-अनिता
मंडा
बिन्नी
मुझसे पाँच साल छोटी थी। मेरी बहन,
मेरी दोस्त,
मेरी दुनिया सब थी। मैं स्कूल से आते ही सीधे भागकर उसके पास जाती।
हाल जानती। स्कूल की सारी बातें उसे बताती। मम्मी की आवाज़ों को अनसुना कर उससे
बतियाती रहती। मम्मी: स्कूल
के कपड़े तो बदल ले पहले। बस्ता सही जगह रख दे। जूते ठीक से रख दे; देख एक उत्तर को जा रहा
है, एक दक्षिण को, सुबह-सुबह ढूँढते रहना
फिर।
मैं मम्मी की सारी चेतावनियाँ अनसुनी कर
बिन्नी के पास बैठी रहती। मम्मी वहीं खाना दे देती – ‘ले इसे खिलाए बिना तो तेरे गले से
कौर नहीं उतरेगा।’
मम्मी को गुस्से में देख बिन्नी मेरी तरफ देख धीरे-धीरे मुस्कुराती रहती।
मेरे
स्कूल से आने का रास्ता देखती वैसे मेरे ट्यूशन से आने का भी बिन्नी को इंतज़ार
रहता। पड़ोस में एक चाची कुछ ठीक-ठाक
पढ़ी लिखी थी। आठ-दस बच्चे उनके घर हरदम ट्यूशन पढ़ते दिख जाते। जब मम्मी मेरी
पढ़ाई-गृहकार्य के लिए समय न निकाल पाई,
तो मुझे भी उनके घर ही ट्यूशन पढ़ने भेजना शुरू कर दिया। अलग-अलग कक्षाओं के बच्चे
उन्हें घेरे रहते। मैं वहीं चुपचाप बैठी देखती रहती कि कब समय पूरा हो और घर जाऊँ। ट्यूशन वाली चाची मेरी
खाली कॉपी देख एक-दो बार डाँट मारती और फिर दूसरे बच्चों के साथ व्यस्त हो जाती।
मैं मन मारे बैठी रहती पर कभी हिम्मत न होती कि कह दूँ -आप जो बता रही हैं मुझे
कुछ समझ नहीं आ रहा। वो बमुश्किल गृहकार्य पूरा करवा देती ओर मैं बस्ता उठाकर घर आ
जाती। डेढ़-दो घण्टे की क़ैद से छूटने पर राहत की साँस लेती। शाम को बाहर
गुलमोहर के नीचे मंजी डाले दादी बिन्नी को बहला रही होती। मैं वहीं बैठ बिन्नी को
कोई किताब पढ़कर सुनाती।
परीक्षाएँ होती, परीक्षा-परिणाम आता, फिर शिकायत पहुँचती घर, घर से ट्यूशन वाली चाची
के घर। वो कहती ‘आपकी
कुड़ी का मोटा दिमाग़ है, इसे
कुछ समझ ही नहीं आता’
मैं मन मसोसे होठों- होठों में कहती रहती- ‘आप कुछ पढ़ाओगे तो आएगा
न समझ में ’ पर मेरी कौन सुनता। जब
डाँट पड़ती ज़मीन को घूरती जाती और सब सुन लेती। एक-दो दिन में सब सामान्य हो जाता।
चाची के जाने के बाद मैं और बिन्नी उनका
ख़ूब मज़ाक़ उड़ाती। बिन्नी उनकी नक़ल उतारती। हाथ को लहराकर, आँखें मटकाकर, होठों को थोड़ा टेढ़ाकर
कहती ‘गुन्नू तुझसे कौन शादी
करेगा’ फिर
हम दोनों खिलखिला कर हँस देती। पर सूरज चाहे उगना भूल जाए एक दिन के लिए, चाची मुझे कोसना न
भूलती। ‘गुन्नू, बिन्नी का खाना भी तू
ही खाती है क्या?’ ‘गुन्नू
तीनों बहनों पर तू भारी पड़ेगी’ ‘बसकर गुन्नू कितना फैलेगी, भाईसाहब को कमरा बड़ा
बनवाना पड़ेगा’ ‘परजाई
जी क्या खिलान्दे हो इस कुड़ी नूं’ जब तक ऐसे जुमलों का प्रवचन न होता, चाची का हमारे घर आने
का अर्थ नहीं रह जाता। चाची के रोज़ के जुमलों का ही असर रहा होगा कि मम्मी मुझे
गिनकर रोटियाँ देने लगी। और मेरा तो उसूल यह हो गया जिस काम को मना किया है, उसे
तो सबसे पहले करो।
मैं छिपकर रसोई से खाना ले लेती। टिफ़िन
के बाद स्कूल की
कैंटीन से खा लेती। चॉकलेट्स में मेरी सारी पॉकेटमनी जाने लगी। जब तक मैं बिन्नी
के पास न होती पेटपूजा के उपक्रम ही मेरे दिमाग़ में चलते रहते।
बिन्नी के रूप में घर में बच्चा आने से
मैं ही सबसे ज़्यादा ख़ुश थी। उसका घुटनों चलना,
तुतलाकर बोलना मेरे लिए सब चमत्कार जैसा था। सिम्मो दीदी और डिम्पी
दीदी दोनों की जोड़ी थी। वो दोनों खेलों में मुझे शामिल नहीं करती थी। ‘तू छोटी है, तू नहीं कर पायेगी।’‘तू गेम ख़राब मत कर’ ‘मम्मी इसे यहाँ से ले
जाओ प्लीज’कहकर
वो दोनों मुझे अलग कर देती। घर तो क्या बाहर भी मेरा कोई दोस्त नहीं था। बिन्नी के
आने से मुझे भी एक साथी मिल गई थी। मैं सारे दिन बिन्नी के आसपास तितली-सी मँडराती
रहती। वो छोटी-
सी थी तभी से मम्मी उसे मेरे हवाले कर रसोई का सारा काम निबटा लेती। मैं उसे
तरह-तरह मुँह बनाकर दिखाती व उसके साथ खेलती रहती।
जब
बिन्नी बीमार होती, बहुत
चिड़चिड़ी हो जाती। फिर वह
कुछ नहीं खाती। उसका चेहरा दो दिन में सूख जाता। और शुरू हो जाता मम्मी की अंतहीन
परेशानियों का सिलसिला। बार-बार बीमार होने से डॉक्टर्स ने उसकी बहुत सारी जाँच
करवाई। वह साल भर की थी, तभी पता चला उसे
थेलेसीमिया मेजर नाम की बीमारी है। बाद में मुझे इस बीमारी के बारे में गहराई से
बातें पता चलीं।
इस बीमारी में यह होता है कि मरीज़ अपना रक्त नहीं बना पाता। उसे कुछ हफ्तों या
महीने में बाहर से रक्त चढ़ाना
पड़ता है, ताउम्र यही सिलसिला
रहता है साथ ही यह रक्त कुछ परेशानियाँ लाता है। इसके बाद भी दुर्भाग्य यह कि अधिकतर बच्चे जीवन के दूसरे
या तीसरे दशक से अधिक नहीं बचते। उस समय मैं नहीं समझती थी कि सब बिन्नी के बारे
में क्या बातें करते थे। मुझे इतना समझ आता कि बिन्नी को लेकर मम्मी और पापाजी
अस्पताल जाएँगे और हम सब के पास दादी
रहेगी।
मुझे
दादी के हाथ के बने मक्के की रोटी सरसों का साग बहुत अच्छे लगते थे। दादी के हाथों
में जादू था। कभी छोले-भटूरे कभी आलू-पूड़ी बनाकर देती। मझोले क़द की दादी, मक्खन- जैसी गोरी-चिट्टी
सरदारनी थी। इतनी उम्र के बाद भी उनके बाल इतने लंबे थे कि चोटी कमर से नीचे तक
झूलती रहती। बालों को मेहंदी से रँगती। वो हमेशा हल्के रंग की चुन्नियाँ ओढ़ती। सिर
ढँका रहता। कानों में बड़ी-बड़ी सोने की बालियाँ पहनती। दादी ने ही मुझे और बिन्नी
को अरदास सिखाई थी। रोज़ सवेरे सबद
बहुत मीठे-मीठे गाती। रात को मैं दादी से कहानी सुनकर ही सोती। गाँवों की, खेतों की, फसलों की, दादा की, चाचे-ताऊओं की दादी के
खज़ाने में ढेरों कहानियाँ थी।
जब मैं बड़ी हो गई तभी समझ पाई कि मम्मी
दादी को ऐसा क्यों कहती थी। दादी का मानना था कि तीन बेटियों के बाद मम्मी को बेटा
होगा इसलिए उनको एक बच्चा ओर करना चाहिए। जिससे कि उनके बेटे का वंश चल सके। तीन
बेटियों की माँ होने का ताना सुन- सुनकर मम्मी थक चुकी थी। दादी की इसी ज़िद्द का
परिणाम था कि मम्मी को एक बीमार बच्ची की देखभाल करनी पड़ी।
छोटी
सी बिन्नी दादी से चिपक जाती। मैं दादी के पास बैठी उनके मुलायम हाथों से खेलती
रहती। उनके हाथों की चमड़ी इतनी पारदर्शी थी कि हरी नसें उससे बाहर दिखती थी। जब तक
मम्मी बोलतीं दादी एकदम चुप रहती। वो अपने मौन की दीवार पर पीठ टिकाकर कानों से
घूँट-घूँट शब्द पी लेती। हाथ में माला इस तरह अनवरत चलती मानो उसी से साँस का
आवागमन हो रहा है।
पापाजी
टोकते मम्मी को ‘बस
भी करो अब। कितना सुनाओगी। बिन्नी बीमार है ,इसमें
बेबे का क्या कसूर है?’ पापाजी
जितना आराम से समझाते मम्मी उतना ही कुढ़ती रहती। दादी को लड़कियाँ पसंद नहीं थी; परंतु बिन्नी से उनका
मोह था। बिन्नी की परेशानी उसका दर्द उनसे सहन नहीं होता था। मन ही मन ईश्वर से सवाल करती रहती- ‘इस मासूम को क्यों सज़ा
दी रब जी।’
बिन्नी
थी ही इतनी मासूम कि कोई उसे प्यार किए
बिन रह ही न पाए। सब कोई उसके लिए तोहफ़े लाते,
चॉकलेट्स लाते। चचेरे -फुफेरे सब भाई बहन उसको गोद
उठाए फिरते। पर उसका मन तो
बस मेरे पास लगता। सुबह-सुबह जब हम लोग स्कूल जाते वह पापाजी के कंधे से चिपकी
रहती। मैंने पापाजी को किसी बच्चे को गोद में उठाए नहीं देखा था। वो हमेशा काम में उलझे
रहते। मुझे नहीं याद उन्होंने मुझे कभी गोद में खिलाया था क्या। बिन्नी उनके कंधे
से चिपकी रहती, वे
अखबार पढ़ते रहते। ऐसा लगता कोई फूल दीवार से झाँक रहा हो।
जैसे-जैसे
बिन्नी बड़ी हुई, उसने
इंजेक्शन से डरना छोड़ दिया। अब वो बिन रोए
अस्पताल जा आती। वह
उम्र में बढ़ रही थी;
पर अब भी थी छोटी-
सी ही। किसी साधारण बच्चे से आधी ही बढ़ रही थी। मैं सारे दिन उसे गोद में उठाए पूरे घर में घूमती।
शाम को छत पर घुमा कर लाती। चार सीढ़ियाँ
चढ़ते ही बिन्नी हाँफने लग जाती। मैं उसे कँधों पर बैठा लेती। कभी इस रूप में हम
दोनों को चाची देख लेती तो कहती ‘बिन्नी
ऊँट की सवारी में बड़ा मज़ा आ रहा है तैनू’
बिन्नी हाज़िरजवाबी से कहती- ‘नहीं चाची जी मुझे तो
हाथी की सवारी में ज़्यादा मज़ा आता है,
गप्पू भैया को बोलो न मुझे घुमाएँ’गप्पू चाची का बेटा था, जो हमारे परिवार में
सबसे मोटा था। बिन्नी की ऐसी चुटकी सुनकर चाची जहाँ चिढ़कर मुँह बनाती, पापाजी को बड़ी हँसी
आती। वे पास बैठी दादी से कहते ‘देख बेबे किन्नी शरारती
हो गई कुड़ी।’
दादी
बाहर गुलमोहर के नीचे मंजी डाले बैठी होती,
बिन्नी उनसे उनके बचपन की कहानियाँ सुनाने को कहती।
बिन्नी को फूल बहुत पसंद थे। दादी उसके बालों में तेल की मालिश करती, बालों की गूँथ बनाकर उनमें फूल लगा
देती।
बिन्नी के खिलौनों में भी डॉक्टर, नर्स व मरीजों के पात्र
आ गए थे।।
बिन्नी : ‘दादी मेरी गुड़िया को बुख़ार हो गया, दीदी को कहो न डॉक्टर
को दिखा लाए।’
मैं : ‘बिन्नी, गुड़िया को बुखार कैसे हो सकता है? कुछ और खेलते हैं न!’
बिन्नी: ‘नहीं,
बुखार हो गया है इसे, देखो दादी इसका माथा कितना गरम लग रहा है
न, दीदी मान ही नहीं रही।
डॉक्टर से कहना पीने के लिए दवा दे दें,
गुड़िया को इंजेक्शन से डर लग रहा है।’
दादी: ‘बिन्नी सही तो कह रही है गुन्नू, देखो कितना तेज बुखार
है इस॥’
दादी को अपनी तरफ बोलता देख बिन्नी की
खुशी का ठिकाना न रहता। उठकर दादी को गले लगा लेती।
बिन्नी: ‘दादी आप फ़िक्र ना करो, मैं बड़ी होकर डॉक्टर
बनूँगी न, तो सबसे पहले आपके
घुटने ठीक करूँगी। ‘
दादी
‘हाँ, मेरे
राजे, डॉक्टर बनना तू, सबको ठीक करना।’
बिन्नी खिड़की में खड़ी होकर ग्रिल पकड़े
रहती और स्कूल आने जाने वाले बच्चों को देखती। पढ़ने की जिद्द करती। कई बार तो हम
लोगों की पुरानी किताबें किसी भी बैग में डालकर पीछे टाँग लेती और स्कूल जाने का
कहकर घर से निकलने को दौड़ पड़ती। मम्मी पीछे भागकर उसे पकड़ लाती। वह रो- रोकर बदहाल हो जाती-’मुझे भी पढ़ना है, स्कूल जा कर मैम से
पढ़ना है।’
मम्मी उसे बहला-फुसलाकर मनाती।
टॉफी-चॉकलेट की रिश्वत दी जाती।
बिन्नी
का स्कूल में प्रवेश करवा दिया था;
परन्तु उसकी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही होती थी। इसकी आज्ञा प्रधानाध्यापक जी ने दे
दी थी कि उसे केवल परीक्षा देने ही स्कूल आना होगा। अब मेरी ज़िम्मेदारी बढ़ गई थी; क्योंकि दोनों बड़ी
बहनों का जीवन तो अपने में ही व्यस्त चल रहा था। बिन्नी को पढ़ाने के बहाने मैं भी थोड़ा पढ़ने लगी थी; पर मेरी शिकायतें अब
भी बदस्तूर वैसी ही आ रही थी। बड़ी बहनें जहाँ क्लास में अव्वल आतीं, मैं फिसड्डी जैसे तैसे
पास हो रही थी। वे
दोनों तरह-तरह के पकवान बनाना सीख रही थी और मैं बिन्नी को समय पर दवाइयाँ दे रही
थी। वे दोनों ख़रीददारी करतीं। बिन्नी के साथ पिकनिक
जाने की योजनाएँ बनाती बिगड़ती रहती। कभी-कभार उसे आसपास घुमाने भी ले जाती। वैसे
तो वो हर बात मान लेती, ज़िद्द
नहीं करती; पर
कभी-कभी बाल सुलभ हठ कर लेती -जैसे
कि झूले झूलने हैं। वैसे उसकी बहुत ज्यादा माँग कभी नहीं रही पर बेशुमार बंदिशों
से वह भी उकता जाती थी। आखिर थी तो वो बच्ची ही। ऐसे में अनजाने में मुझसे भी
भूलें हो जातीं।
एकबार बिन्नी के ज़िद्द करके आइसक्रीम खा
ली। उसे ठंडा, फ़्रिज
का खाना मना था,
क्योंकि प्रतिरक्षा-तंत्र कमज़ोर
होने से बहुत जल्दी सर्दी-ज़ुक़ाम
हो जाता था। नतीजा यह हुआ कि उसे पूरा हफ़्ता खाँसते हुए बिताना पड़ा। उसे बारिश में भीगने का
बड़ा चाव था। बारिश में मोहल्ले भर के बच्चे बाहर भीगते, छत से बहते नालों के
नीचे नहाते। उसे बारिश बंद होने के बाद ठहरे पानी में काग़ज़ की नाव चलाकर ही संतोष
करना पड़ता। गीली मिट्टी की महक को वह अपने पास सहेजना चाहती थी। बाक़ी बच्चों की
तरह गीली मिट्टी के घरौंदे बनाना चाहती थी पर जानती थी, इसके लिए कोई अनुमति
नहीं देगा। इसलिए खुले आँगन पर तने इन्द्रधनुष को देखकर ही बारिश को शुक्रिया कहना
सीख लिया।
बिन्नी, दवाइयाँ, अस्पताल, डॉक्टर सारा सिलसिला
लगातार चल रहा था। जीवन की इस एकरसता को तोड़ने का काम किया सिम्मो दीदी की शादी
ने। हमारे घर की पहली शादी। बिन्नी ने पहले ही तय कर रखा था कि शादी में वो लहँगा पहनेगी। हाथों में
कोहनी तक रंगबिरंगी चूड़ियाँ। चोटी में बक़ायदा परांदा लगाकर ख़ूब नाचेगी। शादी की हर रस्म को
उसने आगे रहकर देखा। बक़ायदा पोज़ दे -देकर
फ़ोटो खिंचवाए।
उन दिनों बिन्नी बहुत ख़ुश रही। दादी कहती
थी सिम्मो बड़ी क़िस्मत वाली
है। राजकुमार जैसा सुंदर रौबीला दूल्हा मिला उनको और वह स्वयं भी परी -जैसी थी। लाइटों से जगमग
घर, मेहमानों के हँसी-ठठ्ठे, पकवानों की महक, सब ओर नए कपड़ों की
चमक-गमक, नाच-गाना, ढोल-नगाड़े हर तरफ एक
सजीला उत्सव। मैंने मम्मी को इतना ख़ुश कभी नहीं देखा था। इतनी सजी सँवरी वो बहुत
सुंदर लग रही थी। एकदम पारम्परिक शादी। नयापन था तो इतना कि शादी के लिए लड़के-लड़की
की कुंडली की बजाय मेडिकल रिपोर्ट देखी गई। सिम्मो दीदी और डिम्पी दीदी दोनों
थेलेसीमिया माइनर थी। तो
यह विशेष ध्यान रखा गया कि कहीं उनकी शादी थेलेसीमिया माइनर से न हो जाए।
बिन्नी
की बीमारी ने हमारे आसपास थेलेसीमिया के प्रति लोगों को जागरुक कर दिया था। हँसी-मज़ाक़ में भी कहने लगे थे कि
अरे लव-मैरिज़ की योजना हो, तो पहले अपने-अपने
प्रेमियों-प्रेमिकाओं की थेलेसीमिया जाँच ज़रूर करवा लेना।
बिन्नी
के इलाज के लिए डॉक्टरों ने
पापाजी को सुझाव दिया कि उसे विदेश ले जाया जाए व बोन मैरो ट्रांस्प्लांट किया
जाए। मेरी दोनों दीदियाँ
थेलेसीमिया माइनर थी, वो
बोन मैरो दाता नहीं बन सकती थी। इसलिए मेरा साथ जाना तय हुआ। दो-एक महीने में मेरे
दसवीं के इम्तेहान थे। पापाजी ने तय किया कि इम्तेहान ख़त्म होंगे, तब तक वो विदेश जाने
के कागज़ात तैयार करवा लेंगे। इसके लिए उन्हें बहुत सारे रुपयों की ज़रूरत थी। कुछ
ज़मीन बेचनी पड़ी। कुछ खेत गिरवी रखे। उनके बड़े भाई ने तो साफ कह दिया कि पागल मत बन, इसके अलावा अभी दो और
लड़कियों की ब्याह-सगाई का भी इंतज़ाम पास रखना होगा; परन्तु पापा जी का कहना था कि इनके भाग
में होगा तो रब जी ज़रूर कुछ न कुछ इंतजाम कर ही देंगे। क्या पता ये सब भी इनके
नसीब से मिला हो। हमारा क्या है?
पता
नहीं पापाजी में कहाँ से इतना धैर्य आता था। वे
बिन्नी को लेकर चिंतित थे;
पर किसी पर अपनी चिंताएँ प्रकट नहीं होने देते थे। वो एक विशाल बर्फ़ीले पहाड़ की
भाँति थे, जिसकी बर्फ़ इतनी धीमी
पिघलती है कि नदियों में बहाव तो बना रहता है,
पर उनमें बाढ़ नहीं आ पाती। एक तरह से उनका सब्र ही सबकी हिम्मत का स्रौत था।
बिन्नी की तबीयत को लेकर मुझे सिर्फ़ उनकी बात पर ही भरोसा होता था। मम्मी तो
झूठ-मूठ मेरा मन रखने को ही कह देती कि बिन्नी ठीक हो रही है। पापाजी हमेशा
चिकित्सीय भाषा में तथ्य बताते जिससे मेरा विश्वास पक्का हो जाता कि उसे कुछ नहीं
होगा।
मैं
तो चाहती ही नहीं थी कि इम्तेहान में बैठूँ। मैं और बिन्नी दिन में कोई सौ बार
विदेश जाने की बातें करते। उसके
ठीक हो जाने की कल्पना करते। प्रार्थना करते। मैं उससे कहती तू ठीक हो जाएगी, तो हम दोनों ख़ूब झूला
झूलेंगे। वे
छोटी-छोटी सी चीज़ें,
जो हम दोनों ही नहीं कर पाई थीं,
साथ ही पूरा करने के सपने देखते। मुझे लगता अब तो बस बैठे प्लेन में और बिन्नी के
सब दर्द उड़न छू हो जाएँगे।
पेपर
पूरा होने के बाद मैं बुआजी के साथ अपने घर आई। मम्मी, दादी, चाचियाँ सब आँगन में
बैठी थी। बुआजी भी उनके पास ही बैठ गई। मैं भागकर बिन्नी के कमरे में गई। बिन्नी
अपने बिस्तर पर नहीं थी। मैं बिन्नी
को ढूँढने पापाजी के पास गई। बिन्नी वहाँ भी नहीं थी। ‘पापाजी बिन्नी को
छुट्टी नहीं मिली अब तक? कैसी
है वह? आप दोनों यहाँ हैं, बिन्नी के पास कौन है?’मैं एक साँस में कई
सवाल पूछ गई। पापाजी जैसे बोलने के लिए शब्द ढूँढ़ रहे थे और कोई शब्द वह बताने में
समर्थ नहीं था जो उनको कहना था।
‘पापाजी
उठो न, बिन्नी के पास चलना है
मुझे’ मैंने लपककर पापाजी के
दोनों हाथ पकड़ लिये।
माइनस डिग्री तापमान पर
जमी बर्फ़ जैसे ठंडे हाथ अगले ही क्षण मेरे हाथ से छूट गए। मैं धम्म से वहीं घुटनों
के बल फर्श पर ढेर हो गई। दुनिया की सारी गतिविधियाँ कुछ पल को ठहर गई। पापाजी ने
अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। उनके
मन में गहन दुविधा थी कि एक बच्ची
का जीवन बचाने के लिए कहीं वो दूसरी बच्ची का जीवन दाँव पर तो नहीं लगा रहे? बिन्नी ने उनके मन की
दुविधाओं पर कहीं न कहीं पूर्णविराम लगा दिया। एक ‘काश’
मेरे मन के आकाश पर हमेशा के लिए अंकित हो गया। काश
हम समय से जा पाते।
कई बार अवसर चूक जाने के अफ़सोस के बरक्स सारे जीवन के सुकून बौने हो जाते हैं। जीवन ऐसे ही धूप-छाँव के रंगों से बना होता है। कभी कोई रंग धूमिल हो जाता है, कोई प्रकट।
यह घर जो बिन्नी को शामिल करके ही मेरा
होता था, कितना अज़नबीपन पसरा था
यहाँ। दादी को देखती तो मेरे कान मम्मी की वो आवाज़ ढूँढते ‘ए लो बेबे तोहाडे
सुखविंदर दा नाम रोशन करवालो इससे।’
मम्मी को देखती तो मन करता उनकी गोद में
सिर रख कर बहुत देर तक रोऊँ। पर मैं ऐसा कभी नहीं कर पाई। वहाँ अभी भी बिन्नी की
ही महक बसी थी। कोई स्थान कितनी ही ध्वनियों,
सूरतों,
खुशबुओं से मिलकर ज़ेहन में अपनी जगह दर्ज़ करता है।
उनमें से कुछ भी कम होना स्वीकारना हम कभी सीख ही नहीं पाते।
सम्पर्क: आई-137 द्वितीय तल, कीर्ति नगर, नई दिल्ली 110015, फोन नं. 8285851482, anitamandasid@gmail.com
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मार्मिक कहानी
दिल को गहरे से छू गई।बहुत सुंदर कहानी।
बहुत आभारी हूँ!
चित्रात्मक कहानी। किरदार उभर कर आ रहे हैं। भाषा संप्रेषण एवम् भावाभिव्यक्ति उत्तम।बहुत बधाई।
कहानी के किरदार लेखिका द्वारा स्थापित जीवंत रूपकों व भावनात्मक प्रतीकों के साथ प्रारंभ से लेकर अंत तक व्यापक प्रभावात्मक न्याय करते हैं। कहानी पाठक के मन में मजबूत प्रभाव निर्मित करती है। सुंदर रचना के लिए बधाई।
दिल को छू गई!
बहुत ही भावपूर्ण कहानी है। हार्दिक बधाई प्रिय अनिता!
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