शिक्षा का अर्थ
केवल मनुष्य के ज्ञान की धार को तेज करना नहीं, अपितु आगामी जीवन में सुमार्ग पर चलते हुए देश,
समाज व परिवार की सेवा करते हुए उसे सार्थक बनाना है। पर कई बार हम शिक्षा के
अहंकार को शस्त्र बनाकर अपने से कम पढ़े लिखे लोगों की न केवल उपेक्षा करते हैं
बल्कि अनेक बार अपमानित भी जो सर्वथा अनुचित है। इसके ठीक विपरीत कई बार
अहंकारविहीन सरलमना के माध्यम से हमें सार्थक जीवन जीने का अनमोल सूत्र प्राप्त हो
जाता है।
दबंग व्यक्तित्व के
धनी टी. एन. शेषन जब एक बार सपरिवार छुट्टी मनाने निकले, तो मार्ग में पेड़ों पर एक चिड़िया द्वारा बनाए सुंदर घोंसले देखे। उनकी पत्नी ने
उनसे दो घोंसले घर के लिए ले चलने हेतु निवेदन किया, तो उन्होंने साथी सुरक्षाकर्मियों की सहायता से समीप ही गाय चरा रहे बालक
को बुलवाया तथा दो घोंसले देने हेतु कहा, जिसे बालक ने
अस्वीकार कर दिया। शेषन की ईनाम में पैसे की पेशकश को भी उसने ठुकरा दिया।
बालक उनकी पत्नी की
ओर उन्मुख हुआ और बोला - मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता। यदि मैं आपको घोंसले दे भी
दूँ , तो जब बच्चों के लिए भोजन की खोज में गई उनकी माँ लौटेगी और बच्चों को न पाएगी तो कितनी दुखी होगी,
उस बात की कल्पना भी आप नहीं कर सकतीं। मैं उस पाप का भागी नहीं बनना चाहता।
शेषन एक शुद्ध
देहाती छोटे से बच्चे की बात सुनकर दंग गए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि
मेरी सारी शिक्षा, शक्ति, सामर्थ्य उस भोले बालक की सच्चाई के सामने पिघलकर रह गई।
मैं नतमस्तक हो गया। उस छोटी- सी घटना ने मेरे अहंकार को न केवल ध्वस्त कर दिया अपितु मेरे अंतस्
को गहरे अपराध बोध की भावना से भर दिया। काश मैंने भी यही सोचा
होता। मानव होकर मानवता का छोटा सा पाठ मैं कैसे भूल गया उन पलों में।
सच कहें तो पद,
प्रतिष्ठा, शिक्षा मानवता की सही दीक्षा दे सके यह कतई आवश्यक नहीं।
यह तो भीतर के संस्कारों से पनपती है। दया, करुणा, स्नेह, परहित, छल कपटरहित व्यवहार वे सद्गुण हैं जो बुज़ुर्गों द्वारा
प्रदत्त संस्कारों और संगति से आते हैं।
दया धरम का मूल है,
पाप मूल अभिमान,
तब तक दया न
छांड़िये जब लौं घट में प्राण।
सम्पर्क:
8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास),
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35 comments:
शिक्षा एवं सुबुद्धि का आपस में कोई संबंध नहीं होता है, इसका सबसे सटीक उदाहरण। दया और संवेदनशीलता का संबंध शिक्षा से नहीं होता है इसको आजकल हम रोज देखते हैं।
बिल्कुल सही कहा आपने. इंसान को विवेक की थाती इसीलिए तो प्रदान की है ईश्वर ने. आप मनोयोग से पढ़ कर मेरा मनोबल बढ़ाते हैं. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार
परहित सरिस धर्म नही कोई, पर पीड़ा सम नही अधमाई।
अति उत्तम लेख माननीय����
संस्मरण पढ़ कर यह स्पष्ट है कि शिक्षा व्याहारिक ज्ञान है जिसका संबंध स्वहित और परहित दोनों से है। पुस्तकीय ज्ञान से इसका कोई संबंध नहीं है। पुस्तकीय ज्ञान अहंकार का कारण होता है शिक्षा अहंकार निवृत्ति का। वास्तविक शिक्षा विद्यालय से नहीं वरन सतसंग से मिलती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है "सतसंगति संसृति कर अंता "
स्वामी दत्तात्रेय के 21 गुरु होने का भी यही रहस्य है। डॉ राधाकृष्णन ने अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने भी इसीलिए स्वीकार किया। दुर्भाग्य से रोजगार परक शिक्षानीति ने शिक्षा के संस्कार परक शिक्षा, मूल्य परक शिक्षा, त्याग तथा बलिदान की शिक्षा, दया, करुणा, क्षमा,दान,निर्भय रहने,परहित, सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखने आदि की शिक्षा विस्थापित हो चुकी है। उत्तम आलेख के लिए साधुवाद। इस प्रकार के आलेखों की आज सर्वाधिक आवश्यकता है ।
बहुत ही सटीक लेख है। इस संबंध में मुझे एक अंग्रेजी वाक्य याद आता है कि" A lot is learnt by observing alone" जिसका अर्थ है की सिर्फ देखने मात्र से बहुत कुछ सीखा जा सकता है
समकालीन परिवेश में , बेहद उपयोगी और महत्वपूर्ण लेख। वर्तुल सिंह
विजय जोशी जी को इस महत्वपूर्ण परन्तु वर्तमान मे भुलाये गये सुविचारों को पुनः प्रतिपादित करने के लीये साधुवाद । विद्या विनय सम्पन्ने । ��
वाह सौरभ, ग्रेट. हार्दिक धन्यवाद
- परहित बस जिनके मन माहीं
- तिन कहुं जग दुर्लभ कुछ नाहीं
निशिकान्तजी, हार्दिक धन्यवाद. आप बहुत मनोयोग से पढ़ कर विचार साझा करते हैं. आपके इस सद्प्रयास से मुझे बहुत ऊर्जा मिलती है. सादर
आप तो स्वयं बहुत विद्वान हैं, सो आपकी बात मेरे लिये बहुत मायने रखती है. सो हार्दिक आभार. सादर
वाह प्रेमचंदजी, बहुत प्रेम से आपने पूरी बात को आगे बढ़ाते हुए अत्यंत सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत कर दी विषय की, जो वर्तमान में बहुत प्रासंगिक है. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार. सादर
आ. महोदय, सही कहा आपने. हार्दिक धन्यवाद. यदि आप नाम भी लिखते तो आनंद आ जाता. कोई बात नहीं देर आयद दुरुस्त आयद. अब सही. सादर
किताबी ज्ञान और संस्कार के द्वारा दी गई , शिक्षा में जमीन आसमान का फर्क है। लेखक के विचार इसी को इंगित करतें है।
आपके लेख में एक छोटे से बच्चे द्वारा कही गई बात सदे को छू जाती है, जो बात छोटे से बच्चे को समझ आ रही थी वही बात सेशन साहब की पत्नी को नहीं समझ में आ पाई। आज के शैक्षणिक वातावरण की यह एक बड़ी विडंबना है। शिक्षा का लक्ष्य केवल नौकरी पाना ही रह जाएगा और संस्कारों की शिक्षा को सांप्रदायिक नजरों से देखा जाएगा तब तक कोई उम्मीद नहीं है। स्कूल के पाठ्यक्रम में पंचतंत्र की कहानियों का समावेश होना इस दृष्टि से बहुत जरूरी है।
अजीत संघवी
601 सत्संग, off SV road, नडियादवाला ले नंबर 1
मालाड पश्चिम, मुंबई-महाराष्ट्र
मोबाइल-9967211555
बहुत ही सटीक लेख है। इस संबंध में मुझे एक अंग्रेजी वाक्य याद आता है कि" A lot is learnt by observing alone" जिसका अर्थ है की सिर्फ देखने मात्र से बहुत कुछ सीखा जा सकता है
Hemant Borkar
Non formal knowledge also some times much more useful and easily understood by a common person. Anna Hazare is one person who was able to inspire so many.
A nicely written clearly understood piece.
Thanks and Best Wishes
Arun Manglik
आ. अजीत जी, आपसे जुड़ाव इस मायने में सार्थक लगता है मुझे कि मुंबई जैसे महानगर में निवास करने के बावजूद अपने अपनी नाथद्वारा संस्कृति को अक्षुण्ण रखा है। दरअसल डिग्री आधारित शिक्षा पद्धति ने नई पीढ़ी को छला है। संस्कृति, मूल्य विहीन कर दिया। इसमें सबसे बड़ा योगदान तो हमारे नेताओं का ही है। कहा भी तो गया है People get the government what they deserve.
आप मन से जुड़े हैं, यह बात मुझे सुख देती है। हमारे रिश्तों के रामेश्वरम सेतु हेमंत बोरकर भी आज जुड़े हुए हैं। हार्दिक आभार। सादर
भाई हेमंत, आज अजीतजी भी जुड़े हुए हैं। उनसे सत्संग के सुख का पुण्य आपके खाते में। सही कहा आपने देखने के बारे में बशर्ते हमारी आँखे खुली हों, ऐसा न हो कि खुली आँखों के बावजूद हम अनजान बने रहें। हार्दिक आभार
Dear ArunJi, You are absolutely correct. Values Adeprived so called formal education is the root cause of all problems. Even Gandhi would have been a frustrated person today by the wrong doings of his disciples.
Thanks very much for Your perusal please. It keeps me going. With Regards
अति मार्मिक एवं शिक्षाप्रद। दिल को छूने वाला आलेख। सादर,
-वी.बी.सिंह, लखनऊ।
Bahut sunder prastuti sargarbhit and prernadayak
बहुत ही सारगर्भित आलेख।
उत्कृष्ट लेखन।
आपने एक बहुत ही महत्वपूर्ण विचार की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान ना होकर उसमे हमारी संस्कृति, संस्कार, सहृदयता, विनम्रता, नैतिकता, परहित, दया, करुणा जैसे गुणों का समावेश होना चाहिए तभी व्यक्ति के आदर्श चरित्र का निर्माण होता है और साथ ही समाज और राष्ट्र का भी ।
बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद् और शुभकामनाएं।
मधुलिका शर्मा
आप केवल सुधि पाठक ही नहीं अपितु आरंभ से आपने मेरी सुध भी ली है. कलकत्ता में साथ बिताए पल आज भी स्मृति में जीवंत हैं. अस्तु हार्दिक आभार. सादर
प्रिय निर्मल, मेरे भेल जीवन के सहयात्री हार्दिक धन्यवाद.
बहन मधु, मेरा मनोबल कायम रखने में तुम्हारा बहुत बड़ा योगदान है. यही स्नेह सदा बनाये रखना. हमेशा पढ़कर प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिये आभार. सस्नेह
सर बहुत सुन्दर कहानी. इस कहानी का अन्तिम पैराग्राफ ही जीवन की सोच और सार्थकता को निर्धारित करता है, कोई विद्यालय नहीं.
बहुत शानदार सर
हार्दिक धन्यवाद भाई अनिल, पत्रिका को आपका योगदान अनमोल है
माननीय, पूरी कहानी को पढ़कर सार तत्व की प्रस्तुति हेतु. हार्दिक धन्यवाद. सादर
आदरणीय जोशी जी आपके लेख को पढ़कर भीष्म साहनी जी की प्रसिद्ध कहानी गुलेलबाज लड़का याद आ जाती है, जिसमें बालक चिड़िया के बच्चों को बाज से बचाता है।
इस प्रसंग में भी वह मानव की नासमझ पृवत्ति को नकार कर अपनी संवेदनशीलता का परिचय देता है, जो उसे किसी डिग्री से नही मिली,यह शिक्षा उसे अपने परिवार और परिवेश से मिली है ,जिसे उसने आत्मसात कर इस पर अमल भी किया।
इस प्रेरक प्रसंग हेतु आपको बहुत बहुत साधुवाद।
सुनीता यादव भोपाल।
साक्षर होने और शिक्षित होने के बीच का महीन दर्शन।आदरणीय मैं आपके सभी प्रकाशित लेखों को बड़े मनोयोग से पढ़ने वाली पाठिका हूँ।आपके लेखों के उदाहरण मर्मस्पर्शी, सारगर्भित, रोचक,प्रेरक तथा संवेदना से पूरित होते हैं।
प्रस्तुत आलेख में मानव की सबसे उत्तम शिक्षा उसकी मानवीयता,सम्वेदनशीलता पर प्रकाश डालकर समाज को जागरूक बनाने एवं वास्तविकता से जोड़ने का आपका प्रयास अत्यंत सराहनीय है।
आज के परिदृश्य में ऐसे भावनात्मक एवं पथप्रदर्शक आलेखों की नितांत आवश्यकता है।
सादर अभिवादन के साथ कोटिशः साधुवाद।
माण्डवी सिंह भोपाल।
शिक्षा को किताबों के चंगुल से बाहर निकाल कर आपने उसे संस्कार का स्वरूप प्रदान किया है. हार्दिक धन्यवाद
आपका ज्ञान यज्ञ मेरी किताबी औपचारिकता से बहुत ऊपर है. सदा से मनोबल बढ़ाया है मेरा. सो हार्दिक धन्यवाद
स्वतः ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान से निश्चित रूप से अग्रणी हैं, जैसा कि उस बालक ने शेषन जी को बताया, और आपकी कलम से वो और ज्यादा प्रासंगिक हो गया।
संदीप जोशी
इंदौर
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