अफ़सर जी का पूरा जीवन मुफ़्तखोरी का पर्याय बन चुका है । मज़े की बात यह है कि वे अपनी मुफ़्तखोरी पर कस्तूरी मृग की तरह मगन रहते हैं। रहना भी चाहिए। हमारे कने (यहाँ) कहा भी तो गया है, मुफ़्त का चंदन घिस मेरे नंदन। (कुछ लोग नंदन की जगह लल्लू शब्द का प्रयोग भी करते हैं । नंदन हो या लल्लू, मुफ़्त का चंदन लगाने का परमानंद ही अलग होता है! ) तो दिवाली पर अफ़सर जी का जलवा देखते ही बनता है। मुफ़्त के पटाखे, मुफ़्त की मिठाइयाँ, मुफ़्त के उपहार। कैश अलग। इतना कि पूरी फैमिली एक बार फॉरेन टूर कर के आ जाए। कभी-कभी ऐसे फॉरेन टूर उनके लगते भी रहते हैं । लोगबाग उन्हें फोकटवाद के प्रणेता के रूप में भी अब जानने लगे हैं। दफ़्तर का हर कोई अफ़सर जी के प्रेरक-चरित्र की चर्चा करता है और लक्ष्मी मैया यही मनाता है कि काश, उनके बच्चे भी इसी गोत्र के अफ़सर बनें। ऐसी अफ़सरी के क्या कहने, जो मालेमुफ़्त दिल-ए-बेरहम का सहज-सुख लूटती है । सबने उनका बड़ा प्यारा-सा नाम रख दिया है, मुफ़्तेश्वर। किसी कवि ने अफसर-प्रजाति की प्रशंसा में क्या खूब कहा है कि-
अफ़सर अफ़सर एक है, भेद नहीं है कोय।
अफ़सर लूटे सुख सदा, बाकी बैठे रोय।।
अफ़सर बनिया पुत्र
जी,पिता दे रहा ज्ञान।
दोनों हाथ बटोरियो,यही समय का ज्ञान।।
अफ़सर जी की
मुफ़्तखोरी की लत की क्या कहें। उस दिन तो हद हो गई, जब उनके पिताजी स्वर्गवासी ( स्वर्गवासी ही हुए होंगे!) हो
गए,तो उन्होंने मातहत को फ़ोन किया,
''रामलाल, फादर इज डेड। कम सून। एंड लकड़ियों के लिए फॉरेस्ट वाले
पांडे जी से बात कर लो।''
रामलाल बड़बड़ाया,
''साला, कंजूस। बाप मर गया, तो इसे लकड़ी भी फोकट की चाहिए। अरे, कम-से -कम पिताजी का अंतिम संस्कार तो अपने पैसों से कर दे
रे। लेकिन नहीं। अगर ऐसा हो गया, तो काहे का अफ़सर।'' अफ़सरी की परिभाषा क्या है।
अ
से आओ। अ से अकसर भी।
फ़ से फोकट।
स से सामान और
र से रकम रख जाओ।
आओ फोकट का सामान और रकम लाओ
यानी अफ़सर।
जिस अफ़सर के घर
दिवाली क्या, साल
भर ही फोकट का राशन-पानी आए, परिवार फोकट का फल-फ्रूट से लेकर ड्राई फ़ूड तक खाए, जो फोकट में सपरिवार सनीमा देखे, फोकट में सपरिवार मीना बाज़ार आदि का आनंद लूटे, सरकारी गाड़ी को जो बैल की तरह जोतता रहे ;ऐसे हर अफ़सर का नागरिक अभिनंदन होना चाहिए।
कभी-कभी मैं मूरख
ख़ल कामी सोचता हूँ , एक मुफ़्तवीर अफ़सर की औलादें कैसी निकलती होंगी। लेकिन सच
कहूँ, यह भावुकता वाली बात होगी। मुफ्तखोरी करने वाले अफसरों की
औलादें अकसर मोटी-ताजी होती हैं उनके चेहरे की चमक बता देती है कि इन दिनों मुफ़्तखोरी का
लेबल क्या चल रहा है। और मज़े की बात यह है कि मुफ़्तखोरी करते-करते उनकी संतानें भी
अकसर अफ़सर बन ही जाती है। इससे एक बात तो यह साबित होती है कि मुफ्तखोरी अभिशाप
नहीं, वरदान ही है। वो मूर्ख है, जो सोचता है कि मुफ़्तखोरी में कोई नुकसान है। कुछ नहीं होता
।पहले कभी होता होगा कि फोकट का माल पचता नहीं । अब तो लोग जबरदस्त तरीके से पचाते हैं और डकार भी नहीं
देते।
जो अफ़सर मुफ़्तखोरी
को अपना नौकरीसिद्ध अधिकार समझता है , वह अपना दान- पुन्न भी फोकट में करना चाहता है। जैसे कोई पहुँचा, ''सर ! गणेश पूजा के चंदा दे दें'', तो अफ़सर उदार होकर बोलेगा, ''क्यों नहीं, क्यों नहीं''। फिर फोन लगाकर किसी को निर्देश देगा,
''हेलो फलाने , अरे भाई कुछ लोगों को आपके पास भेज रहा हूँ। इन्हें चंदा दे
देना।''
बस हो गया
दान-पुण्य।
मुफ्तखोरी
करते-करते कुछ अफ़सर इतने काइयाँ हो जाते हैं कि दवाइयाँ तक फोकट की चाहते हैं। जैसे
मुफ़्तेश्वर जी। इसके लिए बड़ी चालाकी से हरकतें करते हैं । दफ्तर के कुछ कम भ्रष्ट
मातहत अफ़सर को बुलाकर कहेंगे, ''यार फलाने, कुछ दवाइयाँ है। ले आना।''
फलाने मौन खड़ा है।
अब सर जी पैसा दें, तो दवाइयाँ लाऊँ । लेकिन अफ़सर उसकी हरकत देखकर के धीरे से बोलता है ,
''अरे, लौट कर आओ। पैसे दे देता हूँ।''
फलाने लौटता है ।
अब उसकी हिम्मत कैसे हो कि पैसे माँग ले। अफ़सर जानता है कि फलाने उसकी परंपरा का लुटेरा है । चोर का मालचांडाल खाए, तो बुरा क्या मानना। फलाने जानता है कि बॉस ने मुफ़्त में दवाइयाँ हड़पी है । इसका
मतलब यह है कि कुछ दिनों के लिए मैं खुलकर का भ्रष्टाचार का खेल खेल सकता हूँ।
मुफ़्तखोर अफ़सरों के
किस्से बड़े रोचक लगते हैं। सरकारी महकमे में बड़े चर्चित रहते हैं। मगर जो अफ़सर
ईमानदारी के साथ जीते हैं,उनके बारे में यही कहा जाता है, मूर्ख है साला। ढोंगी। आदर्शवाद दिखाता है।आदि आदि।
मुफ्तखोर अफ़सर भी अपनी भड़ास कुछ इसी तरह निकालते हैं । उनका परिवार फोकटवाद का पर
गदगद रहता है। उसकी भड़भड़िया औरत माल-ए-मुफ्त खाकर मुटाती रहती है और आस-पड़ोस में इतराती रहती है। वो कहती है,
''हमारे ये बड़े पॉवररफुल हैं। हमको सब कुछ फोकट में मिल जाता है । दिवाली के अवसर पर न
हमें पटाखे खरीदने पड़ते हैं और न मिठाइयाँ। इतना माल आ जाता है कि हम कुछ लोगों
को बाँट कर फोकट का पुण्य अर्जित कर लेते हैं।''
अफ़सर के बच्चे अपने
मित्रों से कहते हैं, ''हमारे यहाँ तो सब चीज फोकट में आती है, बे। मेरे पिताजी बहुत बड़े ऑफिसर हैं। जानते हो,जब मेरे दादाजी मरे थे न, तो दफ़्तर के लोगों ने सारा इंतजाम किया था । फ़ादर को एक
पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा था । ऐसे हैं मेरे फादर।''
अफ़सर मुफ़्तखोरी के
अवसर तलाशते रहता है। होटल जाएगा तो फोकट की थाली चाहिए। यात्रा करेगा, तो फोकट में टिकट मिल जाए। मज़े की बात यह भी है कि जो जितना भ्रष्ट होता है, उतना आदर्शवादी भी होता है। कमाल है। वह नैतिकता की, कला की बात करेगा। साहित्य की चर्चा करेगा और करुणा तथा
ईमानदारी को साहित्य की मुख्यधारा भी बताएगा। कभी-कभी मुफ़्तखोर अफ़सर कविताएँ भी लिखने लगते हैं। और अपनी सारी बुराइयाँ दूसरे चरित्र पर मढ़कर महान कवि के रूप में चर्चित भी हो जाते हैं। केवल उसकी
आत्मा जानती है , वह कैसी मस्त-मस्त चीज है। उसकी कविता भी बड़ी कमाल की होती है। पिछले दिनों
उसका काव्य-संग्रह भी छपा। उसका शीर्षक अद्भुत था, 'करुणा की कोख से जन्म लेती है कविता'। और संग्रह की कविता भी फाडू किस्म की थी। कुछ इस तरह कि-
मैंने ईश्वर को याद
किया तो
सबसे पहले कहा
करुणा
मैंने अंतिम
व्यक्ति को देखा तो
मैंने कहा दया
मैंने पिता को देखा
तो कहा ईमान
मैंने जब पुण्य की
कल्पना की
तो मुँह से निकला शब्द मेहनत।
मैं बात यूँ ही नहीं करता कोरी ।
मुझे सख़्त नफ़रत है
उस शब्द से
जिसका नाम है
हरामखोरी।
अफ़सर मुफ़्तेश्वर जी
का फोकट वाद फल-फूल रहा है। उनके कारण उनका पूरा दफ्तर इस बीमारी की चपेट में है। पिछले दिनों अफ़सर जी की मां परलोक सिधार गई। फोकट में आई दवाइयाँ भी माँ को ना बचा सकीं। अफ़सर ने फौरन
फोन लगाया, ''शर्मा
माँ नहीं रही।''
शर्मा जी घर पधारते
हैं । घर पहुँचकर सारा बंदोबस्त करते हैं । अफ़सर को खुश रखने के लिए इससे बेहतर और
मौका कुछ हो नहीं सकता। अफ़सर की माता के अंतिम संस्कार तक में अफ़सर की पॉकेट से
फूटी कौड़ी नहीं लगी । यह कितनी बड़ी सफलता है । अफ़सर
को जीवन में और क्या चाहिए कि उसका सारा काम फोकट में हो
जाए। पिता मरे तो अंतिम क्रिया फोकट में हुई। माता चल बसी , तो भी सब कुछ मुफ़्त में हो गया। किसी भी अफ़सर की सफलता का यही तो पैमाना है।
आजकल कुछ लोग अपने
बच्चों को समझाते हैं, मेहनत करो। लगन से पढ़ो ।अच्छे मनुष्य बनो या न बनो पर अफ़सर
जरूर बनना देखो पड़ोस के अफ़सर अंकल को। सब कुछ मुफ़्त में आता है उनके यहाँ। ये होता है
अफ़सर बनने से। टीचर आदि बनोगे तो फटीचर ही रह जाओगे।
अफ़सर का बच्चा अपने
पिताश्री से कहता है, ''डैड, क्या कोई ऐसा व्यक्ति मुफ़्त में नहीं मिल सकता, जो परीक्षा में मेरे सवालों को फोकट में हल कर दे ?''
अफ़सर खुश हो जाता
है, यह सोच कर कि बेटे का भविष्य उज्ज्वल है। वह उसी रात एक कविता लिखता है-
बचपन से ही पुत्र
का
यानी बन्दा बड़ा ही
भाग्यवान है।
अब बड़ा होकर जरूर
अफ़सर बनेगा।
अपनी ही हाँकेगा
दूसरे की नहीं
सुनेगा।
बच्चा बचपन से ही
समझदार है ।
वह अ से अनार नहीं,
अ से अफ़सर का पाठ
पढ़ रहा है।
अभी से ही अपना
शानदार भविष्य गढ़
रहा है।
सम्पर्कः सेक़्टर -3, एचआईजी - 2 , घर नंबर- 2 , दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल : 9425212720, 877 0969574
1 comment:
अफ़सरशाही पर सटीक व्यंग्य । रोचक
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