मार्च का महीना है...आज होली का त्योहार है... मोबाइल में होली मनाई जा रही है (भई दो दिनों से लगातार मोबाइल पर होली के एक से बढ़ के एक मैसेज, पिक्चर, और वीडियोज आ रहे हैं), फेसबुक पर होली मन रही है। दनादन स्टेटस अपलोड हो रहे हैं, रंग-बिरंगे मुस्कराते चेहरे और अबीर-गुलाल की थालियाँ स्क्रीन पे सजी हुई है। घर का सबसे महत्त्वपूर्ण सदस्य, जिसके पास कोई न कोई हमेशा बैठा रहता है। अरे वही अपना बुद्धू बक्सा (टीवी), वो भी आज होली के गीत सुना रहा है।
बस एक मैं ही हूँ , जो बार-बार खिड़की से बाहर झाँककर देख रही हूँ। सड़क पर इक्का-दुक्का लोग नजर आ रहें हैं, कोई कार में सरपट भाग रहा है, तो कोई स्कूटी में दुपट्टा लहराते हुए उड़ रही है। सामने के घरों में कुछ बच्चे गुब्बारे और पिचकारियों से खेल रहे हैं। मेरे घर भी कुछ मित्र और सहकर्मी आए, औपचारिक सी शुभकामना देकर, टीका लगाकर चले गए, सब कुछ फीका- फीका सा। मन अभी भी उदास है अभी भी मेरी आँखें ढूँढ रही हैं गाँव के हुरियारों की टोली को...जो बसंत पंचमी से होली की बैठक जमा लेती थी। केवल रंगों से नहीं संगीत के रागों से भी होली खेलती थी। हारमोनियम, ढोलक, तबला लेकर शास्त्रीय राग धमार से होली का आह्वान करते हुए राग भैरवी से समापन करती थी। बसंत पंचमी को भक्तिमय गीतों से प्रारंभ हुई होली शिवरात्रि तक शृंगार रस में भीग जाती थी और मदमस्त होकर झूम उठाते थे होल्यार ..जल कैसे भरूँ जमुना गहरी
ठाड़े भरूँ राजा राम देखत हैं
बैठे भरूँ जमुना गहरी
जल कैसे भरूँ जमुना गहरी
हुरियारों की टोली.. गाँव में होली गाते हुए प्रवेश करती थी... कोई स्वांग धरकर आया है, घूँघट डालकर मूँछों को छुपा रहा है, तो कोई बड़ी सी तोंद बनाकर नाच रहा है। गोल घेरे में खड़े होकर एक ताल में होली गाते हुए नाच रहे हैं।
हो हो हो मोहन गिरधारी,
हाँ हाँ हाँ मोहन गिरधारी
ऐसो अनाड़ी चूनर गयो फाड़ी,
हँसी हँसी दे गयो मोहे गारी
हाँ हाँ हाँ ... मोहन गिरधारी,
हो हो हो मोहन गिरधारी
आँगन में होल्यारझूम- झूमके गा रहे हैं, खिड़कियों, छतों से होल्यारों पर रंगों की बौछार हो रही है। हँसी-ठिठोली और एक दूसरे को भिगो देने की चाह... पक्के रंग में रँग देने की कामना ... यूँ लगता है नेह का समंदर उमड़ रहा हो...बच्चों का उत्साह तो निराला है। कोई अपनी नन्ही हथेलियों को रँगे है, किसी ने मुठ्ठी में गुलाल छुपाया है, तो कोई पिचकारी की धार से सराबोर कर देना चाहता है। इसी बीच होल्यारो के लिए चाय, नाश्ता, सौंफ और सुपारी के साथ पेश किया जाता है। छककर सब, होली है... के उद्घोष के साथ अगले घर की ओर बढ़ जाते हैं एक और नई उमंग के साथ।
कहाँ गई वो होली... जहाँ मैं दादा की गोद में बैठकर उनके गुरु गंभीर स्वर में बैठकी होली सुनती थी...।
शिवजी चले गोकुल नगरी...
शिवजी चले गोकुल नगरी...
आज भी लगता है अभी- अभी चाचाजी ने कान में गाया है
झुकि आयो शहर में व्योपारी,
इस व्योपारी को भूख बहुत है
पुरिया पका दे नथ वारी,
झुकि आयो शहर में व्योपारी
आज होली, बस स्क्रीन पर है, (टीवी का स्क्रीन, मोबाइल का स्क्रीन, कंप्यूटर का स्क्रीन)। हमारे जीवन से होली विदा हो रही है बाकी सभी विरासतों की तरह... रह गए है बस जहरीले रसायनों वाले रंग, जिनका जहर हमारे मन के जहर से तो शायद कम ही होगा।
11 comments:
यह एक प्रश्न भी है और हर भावुक मन की पीड़ा भी कि -कहाँ गई वो गाँव की होली..तकनीक की दुनिया हमें कृत्रिम और आभासी संसार मे ले जा कर लोक से दूर करती जा रही है,सुंदर आलेख हेतु कमला निखुर्पा जी को बधाई।
धन्यवाद श्रीवास्तवजी । वर्षोँ पहले लिखी इस रचना को सहेजकर प्रकाशित करने के लिए हिमान्शु भाई और रत्ना जी का आभार ।
🙏
लाजवाब🙏💕
बहुत खूब।सरल और सहज भाषा में सुंदर दृश्य बिंब।
बहुत सुंदर मैडम
बहुत सटीक चित्रण.सभी त्योहार वर्चुअल हो चले हैं
bachpan ki yaadein taaja ho gye..bhut sundar varnan mam. badhai aapko
पर्व हमारी सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिंब है, जिसे बहन कमला जी ने सुंदर ढंग से रूपायित किया है।
बहुत सही और सुंदर वास्तविकता का संगम
भौतिक चकाचौंध में हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। कमला जी सुंदर सटीक चित्रण किया है आपने। हार्दिक बधाई।
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