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Jul 7, 2024

अनकहीः प्रश्न संसद की गरिमा और प्रतिष्ठा का

 - डॉ.  रत्ना वर्मा
देश अभी अभी लोकसभा चुनाव के दौर से गुजरा है। चुनाव के दौरान विभिन्न पार्टियों ने अपने लोक-लुभावन वादों के बल पर जनता से वोट माँगे और सौ बार बोले गए उनके सच्चे - झूठे वायदों से भरे भाषणों और घोषणापत्र को सुनते हुए देश की जनता ने अपना बहुमूल्य वोट देकर अपने प्रिय नेताओं को संसद की आसंदी पर बिठा दिया। भारत की जनता ने हमेशा की तरह संसदीय लोकतंत्र में अपना विश्वास जताया है। जनता को अपने नेताओं के वायदों पर बहुत भरोसा है, उन्हें हर बार यही उम्मीद रहती है कि वे इस बार अवश्य सांसद के रूप में देश और जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। अपना वोट उन्हें सौंपकर वे इसी खुशफहमी में फिर पाँच साल गुजार देते हैं। 
लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद में पहुँचकर, जननेता बहुत ही श्रद्धा और आदर के साथ शपथ ग्रहण करते हैं-  जिसमें संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने की बात होती है, अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और कर्तव्यनिष्ठा से निर्वहन करने की तथा संविधान और विधि के अनुसार सभी प्रकार के लोगों के साथ भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना अच्छा व्यवहार करने की प्रतिज्ञा होती है। लेकिन प्रतिज्ञा लेने के तुरंत बाद जिस प्रकार का परिवर्तन हमारे जन - नेताओं के व्यवहार में परिलक्षित होता है, उसे देखकर सोचने पर विवश होना पड़ता है कि हमने देश का प्रतिनिधि चुनकर भेजा है या व्यक्तिगत राग-द्वेष से भरे उस व्यक्ति को चुन लिया है, जो सिर्फ अपने फायदे के लिए पद का उपयोग कर रहा है। 
 वर्तमान राजनीति का यह परिदृश्य, हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या यही है लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप है? संसद की में जिस प्रकार के भाषण सुनने को मिल रहे हैं,  पक्ष- प्रतिपक्ष  जिस प्रकार की भाषा में अपनी बात रख रहे हैं, वह सब चिंतनीय है। अब मामला इतना गंभीर होते जा रहा है कि संसद में छीना- छपटी और हाथापाई वाले दृश्य भी नजर आने लगे हैं। ऐसा लगता है मानों एक- दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिता हो रही हो।  संसद की कानून- व्यवस्था को ताक पर रख कर सम्माननीय जनप्रतिनिधि धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता का परचम लहराते और नारेबाजी करते नजर आते हैं । 
ऐसा व्यवहार करके हमारे सम्माननीय प्रतिनिधि क्या साबित करना चाहते हैं, ऐसे शब्दों का इस्तेमाल ही क्यों करना, जिसे बाद में लोकसभा/राज्यसभा अध्यक्ष को विलोपित करने जैसा कदम उठाना पड़ता है। इतने अभद्र और गलत शब्दों का उपयोग कि उसे हम अपने संसदीय इतिहास की फाइलों में सँजो नहीं सकते। परंतु आजकल हमारी मीडिया उन शब्दों को विलोपित भी कहाँ होने देती है। बार- बार उस क्लिपिंग को दिखाकर इतना प्रचारित करती है कि अमर्यादित व्यवहार करने वाले उसपर खुशी जाहिर करते हैं कि हमें  तो जो बोलना था, बोल दिया और जनता तक बात पहुँच भी गई। 
“संसद की गरिमा को लेकर 2014 की वह बात याद आ रही है जब प्रणब मुखर्जी हमारे राष्ट्रपति थे - तब तीन उत्कृष्ठ सांसदों को पुरस्कृत किए जाने वाले समारोह में उन्होंने कहा था कि ईश्वर के लिए दोनों सदनों के सदस्य, सदन की गरिमा और प्रतिष्ठा को बनाए रखें, जो हमें विरासत में मिली है, हमें इसे और आगे ले जाना है। यह (संसद) आजादी का प्रतीक है। इसे बनाए रखना हम सदस्यों की जिम्मेदारी है। तब राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी का बगैर नाम लिए कहा कि उन्हें यह देखकर अच्छा लगा कि लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली पार्टी के नेता ने संसद में प्रवेश करने से पहले उसके द्वार पर झुककर नमन किया, यह संसद की पवित्रता और  गरिमा का सम्मान करने का प्रतीक है।”
परंतु संसद की गरिमा बनाए रखने की बात अब बीते जमाने की बात हो गई है।  और अब जो कुछ हो रहा है, वह सब लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मसार करने वाली बातें हैं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि संसद की गरिमा और सम्मान को बचाए रखने के लिए सख्त नियम और कानून बनाने होंगे, ताकि ऐसा करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सके। जैसा कि सभी जानते हैं संसद की कार्यवाही के दौरान प्रति मिनट लाखों करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। आखिर वह पैसा भी तो जनता की गाढ़ी कमाई का ही हिस्सा होता है।  एक समय यह भी आवाज उठी थी कि जनप्रतिनिधि यदि जनता के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा, तो उनका चुनाव रद्द करवाने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए। पर इस विषय को उठाकर कोई भी जननेता अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहता। 
प्रश्न अब भी यही है कि जनता जननेताओं लोकलुभावन झूठे वायदों पर भरोसा करके कब तक ठगी जाती रहेगी, देश की तरक्की की उपेक्षा करके वे छल- कपट और  भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हुए देश को लूटकर, लोकहित और लोकतंत्र की बातें करना आज के जन नेताओं का प्रमुख काम रह गया है। ऐसे में हम एक ईमानदार और स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद कर भी कैसे सकते हैं। लेकिन नाउम्मीद होकर, हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना भी तो कायरता है; अतः इन सबका विरोध करते हुए बदलाव की पहल तो करनी ही होगी। पक्ष और विपक्ष में वैचारिक मतभेद तो होते ही हैं, वाद- विवाद भी होते हैं;  परंतु चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भेड़चाल में न चलते हुए देशहित  को ध्यान में रखते हुए, लोक कल्याण की भावना को प्रमुखता देते हुए,  मर्यादित आचरण के साथ सकारात्मक और गंभीर रुख अपनाते हुए एक स्वस्थ वातावरण तैयार करना होगा, तभी संसद की गरिमा कायम रह पाएगी और लोक का तंत्र भी उनके प्रति आदर और सम्मान की भावना रख पाएगा।

6 comments:

विजय जोशी said...

आदरणीया,
आपने बहुत सटीक और सामयिक विषय चुना है इस बार। मुझे तो विंस्टन चर्चिल की याद हो आई जिन्होंने भारतवासियों के बारे में कहा था कि निकम्मों को सरकार भी उन्हीं के अनुरूप मिलेगी, क्योंकि वे वोट भी वतनपरस्ती नहीं बल्कि खुदगर्ज़ी के तहत देंगे। अयोध्या के परिणाम एक दर्पण है आनेवाले समय का। लोकसभा की गरिमा को तो दुरभिसंधि ग्रस्त लोगों ने निर्वसन कर दिया है। हम आगत पीढ़ी के अपराधी हैं। कुल मिलाकर :
- सारे कौए हो गये राजनीति में हंस
- बाहर से गोपाल हैं भीतर से हैं कंस
जोख़िमयुक्त विषय पर आपकी साहसी कलम के प्रति नतमस्तक हूं। सादर 🙏🏽

रत्ना वर्मा said...

सराहना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद जोशी जी l आप बिल्कुल सही कह रहे हैं कि हम आगत पीढ़ी के अपराधी हैं, इस अपराधबोध से मुक्ति के लिए हम कुछ कर पाएँगे ऐसा लगता तो नहीं पर युवा पीढ़ी को इन परिस्थितियों से अवगत तो करा ही सकते हैं ताकि वे आगे का रास्ता साफ करते हुए, अपने लिए बेहतर कल का निर्माण कर पाएँ l आभार के साथ पुनः धन्यवाद l

Anonymous said...

महत्वपूर्ण एवं समसामयिक सम्पादकीय । हार्दिक बधाई ।आपने सही कहा है कि युवा पीढ़ी को अवगत कराना आवश्यक है ताकि वे चेत जाएँ और अपने वोट का सही उपयोग करें।संसद की कार्यवाही देखकर तो शर्म आती है। यह कैसा लोकतंत्र है! सुदर्शन रत्नाकर ने

dr.surangma yadav said...

बेहद महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय विषय पर सशक्त संपादकीय लिखने के लिए आदरणीय रत्ना जी को हार्दिक बधाई।

रत्ना वर्मा said...

बहुत आभारी हूँ सुदर्शन जी l आपके ये प्रेरणादायी शब्द हमेशा ही मुझे उत्साहित करते है l आपका हार्दिक धन्यवादl लोकतंत्र का यह स्वरूप हम सबको आहत करता हैl

रत्ना वर्मा said...

आपका हार्दिक आभार और बहुत बहुत धन्यवाद डॉ. सुरंगमा जी l