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May 10, 2011

आलेख

बूँद-बूँद से ही भरता है घड़ा
- नवनीत कुमार गुप्ता
मार्च-अप्रैल के महीने से ही देश के अनेक हिस्सों में जल संकट गहराने लगता है। प्रत्येक साल जल संकट बढ़ता ही जाता है। वैसे यह विडम्बना ही है कि जहां एक ओर हमारे देश के कुछ हिस्सों में पानी लाने के लिए महिलाओं को कई कोस चलना पड़ता है वहीं कुछ लोग पानी का अंधाधुंध अपव्यय करते हैं। यह स्थिति तब है जब सभी को पता है कि पानी की प्रत्येक बूंद अनमोल है। फिर भी न जाने क्यों यह कहावत भूलने लगे हैं कि बूंद- बूंद से घड़ा भरता है। आज भी अनेक नलों पर टोंटी नहीं लगी होती, जिससे पानी की बर्बादी होती रहती है। वैसे तो हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है लेकिन फिर भी जनमानस में पानी के संरक्षण को लेकर अभी तक पूरी जागरूकता नहीं आई है।
सभी जानते हैं कि पानी का मुख्य स्रोत बारिश है। सभी स्रोतों में, चाहे वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार, जल की आपूर्ति बारिश द्वारा ही होती है। हमारे देश में भारी बारिश लगभग 100 घंटे बारिश होती है। यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना पड़ता है।
वर्तमान में प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता में गिरावट आई है। औद्योगीकरण और सघन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने सतही जल के साथ- साथ भूजल का अंधाधुंध दोहन किया है। आज पानी की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में भयानक कमी देखी जा रही है। कई इलाकों में पानी में इतने भारी तत्व और अन्य खतरनाक रसायन प्रवेश कर चुके हैं कि वह पानी अब किसी भी जीव के उपयोग के लिए सही नहीं है। आज समाज और व्यक्ति 'बिन पानी सब सून' जैसी पुरानी और सार्थक कहावतों को भूलकर, पानी को संचय करने की हजारों साल पुरानी परंपराओं को भूल गया है जिसके परिणामस्वरूप भारत समेत विश्व के अधिकतर देशों को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ रहा है।
पानी में यह जहर या प्रदूषण विभिन्न माध्यमों से जैसे औद्योगिक तरल अपशिष्ट को सीधे नदी में बहा देने या घरेलू खतरनाक अपशिष्ट को सीधे नदी में डाल देने से फैलता है। इसके अलावा कृषि में उपयोग किए गए रसायनों जैसे रासायनिक खाद, खरपतवारनाशी, कीटनाशी आदि के पानी में घुल जाने से भी पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है। इसके अलावा जैविक पदार्थ और मल आदि से भी नदियों का पानी दूषित होता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में मानव और पशुओं के अपशिष्ट के प्रबंधन की कोई सही व्यवस्था नहीं है। हालांकि यह समस्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान ही है, परन्तु तेजी से बढ़ते महानगरों में अपशिष्ट के प्रबंधन की समस्या ज्यादा गंभीर है। लुगदी और कागज उत्पादन जैसी औद्योगिक गतिविधियां, जिनमें काफी बड़ी मात्रा में जैविक पदार्थ नदियों में मिलाए जाते हैं, इन सभी से नदी की इकॉलॉजी बिगड़ती है। जैविक पदार्थों को नदी में डालने से नदी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जाती है।
लेकिन इन सबसे ज्यादा खतरनाक है नदी में मानव द्वारा निर्मित जैविक प्रदूषकों और भारी तत्वों का घुलना। इलेक्ट्रोप्लेटिंग, रंगाई के कारखाने और धातु आधारित उद्योगों आदि के कारण भारी तत्वों का काफी बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है, जो नदी में घुल जाते हैं और इससे पूरे मानव समाज के साथ-साथ पशु-पक्षियों और नदी के जीवों पर भी भयानक प्रभाव पड़ता है। पेंट, प्लास्टिक आदि उद्योगों के अलावा गाड़ी आदि के धुएं में भी सीसे, पारे जैसे भारी तत्वों की काफी मात्रा होती है और ये कैंसर जैसे रोग पैदा करने के साथ- साथ सांस की भयानक बीमारियों को जन्म देते हैं और बच्चों में मस्तिष्क का विकास भी प्रभावित होता है। तरह- तरह के त्वचा रोग भी इन प्रदूषकों की ही देन हैं।
जल की गुणवत्ता में गिरावट और संदूषण के लिए मुख्यत: औद्योगिक, घरेलू, कृषि रसायनों तथा अंधाधुध पानी के दोहन को ही जिम्मेदार माना जाता है। भारत में हुए एक अध्ययन का यह निष्कर्ष निकला है कि ज्यादातर भूजल संदूषण शहरी विकास के संदर्भ में बनाई गई गलत और अनुपयोगी नीतियों का ही नतीजा है। उद्योगों में जल को बगैर उपचारित किए बहा देना, कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग और इसके साथ- साथ भूमि में जमा जल का सिंचाई के लिए गैर-जरूरी दोहन, पानी में घुलते जहर की समस्या में भारी इजाफा करते हैं। अस्सी के दशक में हुए एक सर्वेक्षण से यह सामने आया था कि भारत में करीब 7452 करोड़ लीटर अपशिष्ट जल प्रति दिन पैदा होता है, जो आज इससे कई गुना बढ़ गया है और अगर इस दूषित जल का उपचार ठीक से न किया गया तो यह बहुमूल्य भू-जल को भी विषैला बना देगा।
पश्चिम बंगाल के आठ जिलों में आर्सनिक की विषाक्तता पाई गई है। पारा पश्चिम बंगाल से लेकर मुम्बई के तटों पर भी मौजूद है। भारत में तेरह राज्य फ्लूरोसिस से ग्रस्त घोषित किए गए हैं। फ्लूरोसिस प्राकृतिक रूप से मौजूद फ्लोराइड के खनिजों की अधिकता से होता है। भारत में करीब 5 लाख लोग फ्लोराइड की अधिकता से पीडि़त हैं। इसी तरह, भारत के कुछ राज्यों में पानी में लौह तत्व की भी अधिकता देखी गई है। हालांकि लौह हमारे शारीरिक तंत्र को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाता, परन्तु लम्बी अवधि में यह ऊतकों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है।
हम रोज जहर पानी में घोल भी रहे हैं और उसका सेवन भी कर रहे हैं। पानी में घुला जहर हर वनस्पति में अवशोषित होता है तथा वहां से हमारे भोजन में। इन संदूषकों के प्रभाव विध्वंसकारी हैं जो वक्त के साथ- साथ हमें अपने शरीर की घटती प्रतिरोधक क्षमता, बढ़ती बीमारियों और खत्म होते जीवन के रूप में दिखाई दे रहे हैं। हमने पानी और अपने जीवन में बहुत जहर घोल लिया है। अब जरूरत है जल के संरक्षण के लिए प्रयासरत हो जाने और धरती पर जीवन को पोषित करने वाले जल को शुद्ध और स्वच्छ बनाए रखने की।

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