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Jul 7, 2024

किताबेंः समाज को आईना दिखाने का सशक्त प्रयास

 -  भारती पाठक 

प्रजा ही विष्णु है , धर्मपाल अकेला , प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, इंडिया , 

राजेन्द्र नगर , गाजियाबाद , पृष्ठ 66 , रु 260.00 

कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता हैं, जिसके द्वारा तत्कालीन समाज में व्याप्त आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक अथवा व्यावहारिक सौन्दर्य या कुरूपता को प्रतिबिंबित कराना लेखकों का महत् उत्तरदायित्व होता है । भारतीय साहित्य के समृद्ध संचय में कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी उपस्थिति लोकप्रियता के सामान्य चरण से आरंभ करके न केवल असाधारण रूप से दर्ज कराई; बल्कि पूजनीय तक माने गए । महाभारत एक ऐसा ही ग्रंथ है, जो इतिहास के साथ ही धर्म, स्मृतियों, संहिताओं, दर्शन, राजनीति तथा सामाजिक संरचनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करता है । ‘प्रजा ही विष्णु है’ नाटक विधा में लिखी गई पुस्तक है, जिसके लेखक धर्मपाल अकेला हैं l यह पुस्तक महाभारत की तमाम कथाओं-उपकथाओं में से एक द्रौपदी- चीर हरण के प्रसंग पर आधारित है । नाटक तीन अंकों में है, जिसका कथानक महाभारत के ‘सभापर्व’ से लिया गया है। नाटक के सभी पात्र इतिहास से हैं, सो पुस्तक में लेखक ने इनके लिए विशेषरूप से पात्र परिचय का विवरण नहीं दिया है; बल्कि अभिनव प्रयोग स्वरूप नाटक के प्रसंगों के अनुसार अपने संवादों से इसके पात्र अपना परिचय स्वयं देते हैं ।

   लेखक ने आरंभ में पुस्तक की लंबी भूमिका दी है, जो वास्तव में इस पुस्तक का प्राण है और विशेष रूप से पठनीय है । इसमें लेखक महाभारत की आरंभिक रचना से लेकर कालांतर में इसके पुनर्लेखन से समाविष्ट हुए अनेक नए प्रसंगों, इसके शीर्षक का ‘जय’ से होकर ‘महाभारत’ रखे जाने तक की प्रक्रिया तथा इसके व्यापक सामाजिक प्रभावों के बारे में शोधपरक जानकारी देते हुए लिखते हैं -  ‘व्यास जी ने जब जय (कालांतर में महाभारत) का सृजन किया था तो उनका उद्देश्य इतिहास रचना था । ग्रंथ में उनका संदर्शन भी है, ‘नहि मानुषात्श्रेष्ठतरं हि किंचित ।’ यही जय, भारत और महाभारत में तब्दील होते-होते धर्मग्रंथ के समान पूजनीय हो गया। पूजनीय होने से इनमे निहित अनेक प्रश्न कई स्तरों पर ‘अपरिक्षणीय’ रह गए, सत्य भी अनछुआ रह गया । अनावृत्त नहीं हुआ ।..... धर्म हमारे देश में परंपरा का रूप नहीं ले सका है । ट्रेडीशन (चलन) बनकर रहा है, गतानुगतिकता से भरा पूरा । परंपरा और ट्रेडीशन(चलन) का अंतर न करने के कारण सांप्रतिक जीवन क्लेशपूर्ण होकर मूल्यहीनता की ओर अग्रसर है ।’

लेखक एक और रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं - ‘महाभारत में वर्णित घटनाओं का संबंध जिन स्थानों से रहा, उत्तर भारत के उन अंचलों में पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध तक इसका पठन-पाठन, श्रवण और इसकी पोथी सद्गृहस्थों के घर में रखना भी प्रीतिकर नहीं रहा ।’ कहने का तात्पर्य है कि भूमिका इस नाटक को आद्योपांत पढ़ने की उत्सुकता को जगाने वाली तो है, साथ ही तथ्यपरक जानकारियों से भी परिपूर्ण है । लेखक ने भूमिका में तमाम पुस्तकों तथा अपने शोध के हवाले से कई ऐसे रोचक तथ्यों से जुड़े अपने विचार रखे हैं जो आरंभ में महाभारत को समाज में उचित स्थान न मिल पाने के कारणों तथा विस्मृत किए गए, तमाम छोटे-छोटे पात्रों का विश्लेषण करते हैं- ‘बहुत से प्रसंग महाभारत में ऐसे हैं जहाँ जनसामान्य के अस्तित्व की सार्थकता प्रकट की जा सकती थी ।......छोटे से छोटे मानव के भीतर एक उदात्तता कहीं न कहीं विद्यमान रहती है । व्यास जी ने भुजा उठाकर बार-बार जिसका उद्घोष किया है, मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ-कहीं नहीं है, महाभारत से कैसे बिसर गया । 

 नाटक में सशक्त संवादों के द्वारा लेखक ने उन पात्रों के वास्तविक मनोभावों को शब्द देने का प्रयास किया है, जो निश्चित रूप से प्रभावशाली है । संवाद छोटे-छोटे और रोचक हैं, जो पाठक को पात्रों से जोड़ते हैं । हाँ देश काल के अनुरूप संवादों के शब्द कहीं-कहीं क्लिष्ट अवश्य हो गए हैं; किन्तु प्रसंग से जुड़ने पर उनका अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

नाटक लेखन के लिए यही कथानक चुनने के बारे में लेखक का कहना है - ‘द्रौपदी मेरे लिए महज एक ऐसी स्त्री नहीं है, जिसे कुरुसभा में सबके सामने निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की गई; वह किसी कॉलेज की ऐसी छात्रा भी हो सकती है, जिसे उद्दंड युवा गुंडे राह में, बस में तंग करने की कुचेष्टा करते हैं और बस में सवार अन्य यात्री निरपेक्ष देखते रहते हैं ।’ लेखक की यही तार्किक दृष्टि जहाँ नाटक के द्वारा संवेदनात्मक रूप से पंगु हो चुके समाज को जगाने और आईना दिखाने का एक सशक्त प्रयास है, वहीं अन्याय होते देखकर भी उसे अनदेखा करने या बच निकलने की प्रवृत्ति से इतर मनुष्य को मनुष्य होने का भान कराने का कार्य करती है । 

इन तमाम खूबियों के अलावा नाटक का अंतिम दृश्य पूर्व में पढ़ी गई कथा तथा प्रचलित धारणा से एकदम अलग है, जो किसी घटना को स्थापित विश्वासों से नहीं; बल्कि तर्क के आधार पर स्वीकार करने पर बल देता है । संभवतः इस नाटक को लिखने के पीछे लेखक की मंशा भी यही है कि प्रचलित विश्वासों को तर्क से सिद्ध किए बिना, किसी बनी बनाई लीक पर चलने से लोगों को बचाना तथा उन्हें भ्रम से बचने हेतु दृष्टि प्रदान करना भी लेखन का उद्देश्य होना चाहिए । पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है।

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