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Mar 1, 2022

उदंती.com, मार्च- 2022

वर्ष-14, अंक-7

रँग गई पग-पग धन्य धरा, 
हुई जग जगमग मनोहरा। 
-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

अनकहीः  उन्नति की दिशा में बढ़ते स्त्री के कदम - डॉ. रत्ना वर्मा

 पर्व-संस्कृतिः बस्तर की फागुन मड़ई  - रविन्द्र गिन्नौरे

 पर्व-संस्कृतिः कहाँ गई वो गाँव की होली - कमला निखुर्पा

कविताः मुखड़ा हुआ अबीर - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 महिला दिवसः या देवि...  - डॉ. सुशीला ओझा

 महिला दिवसः  अरी ओ नारी - डॉ. शिप्रा मिश्रा

दो कविताएँः 1. स्त्री समुद्र है, 2. स्त्री व पानी - डॉ. कविता भट्ट

 व्यंग्यः ऑनलाइन कार्यक्रम के लिए ऑफलाइन हिदायतें - जवाहर चौधरी

ग़ज़लः होली में - विनित मोहन ‘फिक्र सागरी’

ताँकाः राधा अधीर कान्हा की बाँसुरी पे - कृष्णा वर्मा

नवगीतः कैसे कहूँ - शशि पाधा

ग़ज़लः रंग- बिरंगा फाग - निधि भार्गव मानवी

हास्य व्यंग्यः महिला दिवस पर गंभीर विमर्श - लिली मित्रा

कविताः पहाड़ यात्रा - मधु बी. जोशी

कहानीः लुका-छुपी  - भारती बब्बर 

दोहेः फिर खिल उठा पलाश - डॉ. सुरंगमा यादव

सोनेटः मौन उद्गार - अनिमा दास

कविताः उस दिन कहना - शशि बंसल गोयल

कविताः मौसम है रंगीन सुहाना - प्रो. (डॉ.) रवीन्द्र नाथ ओझा

कविताः माह फागुनी - आशा पाण्डेय

कविताः देहरी से आँगन तक की यात्रा - नंदा पाण्डेय

कविताः एक चुटकी अबीर - सीमा सिघल ‘सदा

कविताः छेड़ो कोई तान - शशि पुरवार

कविताः होली की यादें - डॉ. निशा महाराणा

कविताः बेटी एकः रूप अनेक - चक्रधर शुक्ल

कविताः मुझे बंदिशों में रहना पसंद है - दिव्या शर्मा

प्रेरकः जंगली फूल  - निशांत

लघुकथाः कम्बल - डॉ. रंजना जायसवाल

दो लघुकथाएँ : 1. बुक शेल्फ, 2. परमात्मा वाली नजर - ऋता शेखर मधु

किताबेंः  छंद साधना की अनुपम कृति - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

आधुनिक बोध कथाएँ - 3  राजनीति के फ्यूचर्स  - सूरज प्रकाश

जीवन दर्शनः खुशी अंतस की अवस्था - विजय जोशी



अनकही- उन्नति की दिशा में बढ़ते स्त्री के कदम

 - डॉ. रत्ना वर्मा

स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के हक की लड़ाई अभी भी जारी है, आगे न जाने कब तक जारी रहेगी। 8 मार्च को पूरी दुनिया में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महिलाओं के अधिकार और उनकी स्वतंत्रता की बात की जाती है। 

दुनिया के किसी भी कोने में यदि लड़कियों के भविष्य को लेकर बात हो, उनके पालन- पोषण से लेकर शिक्षा, आत्मनिर्भरता, शादी, बच्चे,  परिवार जैसे कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर फैसला लेने जैसी गंभीर बात क्यों न हो, आज भी लड़कियों की इच्छा को जानने का प्रयास नहीं किया जाता। अभी हाल ही में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने विवाह के लिए लड़कियों की उम्र 21 वर्ष किए जाने के विधेयक को मंजूरी दे दी है। बात  चूँकि लड़कियों की थी,  तो तुरंत तरह- तरह की प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो गईं। समाज और देश के साथ- साथ स्वयं लड़कियों के लिए यह फैसला कितना उचित और लाभदायक होगा, इस पर बहस होने के बजाय नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। राजनीति तो हर जगह अपना रंग दिखाती है, सो इस विषय को भी राजनैतिक बहस का मुद्दा बना दिया गया। 

अभी तक लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों के लिए उम्र 21 वर्ष थी। इस बार विवाह की उम्र में यह बदलाव 43 वर्ष बाद  लिया गया है। वर्ष 1929 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की ओर से बनाए गए कानून के तहत शादी के लिए लड़कियों की न्यूनतम उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल तय की गई थी। वर्ष 1978 में इसमें संशोधन कर क्रमश: 18 और 21 साल कर दिया गया था। धीरे- धीरे ही सही, विवाह की उम्र को लेकर समय- समय पर नियम- कानून में बदलाव अवश्य होते रहे हैं, जो समाज और देश के हित में लिए जाते रहे हैं; परंतु आज भी देश के अनेक क्षेत्रों में बाल- विवाह की प्रथा जारी है, जिसे रोकने के सरकार के साथ-साथ विभिन्न संस्थाएँ प्रयासरत हैं। 

कम उम्र में शादी के बाद लड़कियों को होने वाली अनेक परेशानियों से पूरा देश वाकिफ है। बाल विवाह जहाँ लड़कियों का बचपन छीन लेता है,  वहीं शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, परिवार तथा समुदाय पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कम उम्र में माँ बन जाने से माँ और बच्चे दोनों की सेहत पर बुरा असर होता है। एक लड़की पर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी का बोझ कम उम्र में आ जाने के कारण लड़कियाँ अपने व्यक्तिगत विकास के बारे  सोच ही नहीं पाती । मातृ मृत्यु- दर और शिशु मृत्यु- दर में बढ़ोतरी तो होती ही है, साथ ही उनकी शिक्षा बीच में ही रुक जाने से उनका जीवन स्तर भी बदल जाता है। जाहिर है, कम उम्र में विवाह हो जाने से अनेक सामाजिक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। लड़की के शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से 18 वर्ष की उम्र में बच्चे और पारिवारिक जिम्मेदारी का बोझ उठा पाने में लड़की को परिपक्व नहीं माना जाता। 

अब प्रश्न यह उठता है कि लड़कियों की शादी की उम्र कानूनन 21 वर्ष किए जाने से क्या हम इस प्रथा पर रोक लगा पाएँगे? दरअसल लड़की का विवाह पूर्णतः एक पारिवारिक फैसला होता है। चूँकि परिवार समाज से जुड़ा होता है अतः समाज में प्रचलित विभिन्न प्रथाओं और परम्पराओं के चलते हमारे देश के अधिकतर परिवारों में आज भी लड़की की जल्दी से जल्दी शादी करके एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी से मुक्ति पाना समझा जाता है। शिक्षा और जागरूकता के चलते लड़की को परिवार के लिए एक बोझ समझे जाने वाले परिवारों की संख्या में वर्तमान में अवश्य कुछ कमी आई है;  पर देश के अधिकतर पिछड़े इलाकों में शिक्षा, जागरूकता और आर्थिक कमजोरी के कारण आज भी लड़कियों को परिवार के लिए बोझ और पराया धन के रूप में ही देखा जाता है। लड़की के पैदा होते ही माता- पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगती है। वे उसी दिन से उसके विवाह के लिए योजना बनाना और धन जोड़ना शुरू कर देते हैं, यही कारण है कि उनकी शिक्षा पर भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाता, यह कहते हुए कि इसे एक दिन ससुराल जा कर घर- गृहस्थी ही तो सम्भालना है,  ज्यादा पढ़ा-लिखाकर नौकरी तो करवानी नहीं है। दहेज जैसी कुप्रथाओं के कारण भी माता- पिता चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी बेटी को बिदा कर दो, ताकि अधिक दहेज न देना पड़े। यह हमारा दुर्भाग्य है कि देश के कुछ  हिस्सों में लड़की पैदा होने पर आज भी खुशी नहीं मनाई जाती। और तो और वंश चलाने के लिए आज भी अधिकतर परिवार लड़के की ही चाहत रखते हैं।

इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि कोई भी माता- पिता जब अपनी बेटी के विवाह के लिए लड़का तलाशते हैं तो सबसे पहले वे ये जानना चाहते हैं कि- लड़का कितना पढ़ा- लिखा है, करता क्या है, कितना कमाता है, शादी के बाद वह उनकी बेटी और बच्चों का भरण- पोषण ठीक से कर पाएगा या नहीं? कई सवाल एक बेटी के माता- पिता के मन में होते हैं । पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही वह अपनी बेटी को एक सुरक्षित हाथों में सौंपता है। दूसरी तरफ एक लड़के के माता- पिता जब बहू की तलाश करते हैं तो वे ये देखते हैं कि लड़की का रंग, लम्बाई, चाल- ढाल, घर के काम- काज में निपुणता,  इतनी पढ़ी- लिखी चाहिए की घर सम्हाल सके। कहने का तात्पर्य यह कि लड़की का अपना स्वतंत्र व्यक्त्तित्व और आत्मनिर्भर होना उतना जरूरी नहीं माना जाता। 

इन सब कारणों को देखते हुए  21 की उम्र में शादी के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। इस फैसले को  लड़कियों के व्यक्तित्व विकास से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। 18 की उम्र तक लड़कियाँ ग्रैजुएट भी नहीं हो पाती ऐसे में वे इस उम्र में अपने जीवन को लेकर फैसला करने में भी असमर्थ होती हैं। पढ़ाई पूरी होने के बाद लड़की अपने लिए सही जीवन साथी चुनने, आगे पढ़ाई जारी रखने, नौकरी करने आदि के बारे में फैसला ले पाने में सक्षम होगी । 

आप और हम इस बात से जानते हैं कि सदियों से औरतें पुरुषों के मुकाबले दोयम दर्जे की ही मानी जाती रही हैं जिसे पूरी तरह बदलने में आज भी हम नाकाम रहे हैं। ऐसी विचारधारा को बदलने के लिए हमारे समाज में अनेक नियम कानून बनाए जाते रहे हैं । इसी तरह  विवाह के लिए लड़कियों की उम्र 21 होने से भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव आयेगा। प्रथम तो इससे लड़का और लड़की में किए जा रहे भेदभाव को कम करने में सहायता मिलेगी। 21 की उम्र तक प्रत्येक लड़की अपनी पढ़ाई पूरी कर लेगी, उसे अपना कैरियर चुनने में आसानी होगी,  वह आत्मनिर्भर होगी, शिशु मृत्यु- दर और मातृ मृत्यु- दर में कमी आएगी, जो कि सरकार का एजेंडा भी है। इस तरह पूरा परिवार, समाज और देश परिपक्व होगा। इस बात से किसी को भी इंकार नहीं होना चाहिए कि जब किसी परिवार में एक स्त्री शिक्षित होती है, तो पूरा परिवार शिक्षित होता है और परिवार शिक्षित होगा तो देश उन्नति करेगा। तो क्यों न उन्नति की दिशा में बढ़ते स्त्री के कदमों का स्वागत किया जाए। लड़की की शादी की उम्र 21 साल होने से एक सजग और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा इसमें संदेह नहीं। 


पर्व - संस्कृति- बस्तर की फागुन मड़ई

 - रविन्द्र गिन्नौरे
                ravindraginnore58@gmail.com

  होली हँसी- ठिठोली और रंग -मस्ती से सराबोर होती है। बस्तर के आदिवासियों की होली अपने अलग अंदाज में मनाई जाती है। आदिवासी अपने रीति-रिवाजों को संजोए हुए होली मनाते हैं दंतेवाड़ा के माई दरबार में। दंतेवाड़ा जहाँ बिराजी हैं  आदिवासियों की आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी। डंकिनी शंखिनी नदी संगम के तट पर बसा है दंतेवाड़ा। हर बरस माता के दरबार में होली मनाने आ जुटता है आदिवासी समुदाय अपनी मस्ती और उमंग के साथ। यहाँ फागुन मास की होली नाच गाने के साथ मनाई जाती है जिसे ‘फागुन मड़ई’ कहा जाता है। पूरे दस दिन तक की मड़ई होती है दंतेश्वरी माई की छत्रछाया में। दंतेवाड़ा में फागुन मड़ई शुरू होती है फागुन शुक्ल पक्ष की छठवीं तिथि से। मड़ई में शामिल होने गाँव-गाँव से आदिवासी पहुँचते हैं, सज धज कर अपनी पूरी तैयारी के साथ। आदिवासियों के साथ उनके गाँव के देवी देवताओं का छत्र, बैरक भी पहुँचता है दंतेवाड़ा में। 

   फागुन छठ के दिन दंतेवाड़ा का मेचका डबरा मैदान दूरदराज से आये आमंत्रित देवी-देवताओं के छत्र, बैरक से सज उठता है। सबसे आखरी में आता है माँ दंतेश्वरी का छत्र और कलश। जिनके आते ही परंपरा अनुसार देवताओं को साक्षी मानकर होती है सबसे पहले होती है कलश स्थापना। इसी के साथ दंतेश्वरी माता अनुमति देती है फागुन मड़ई मनाने के लिए। दूसरा दिन होता है फागुन सप्तमी का। सप्तमी को 'ताड़ फलंगा' विधान संपन्न होता है। पूजा- अर्चना के साथ ताड़ पेड़ के 15 पत्ते लाए जाते हैं। ताड़ के पत्तों को धोया जाता है माता तरई तालाब में, फिर ताड़ पत्तों को सहेज लिया जाता है होलिका दहन के लिए। अष्टमी के दिन होता है ‘खोरखुंदनी का विधान’। खोरखुंदनी का मतलब नाच से होता है। ढोल मांदर की थाप, टिंमकी झांझर की झंकार, तान-तान धिन, तान धिन,तांग-तांग की धुन के साथ आदिवासियों का समूह थिरक उठता है। मेचका डबरा के मैदान में अपनी अपनी वेशभूषा में सजे एक नहीं कई आदिवासी समूह थिरक उठते हैं। हर ओर अपनी-अपनी धुन के साथ नाचते, थिरकते आदिवासियों के दल को देखते ही बनता है, ऐसा अद्भुत नजारा। 

  फागुन मड़ाई का विशेष आकर्षण होता है डंडारी नाच। डंडारी नृत्य करते हैं भतरा आदिवासी, अपनी विशिष्ट वेशभूषा के साथ। नृत्य करते भतरा नर्तक कमर से घुटने तक लाल परिधान पहने,सिर पर सुर्ख लाल साफा बाँधे रहते हैं। जिनकी श्याम छातियों पर सफेद कौड़ियों के आभूषण रह- रहकर उनकी थिरकन के साथ कौंध उठते हैं। वसंत का राग,फागुन मड़ई की मस्ती के साथ डंडारी नाच का दौर चलता है और चलता ही रहता है रात भर, नाचने की होड़ लगी रहती है आदिवासियों के बीच। हर कोई अपने समूह के साथ अपनी धुन में थिरकता नजर आता है। तरह-तरह के लोक वाद्यों की धुन वातावरण में गूँज उठती है। गाँव-गाँव के आदिवासी रंग-बिरंगे परिधान पहने उनके समूह ,अपनी-अपनी धुन में नाचते हैं। जहाँ समूचे बस्तर की लोक संस्कृति एकाकार होती, सुहावनी सी लगती है। नाच देखने के लिए आ जुटता है अपार जनसमूह। ‘नाच मांडनी’ नवमी तिथि में होती है। दिन में नाच का दौर शुरू होता है और देर रात तक चलता है आदिवासियों के नृत्य का दौर। कहीं टिमकी डुबकी, कहीं ढोल मृदंग, कहीं चिकारा की धुन के साथ नाचती आदिवासियों की उल्लसित टोली, तो कहीं दूसरी टोली। किसे देखें किसे नहीं देखें नर्तकों के पैर तो थमते ही नहीं। दर्शक घंटों निहारते हैं,  जिनके कान लोक वाद्यों की धुन से सुन्न से हो जाते हैं; मगर टोलियों के नर्तक थिरकते ही रहते हैं रात भर। ‌ ‌ 

  फागुन के माहौल में उमंग उल्लास से भरे आदिवासियों का मेल-मिलाप होता है इस फागुन मड़ई में। बस्तर के लोकजीवन में मेला मंड़ई के आयोजन का उद्देश्य ही होता है मेल मुलाकात करने का। नवमी के तिथि के बाद चार दिन तक चलता है ‘शिकार स्वांग’। दशमी तिथि से त्रयोदशी तक चलने वाला ‘शिकार स्वांग’ बड़ा अनूठा होता है। दशमी के दिन ‘लम्हामार’ दूसरे दिन ‘कोटमीमार’ तीसरे दिन ‘चीतलमार’ और चौथे यानी त्रयोदशी को आयोजित होता है ‘गंवरमार शिकार स्वांग’। शिकार स्वांग के लिए खरगोश, कोटरी चीतल और गौर की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। बाँस की कमचिल, रंग बिरंगा कपड़ा और काजल से बनी आकृतियाँ हूबहू जानवरों सरीखी दिखती हैं। इन्हीं आकृतियों को पहनकर आदिवासी जानवरों की नकल करते हैं और शिकारियों को ललचाते हैं। शिकार स्वांग के पहले दिन होता है ‘लम्हामार’। खरगोश की आकृति पहने एक आदिवासी उछलता कूदता निकलता है, सबके सामने से। खरगोश का शिकार करने उसका पीछा करता है आदिवासियों का एक समूह। खरगोश छुप जाता है, फिर कहीं दूर दिखता है नाटकीय अंदाज में खरगोश छुपता फिरता है, शिकारी परेशान हताश होते हैं और काफी मशक्कत के बाद जब खरगोश दिखता है, तब एक धमाका होता है और धराशायी हो जाता है खरगोश। इसी के साथ संपन्न होता है लम्हामार शिकार स्वांग। ‌‌ ऐसे ही होता है कोटरीमार शिकार स्वांग एकादशी के दिन। ‘चीतलमार’ द्वादश के दिन और त्रयोदशी को ‘गंवरमार’ शिकार स्वांग संपन्न होता है भरपूर मनोरंजन के साथ। बस्तर के महाराजा ने शिकार स्वांग की परंपरा शुरू कराई थी मनोरंजन के लिए, जो आज भी परंपरागत रूप से चल रही है। फागुन मड़ई के चार दिन मनोरंजन में ही बिताते हैं। 

  त्रयोदशी आते ही फागुन मड़ई पहुँच जाती है अपनी चरम अवस्था में। मंडई में आमंत्रित देवी देवताओं के छत्र, बैरक लाठ, डांग और पालकियों के बीच दंतेश्वरी माई की डोली का आकर्षण अलग ही होता है। माई अपनी पालकी में विराजी रहती हैं और दिन भर भ्रमण करती हैं पूरे विधि विधान के साथ मेचका डबरा मैदान में। फागुन मड़ई में गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं के बीच रस्म होती है ‘देव खिलानी’। देवताओं को अर्पित किया जाता है भोग। शाम का धुँधलका जैसे ही घिरता है वैसे ही शुरू हो जाता है फागुन मंडई का ‘गाली उत्सव’। गालियों की बौछार एक छोर से दूसरे छोर तक चलती है श्लील, अश्लील तरह-तरह की गालियाँ बड़े हास-परिहास लिये हुए। गालियाँ ऐसी कि कोई अपनी मर्यादा कोई नहीं लाँघता, फागुन मड़ई के इस गाली उत्सव में। फिर आती है चतुर्दशी तिथि इस दिन होता है ‘आँवला मार’ आयोजन। सुबह माई दंतेश्वरी की डोली में आँवला अर्पित किया जाता है। फिर वहाँ एकत्र लोग दो समूह में बँट जाते हैं। लोग एक दूसरे पर आँवले की बौछार करते हैं ,आँवला की मार से कौन कैसे बचता है और कौन किस पर भारी पड़ता है, ऐसे आँवला मार आयोजन का दृश्य देखते ही बनता है। फागुन मड़ई का आँवला मार बड़ा मनोरंजक होता है। रात को विधि- विधान के साथ जलाई जाती है होली। दूसरे दिन पूर्णिमा की अलसुबह होता है पादुका पूजन। डंकिनी, शंखनी नदी संगम तट पर जहाँ अंकित हैं भैरव बाबा के पद चिह्न।     

    भैरव बाबा के पद चिन्हों की पूजा अर्चना की जाती है इसके बाद शुरू हो जाता है रंग- गुलाल। होली की मस्ती के साथ रंगों से सराबोर हो जाता है समूचा जनसमूह। फागुन मड़ई का समापन ‘रंग पर्व’ से संपन्न होता है। रंग पर्व के होने के बाद फागुन मड़ई में शामिल होने आए देवी-देवताओं की विदाई होती है दूसरे दिन प्रतिप्रदा को। सम्मानपूर्वक देवी देवताओं की विदाई होती है और देवों के बैरक, छत्र, लाठ लौटने लगते हैं अपने-अपने गाँव। इसी के साथ संपन्न होती है बस्तर की फागुन मड़ई।

पर्व - संस्कृति- कहाँ गई वो गाँव की होली

 - कमला निखुर्पा
(प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़)

  मार्च का महीना है...आज होली का त्योहार है... मोबाइल में होली मनाई जा रही है (भई दो दिनों से लगातार मोबाइल पर होली के एक से बढ़ के एक मैसेज, पिक्चर, और वीडियोज आ रहे हैं), फेसबुक पर होली मन रही है। दनादन स्टेटस अपलोड हो रहे हैं, रंग-बिरंगे मुस्कराते चेहरे और अबीर-गुलाल की थालियाँ स्क्रीन पे सजी हुई है। घर का सबसे महत्त्वपूर्ण सदस्य, जिसके पास कोई न कोई हमेशा बैठा रहता है। अरे वही अपना बुद्धू बक्सा (टीवी), वो भी आज होली के गीत सुना रहा है।

   बस एक मैं ही हूँ , जो बार-बार खिड़की से बाहर झाँककर देख रही हूँ। सड़क पर इक्का-दुक्का लोग नजर आ रहें हैं, कोई कार में सरपट भाग रहा है, तो कोई स्कूटी में दुपट्टा लहराते हुए उड़ रही है। सामने के घरों में कुछ बच्चे गुब्बारे और पिचकारियों से खेल रहे हैं। मेरे घर भी कुछ मित्र और सहकर्मी आए, औपचारिक सी शुभकामना देकर, टीका लगाकर चले गए, सब कुछ फीका- फीका सा। मन अभी भी उदास है अभी भी मेरी आँखें ढूँढ रही हैं गाँव के हुरियारों की टोली को...जो बसंत पंचमी से होली की बैठक जमा लेती थी। केवल रंगों से नहीं संगीत के रागों से भी होली खेलती थी। हारमोनियम, ढोलक, तबला लेकर शास्त्रीय राग धमार से होली का आह्वान करते हुए  राग भैरवी से समापन करती थी। बसंत पंचमी को भक्तिमय गीतों से प्रारंभ हुई होली शिवरात्रि तक शृंगार रस में भीग जाती थी और मदमस्त होकर झूम उठाते थे होल्यार ..

जल कैसे भरूँ जमुना गहरी

ठाड़े भरूँ राजा राम देखत हैं

बैठे भरूँ जमुना गहरी

जल कैसे भरूँ  जमुना गहरी

  हुरियारों की टोली.. गाँव में होली गाते हुए प्रवेश करती थी... कोई स्वांग धरकर आया है, घूँघट डालकर मूँछों को छुपा रहा है, तो कोई बड़ी सी तोंद बनाकर नाच रहा है। गोल घेरे में खड़े होकर एक ताल में होली गाते हुए नाच रहे हैं।

हो हो हो मोहन गिरधारी, 

हाँ हाँ हाँ मोहन गिरधारी

ऐसो अनाड़ी चूनर गयो फाड़ी,

हँसी हँसी दे गयो मोहे गारी

हाँ हाँ हाँ ... मोहन गिरधारी,

हो हो हो मोहन गिरधारी

    सफ़ेद कुरते -पजामे और टोपी में सजे हुरियार, जिन्हें  हम पहाड़ी में ‘होल्यार’ कहते थे, जिनके ढप की थाप, ढोलक की धमक और होली है...है है  की गूँज सबको रोमांचित कर देती थी, हर कोई घर से बाहर आने को मजबूर हो जाता था। बाहर आते ही सब एक रंग में रँग जाते थे... होली का रंग, मिलन का रंग और खुशी-आनंद का रंग।

   आँगन में होल्यारझूम- झूमके गा रहे हैं, खिड़कियों, छतों से होल्यारों पर रंगों की बौछार हो रही है। हँसी-ठिठोली और एक दूसरे को भिगो देने की चाह... पक्के रंग में रँग देने की कामना ... यूँ लगता है नेह का समंदर उमड़ रहा हो...बच्चों का उत्साह तो निराला है। कोई  अपनी नन्ही हथेलियों को रँगे है, किसी ने मुठ्ठी में गुलाल छुपाया है, तो कोई पिचकारी की धार से सराबोर कर देना चाहता है। इसी बीच होल्यारो के लिए चाय, नाश्ता, सौंफ और सुपारी के साथ पेश किया जाता है। छककर सब, होली है... के उद्घोष के साथ अगले घर की ओर बढ़ जाते हैं एक और  नई उमंग के साथ।

कहाँ गई वो होली... जहाँ मैं दादा की गोद में बैठकर उनके गुरु गंभीर स्वर में बैठकी होली सुनती थी...।

शिवजी चले गोकुल नगरी... 

शिवजी चले गोकुल नगरी...

   आज भी लगता है अभी- अभी चाचाजी ने कान में गाया है

झुकि आयो शहर में व्योपारी,

इस व्योपारी को भूख बहुत है

पुरिया पका दे नथ वारी,

झुकि आयो शहर में व्योपारी

  आज होली, बस स्क्रीन पर है, (टीवी का स्क्रीन, मोबाइल का स्क्रीन, कंप्यूटर का स्क्रीन)। हमारे जीवन से होली विदा हो रही है बाकी सभी विरासतों की तरह... रह गए है बस जहरीले रसायनों वाले रंग, जिनका जहर हमारे मन के जहर से तो शायद कम ही होगा।

कविता- मुखड़ा हुआ अबीर

 - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

मुखड़ा हुआ अबीर लाज से
अंकुर फूटे आस के।
जंगल में भी रंग बरसे हैं
         दहके फूल पलाश के..
 
मादकता में डाल आम की
झुककर हुई विभोर है।
कोयल लिखती प्रेम की पाती
बाँचे मादक भोर है..
 
खुशबू गाती गीत प्यार के
भौंरों की गुंजार है।
सरसों ने भी ली अँगड़ाई
पोर-पोर में प्यार है..
 
मौसम पर मादकता छाई
किसको अपना होश है।
धरती डूबी है मस्ती में
फागुन का यह जोश है..

सम्पर्कः rdkamboj@gmail.com

महिला दिवस- या देवि...

 
- डॉ. सुशीला ओझा

(बेतिया, पश्चिम चम्पारण, बिहार, मो. 9123276098)

  जड़ चेतन, समस्त चराचर में पुरुष प्रकृति के मिलन से सृष्टि का संचालन होता है... आकाश निष्क्रिय है... धरती सक्रिय है.. नारियों का सर्वश्रेष्ठ स्थान है...नारियाँ सृजनशील है, शिल्पमयी है... सभी  क्षेत्र में नारियों का वर्चस्व है...
... वैदिक कल से ही नारियों को उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया है.. मैत्रेयी, गार्गी, भारती वैदिक नारियाँ हैं.. मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने.. शास्त्रार्थ में शंकराचार्य को पराजित किया था... नारियों का वर्चस्व पुरुषों से ज्यादा है... नरेन्द्र शर्मा के शब्दों में– “एकाकी नर कुछ कर नहीं पाता, रहता सदा किनारा/नर के लिए चलाती नारी, जलधारा पर आरा”...। 
   दुर्गा सप्तशती  नारी की श्रेष्ठता से अनुप्राणित है.. शक्ति की अधिष्ठात्री है... सारी शक्तियाँ नारियों में केन्द्रित है... केवल अपने आत्म दीप को जलाना है... सबसे पहले तो वह जननि है... राष्ट्र के रूप में उसकी पहले वंदना की गई है “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” जननिजन्मभूमिस्वर्ग से भी ऊंची है... दुर्गा ने राष्ट्र के रूप में अपने को व्यक्त किया है- “अहं राष्ट्रीय संग मनी” सारी विद्या स्त्रियाँ हैं, सब शक्ति स्वरूपा हैं-“विद्या समस्तास्तव देवी भेदा:/स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु/”... नारियाँ विधाता की प्रेरणा शक्ति हैं... प्रलय काल में मनु निराश हो कर बैठे हैं... उन्हें कहीं से कुछ प्रेरणा नहीं मिलती है... अकस्मात श्रद्धा का शुभागमन बाल रवि की लालिमा की तरह.. प्रेरणा सेतु बनकर आता है... श्रद्धा ने कहा है “शक्ति शाली हो, विजयी बनो !” यह संदेश विश्व में मंगल सा उद्घोषित हुआ.. रामायण काल में भी स्त्रियों के आदर्श, मान्यताओं, सिद्धान्तों का सम्मान है... आदर है... “देवि, सुमुखी, सुलोचनी, पिकवयनी, गजगामिनी” आदि उत्कृष्ट संबोधनों से नारी को समादृत किया गया है.. 
तुलसी ने कौसल्या को प्राची दिसि की तरह वंदित किया है “वंदे कौसल्या दिसि प्राची”... सीता भूमिजा हैं, जग- जननी हैं... राजा दशरथ की प्रिय पत्नी कैकेयी है, वह विदुषी है, वीरांगना है.. अश्व संचालन, रथ संचालन में दक्ष... देवासुर सग्राम में दशरथ के रथ के पहिये को.. सँभालकर दशरथ को विजय दिलायी है... हर संकट में नारियों ने पुरुषों को प्रेरणा दिया है...
... महाभारत काल में सुभद्रा अश्व संचालन में दक्ष थी... महाभारत युग में नारियों को प्रतिष्ठा नहीं मिली है... दुर्व्यसन, दुराचार, जुआ, छल छद्म में फंसा मनुष्य का चारित्रिक विकास नहीं हुआ है.. जुए में पत्नी को हारना... समाज के पतन को रेखांकित करता है.. ऐसे चरित्रहीन व्यक्ति के मन में नारी के प्रति पूज्य भाव नहीं होते हैं.. जहाँ गांधारी को धृतराष्ट्र को देने में संकोच नहीं है... मुगल काल में स्त्रियों को मान सम्मान नहीं दिया गया है... नारी भोग्या बन गई है.. पर्दा प्रथा से समाज में विकृति आ गई है.. मध्यकाल में नारियाँ केवल भोग विलास की वस्तु मात्र रह गई... समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं है.. नारियों का उत्थान रुक गया है...
   भारतेन्दु ने अपने नव जागरण में नारियों को सम्मान दिलाया है... रवीन्द्र नाथ टैगोर ने “काव्येर उपेक्षिता उर्मिला” लिखकर  समाज में नारी की प्रतिष्ठा दिलायी है... महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उर्मिला विषयक उदासीनता लिखकर नारी के उत्थान को रेखांकित किया है...  छायावादी कवियों में नारी के प्रति उदात्त भावना है.. सात्विक भावना है.. नारी देवी है, सहचरी है, माँ है, प्राण है... हर रूप में पुरुष की प्रेरणा शक्ति है... पंत ने कहा है... " देवि माँ सहचरी प्राण" निराला ने नारी को लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के रूप में देखा है... “वीणावादिनी” कविता में नारी शुभ्र है, उज्ज्वल है, वरदायिनी है... “राम की शक्ति पूजा” में राम- सीता के पुष्प वाटिका के प्रथम मिलन की बात आती है... दुर्गा कमल चुराकर ले जाती हैं “उद्धार प्रिया का हो न सका धिक् जीवन जो सहता आया विरोध” सीता की आँखें प्रेरणा बनकर विजय दिलायी है.. राधा कृष्ण की बाधा नहीं है... आह्लादिनी शक्ति है, प्रकाशिनी शक्ति है,  उनकी प्रेरणा से कृष्ण लघुता में विराटता का दर्शन देते हैं।
   जयशंकर प्रसाद ने नारी को श्रद्धा से संबोधित किया है “नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में/पीयूष स्रोत- सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में”..आधुनिक युग नारी उत्थान का युग है... मोदी जी ने नारियों को हर क्षेत्र में प्रोत्साहित किया है... स्वर सम्राज्ञी “लता मंगेशकर”  स्वर, ताल, लय, छन्द की अमर सेतु बांधकर कालजयी हो गई... कल्पना चावला ने अंतरिक्ष यात्री का परचम लहराया.. खेल क्षेत्र में पी बी संधु, सानिया मिर्जा, गीता फोगट ने परचम लहराया है... लड़कियाँ हवाई जहाज उड़ा रही हैं .. विदेशों में, चिकित्सा के क्षेत्र में, राजनीति में निर्मला सीतारमण, सुषमा स्वराज विदेश मंत्री बनकर अपनी वक्तृत्व शैली से देश विदेश को आकृष्ट किया है.. इन्दिरा गांधी देश की प्रथम प्रधानमंत्री मंत्री बनी... बांगला देश की लड़ाई में उन्होंने दुर्गा का रूप लेकर विजय का आह्वान किया था...
   मोदी जी का नारा “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” के अन्तर्गत भ्रूण हत्या में कमी आई है... बेटियाँ हर क्षेत्र में अपना कुशल नेतृत्व कर रही हैं... कन्या योजना,  गोद भराई, उज्ज्वला गैस के माध्यम से नारियों में नव जागृति भरा है... आज नारियाँ आत्मनिर्भर हैं... आत्मबल से लबरेज हैं.. पुरुषों से पीछे नहीं हैं नारियाँ... सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं को मूर्त रूप दे रही हैं.. परीक्षा फल में वह लड़कों से अव्वल आ रही हैं... अब नारियाँ कोमल हैं पर कमजोर नहीं है... दंगल में पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं... आजकल हिजाब की राजनीति जोर पकड़ी है... राजनीतिक रोटियाँ सेंके जा रहे हैं... परदा प्रथा, घूँघट प्रथा का प्रचलन समाप्त हो गया है...। नारियाँ जग गई हैं... चौखट के बाहर नहीं निकलती थी... सूर्य नहीं देख पाती थीं... अब तो सूर्य की रोशनी में अपने विकास का रथ हर क्षेत्र में दक्षता से, कौशल से दौड़ा रही हैं... हिजाब का मसला उठाकर उनके विकास को बाधित करना है... सड़े गले रुढ़ियों, बज बजाते  अंधविश्वासों को  निर्मूल करना आवश्यक है.. देश जागा है... जागो नारियाँ ज्योतिपुंज बनकर... राष्ट्र के माथे को सम उज्ज्वल करो.. तुम शक्तिस्वरूपिणी बनकर विश्व विजय का वैजयन्ती धारण करो... अप्पो दीपो भव!                                                                                                     

महिला दिवस- अरी ओ नारी!


 - डॉ. शिप्रा मिश्रा

  जहाँ जीवन की सारी संभावना, समाप्त हो जाती हैं, वहीं से अदम्य साहस और अपरिमित ऊर्जा के साथ नारी का जन्म होता है। प्रकृति ने तो उसे सर्वशक्तिमान बना कर ही भेजा है; परन्तु अफसोस! वह अपनी शक्ति को पहचानती ही नहीं। उसे तो जन्म लेने का भी अधिकार नहीं। फिर किस अधिकार की बात करें हम? पुस्तकों की बातें तो जाने ही दें, हमें व्यवहार में भी उसकी क्षमता पर हमें विश्वास नहीं। किसी तरह जन्म ले भी लिया, तो उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनुभव की बातें हैं- वह अपने ही लोगों द्वारा छली जा रही है। आज की नारी दोराहे पर खड़ी है। गरिमा की रक्षा करती है, तो अधिकार विहीन हो जाती है, अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करती है, तो उसकी गरिमा को छीनने की कोशिश होती है। हर पल संघर्ष उसके जीवन को निराशाओं से भर देता है। संघर्ष उसके जीवन का हिस्सा बन चुका है। वह एक बेटी भी है, बहन भी है, पत्नी भी है, माँ भी है। अपने सुखों का, अधिकारों का जीवनपर्यंत त्याग करती है। जिस शोषण और प्रताड़ना से उसके जीवन का आरंभ होता है, अंत भी बहुत सुखद नहीं होता। आज भी क‌ई ऐसे परिवार हैं, जहाँ बेटी के हिस्से की रोटी बेटों को दी जाती है। उसके खिलौने खरीदे जरूर जाते हैं; पर उससे खेलता उसका भाई ही है।

  घर में अगर कोई तीज-त्योहार, उत्सव होता है तो उस दिन उस घर की लड़कियों का स्कूल जाना बंद ही कर दिया जाता है। क‌ई ऐसी प्रतिभाशाली छात्राएँ अपने घरेलू कार्यों के कारण स्कूल-कॉलेज नहीं जा पातीं। अपने ही घर में वह बाल-श्रमिक बनने के लिए विवश हैं। तो फिर यह कहाँ का न्याय है इस आधी आबादी के साथ? आज भी लड़कियों के स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता। जिस बालिका को आज समुचित पोषण नहीं मिलता, वह भविष्य में भला कैसा सृजन करेगी? एक नारी चाहती है एक सुंदर, स्वस्थ, स्वच्छ समाज का निर्माण करना; पर उसके इस कार्य के लिए पारिवारिक सदस्यों का सहयोग नहीं मिलता और वह आज भी आसानी से इमोशनल ब्लैकमेलिंग की शिकार होती है।

  एक समय ऐसा था कि गाँव की कोई भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी। गाँव की महिलाओं की स्थिति बहुत बदतर थी। रोज उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था। मार-पीट, गाली-गलौज तो उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। आज हमारे गाँवों की स्थिति बहुत बदल गई है। घर-घर की लड़कियाँ स्कूल जाने लगी हैं। मार-पीट की घटनाओं में भी बहुत कमी हुई है।

  महिलाओं के साथ एक और चुनौती उसकी सुरक्षा की भी है। वे आंतरिक साहस और ऊर्जा से भरपूर होने के बावजूद अभी भी घरेलू हिंसा की शिकार है। बिहार के मुख्यमंत्री जी का धन्यवाद है राज्य में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा करके इस आधी आबादी को नया जीवन दिया है। महिलाओं के जीवन में यह एक बड़ी उपलब्धि है, एक क्रांति का कार्य कर रहा है, जिसका महिलाओं ने भरपूर स्वागत किया है।

  वृद्ध महिलाओं की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। उनके जीवन का वसंत भी बिल्कुल रंगहीन है। जिनके जीवन को वसंत के रंगों से भरना भी हम सब की जिम्मेदारी है। ऐसी बहुत सारी महिलाएँ वृद्धावस्था में उपेक्षित जीवन जी रही हैं-सड़कों पर, तीर्थस्थलों पर, अपने ही घर में उपेक्षित। उन वृद्ध महिलाओं के पेंशन पर उनके बेटे-बहू, परिवार के अन्य सदस्य विलासिता में जी रहे हैं। पेंशन का पैसा उनके हाथ में आता जरूर है;  पर उनके पास रहता नहीं है। कानून का भरपूर सहयोग उन्हें मिले, इसके लिए भी सभी का प्रयास करना बाकी है। अपनी दुर्बलता से, सामाजिक लोक-लज्जा से वे इस कानून का सहारा नहीं ले पातीं। कहने को तो बेटियों को भी माँ-बाप की संपत्ति पर पूरा अधिकार है पर यह सब केवल कागजी बातें हैं। माँ-बाप की जिम्मेदारी अगर बेटियों को दे दी जाएँ;  तो शायद ही वे कभी अपनी ओर से चूकें।

  कहा जाए तो विश्व के अन्य देशों से भारत में महिलाएँ अधिक सुरक्षित एवं सम्माननीय हैं पर अभी भी आँकड़े संतोष जनक नहीं हैं। स्त्रियों के क‌ई दुखदायी पहलुओं से हम अभी भी अछूते हैं, जो बहुत ही त्रासद एवं क्रूरतापूर्ण है, प्रताड़ित हैं। इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना शेष है।

सम्पर्कः दहियांवां, छपरा, बिहार, मो. 9472509056

दो कविताएँ- 22 मार्च विश्व जल दिवस

  
-डॉ. कविता भट्ट

1. हाँ स्त्री समुद्र है

हाँ, स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त

मन के भाव ज्वार-भाटा के समान

विचलित और दुःखी करते हैं उसे भी

हो जाती है जीवमात्र कुछ क्षणों के लिए।

किन्तु; पुनः स्मरण करती है; कि

वह है- प्रसूता, जननी और पालनहार

पुरुष- अपने अस्तित्व के लिए भी

निर्भर है सूक्ष्म जीव सा- इसी समुद्र पर

दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ

प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी

विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में

विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है

समेट लेती है- सब गुण-अवगुण

समुद्र के समान- प्रशान्त होकर

और चाहती है कि ज्वार-भाटा में

सूक्ष्म जीव का अस्तित्व बना रहे।

2. स्त्री व पानी 

कितनी समानता है- स्त्री व पानी में

दोनों तरल, नर्म और आकारहीन हैं।

ढल जाते हैं प्रत्येक निर्धारित साँचे में,

निरपेक्ष बुझाते प्यास, विकारहीन हैं।

खींचते लकीरें जब बहें प्रबल धार में।

पत्थर चीरें, लोग कहते संस्कारहीन हैं।

रस-छन्द-अलंकार-व्याकरण है इनमें

छले जाते; किन्तु दोनों व्यापारहीन हैं।


व्यंग्य- ऑनलाइन कार्यक्रम के लिए ऑफलाइन हिदायतें


  -जवाहर चौधरी

  कविता कैसी भी हो चलेगी, लेकिन कुरता साफ, स्तरी किया हुआ होना चाहिए। पिछली बार आपके कुरते पर पान की पीक गिरी दिख रही थी। दाढ़ी रखते हैं ! अच्छी बात हो सकती है, लोग कहते हैं कि कवियों को रखना चाहिए, लेकिन ठीक से सेट करवा लीजिएगा। वो क्या है स्क्रीन पर तो आदमी को जेंटल-मेन लगना चाहिए। परफ्यूम या डियो लगाने की कोई जरुरत नहीं है। नीचे आपने पायजामा पहना हो या पतलून, या फिर लुंगी या कुछ भी नहीं, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन ध्यान रहे कार्यक्रम ऑन लाइन होगा और आपको अपने चेहरे के आलावा कुछ भी दिखाने का प्रयास नहीं करना है। पीछे बैगराउंड आप अपनी पसंद का रख सकते हैं, किताबों की अलमारी हो, तो आपके लिए अच्छा है। आपके पास डॉगी हो तो उसे पास में नहीं बैठाएँ। पिछली दफा एक साहित्यकार लगातार अपने डॉगी से नोजी लड़ाते रहे और लोग समझ नहीं पाए कि कौन किसका मुँह चाट रहा है। बार- बार उठता ये सवाल नेट का कीमती समय चाट गया। ऑनलाइन कार्यक्रम में जुड़े सारे लोग भी कवि होते हैं; इसलिए दाद नहीं मिलने की जोखिम ज्यादा होती है। बावजूद इसके कठ्ठा-जी करके आपको मुस्कराते रहना है, जैसा कि हमारी टीवी वाली एन्कर करती हैं। दुनिया लेन-देन पर चलती है। आपको दाद तभी मिलेगी जब आप दूसरे को देंगे। अगर आपको किसी की कविता पसंद नहीं आए, तो भी थोड़ी बहुत दाद अवश्य दीजिए। जेब से क्या जाता है, इसे ऑनलाइन शिष्टाचार मानिए। जैसे कि लोग अपने मेहमान को दोबारा नहीं चाहते हैं; लेकिन उसे ‘और आइएगा’ अवश्य कहते हैं। 

  पिछली दफा आपने एक मंच पर कवयित्री देवी की साड़ी की तारीफ में दो गुलूगुलू गजलें ठोक दी थीं। साड़ी आपको पसंद आई, गजलें देवीजी को पसंद आईं; लेकिन ये दोनों बाते कवयित्री के पतिदेव को पसंद नहीं आईं। पति की इस नापसंदगी पर कुपित हो।कर देवी ने अब तक पचास से ज्यादा कविताएँ लिख मारी हैं। सिलसिला अभी थमा नहीं है। डर है कि कवयित्री का यह आन्दोलन किसान आन्दोलन की तरह लम्बा खिच सकता है। पतिदेव डाक्टरों के सम्पर्क में हैं और सुना है किसी कारगर वेक्सिन की तलाश में लगे हुए हैं। अगर वे कहीं सफल हो गए,  तो लोग डीपीटी के साथ इस वेक्सिन को भी लगवाने लगेंगे और हो सकता है कि भविष्य में मंचों को मँजी हुई कवयित्रियाँ  मिलना ही बंद हो जाएँ। सो प्लीज ऑनलाइन कवयित्रियों को देखकर आगे से ऐसा खतरनाक कुछ न करें। इसे साहित्य में आपका बड़ा योगदान माना जाएगा।

  आपको पूरे समय याद रखना है कि कार्यक्रम लाइव जाता है; इसलिए चलते कार्यक्रम में यथासंभव पानी के आलावा कुछ न पिएँ। चाय-कॉफ़ी पीनी ही पड़े, तो पूरा टी-सेट, क्रोकरी, बिस्किट-भजिया वगैरह कतई नहीं दिखाएँ। लोगों को लगता है कि हम आपको अच्छा पारिश्रमिक देते है और बाकी को सूखा निचोड़ लेते हैं। लेकिन सच्चाई का खुलासा करवाना आप भी नहीं चाहोगे। बँधी मुट्ठी ग्यारह सौ की और खुल गई तो ग्यारह की। पिछली बार आपने गले में सोने की दो तीन चेन और हाथों में कई लाल- पीली अंगूठियाँ पहन रखीं थीं। यह सच है कि
  आजकल बच्चों के रिश्ते ऑनलाइन तलाशे जाते हैं, लेकिन साहित्यिक कार्यक्रम को इसका जरिया बनाना ठीक नहीं है। इन्कमटेक्स के बहुत से अधिकारी भी इनदिनों कविता लिख रहे हैं और ऑनलाइन ताकझाँक करते हैं, इस बात का विशेष ध्यान रखने की जरुरत है .... माना कि वो सारी ज्यूलरी नकली थी। लेकिन ये बात आप जानते हैं, हो सकता है ऑनलाइन संयोजक और संचालक भी जानते हैं कि नकली है... लेकिन दर्शकों को नहीं पता होता है कि वो नकली हैं। इसी सिचुएशन में डॉन निकल भागा था और बारह मुल्कों की पुलिस हाथ मलती रह गई थी। 

  और एक अंतिम बात, कविताएँ अपनी ही सुनाएँ, चाहे कितनी दोयम दर्जा हों। विदेशी भाषा से अनूदित कविताओं के कच्चे माल से बनी या कॉपी-पेस्ट कविताएँ फ़ौरन पकड़ ली जाती हैं ....तो ठीक है कविराज, कल मिलते हैं। 

सम्पर्कः BH- 26, सुखलिया, (भारत माता मंदिर के पास) इंदौर- म.प्र. 452 010, फोन 9406 701670, jc.indore@gmail.com

ग़ज़ल- होली में

 
- विनीत मोहन 'फ़िक्र सागरी' 




कभी तो कुर्ब में आकर, मिलो दिलदार होली में..

मुहब्बत का जुबाँ से भी, करो इजहार होली में..

खिले हर सिम्त गुल, कचनार, जूही औ चमेली के,

फिजाँ ने भी किया है, इश्क का इकरार होली में..

अधूरे रंग खिल जाएँ, अगर हाथों से छू लो तन,

पपीहा प्रेम का कबसे, करे मनुहार होली में..

खुशी सारी ज़माने की, लगे फीकी तुम्हारे बिन,

भुला दो नफ़रतें मन की, सभी इस बार होली में ..

गुलाबी होंठ, रतनारे नयन, दहका बदन गोरा,

ये मन फागुन हुआ, करता फिरे, इसरार होली में..

करो शृंगार सोलह, यामिनी पे चाँद है ठहरा,

करे फिर इश्क की खुशबू, चमन गुलजार होली में। ।

नशा छाया, घुली मस्ती, हवा में रंग जो बिखरे,

बचाये 'फ़िक्र' फिर कैसे, कोई किरदार होली में?

सम्पर्कः एम आई जी - 118, शांति बिहार कालोनी,रजा खेड़ी, मकरोनिया, सागर, मध्य प्रदेश- 470004, मो.  91- 7974524871, Email- v।maudichya@yahoo

ताँका- राधा अधीर कान्हा की बांसुरी पे...


- कृष्णा वर्मा



 

1.

छंदोबद्ध- सी

गंध उतर आई

शहनाई - सी

फागुन पुरवाई

पगलाई ख़ुदाई।

2.

छाई बहार

इंद्रधनुषी रंग

भीगा जो प्यार

बिम्बांकित हो गया

आंतरिक संसार।

3.

उमंग अंध

फागुनी हवाओं में

जादुई नशा

सठियाए वृक्षों को

बासंती भुजबंध।

4.

आया वैशाख

अंतस तरुणा गया

राधा अधीर

कान्हा की बाँसुरी पे

उन्माद- सा छा गया।

5.

टूटा संयम

रचा उत्सव फाग

प्रीत है अंध

साँसों- बसी कस्तूरी

नाचे केसर- गंध।

6.

मौन अधर

आँखों-आँखों में बात

गुलमोहर

पलाश गुलाब के

हुए रक्तिम हाथ।

7.

उमंग काल

चढ़ा चटक रंग

फूलों के गाल

डाल गलबहियाँ

करें हवा से बात।

8.

उगे उल्लास

मन का ठूँठ हरा

ऋतु कृतार्थ

स्वप्नों  को मिल गया

सुनहरा आकाश।

9.

जागे सपने

सुर भरे सुगन्ध

मौन मुखर

पढ़े मन कोकिल

मादक व्याकरण।

10.

कोरी हवाएँ

फूलों की सुगंध में

सालू रँगाएँ

आगमन ऋतु का

घर-घर बताएँ।


नवगीत- कैसे कहूँ

 - शशि पाधा





क्या कहूँ , कैसे कहूँ

इक नादानी हो गई

मौसमों से आज मेरी

छेड़खानी हो गई ।


फागुनी बयार की

कैसी मन मर्जियाँ

उड़ने लगी हवाओं में

प्रीत की अर्ज़ियाँ

उलझ गई डोरियाँ, रूह रुमानी हो गई ।

देखते -देखते इक कहानी हो गई ।


लाज की देहलीज पे

खनक गयी साँकलें

द्वार और दीवार में

गुफ़्तगू, अटकलें

झाँझरों की आज फिर, मन मानी हो गई

अनलिखी अनकही इक कहानी हो गई ।


छेड़ दिए मेघ ने

गीत मल्हार के

पनघटों पे राग थे

नेह मनुहार के

खुशबुएँ मली, देह रात रानी हो गई 

मौसमों से आज फिर छेड़खानी हो गई ।


यह किस की बरज़ोरियाँ

घूँघटा सरक गया

देख रूप-रंग, चाँद

राह में अटक गया

चाँदनी रात की मेहरबानी हो गई

धरा से आसमान तक, नई कहानी हो गई ।

मौसमों से आज फिर छेड़खानी हो गई ..

सम्पर्कः 10804, Sunset Hills Rd,  Reston Virginia, 20190। USA, shashipadha@gmail।com


ग़ज़ल- रंग- बिरंगा फाग

 
- निधि भार्गव मानवी 
( गीता कालोनी, ईस्ट दिल्ली )

फागुनी ऋतु आ गई हिय जागता अनुराग है ।

तन बदन में घोलता रस रंग- बिरंगा फाग है ..

भावनाएँ जोर करतीं हो रहा मदहोश मन ।

पाँव थामे से न थमते, मन की भागम भाग है ..

हैं पिया परदेश जिनके उनके जी की क्या कहूँ ।

बिरहनों के हिय में इक विरह की आग है ।

क्यूँ गगन में चाँद तारे कर रहे अठखेलियाँ ।

दिल जलाती रात काली, हसरतों में दाग है ।

आएगा मेहमान कोई घर हमारे आज फिर ।

भोर से ही नित मुँडेरी बोलता यह काग है ।


हास्य - व्यंग्य- 1. महिला दिवस पर गंभीर विमर्श

- लिली मित्रा
( फरीदाबाद, हरियाणा )

 अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस दस्तक देते ही, सभी सशक्त महिलाएँ सशस्त्र होकर कमर कस लें… जम कर अपने आप को अबला साबित करना है।  हर महिला को पूरा अधिकार है कि वो अपने-अपने स्तर पर इस दिन को अपने हिसाब से जिएँ। 

पूरे साल भर की कसर निकालने के लिए परिवार के सभी पुरुषों का शोषण जम कर कीजिए, इसी परंपरा के तहत सुबह उठते ही बच्चों को चेतावनी दे दीजिए – ‘देखो केवल विश करने से कोई दिन नहीं मनता है आज माँ की सेवा करो। ‘ उनसे उनकी स्टडी टेबल ,कपड़ों की अलमारी आदि ठीक करवाएँ ,छितरे सामान आदि सेट करवाएँ । 

पति देव को बोल दीजिए सारा दिन आप आराम फरमाएँगी , इस दिनचर्या में कोई खलल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा .. नाश्ता खुद बनाइए , लंच डिनर का क्या? कैसे? हिसाब-किताब बैठाना है ये सब सोचने का टेंशन मुझ तक नहीं आना चाहिए । 

 आप केवल फोन पर सखी सहेलियों संग अपने द्वारा किए गए शोषण नामे का अतिशयोक्ति पूर्ण बखान करती फिरिए । ‘सहेलियाँ अव्वल ना आने पाएँ’ इस मुद्दे पर काम करना ही आज का लक्ष्य रहेगा।  पति से गिफ्ट लें और सबसे अहम काम पतिदेव द्वारा गिफ्ट देते हुए ,किचन में काम करते हुए,  सचित्र, फेसबुक-पोस्ट अवश्य डलवाएँ । 

   बच्चे जब तक ये न कहें, मम्मी अब बस भी करो इतना तो हम ‘चिल्ड्रेन्स डे’ पर भी नहीं करते, तब तक सेवा में लगाए रखें। 

एक साल तो ऐसा भी हुआ कि लग रहा था जैसे कोई जलकुकड़ा किसी ‘सशक्त अबला’ की  आतिताइयत से जबरदस्त खार खा बैठा हो शायद , भाईसाब !!!  अइसा  कैलेंडर सेट किया कि  पूछिए मत कई सालों की खुन्नस एक्कै बार में निकाल ली ... महिला दिवस के अगले दिन ‘होली’ रखवा दी ... औरतों का एक दिन का आराम बर्दाश्त नहीं होता जमाने से..!

पर चलिए कोई बात नहीं किसी साल ऐसी  स्थिति आ भी जाए तो दुखी होने की कोई जरूरत नहीं है अगले साल कसर पूरी कर लें । 

2. गौरैया फ़ैमिली की संडे-टेल

आज सुबह से ही तीनों ने नाक में दम कर रखा है।  पिद्दी सी जान..  पर आवाज़ नें कानों को झाला-पाला कर दिया। सुबह से मैं और गुल्लू बार-बार इनको ही देख रहे हैं । तीनों ने चिल्ल-पों मचा रखी है। इस बार खाना खिलाने की ड्यूटी पापा चिड़िया जी की लगी है, और पापा चिड़िया संडे मनाने चले गए हैं  शायद ! दिख ही नहीं रहे- दूर दूर तक। 

   अप्रैल में गौरैया ने जब तीन बच्चे दिए थे ,उस समय माता जी की ड्यूटी थी खाना खिलाने की।  इस बार तो मैडम जी हिल ही नहीं रहीं। दूर बैठकर केवल निर्देशित करती हैं। बार-बार खिड़की के पलड़े पर बैठ जरूर रहीं हैं पर खाना नहीं खिला रहीं।  और बच्चे हैं कि  चिल्लाए जा रहे ...

    ढाई बजे करीब पिताजी आए, पहले तो बीवी ने उनकी जमकर क्लास लगाई। बिचारे चुपचाप पानी के कटोरे पर बैठे सुनते रहे, लुगाई उनकी ज़ेड प्लांट की हैंगिंग बास्केट पर झूलते हुए कर्कश वाणी में हड़काए जा रहीं -

कहाँ थे?

बच्चों को खाना कौन खिलाएगा?

चल दिए यार-दोस्तों के संग संडे मनाने। 

समय देखे हो, दोपहर के 2 . 30 बज चुके हैं। 

अटरू, मटरू, पटरू चिल्ला-चिल्ला के धरती पाताल एक कर रहे हैं । 

अब जाओगे…। खाना खिलाने ?

कि  बैठे ही रहोगे मूरत बने?

बेचारे चिड़ाराम मेहरारू के गरम मिजाज के आगे चूँ तक ना बोले तुरंतै उड़ गए  । 

थोड़ी देर बाद लौटे खाना लेकर । तीनों को एक-एक कर के खिलाए । 

सारे ‘संडे मूड’ का भूत मिनटों में उड़न छू हो गया। 

चिड़ा राम की बेचारगी पर गुल्लू को दया आई।  थोड़ा सा भात रख आए पानी के कटोरे के पास। 

अब हम देख रहे के पापा जी वही भात ले लेकर खिला रहे तीनों शैतानों को। 

पेट में दाना पड़ा है तब जाके थोड़ी शान्ति हुई है।  चिड़ाराम जी की मेहरारू लेकिन अभी भी रुसियाई  बैठीं हैं खिड़की के पलड़े  पर घूरती हुई सी और चिड़ाराम सूखते प्राण लिए बैठे हैं पानी के कटोरे पर पल्ली  तरफ मुँह घुमाए। 

3. वुमन डे के उपलक्ष्य पर 

विशेष सलाह

ओ वोमनिया ! सुनो

अगर आपको

‘घर की मुर्गी दाल बराबर’

समझा जा रहा है..

तो बहनों ! ऐसा बिल्कुल भी मत

समझने दीजिए,अपने

अस्तित्व को पहचानिए,,

 मुर्गी बनिए

और

पक्कपक पक पक पकाक् करते हुए

कढ़ाई से निकल कर  

भाग लीजिए ।


कविता- पहाड़ यात्रा

 - मधु बी. जोशी

1.

रोपणी 

ऊँची सड़क से

फूलों- सी दिखती

बहनों-बेटियों,

ऐसी ही फलो-फूलो

ऐसे ही गाती रहो

गीत सुख के, दुख के

बहन का मान रखने वाले गबरू

और मनमौजी अँछरियों के।

बनी रहे तुम्हारे हाथों की जीवनी

जमें रहें तुम्हारे पाँव घरती पर

हरे रहें तुम्हारे खेत।

2.

हहराती चली आई

कितनी बिसरी वनस्पति गंधें

दौड़े चले आए

कितने वृक्ष, 

लताएँ, क्षुप

जैसे साथी स्कूली दिनों के।

कुछ दिख जाते रहे कभी

किसी भीड़ में, 

उनके चेहरे याद थे

बात नहीं हुई थी उनसे 

स्कूल में भी कभी।

कुछ याद तक नहीं थे।

उनके बिना भी 

चलता रहा था जीवन

निर्बाध।

इतने समय बाद दिखे

वे जाने-बिसरे चेहरे

भरापूरा हो गया

मेरा जगत।


छोटे शहर की कहानियाँ 

(कथाकार जयशंकर के लिए)

एक जीवन में,

कितने जीवन।

एक कहानी में,

कितनी कहानियाँ।

एक मानुस में,

कितने कितने मानुस।

कहानी- लुका- छुपी

-भारती बब्बर

लेखक के बारे मेंः पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम ए, हिन्दी नाटक एवं रंगमंच में एम फिल, एक कहानी संग्रह "अनागत" हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एवं "पुस्तक पुरस्कार" से सम्मानित। अमेरिका के येल्लोस्टोन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़ीचर फ़िल्म पुरस्कृत भारतीय अंग्रेज़ी फ़िल्म "Ants" की कहानी, संवाद एवं पटकथा लेखन।
सम्पर्क: 2230/2, सेक्टर: 45 -सी, चंडीगढ़, babbarbharati@gmail.com

 योगी बाबू के घर पर खासी चहल-पहल है। दोनों बेटियाँ, दामाद और उनके बच्चे सभी आये हुए हैं। बीते कल उनकी पत्नी की बरसी जो थी।  बरसी की रस्म बहू,बेटे और बेटियों ने मिलकर अच्छी तरह पूरी कर दी। वैसे भी योगी बाबू को अपने बच्चों से, बहू और दोनों दामादों से कोई शिकायत नहीं है। सब उनकी इज़्ज़त करते हैं, बहू भी पूरा खयाल रखती है। पत्नी के जाने के बाद तो और भी। 

दोपहर को नाती-पोतों ने मिलकर फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना लिया। नयी फिल्मों में योगी बाबू को कोई रुचि नहीं है, ये जानते हुए बड़े नाती ने कहा, ‘मैंने “लुकाछुपी” डाउनलोड कर रखी है नानू ,घर पर ही देखेंगे।’

‘हम सब देखेंगे दादू, आपको भी अच्छी लगेगी देखना,’ पोते का आग्रह था। 

‘अरे, पर ये तुम्हारी वाली नई फिल्में मुझे नहीं रुचती।’

‘दादू, ये मज़ेदार है, हँस-हँसकर पेट दुख जायेगा आपका! आपके ज़माने की रोन्दू फिल्मों जैसी नहीं है’ पोते ने दलील दी तो वे हँसे बिना नहीं रहे। 

‘देख लीजिए बाबूजी, बच्चों का मन है,’ बेटे ने कहा तो योगी बाबू तैयार हो गए। 

लेकिन योगी बाबू तो फ़िल्म का विषय देखकर ही भौंचक्के हो गए।  ये बच्चे भी कुछ समझते नहीं, फ़िल्म बनाने वाले तो बिल्कुल नहीं, उन्होंने सोचा।  नायक और नायिका आपस में शादी करने के बारे में फैसला लेने से पहले एक साथ रहकर देखना चाहते हैं कि वे जीवन भर एक दूसरे के साथ रहने के योग्य हैं भी या नहीं।  एक साथ यानी बाक़ायदा पति-पत्नी की तरह! उन्हें पता ही नहीं चला और दुनिया इतनी बदल गई!!बच्चे हँसते रहे और योगी बाबू पचास साल पीछे चले गए। 

तब से योगी बाबू को लग रहा है किसी ने खोदकर पुराने अवशेष उघाड़ दिये हो। उनकी शादी को पचास साल हो चुके हैं।  तब यही रिवाज होता तो...उसके आगे वे सोचना नहीं चाहते। ..मन है कि बार-बार सन 1971 साल पर जाकर अटक गया है। 

तब योगी बाबू यानी योगेंद्र सिन्हा तेईस वर्ष के थे। उन दिनों पटना तो क्या तब का बम्बई भी इतना आधुनिक नहीं था। योगी बाबू ने स्थानीय कॉलेज से बी . ए . पास किया था। आर्थिक तंगी बहुत थी, इसलिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। उन्हीं बच्चों में से एक के पिता ने मीठापुर के एक छोटे प्राइवेट स्कूल में अस्सी रुपये मासिक की नौकरी लगवा दी। इस एहसान के बदले योगी बाबू को उनके बच्चे को मुफ़्त में ट्यूशन पढ़ानी पड़ती।  पटना में तब वे अकेले ही थे,माँ छोटी बहन के साथ गाँव में ही थीं। यहाँ रहने के लिए पन्द्रह रुपये मासिक किराये पर एक छोटा  बरसातीनुमा कमरा था, इसलिए माँ या बहन साथ रहने नहीं आ सकते थे। उनके नाती पोते तो उन परिस्थितियों की कल्पना भी नहीं कर पाते, जैसे योगी बाबू आज की फिल्म देखकर नहीं कर पा रहे। 

योगी बाबू की पहचान अच्छे अध्यापक और सरल व्यक्ति की थी।  उसी प्रकार बाबू अवधेश कुमार सिन्हा की पहचान एक अच्छे सरकारी कर्मचारी की थी। वे स्थानीय डाकघर में हेड क्लर्क थे। उनकी छह बेटियाँ थी। ज़ाहिर है बेटे की आस में यह पंक्ति बनी थी।  बड़ी बेटी ब्याही हुई थी जब छठी पैदा हुई। स्वयं नाना बनने के बाद तो उन्होंने भी बेटे की उम्मीद छोड़ दी। उनकी चौथी बेटी चंचल योगी बाबू की छात्रा थी, लेकिन अवधेश बाबू से उनका कोई परिचय नहीं था। एक दिन राह चलते एक परिचित के साथ अवधेश बाबू से योगी बाबू की भेंट हो गई।  डाक बाबू की पारखी दृष्टि को योगी बाबू में अपना दामाद दिख गया। अपनी दूसरी बेटी उर्मिला के लिए वे योग्य वर की तलाश में थे,कई रिश्ते देखे पर संयोग नहीं बने। तीसरी बेटी भी जल्दी ही विवाह योग्य हो जायेगी, ये सोचकर वे उर्मिला के रिश्ते को लेकर काफी परेशान थे। योगी बाबू के सरल सादे व्यक्तित्त्व में उन्हें अपनी चिंता का समाधान दिख गया। जब पता चला योगी बाबू के परिवार में माँ व बहन के सिवा कोई नहीं तो वे और आश्वस्त हो गए। 

जिन परिचित के साथ उनकी भेंट योगी बाबू से हुई थी उन्हें लेकर अवधेश बाबू उनके द्वार पर अपना प्रस्ताव लेकर पहुँच गए।  बेटी की प्रशंसा में उन्होंने बताया कि वह मैट्रिक फेल है, लेकिन अपनी बाकी बहनों की तरह सुशील एवं गृह कार्य में दक्ष। 

“आपका घर अच्छी तरह सम्भाल लेगी, उसने कौन सी नौकरी करनी है!”

योगी बाबू को प्रस्ताव जँच तो गया,पर अस्सी रुपये के वेतन में गृहस्थी बसाने की फिलहाल कोई सम्भावना नहीं थी। उन्होंने अवधेश बाबू के आगे हाथ जोड़ दिये। डाक बाबू भी निराश तो हुए पर इतना सुशील वर हाथ से कैसे जाने देते!

“कुछ करते हैं,” कहकर वे चले आये। 

लगभग दो महीने बाद वे फिर उपस्थित हो गए। इस बार समाधान साथ लेकर। वे एक स्थानीय बड़े स्कूल में योगी बाबू की नियुक्ति की बात कर आये थे। वेतन एक सौ नब्बे रुपये। अवधेश बाबू हाथ जोड़कर खड़े हो गए, “आप कल ही प्राध्यापक से मिल आइएगा, मैं सब तय कर आया हूँ।”

योगी बाबू हतप्रभ देखते ही रह गए। अस्सी से सीधे एक सौ नब्बे!अगले दिन गए तो प्रधानाचार्य जैसे उनकी प्रतीक्षा में ही थे। उन्हें दो दिन बाद ही एक तारीख से आने को कह दिया गया। अब तो योगी बाबू के पास विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत करने का कोई कारण नहीं था। 

अवधेश बाबू चट मँगनी, पट ब्याह करना चाहते थे। पर लड़की दिखने में कैसी है?

“हमारे यहाँ लड़की दिखाने का रिवाज नहीं है, मास्टर जी। आपने चंचल को तो देखा ही है! सब बहनें एक ही सी हैं,” अवधेश बाबू ने कहा। 

योगी बाबू सोच में पड़ गए। अवधेश बाबू ने एक सौ नब्बे रुपये के वेतन वाली नौकरी भी दिलवा दी। चंचल भी देखने में अच्छी है... लड़की की तसवीर ही मिल जाये, कुछ अंदाज़ा तो लगे। योगी बाबू ने थोड़ा झिझकते हुए पूछ ही लिया, माँ को दिखाने के लिए ...

अगले ही दिन अवधेश बाबू तसवीर ले आये। सूरत चंचल से वाक़ई मिलती-जुलती थी। योगी बाबू के मुख पर आश्वस्त भाव देखकर अवधेश बाबू ने जेब से तुरंत पाँच का नोट निकाला और भावी जामाता के हाथ में रखकर मुट्ठी भींच दी। 

माँ और बहन को भी फोटो पसन्द आ गई। महीने भर के भीतर ब्याह भी हो गया। तब तक योगी बाबू नई नौकरी पर लग चुके थे और तीस रुपये किराए पर दूसरा मकान भी ले लिया था। शादी पर गिने-चुने रिश्तेदार और योगी बाबू के कुछ ख़ास मित्र ही शामिल हुए। ज़्यादा लोगों को एकत्र करने का न तो सामर्थ्य था और न वे भावी ससुराल वालों पर बोझ डालना चाहते थे। अत्यंत सादगीपूर्ण तरीके से कार्य सम्पन्न हो गया। ससुर और दामाद दोनों ही सन्तुष्ट थे। 

उस दिन को याद करते हुए योगी बाबू सोच में पड़ गए।  एक आज का ज़माना है कि लड़का-लड़की शादी से पहले ही एक साथ रहते हैं, और एक उनका ज़माना था कि दुल्हन पेट तक घूँघट निकाले थी। सुहाग रात तक एक दूसरे को देखना भी नसीब नहीं हुआ था। 

विदाई के साथ सब बाराती लौट गए। योगी बाबू के पास तीन दिन की ही छुट्टी थी, इसलिए वे भी सद्य-ब्याहता पत्नी को लिये माँ और बहन के साथ गाँव चले गए।  आस-पास की कुछ महिलाओं के साथ कुछ रस्में हो गई। गरीबी में जितना हो सकता था, उतना ही उन्होंने किया। माँ को यह तसल्ली हो गई कि बेटे का घर सम्भालने वाली आ गई थी। उन्हें योगी बाबू की नयी नौकरी से बेटी के अच्छे ब्याह की सम्भावनाएँ भी प्रबल होती दिख रही थी। 

अंततः मिलन की बेला भी आ गई।  लालटेन की मद्धम रोशनी में पेट तक घूँघट निकाले उर्मिला खटिया पर सकुचाई बैठी थी। योगी बाबू ने धीरे से घूँघट उठाया और भौंचक्क रह गए...। ये क्या!!ये तो उर्मिला है ही नहीं!!! 

दुल्हन शरमाई ज़रूर पर अपने पति की प्रतिक्रिया से यकायक सकपका गई। योगी बाबू कुछ समझ नहीं पा रहे थे। सामने बैठी उनकी दुल्हन तो तसवीर वाली लड़की थी ही नहीं! उसकी सूरत तो चंचल से मिलती थी, पर आज जिसके साथ योगी बाबू के सात फेरे हुए वह तो किसी तरह वैसी नहीं लगती।  तसवीर बेशक किसी सुंदरी की नहीं थी,पर यह तो... इसके नाक-नक़्श बिल्कुल अलग और चेहरा चेचक के दाग़ से भरा हुआ था।  योगी बाबू को समझते देर नहीं लगी कि उनके ससुर ने सब कुछ जानते- बूझते किया है। 

दुल्हन को तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। पति की परेशानी देखकर उसने पूछ ही लिया कि क्या हुआ। 

“तुम उर्मिला तो नहीं हो...।” योगी बाबू मुश्किल से कह पाए। 

“मैं उर्मिला हूँ... बाबूजी ने तो कहा कि आपने हाँ कही मेरे लिए।” अब तक शायद उसे भी कुछ- कुछ समझ आ रहा था। 

इससे पहले कि योगी बाबू कुछ कह पाते, उर्मिला के गालों पर लुढ़कते आँसुओं को उन्होंने देख लिया। वे समझ गए कि इस प्रकरण से जितने वे अनभिज्ञ हैं , उतनी ही उर्मिला भी। उन्हें लगा कि इसके लिए उर्मिला को दोषी तो ठहराया नहीं जा सकता, पर अपने साथ हुए इस छलावे को भुलाया भी नहीं जा सकता।  जिस सम्बन्ध की शुरूआत ही धोखे से हो उसे जीवन भर कैसे निभा पाएँगे! दिन भर गाँव की स्त्रियों के संग माँ और बहन रस्में करती रही, दोनों ने भी तो देखी थी तसवीर...उन्होंने कुछ कहा क्यों नहीं? योगी बाबू का जी तो चाहा तुरंत पटना जाकर अवधेश बाबू से सफाई माँगें, किंतु दूसरे ही क्षण उनकी दिलवाई एक सौ नब्बे रुपये की नई नौकरी याद हो आई...दुल्हन से तो उन्होंने कह दिया, “कोई बात नहीं, सो जाओ।” लेकिन सच यह है कि दोनों अपनी पहली रात पर मिले इस अप्रत्याशित उद्घाटन के बाद सहज नहीं थे। 

किसी तरह भोर हुई। योगी बाबू कुछ कहते उससे पहले ही माँ ने कह दिया कि शादी-ब्याह संजोग की बात है, रूप और सुंदरता तो जवानी तक साथ है। अवधेश बाबू ने पूरे हजार रुपये की रिश्वत दी है उसकी नौकरी के लिए, आज के जमाने में कौन करता है किसी के लिए?

तो ये बात है! योगी बाबू को सारे रहस्यों से यकायक पर्दा उठता लगा। पर ससुरजी यह सब उनसे कहकर करते,धोखे से क्यों? जब आमना-सामना होगा तब क्या कहेंगे। 

इधर उर्मिला समझ नहीं पा रही थी कि उसे पसंद करने के बाद उसके पति ने ऐसा क्यों कहा।  बाबूजी ने स्वयं उसे बताया था कि योगेंद्र बाबू को वह पसंद है।  वह कितनी खुश हुई थी ये सोचकर कि कोई ऐसा व्यक्ति भी है, जो उसके रूप पर टिप्पणी किए बिना उसे पसंद कर गया...फिर अब?

योगी बाबू उर्मिला के साथ तीन दिन गाँव में रहे पर सहज नहीं हो पाए।  माँ समझाती रही, “दुलहिन को काहे सजा दिये रहे? ओहसे ब्या हुई, ओऊ तोरी मेहरारु हई, अब का करिहै?” योगी बाबू को भी यही समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें! जिस तसवीर को महीना भर से निहार कर शादी का सपना देखा वही बदल गई। अवधेश बाबू ने नौकरी के लिए रिश्वत देने की बात माँ को तो बता दी;  लेकिन उनसे छुपा कर रखी।  अम्मा ने दुल्हन को भी देख लिया था, केवल उन्हें ही अँधेरे में रखा गया।  माँ के लिए बेटे की नौकरी का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण था। नौकरी तो योगी बाबू के लिए भी मायना रखती थी लेकिन वे अपने साथ हुए छलावे से आहत थे। एक और प्रश्न उन्हें परेशान कर रहा था कि उन्हें दिखायी गई तसवीर किस लड़की की है? उससे विवाह की अपनी कल्पना के लिए वे दोषी न होकर भी आत्मग्लानि महसूस कर रहे थे। 

उर्मिला भी विवाहोपरांत हुए इस अनपेक्षित घटना से विचलित थी। उसके पास भी आहत होने का अपना कारण था। बचपन से ही अपने रूप को लेकर होने वाली टिप्पणियों और शेष बहनों से होने वाली तुलना से वह पहले ही आहत थी। उसकी शादी के लिए हो रही अड़चनों और उसके कारण घर में तनाव भी उससे छुपा नहीं था। इसलिए योगी बाबू द्वारा पसंद किए जाने से उसके मन में उनके लिए सम्मान था। लेकिन वास्तविकता उसे भीतर तक चुभ रही थी। अस्वीकार किए जाने का दंश असहनीय था। 

पटना लौटकर पति-पत्नी और असहज हो गए;  क्योंकि यहाँ उन दोनों के अलावा तीसरा कोई न था। गाँव में माँ या बहन तो थीं जिनसे दोनों की बातें हो जाती। उर्मिला मायके जाने के लिए उत्सुक थी और योगी बाबू ससुराल जाने के लिए उत्सुक होते हुए भी समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे जायें? गाँव जाने के कारण विवाहोपरांत होने वाला मायके का फेरा रह ही गया था। 

ससुराल पहुँचने पर द्वार पर ही योगी बाबू की सास स्वागत के लिए खड़ी थी। उर्मिला जाते ही माँ से लिपटकर रोने लगी। माँ ने शायद इसे नवविवाहिता की भावुकता भर समझा;  क्योंकि योगी बाबू से वे उत्साह और आदर से मिलीं। लेकिन योगी बाबू बिलकुल सहज नहीं हो पा रहे थे। उनकी असहजता को भी सासु माँ ने नए दामाद का शर्मीलापन समझा। अवधेश बाबू दफ्तर से अभी लौटे नहीं थे और घर पर कोई अन्य पुरुष नहीं होने से योगी बाबू कुछ बोल भी नहीं पाये। सासु माँ ने जानना चाहा कि वे और उनकी माँ अपनी बहू से खुश तो हैं ना? योगी बाबू कोई प्रतिक्रिया देने की सोचते भी कि अवधेश बाबू प्रवेश करते हुए बोले, “लो खुश काहे नहीं होंगे? अब तो बहुरिया के साथ बढ़िया वाली नौकरी भी है...क्यूँ मास्टरजी ?” 

वे योगी बाबू को दामाद बनाने के बाद भी मास्टर जी ही बुलाते रहे। नौकरी का हवाला देकर अवधेश बाबू ने प्रश्न पूछे जाने से पहले ही उनका मुँह बन्द कर दिया, ये योगी बाबू समझ गए। ये भी समझ गए कि अवधेश बाबू की पत्नी भी पति की कार्यवाही से अवगत नहीं है। 

अवधेश बाबू के आते ही उर्मिला माँ और बहनों के साथ अंदर चली गई। एकांत पाते ही अवधेश बाबू ने योगी बाबू की पीठ थपथपाते हुए पूछा, “नौकरी बढ़िया चल रही है न मास्टरजी ?”

“आप मुझे पहले ही बता देते बाबूजी,” योगी बाबू ने इतना ही कहा। 

“क्या बताता मास्टरजी? ये कि नौकरी के लिए रिश्वत दी या ये कि मेरी उर्मिला सुंदर नहीं है...दोनों बातें अगर आपको बताता, तो आप वही अस्सी रुपल्ली की नौकरी करते रहते और मेरी उर्मिला फिर से नकार दी जाती ...कैसे बताऊँ मास्टरजी, बेटी का चेहरा देखकर बार-बार लड़के वालों के मना करने पर कैसा लगता है...। माँ-बेटी के आँसू नहीं रुकते और मेरा दिल रोता...। मेरी उर्मिला हीरा है मास्टरजी, आपको बहुत सुखी रखेगी...” अवधेश बाबू का गला रुँध गया। 

योगी बाबू को समझ नहीं आया क्या कहें। दोनों बातें सही थीं। वे रिश्वत न देने देते और ये भी सच है कि असली तसवीर देखकर शायद वे हाँ भी न करते। 

“एक बार मुझसे पूछा या कहा तो होता बाबूजी...मेरी स्थिति तो सोचिये... जब देखा कि ये वो नहीं है...” शायद उसे भी...

“आपने तो नहीं बताया ना मास्टरजी?” अवधेश बाबू ने टोकते हुए पूछा। 

“मैं कुछ समझता तब ना बताता।” 

“अच्छा किया मास्टरजी, बहुत बार नकारी गई है बेचारी।” 

“शादी के बाद नकार देता तो क्या होता बाबूजी? ” योगी बाबू साहस करके अपने मन की कह गए। 

“आपको देखते ही परख लिया था मास्टरजी, भरोसा था आप ऐसा नहीं करेंगे।”

“मेरे साथ धोखा... ”

योगी बाबू बात पूरी करते उससे पहले अवधेश बाबू ने हाथ जोड़ दिये,  “ऐसा भगवान के लिए मत सोचना मास्टरजी, मेरे अपना कोई बेटा नहीं है, आप ही... ” वे बोलते-बोलते रुक गए। चंचल नाश्ते की तश्तरियाँ लिये आ गई। 

“सर जी, दीदी दो दिन के लिए रह जाए?” उसने हँसते हुए पूछ लिया। 

“अरे, चार दिन तो ब्याहे हुए हैं, आ जाएगी, पटने में ही तो रहती है। और तू क्या सर, सर कर रही है? जीजाजी नहीं कह सकती? तेरे सर नहीं है अब ये” अवधेश बाबू ने कहा। 

“वो रहना चाहती है तो...” योगी बाबू की बात पूरी होने से पहले ही चंचल हँसते हुए दौड़ गई, “हाँ दीदी हाँ...”

अवधेश बाबू जामाता का मुँह देखते रह गए। 

“मास्टरजी, आप कहीं...” वे अकस्मात चिंतातुर हो गए। 

“उर्मिला भी परेशान है, दो दिन रह लेगी तो मन ठीक हो जाएगा” योगी बाबू ने कहा। 

दोनों ने मौन रहकर ही नाश्ता किया। योगी बाबू अभी भी अपने मन में दूसरे प्रश्न को लिये परेशान हो रहे थे, कैसे पूछें कि तस्वीर किसकी थी। अब उस प्रश्न का औचित्य नहीं था। लेकिन योगी बाबू कैसे पूछते कि जिसे देखकर वे शादी के लिए तैयार हुए थे वो लड़की है कौन? कहीं अचानक सामने आ गई तो...उस कल्पना से वे अचकचा गए। उनकी अपनी सालियों में से तो थी नहीं, पर चेहरा चंचल से मिलता है। 

 योगी बाबू अनुत्तरित प्रश्न लिये लौट आये। उर्मिला से दो-चार दिन अलग रहकर शायद दिमाग कुछ सोच सके। 

ससुराल से लौटकर योगी बाबू को घर खाली लगने लगा। उन्हें अब आभास हुआ कि शादी के सप्ताह भर में ही घर की रंगत बदल गई है। गाँव से लौटते ही छुट्टी समाप्त हो चुकी थी। उनका तो आधे से ज़्यादा दिन स्कूल में बीत जाता था। उन्होंने न घर पर ध्यान दिया न इस बात पर कि उनकी अनुपस्थिति में उर्मिला क्या करती है। वे देर से आते, तब भी वह  कोई प्रश्न किए बिना चाय नाश्ता ला देती, समय पर खाना परोस देती। उन्हें आज लगा कि भले उन्होंने उर्मिला को पत्नी के अधिकार नहीं दिए, वह अपना कर्त्तव्य निभाने से नहीं चूकी। आज उसकी अनुपस्थिति में पहली बार योगी बाबू को खयाल आया कि उर्मिला ने तो उनकी तस्वीर भी नहीं देखी थी। उन्होंने तो ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि वे उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे भी या नहीं! और जो हुआ उसके लिए उर्मिला को सज़ा क्यों? रात को उनके करवट लेकर सो जाने पर वह क्या सोचती होगी? उनके व्यवहार से उर्मिला भी उतनी ही आहत हुई होगी। 

परन्तु योगी बाबू सामने आयी परिस्थिति से स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रहे थे। जीवन भर का प्रश्न है दो-चार दिन की बात तो नहीं। उनके दिमाग से तस्वीर वाली लड़की जाने का नाम नहीं ले रही थी।  दो दिन बाद उर्मिला लौट आएगी, फिर

आज लुकाछुपी देखते हुए योगी बाबू के मन में वही प्रश्न कौंधा, साथ रहने के बाद यदि लड़का-लड़की एक दूसरे को अयोग्य पाये तो क्या? पति-पत्नी की तरह रहकर नकार दिये जाने के बाद किसी और के साथ कैसे निभा पाते हैं! वे तो केवल तस्वीर देख कर अपनी काल्पनिक भावनाओं के लिए अपराध बोध से ग्रसित होते रहे थे। 

उधर उर्मिला इस संशय में थी कि उसके पति उसे लेने आएँगे भी या...माँ और बाबूजी से वह कुछ कहने पूछने का साहस नहीं कर सकी। माँ की खुशी के आगे कुछ कहे भी तो क्या? और बाबूजी ने योगी बाबू के जाते ही उसके सामने माँ से कहा कि अपनी उर्मि के तो भाग खुल गए हैं! इतना गुणवान दामाद मिला है। वह सोचती ही रही कि योगी बाबू ने उससे उर्मिला न होने की बात क्यों कही?

कमरे की बदली हुई रूपरेखा योगी जी को उर्मिला का स्मरण करा रही थी। इससे पहले वह कमरा कभी घर नहीं लगा था उन्हें। आज देखा कि कमरा करीने से सजा है। धुले कपड़े अलमारी में तह लगे हैं। रसोई भी समेटी, साफ-सुथरी सजी हुई दिखाई दी। उसे मायके में रहे तीन दिन हो गए थे। कुछ सोच ही रहे थे कि उनका एक मित्र आ गया। घर में कदम रखते ही उसने चारों तरफ़ निगाह घुमायी और बोला, “वाह योगी, तेरा भूत का डेरा तो घर बन गया! ये तो मंतर ही फेर दिया लगे! है कहाँ भौजाई?”

योगी जी को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया। तपाक से उठ खड़े हुए और बोले, “उसे मायके से लिवाने निकल ही रहा था!”

“ये बात है तो मैं रुकूँगा नहीं। भौजाई आ जाए तो आता हूँ,” कहकर वह निकलने लगा तो योगी जी साथ ही चल पड़े। 

अवधेश बाबू गली में ही मिल गए। उन्होंने देखते ही बाँहें फैलाकर उन्हें गले से लगा लिया। 

“आ गए मास्टर जी! मैं भी आपकी तरफ आने की सोच रहा था। तीन दिन हो गए तो लगा कहीं आप...उस दिन आपने तो पूछा नहीं...”

योगी जी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। 

“वो फोटू...मालती की थी। दस बरस हुए गुजरे...।मेरी सबसे छोटी बहन थी। उसे भी माता निकली थी उर्मि के साथ...बची नहीं बेचारी...सगाई कर दी थी पर ब्याह से पहले ही चल बसी। आपने फोटू माँग लिया तो क्या करता...मालती तो अब कभी मिलने वाली है नहीं, उर्मि की देता तो आप कहीं...”वे रुक गए। 

योगी बाबू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस इतना कहा, “पहले आ नहीं सका...।आज चलेगी ना?”

अवधेश बाबू यकायक राहत महसूस करते हुए हँसे, “लो चलेगी क्यों नहीं? अब तो आपका घर उसका घर।”

घर पहुँचते ही वे बरामदे से ही पुकारने लगे, “मास्टर जी आ गए हैं, उर्मि की माई...”

उस दिन योगी बाबू उर्मिला के साथ ससुराल से तुरंत लौट आये। उनके सिर से भी मानो बोझ उतर गया। उर्मिला को लिए घर की दहलीज लाँघते हुए उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों वे पहली बार गृहप्रवेश कर रहे हैं। उस रात योगी जी ने पहली बार पत्नी का हाथ थामा। उर्मिला के गालों पर एक बार फिर आँसू बह निकले, पर इस बार वह अकेली नहीं थी, योगी बाबू के आँखों से भी अविरल धारा बह रही थी...

शादी से पहले एक दूसरे को देखे या पसन्द किए बिना योगी बाबू ने उर्मिला के साथ उनचास वर्षों का सुखद दाम्पत्य जीवन बिताया। उसे तसवीर वाली बात कभी पता ही नहीं चली। एक वर्ष पहले उर्मिला का देहांत हो गया। तब से योगी बाबू अकेले हो गए हैं। पत्नी ने बच्चों को पिता के लिए बहुत आदर सिखाया। उसके संस्कारों के कारण ही बच्चे पिता को पूजनीय समझते हैं। 

अपने कंधे पर किसी स्पर्श से योगी जी की तन्द्रा टूटी। 

“क्या हुआ बाबूजी?” उनका बेटा था। 

“कुछ भी तो नहीं बेटा”  कहकर योगी जी ने अपनी आँखें पोंछी और दीवार पर लगी उर्मिला की तस्वीर को देखकर मन ही मन कहा, कितना अच्छा किया बाबूजी ने तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखाई...