-भारती बब्बर
लेखक के बारे मेंः पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम ए, हिन्दी नाटक एवं रंगमंच में एम फिल, एक कहानी संग्रह "अनागत" हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एवं "पुस्तक पुरस्कार" से सम्मानित। अमेरिका के येल्लोस्टोन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़ीचर फ़िल्म पुरस्कृत भारतीय अंग्रेज़ी फ़िल्म "Ants" की कहानी, संवाद एवं पटकथा लेखन।
सम्पर्क: 2230/2, सेक्टर: 45 -सी, चंडीगढ़, babbarbharati@gmail.com
योगी बाबू के घर पर खासी चहल-पहल है। दोनों बेटियाँ, दामाद और उनके बच्चे सभी आये हुए हैं। बीते कल उनकी पत्नी की बरसी जो थी। बरसी की रस्म बहू,बेटे और बेटियों ने मिलकर अच्छी तरह पूरी कर दी। वैसे भी योगी बाबू को अपने बच्चों से, बहू और दोनों दामादों से कोई शिकायत नहीं है। सब उनकी इज़्ज़त करते हैं, बहू भी पूरा खयाल रखती है। पत्नी के जाने के बाद तो और भी।
दोपहर को नाती-पोतों ने मिलकर फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना लिया। नयी फिल्मों में योगी बाबू को कोई रुचि नहीं है, ये जानते हुए बड़े नाती ने कहा, ‘मैंने “लुकाछुपी” डाउनलोड कर रखी है नानू ,घर पर ही देखेंगे।’
‘हम सब देखेंगे दादू, आपको भी अच्छी लगेगी देखना,’ पोते का आग्रह था।
‘अरे, पर ये तुम्हारी वाली नई फिल्में मुझे नहीं रुचती।’
‘दादू, ये मज़ेदार है, हँस-हँसकर पेट दुख जायेगा आपका! आपके ज़माने की रोन्दू फिल्मों जैसी नहीं है’ पोते ने दलील दी तो वे हँसे बिना नहीं रहे।
‘देख लीजिए बाबूजी, बच्चों का मन है,’ बेटे ने कहा तो योगी बाबू तैयार हो गए।
लेकिन योगी बाबू तो फ़िल्म का विषय देखकर ही भौंचक्के हो गए। ये बच्चे भी कुछ समझते नहीं, फ़िल्म बनाने वाले तो बिल्कुल नहीं, उन्होंने सोचा। नायक और नायिका आपस में शादी करने के बारे में फैसला लेने से पहले एक साथ रहकर देखना चाहते हैं कि वे जीवन भर एक दूसरे के साथ रहने के योग्य हैं भी या नहीं। एक साथ यानी बाक़ायदा पति-पत्नी की तरह! उन्हें पता ही नहीं चला और दुनिया इतनी बदल गई!!बच्चे हँसते रहे और योगी बाबू पचास साल पीछे चले गए।
तब से योगी बाबू को लग रहा है किसी ने खोदकर पुराने अवशेष उघाड़ दिये हो। उनकी शादी को पचास साल हो चुके हैं। तब यही रिवाज होता तो...उसके आगे वे सोचना नहीं चाहते। ..मन है कि बार-बार सन 1971 साल पर जाकर अटक गया है।
तब योगी बाबू यानी योगेंद्र सिन्हा तेईस वर्ष के थे। उन दिनों पटना तो क्या तब का बम्बई भी इतना आधुनिक नहीं था। योगी बाबू ने स्थानीय कॉलेज से बी . ए . पास किया था। आर्थिक तंगी बहुत थी, इसलिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। उन्हीं बच्चों में से एक के पिता ने मीठापुर के एक छोटे प्राइवेट स्कूल में अस्सी रुपये मासिक की नौकरी लगवा दी। इस एहसान के बदले योगी बाबू को उनके बच्चे को मुफ़्त में ट्यूशन पढ़ानी पड़ती। पटना में तब वे अकेले ही थे,माँ छोटी बहन के साथ गाँव में ही थीं। यहाँ रहने के लिए पन्द्रह रुपये मासिक किराये पर एक छोटा बरसातीनुमा कमरा था, इसलिए माँ या बहन साथ रहने नहीं आ सकते थे। उनके नाती पोते तो उन परिस्थितियों की कल्पना भी नहीं कर पाते, जैसे योगी बाबू आज की फिल्म देखकर नहीं कर पा रहे।
योगी बाबू की पहचान अच्छे अध्यापक और सरल व्यक्ति की थी। उसी प्रकार बाबू अवधेश कुमार सिन्हा की पहचान एक अच्छे सरकारी कर्मचारी की थी। वे स्थानीय डाकघर में हेड क्लर्क थे। उनकी छह बेटियाँ थी। ज़ाहिर है बेटे की आस में यह पंक्ति बनी थी। बड़ी बेटी ब्याही हुई थी जब छठी पैदा हुई। स्वयं नाना बनने के बाद तो उन्होंने भी बेटे की उम्मीद छोड़ दी। उनकी चौथी बेटी चंचल योगी बाबू की छात्रा थी, लेकिन अवधेश बाबू से उनका कोई परिचय नहीं था। एक दिन राह चलते एक परिचित के साथ अवधेश बाबू से योगी बाबू की भेंट हो गई। डाक बाबू की पारखी दृष्टि को योगी बाबू में अपना दामाद दिख गया। अपनी दूसरी बेटी उर्मिला के लिए वे योग्य वर की तलाश में थे,कई रिश्ते देखे पर संयोग नहीं बने। तीसरी बेटी भी जल्दी ही विवाह योग्य हो जायेगी, ये सोचकर वे उर्मिला के रिश्ते को लेकर काफी परेशान थे। योगी बाबू के सरल सादे व्यक्तित्त्व में उन्हें अपनी चिंता का समाधान दिख गया। जब पता चला योगी बाबू के परिवार में माँ व बहन के सिवा कोई नहीं तो वे और आश्वस्त हो गए।
जिन परिचित के साथ उनकी भेंट योगी बाबू से हुई थी उन्हें लेकर अवधेश बाबू उनके द्वार पर अपना प्रस्ताव लेकर पहुँच गए। बेटी की प्रशंसा में उन्होंने बताया कि वह मैट्रिक फेल है, लेकिन अपनी बाकी बहनों की तरह सुशील एवं गृह कार्य में दक्ष।
“आपका घर अच्छी तरह सम्भाल लेगी, उसने कौन सी नौकरी करनी है!”
योगी बाबू को प्रस्ताव जँच तो गया,पर अस्सी रुपये के वेतन में गृहस्थी बसाने की फिलहाल कोई सम्भावना नहीं थी। उन्होंने अवधेश बाबू के आगे हाथ जोड़ दिये। डाक बाबू भी निराश तो हुए पर इतना सुशील वर हाथ से कैसे जाने देते!
“कुछ करते हैं,” कहकर वे चले आये।
लगभग दो महीने बाद वे फिर उपस्थित हो गए। इस बार समाधान साथ लेकर। वे एक स्थानीय बड़े स्कूल में योगी बाबू की नियुक्ति की बात कर आये थे। वेतन एक सौ नब्बे रुपये। अवधेश बाबू हाथ जोड़कर खड़े हो गए, “आप कल ही प्राध्यापक से मिल आइएगा, मैं सब तय कर आया हूँ।”
योगी बाबू हतप्रभ देखते ही रह गए। अस्सी से सीधे एक सौ नब्बे!अगले दिन गए तो प्रधानाचार्य जैसे उनकी प्रतीक्षा में ही थे। उन्हें दो दिन बाद ही एक तारीख से आने को कह दिया गया। अब तो योगी बाबू के पास विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत करने का कोई कारण नहीं था।
अवधेश बाबू चट मँगनी, पट ब्याह करना चाहते थे। पर लड़की दिखने में कैसी है?
“हमारे यहाँ लड़की दिखाने का रिवाज नहीं है, मास्टर जी। आपने चंचल को तो देखा ही है! सब बहनें एक ही सी हैं,” अवधेश बाबू ने कहा।
योगी बाबू सोच में पड़ गए। अवधेश बाबू ने एक सौ नब्बे रुपये के वेतन वाली नौकरी भी दिलवा दी। चंचल भी देखने में अच्छी है... लड़की की तसवीर ही मिल जाये, कुछ अंदाज़ा तो लगे। योगी बाबू ने थोड़ा झिझकते हुए पूछ ही लिया, माँ को दिखाने के लिए ...
अगले ही दिन अवधेश बाबू तसवीर ले आये। सूरत चंचल से वाक़ई मिलती-जुलती थी। योगी बाबू के मुख पर आश्वस्त भाव देखकर अवधेश बाबू ने जेब से तुरंत पाँच का नोट निकाला और भावी जामाता के हाथ में रखकर मुट्ठी भींच दी।
माँ और बहन को भी फोटो पसन्द आ गई। महीने भर के भीतर ब्याह भी हो गया। तब तक योगी बाबू नई नौकरी पर लग चुके थे और तीस रुपये किराए पर दूसरा मकान भी ले लिया था। शादी पर गिने-चुने रिश्तेदार और योगी बाबू के कुछ ख़ास मित्र ही शामिल हुए। ज़्यादा लोगों को एकत्र करने का न तो सामर्थ्य था और न वे भावी ससुराल वालों पर बोझ डालना चाहते थे। अत्यंत सादगीपूर्ण तरीके से कार्य सम्पन्न हो गया। ससुर और दामाद दोनों ही सन्तुष्ट थे।
उस दिन को याद करते हुए योगी बाबू सोच में पड़ गए। एक आज का ज़माना है कि लड़का-लड़की शादी से पहले ही एक साथ रहते हैं, और एक उनका ज़माना था कि दुल्हन पेट तक घूँघट निकाले थी। सुहाग रात तक एक दूसरे को देखना भी नसीब नहीं हुआ था।
विदाई के साथ सब बाराती लौट गए। योगी बाबू के पास तीन दिन की ही छुट्टी थी, इसलिए वे भी सद्य-ब्याहता पत्नी को लिये माँ और बहन के साथ गाँव चले गए। आस-पास की कुछ महिलाओं के साथ कुछ रस्में हो गई। गरीबी में जितना हो सकता था, उतना ही उन्होंने किया। माँ को यह तसल्ली हो गई कि बेटे का घर सम्भालने वाली आ गई थी। उन्हें योगी बाबू की नयी नौकरी से बेटी के अच्छे ब्याह की सम्भावनाएँ भी प्रबल होती दिख रही थी।
अंततः मिलन की बेला भी आ गई। लालटेन की मद्धम रोशनी में पेट तक घूँघट निकाले उर्मिला खटिया पर सकुचाई बैठी थी। योगी बाबू ने धीरे से घूँघट उठाया और भौंचक्क रह गए...। ये क्या!!ये तो उर्मिला है ही नहीं!!!
दुल्हन शरमाई ज़रूर पर अपने पति की प्रतिक्रिया से यकायक सकपका गई। योगी बाबू कुछ समझ नहीं पा रहे थे। सामने बैठी उनकी दुल्हन तो तसवीर वाली लड़की थी ही नहीं! उसकी सूरत तो चंचल से मिलती थी, पर आज जिसके साथ योगी बाबू के सात फेरे हुए वह तो किसी तरह वैसी नहीं लगती। तसवीर बेशक किसी सुंदरी की नहीं थी,पर यह तो... इसके नाक-नक़्श बिल्कुल अलग और चेहरा चेचक के दाग़ से भरा हुआ था। योगी बाबू को समझते देर नहीं लगी कि उनके ससुर ने सब कुछ जानते- बूझते किया है।
दुल्हन को तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। पति की परेशानी देखकर उसने पूछ ही लिया कि क्या हुआ।
“तुम उर्मिला तो नहीं हो...।” योगी बाबू मुश्किल से कह पाए।
“मैं उर्मिला हूँ... बाबूजी ने तो कहा कि आपने हाँ कही मेरे लिए।” अब तक शायद उसे भी कुछ- कुछ समझ आ रहा था।
इससे पहले कि योगी बाबू कुछ कह पाते, उर्मिला के गालों पर लुढ़कते आँसुओं को उन्होंने देख लिया। वे समझ गए कि इस प्रकरण से जितने वे अनभिज्ञ हैं , उतनी ही उर्मिला भी। उन्हें लगा कि इसके लिए उर्मिला को दोषी तो ठहराया नहीं जा सकता, पर अपने साथ हुए इस छलावे को भुलाया भी नहीं जा सकता। जिस सम्बन्ध की शुरूआत ही धोखे से हो उसे जीवन भर कैसे निभा पाएँगे! दिन भर गाँव की स्त्रियों के संग माँ और बहन रस्में करती रही, दोनों ने भी तो देखी थी तसवीर...उन्होंने कुछ कहा क्यों नहीं? योगी बाबू का जी तो चाहा तुरंत पटना जाकर अवधेश बाबू से सफाई माँगें, किंतु दूसरे ही क्षण उनकी दिलवाई एक सौ नब्बे रुपये की नई नौकरी याद हो आई...दुल्हन से तो उन्होंने कह दिया, “कोई बात नहीं, सो जाओ।” लेकिन सच यह है कि दोनों अपनी पहली रात पर मिले इस अप्रत्याशित उद्घाटन के बाद सहज नहीं थे।
किसी तरह भोर हुई। योगी बाबू कुछ कहते उससे पहले ही माँ ने कह दिया कि शादी-ब्याह संजोग की बात है, रूप और सुंदरता तो जवानी तक साथ है। अवधेश बाबू ने पूरे हजार रुपये की रिश्वत दी है उसकी नौकरी के लिए, आज के जमाने में कौन करता है किसी के लिए?
तो ये बात है! योगी बाबू को सारे रहस्यों से यकायक पर्दा उठता लगा। पर ससुरजी यह सब उनसे कहकर करते,धोखे से क्यों? जब आमना-सामना होगा तब क्या कहेंगे।
इधर उर्मिला समझ नहीं पा रही थी कि उसे पसंद करने के बाद उसके पति ने ऐसा क्यों कहा। बाबूजी ने स्वयं उसे बताया था कि योगेंद्र बाबू को वह पसंद है। वह कितनी खुश हुई थी ये सोचकर कि कोई ऐसा व्यक्ति भी है, जो उसके रूप पर टिप्पणी किए बिना उसे पसंद कर गया...फिर अब?
योगी बाबू उर्मिला के साथ तीन दिन गाँव में रहे पर सहज नहीं हो पाए। माँ समझाती रही, “दुलहिन को काहे सजा दिये रहे? ओहसे ब्या हुई, ओऊ तोरी मेहरारु हई, अब का करिहै?” योगी बाबू को भी यही समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें! जिस तसवीर को महीना भर से निहार कर शादी का सपना देखा वही बदल गई। अवधेश बाबू ने नौकरी के लिए रिश्वत देने की बात माँ को तो बता दी; लेकिन उनसे छुपा कर रखी। अम्मा ने दुल्हन को भी देख लिया था, केवल उन्हें ही अँधेरे में रखा गया। माँ के लिए बेटे की नौकरी का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण था। नौकरी तो योगी बाबू के लिए भी मायना रखती थी लेकिन वे अपने साथ हुए छलावे से आहत थे। एक और प्रश्न उन्हें परेशान कर रहा था कि उन्हें दिखायी गई तसवीर किस लड़की की है? उससे विवाह की अपनी कल्पना के लिए वे दोषी न होकर भी आत्मग्लानि महसूस कर रहे थे।
उर्मिला भी विवाहोपरांत हुए इस अनपेक्षित घटना से विचलित थी। उसके पास भी आहत होने का अपना कारण था। बचपन से ही अपने रूप को लेकर होने वाली टिप्पणियों और शेष बहनों से होने वाली तुलना से वह पहले ही आहत थी। उसकी शादी के लिए हो रही अड़चनों और उसके कारण घर में तनाव भी उससे छुपा नहीं था। इसलिए योगी बाबू द्वारा पसंद किए जाने से उसके मन में उनके लिए सम्मान था। लेकिन वास्तविकता उसे भीतर तक चुभ रही थी। अस्वीकार किए जाने का दंश असहनीय था।
पटना लौटकर पति-पत्नी और असहज हो गए; क्योंकि यहाँ उन दोनों के अलावा तीसरा कोई न था। गाँव में माँ या बहन तो थीं जिनसे दोनों की बातें हो जाती। उर्मिला मायके जाने के लिए उत्सुक थी और योगी बाबू ससुराल जाने के लिए उत्सुक होते हुए भी समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे जायें? गाँव जाने के कारण विवाहोपरांत होने वाला मायके का फेरा रह ही गया था।
ससुराल पहुँचने पर द्वार पर ही योगी बाबू की सास स्वागत के लिए खड़ी थी। उर्मिला जाते ही माँ से लिपटकर रोने लगी। माँ ने शायद इसे नवविवाहिता की भावुकता भर समझा; क्योंकि योगी बाबू से वे उत्साह और आदर से मिलीं। लेकिन योगी बाबू बिलकुल सहज नहीं हो पा रहे थे। उनकी असहजता को भी सासु माँ ने नए दामाद का शर्मीलापन समझा। अवधेश बाबू दफ्तर से अभी लौटे नहीं थे और घर पर कोई अन्य पुरुष नहीं होने से योगी बाबू कुछ बोल भी नहीं पाये। सासु माँ ने जानना चाहा कि वे और उनकी माँ अपनी बहू से खुश तो हैं ना? योगी बाबू कोई प्रतिक्रिया देने की सोचते भी कि अवधेश बाबू प्रवेश करते हुए बोले, “लो खुश काहे नहीं होंगे? अब तो बहुरिया के साथ बढ़िया वाली नौकरी भी है...क्यूँ मास्टरजी ?”
वे योगी बाबू को दामाद बनाने के बाद भी मास्टर जी ही बुलाते रहे। नौकरी का हवाला देकर अवधेश बाबू ने प्रश्न पूछे जाने से पहले ही उनका मुँह बन्द कर दिया, ये योगी बाबू समझ गए। ये भी समझ गए कि अवधेश बाबू की पत्नी भी पति की कार्यवाही से अवगत नहीं है।
अवधेश बाबू के आते ही उर्मिला माँ और बहनों के साथ अंदर चली गई। एकांत पाते ही अवधेश बाबू ने योगी बाबू की पीठ थपथपाते हुए पूछा, “नौकरी बढ़िया चल रही है न मास्टरजी ?”
“आप मुझे पहले ही बता देते बाबूजी,” योगी बाबू ने इतना ही कहा।
“क्या बताता मास्टरजी? ये कि नौकरी के लिए रिश्वत दी या ये कि मेरी उर्मिला सुंदर नहीं है...दोनों बातें अगर आपको बताता, तो आप वही अस्सी रुपल्ली की नौकरी करते रहते और मेरी उर्मिला फिर से नकार दी जाती ...कैसे बताऊँ मास्टरजी, बेटी का चेहरा देखकर बार-बार लड़के वालों के मना करने पर कैसा लगता है...। माँ-बेटी के आँसू नहीं रुकते और मेरा दिल रोता...। मेरी उर्मिला हीरा है मास्टरजी, आपको बहुत सुखी रखेगी...” अवधेश बाबू का गला रुँध गया।
योगी बाबू को समझ नहीं आया क्या कहें। दोनों बातें सही थीं। वे रिश्वत न देने देते और ये भी सच है कि असली तसवीर देखकर शायद वे हाँ भी न करते।
“एक बार मुझसे पूछा या कहा तो होता बाबूजी...मेरी स्थिति तो सोचिये... जब देखा कि ये वो नहीं है...” शायद उसे भी...
“आपने तो नहीं बताया ना मास्टरजी?” अवधेश बाबू ने टोकते हुए पूछा।
“मैं कुछ समझता तब ना बताता।”
“अच्छा किया मास्टरजी, बहुत बार नकारी गई है बेचारी।”
“शादी के बाद नकार देता तो क्या होता बाबूजी? ” योगी बाबू साहस करके अपने मन की कह गए।
“आपको देखते ही परख लिया था मास्टरजी, भरोसा था आप ऐसा नहीं करेंगे।”
“मेरे साथ धोखा... ”
योगी बाबू बात पूरी करते उससे पहले अवधेश बाबू ने हाथ जोड़ दिये, “ऐसा भगवान के लिए मत सोचना मास्टरजी, मेरे अपना कोई बेटा नहीं है, आप ही... ” वे बोलते-बोलते रुक गए। चंचल नाश्ते की तश्तरियाँ लिये आ गई।
“सर जी, दीदी दो दिन के लिए रह जाए?” उसने हँसते हुए पूछ लिया।
“अरे, चार दिन तो ब्याहे हुए हैं, आ जाएगी, पटने में ही तो रहती है। और तू क्या सर, सर कर रही है? जीजाजी नहीं कह सकती? तेरे सर नहीं है अब ये” अवधेश बाबू ने कहा।
“वो रहना चाहती है तो...” योगी बाबू की बात पूरी होने से पहले ही चंचल हँसते हुए दौड़ गई, “हाँ दीदी हाँ...”
अवधेश बाबू जामाता का मुँह देखते रह गए।
“मास्टरजी, आप कहीं...” वे अकस्मात चिंतातुर हो गए।
“उर्मिला भी परेशान है, दो दिन रह लेगी तो मन ठीक हो जाएगा” योगी बाबू ने कहा।
दोनों ने मौन रहकर ही नाश्ता किया। योगी बाबू अभी भी अपने मन में दूसरे प्रश्न को लिये परेशान हो रहे थे, कैसे पूछें कि तस्वीर किसकी थी। अब उस प्रश्न का औचित्य नहीं था। लेकिन योगी बाबू कैसे पूछते कि जिसे देखकर वे शादी के लिए तैयार हुए थे वो लड़की है कौन? कहीं अचानक सामने आ गई तो...उस कल्पना से वे अचकचा गए। उनकी अपनी सालियों में से तो थी नहीं, पर चेहरा चंचल से मिलता है।
योगी बाबू अनुत्तरित प्रश्न लिये लौट आये। उर्मिला से दो-चार दिन अलग रहकर शायद दिमाग कुछ सोच सके।
ससुराल से लौटकर योगी बाबू को घर खाली लगने लगा। उन्हें अब आभास हुआ कि शादी के सप्ताह भर में ही घर की रंगत बदल गई है। गाँव से लौटते ही छुट्टी समाप्त हो चुकी थी। उनका तो आधे से ज़्यादा दिन स्कूल में बीत जाता था। उन्होंने न घर पर ध्यान दिया न इस बात पर कि उनकी अनुपस्थिति में उर्मिला क्या करती है। वे देर से आते, तब भी वह कोई प्रश्न किए बिना चाय नाश्ता ला देती, समय पर खाना परोस देती। उन्हें आज लगा कि भले उन्होंने उर्मिला को पत्नी के अधिकार नहीं दिए, वह अपना कर्त्तव्य निभाने से नहीं चूकी। आज उसकी अनुपस्थिति में पहली बार योगी बाबू को खयाल आया कि उर्मिला ने तो उनकी तस्वीर भी नहीं देखी थी। उन्होंने तो ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि वे उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे भी या नहीं! और जो हुआ उसके लिए उर्मिला को सज़ा क्यों? रात को उनके करवट लेकर सो जाने पर वह क्या सोचती होगी? उनके व्यवहार से उर्मिला भी उतनी ही आहत हुई होगी।
परन्तु योगी बाबू सामने आयी परिस्थिति से स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रहे थे। जीवन भर का प्रश्न है दो-चार दिन की बात तो नहीं। उनके दिमाग से तस्वीर वाली लड़की जाने का नाम नहीं ले रही थी। दो दिन बाद उर्मिला लौट आएगी, फिर
आज लुकाछुपी देखते हुए योगी बाबू के मन में वही प्रश्न कौंधा, साथ रहने के बाद यदि लड़का-लड़की एक दूसरे को अयोग्य पाये तो क्या? पति-पत्नी की तरह रहकर नकार दिये जाने के बाद किसी और के साथ कैसे निभा पाते हैं! वे तो केवल तस्वीर देख कर अपनी काल्पनिक भावनाओं के लिए अपराध बोध से ग्रसित होते रहे थे।
उधर उर्मिला इस संशय में थी कि उसके पति उसे लेने आएँगे भी या...माँ और बाबूजी से वह कुछ कहने पूछने का साहस नहीं कर सकी। माँ की खुशी के आगे कुछ कहे भी तो क्या? और बाबूजी ने योगी बाबू के जाते ही उसके सामने माँ से कहा कि अपनी उर्मि के तो भाग खुल गए हैं! इतना गुणवान दामाद मिला है। वह सोचती ही रही कि योगी बाबू ने उससे उर्मिला न होने की बात क्यों कही?
कमरे की बदली हुई रूपरेखा योगी जी को उर्मिला का स्मरण करा रही थी। इससे पहले वह कमरा कभी घर नहीं लगा था उन्हें। आज देखा कि कमरा करीने से सजा है। धुले कपड़े अलमारी में तह लगे हैं। रसोई भी समेटी, साफ-सुथरी सजी हुई दिखाई दी। उसे मायके में रहे तीन दिन हो गए थे। कुछ सोच ही रहे थे कि उनका एक मित्र आ गया। घर में कदम रखते ही उसने चारों तरफ़ निगाह घुमायी और बोला, “वाह योगी, तेरा भूत का डेरा तो घर बन गया! ये तो मंतर ही फेर दिया लगे! है कहाँ भौजाई?”
योगी जी को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया। तपाक से उठ खड़े हुए और बोले, “उसे मायके से लिवाने निकल ही रहा था!”
“ये बात है तो मैं रुकूँगा नहीं। भौजाई आ जाए तो आता हूँ,” कहकर वह निकलने लगा तो योगी जी साथ ही चल पड़े।
अवधेश बाबू गली में ही मिल गए। उन्होंने देखते ही बाँहें फैलाकर उन्हें गले से लगा लिया।
“आ गए मास्टर जी! मैं भी आपकी तरफ आने की सोच रहा था। तीन दिन हो गए तो लगा कहीं आप...उस दिन आपने तो पूछा नहीं...”
योगी जी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
“वो फोटू...मालती की थी। दस बरस हुए गुजरे...।मेरी सबसे छोटी बहन थी। उसे भी माता निकली थी उर्मि के साथ...बची नहीं बेचारी...सगाई कर दी थी पर ब्याह से पहले ही चल बसी। आपने फोटू माँग लिया तो क्या करता...मालती तो अब कभी मिलने वाली है नहीं, उर्मि की देता तो आप कहीं...”वे रुक गए।
योगी बाबू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस इतना कहा, “पहले आ नहीं सका...।आज चलेगी ना?”
अवधेश बाबू यकायक राहत महसूस करते हुए हँसे, “लो चलेगी क्यों नहीं? अब तो आपका घर उसका घर।”
घर पहुँचते ही वे बरामदे से ही पुकारने लगे, “मास्टर जी आ गए हैं, उर्मि की माई...”
उस दिन योगी बाबू उर्मिला के साथ ससुराल से तुरंत लौट आये। उनके सिर से भी मानो बोझ उतर गया। उर्मिला को लिए घर की दहलीज लाँघते हुए उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों वे पहली बार गृहप्रवेश कर रहे हैं। उस रात योगी जी ने पहली बार पत्नी का हाथ थामा। उर्मिला के गालों पर एक बार फिर आँसू बह निकले, पर इस बार वह अकेली नहीं थी, योगी बाबू के आँखों से भी अविरल धारा बह रही थी...
शादी से पहले एक दूसरे को देखे या पसन्द किए बिना योगी बाबू ने उर्मिला के साथ उनचास वर्षों का सुखद दाम्पत्य जीवन बिताया। उसे तसवीर वाली बात कभी पता ही नहीं चली। एक वर्ष पहले उर्मिला का देहांत हो गया। तब से योगी बाबू अकेले हो गए हैं। पत्नी ने बच्चों को पिता के लिए बहुत आदर सिखाया। उसके संस्कारों के कारण ही बच्चे पिता को पूजनीय समझते हैं।
अपने कंधे पर किसी स्पर्श से योगी जी की तन्द्रा टूटी।
“क्या हुआ बाबूजी?” उनका बेटा था।
“कुछ भी तो नहीं बेटा” कहकर योगी जी ने अपनी आँखें पोंछी और दीवार पर लगी उर्मिला की तस्वीर को देखकर मन ही मन कहा, कितना अच्छा किया बाबूजी ने तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखाई...