- डॉ. महेश परिमल
अब तक जीवन तो नहीं,
पर हम तेज़ी से भाग रहे थे। उसी जीवन को अनदेखा करते हुए,
जिसके लिए हम जीना चाहते हैं। कई बार ज़िंदगी ने हमें रोकने की कोशिश की,
ज़रा थम जाओ, इतनी तेज़ी से कहाँ भागे जा रहे हो। रुक लो, साँस ले लो,
घर-परिवार की ओर भी एक नज़र डाल लो। बच्चों से बात कर लो। पत्नी का हाल-चाल पूछ लो।
बूढ़े माता-पिता के पास बैठकर अपना बचपन याद कर लो। इन सारी बातों को छोड़कर हम सब
भागे जा रहे थे। हम कहाँ भाग रहे थे, हमें खुद ही इसका पता नहीं था। भागना हमारी नियति थी। क्योंकि सभी भाग रहे थे। ज़िंदगी को छोड़कर किसी बियाबान की तरफ...।
इस भागती
ज़िंदगी पर अचानक कोरोना ने ब्रेक लगा
दिया। लगा, सब
कुछ थम गया। अचानक आए इस अवरोध के लिए कोई तैयार ही नहीं था। अब क्या होगा,
यह सवाल हर कोई एक-दूसरे से पूछ रहा था। जिसका जवाब किसी के
पास नहीं था। ज़िंदगी थम गई,
पर नहीं थमी, तो वह थी जिजीविषा। रोजी-रोटी तो चलानी ही थी। इसलिए घर ही
सभी का केंद्र बिंदु हो गया। घर में ही रहकर जाना कि घर क्या होता है ?
अब तक तो यह हमारे लिए किसी धर्मशाला से कम नहीं था।
आपाधापी में हम सब कुछ भूल गए थे।
इस बीच कई त्योहार
आए। पहले आया होली, तब सभी ने महसूस किया अपनों के बीच अपनापा। सारी कटुता
रंगों में घुल गई। एक नई ज़िंदगी हमारा
इंतजार करने लगी। घर के सदस्यों के बीच वार्तालाप बढ़ने लगा। सभी एक-दूसरे को समझने
लगे। जो दूरियाँ थीं, वह सिमटने लगी। कभी हँसी-मजाक भी हो जाता। अपनों की हँसी
इतनी निश्छल होती है, यह पहली बार जाना। इस हँसी में घुल गई सारी कटुता। हम सब
करीब आए। इसी बीच बच्चे को पता चला कि पापा इतना अच्छा गा भी लेते हैं। पापा का यह
रूप तो केवल मम्मी की यादों में ही था। भैया तो बाँसुरी कितनी अच्छी बजा लेता है,
किसी को पता है। दीदी की तो न पूछो,
वह तो मन्ना डे के शास्त्रीय गाने कितने अच्छे से गा लेती
है,
किसी को पता है। मम्मी ने तो कथक में एम.ए. किया है,
यह तो किसी को भी नहीं पता। सभी जानते हुए भी एक-दूसरे की
प्रतिभाओं से अनजान
थे। पोते को भी पहली बार पता चला कि 75 साल की दादी माँ इतनी सुरीली आवाज में भजन गाती हैं। उनके
पोपले मुँह से भजन सुनना कितना आह्लादकारी था, यह किसी ने नहीं जाना था। अरे! सब छोड़ो,
मम्मी अकेले ही कितनी अच्छी-अच्छी मिठाइयाँ बनाती हैं,
यह किसने जाना था। पता चला कि यदि सभी का थोड़ा-थोड़ा सहयोग
मिल जाए,
तो मम्मी बहुत-कुछ कर सकती है।
अब हम सब अपनी जड़ों
की ओर लौटने लगे हैं। उन जड़ों को, जिन्हें हम कब का छोड़ चुके थे। अतीत का हिस्सा बन गई थीं
हमारी जड़ें। आज पता चला कि सचमुच कितनी मजबूत हैं हमारी जड़ें। अब जाना कि कितने
त्योहार होते हैं, जो अपनों को अपने से मिलाने का काम करते हैं। संकोच की
दीवारें टूटीं, लोग
खुलकर बतियाने लगे। जिस पापा के घर आते ही सन्नाटा छा जाता था,
उसी पापा को बच्चे घोड़ा बना रहे थे। दादा-दादी या फिर
नाना-नानी से जाना कि उनका कितना महत्त्व है, हमारे जीवन को चलाते रहने में। जीवन की संतुष्टि देने का
काम कर रहे हैं सभी। अब तक जो चीजें कबाड़ की शोभा थीं,
वही चीजें नए रूप में हमारे सामने आ गईं। सावन सोमवार,
रक्षा बंधन, जन्माष्टमी के अलावा जन्म दिन भी इस बार विशेष लगे। ये सब
हमसे कब छूटकर अलग हो गए थे, फिर हमसे आ मिले।
अब हमने जाना कि
साफ-सफाई का जीवन में कितना महत्त्व है। घर में जड़ी-बूटियों से बनने वाली जो चीजें
हमें नहीं भाती थीं, वही अब जायकेदार लगने लगी हैं। अब जाना कि आखिर दादी और माँ
रोज पेड़ों की पूजा क्यों करती थीं। अब जाना कि आँगन में तुलसी का पौधा कितना ज़रूरी है। त्योहार क्यों ज़रूरी है। उसी से हमने पाई ऊर्जा। हममें मिलनसारिता बढ़ गई
है। हम सब काफी करीब आ गए हैं, कभी न दूर जाने के संकल्प के साथ। सोचो,
यदि कोरोना का यह कहर न होता, तो क्या हमें इस तरह के जीवन के दर्शन होते?
आभार कोरोना, मजबूरी में अवसर तलाश करने की शक्ति देने का....
सम्पर्कः टी-3 204, सागर लेक व्यू, वृन्दावन नगर, भोपाल- 462022
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1 comment:
सरल ढ़ंग में सही बात कही है।
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