' कनक ने माथे पर गिर आई लट को पीछे धकेला और चश्मे को ठीक करने लगी।
इस बीच चाय आ गई। चाय का कप उठाते हुए दीपांकर जी बोले, 'अच्छा निर्णय लिया तुमने। तुम्हारे अन्दर प्रतिभा है। अच्छा लिखती हो। तुम्हें अपनी ऊर्जा का इन फालतू के कामों में अपव्यय नहीं करना चाहिए। तुम्हें अपनी इस शक्ति और ऊर्जा को अपने लेखन में लगाना चाहिए।' चाय का कप उठाने से पहले, कनक ने झोले में से एक फाइल निकाली और दीपांकर जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'इसमें मेरी कुछ नई कहानियाँ है। पुस्तक रूप में देना चाहती हूँ। चाहती हूँ, छपने से पहले आप इन्हें एक बार देख लें... यदि कोई प्रकाशक सुझा सकें तो...'
'क्यों नहीं। ' फाइल उलट- पलटकर देखते हुए दीपांकर जी ने कहा, 'तुम अच्छा लिख रही हो। पुस्तक तो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी। खैर, देर आयद, दुरुस्त आयद। मैं देखूंगा।'
कनक ने चाय खत्म की और घड़ी की ओर देखा। बोली, 'आदरणीय, क्षमा चाहती हूँ, मुझे कहीं जाना है। फिर जल्द ही मिलती हूँ। तब तक आप इन्हें पढ़ लें। '
कनक उठकर खड़ी हुई तो एकाएक दीपांकर जी को कुछ याद हो आया। बोले, 'सुनो कनक, 'शब्द-साहित्य' वाले अगले सप्ताह आठ तारीख को मेरा सम्मान करना चाहते हैं। मैंने तो बहुत मना किया, पर वे माने ही नहीं। मैं चाहता हूँ, तुम्हारी भी उस कार्यक्रम में कुछ भागीदारी हो। डरो नहीं, तुम्हें संचालिका के रूप में नहीं, एक नवोदित लेखिका के रूप में बुलाया जाएगा।' बगल के मेज पर से पाँच- छह किताबों का बंडल उठाते हुए वह बोले, 'ये मेरी कुछ किताबें हैं। पढ़ लेना। मैं चाहता हूँ, तुम मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर पन्द्रह- बीस मिनट का आलेख तैयार करो, समारोह में पढऩे के लिए। समय कम है, पर मुझे विश्वास है, तुम लिख लोगी।' कनक लता ने एक नजर किताबों पर डाली, बेमन-से उन्हें झोले में डाला और प्रणाम कर बाहर निकल आई।

कबाड़

बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी- खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
बेटा आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू ने दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में रखवा दिया था।
दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-संवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !
बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। किचन, किचन के साथ बड़ा- सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ- कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया... देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिकवा दो। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंग- रूम बनाऊँगा।
रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़- सी दुर्गन्ध आ रही थी।

धर्म-विधर्म

जब उन्हें बेटे की करतूत पता चली तो वह आग- बबूला हो उठे। 'नाक कटवा दी इसने तो पूरी बिरादरी में...जाति- धर्म कुछ न देखा! अरे, पढ़ा- लिखा कर इसीलिए बड़ा किया था इसे ?... अपने कुल का, अपने धर्म का नाम डुबा दिया इसने। कहीं मुँह दिखलाने लायक नहीं छोड़ा।'
पास बैठी पत्नी ने उन्हें समझाने की कोशिश की, 'आजकल के पढ़े- लिखे बच्चे जाति- धर्म पर यकीन नहीं करते।
'पर मैं गैर- धर्म की लड़की को अपनी बहू नहीं बना सकता। गैर-धर्म में हमें जाने की जरूरत ही क्या है, जब अपने धर्म में...।'
'यह न भूलो, जब अपने देवी- देवताओं के आगे माथा टेक- टेक कर कुछ न बना था तो इसी औलाद के लिए आप दूसरे धर्म के...।' आगे के शब्द पत्नी ने मुँह में ही दबा लिए।
पत्नी का कहा गया अधूरा वाक्य उन्हें भीतर तक छील गया। उनसे कुछ भी कहते नहीं बना। बस, नि:शब्द पत्नी के चेहरे को देर तक घूरते रहे।

पता- 372, टाइप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023
मो. 09810534373, ईमेल : subhashneerav@gmail.com