छत्तीसगढ़ के पारम्परिक खेल
छत्तीसगढ़ लोक खेलों का प्रदेश है। यहाँ की संस्कृति में सैकड़ों लोक
खेलों का प्रचलन मिलता है। कृषि कार्य पर निर्भर यहाँ के निवासियों के लिए मनोरंजन
का मुख्य साधन ही खेल है, जो उन्हें सहज में ही उपलब्ध हो जाता है।
छत्तीसगढ़ में प्रचलित पारम्परिक खेलों के उद्भव से सम्बन्धित किसी भी
तरह के प्रमाण उपलब्ध नहीं है, परन्तु शिव पुराण में भगवान शिव और पार्वती के बीच चौसर खेलने का उल्लेख
मिलता है।
पारम्परिक खेलों के दृष्टिकोण से महाभारत काल समृद्ध था। महाभारत काल में
अनेक लोक खेलों का वर्णन मिलता है। जैसे-भगवान श्री कृष्ण द्वारा जमुना तट पर गेंद
खेलने का वर्णन। गेंद के लिए छत्तीसगढ़ में 'पूक’ शब्द का प्रचलन है। 'पूक’
से ही छत्तीसगढ़ की
संस्कृति में गिदिगादर और पिट्टूल नामक खेल की परम्परा विकसित हुई है। महाभारत काल
में चौसर,
डंडा-पचरंगा तथा
बाँटी का वर्णन भी मिलता है। बाँटी ऐसा लोक खेल है, जिसके चार-पाँच स्वरूप छत्तीसगढ़ में विकसित हुए
है। यहाँ पर उल्लेख करना उचित होगा कि महाभारत काल में अनेक लोक खेलों का प्रचलन
रहा है,
जो सर्वाधिक लोक
खेलों का उद्भव काल मान सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के निवासी अल्पायु से ही कृषि कार्य में लग जाते थे, इसलिए उन्हें खेलने का पर्याप्त अवसर
प्राप्त नहीं होता था। परिणामस्वरुप बड़े व बुजुर्गो के लिए बहुत कम खेलों की
परम्परा विकसित हुई। सर्वाधिक लोक खेल बच्चों के लिए विकसित हैं और उन्ही वर्ग के
बीच सरलता से गुड़ी चौपाल में खेला जाता है। ऐसे लोक खेलों में लड़के व लड़कियों के
साथ-साथ खेले जाने वाले अधिकतर खेलों का
स्वरुप सामूहिक है।
नारी वर्ग सदियों से ही बंधन में रहा है। उन्हें इतनी स्वतंत्रता कभी
नहीं दी गई कि वे इच्छानुसार खेलकर विभिन्न खेलों का आनंद उठा सकें। भले ही नारी
समाज बंधन में रहा हो, किन्तु
नारी खेलों की परम्परा बंधन में नही रह पाई। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में अनेकानेक
नारी खेलों की परम्परा विकसित हुई है, जिनमें प्रमुखत: बिल्लस, फुगड़ी,
चूड़ी बिनउल और
गोंटा को मान सकते हैं।
पुरुष वर्ग सदैव ही स्वतंत्र रहा है। खेलने-कूदने के अवसर उन्हें अधिक
प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में विकसित सर्वाधिक लोक खेलों की
परम्परा पुरुष प्रधान है जैसे-बाँटी, भौंरा,
गिल्ली-डंडा, अल्लगकूद, पिट्टूल, चूहउल, अट्ठारह गोटिया आदि।
छत्तीसगढ़ में पारम्परिक खेलों के विकास से सम्बन्धित वर्णन तब तक अपूर्ण
है,
जब तक ऐसे खेलों का
उल्लेख न हुआ हो जिनमें गीत का प्रचलन हो। उन्हें हम खेलगीत कहते है। फुगड़ी, भौंरा, खुडुवा, अटकन-मटकन, व पोसम-पा ऐसे लोक खेल हैं, जो गीत के कारण लोक साहित्य में अपना
विशेष स्थान बना लिए हैं:
खुडुवा का गीत:
खुमरी के आल-पाल खाले बेटा बिरो पान
मयं चलावंव गोटी, तोर दाई पोवय रोटी
मंय मारंव मुटका, तोर ददा करे कुटका
आमा लगे अमली, बगईचा
लागे झोर
उतरत बेंदरा, खोंधरा
ल टोर
राहेर के तीन पान, देखे जाही दिनमान
तुआ के तूत के, झपट
भूर के
बिच्छी के रेंगना, बूक बायं टेंगना
तुआ लगे कुकरी, बाहरा
ला झोर
उतरत बेंदरा खोंधरा ल टोर।
फुगड़ी का गीत:
गोबर दे बछरु गाबर दे, चारों खूँट ला लीपन दे
चारों देरानी ल बइठन दे, अपन खाथे गूदा-गूदा।
हमला देथे बीजा
ये बीजा ला का करबो, रहि जबो तीजा
तीजा के बिहान दिन,
घरी-घरी लुगरा
चींव-चींव करें मंजूर के पिला,
हेर दे भउजी कपाट के खीला
एक गोड़ म लाल भाजी, एक गोड़ म कपूर
कतेक ल मानव मय देवर ससूर
फुगड़ी फूँ रे फुगड़ी फूँ...
पोसम-पा का गीत:
पोसम-पा भई पोसम पा
बड़ निक लागे पोसम पा
सवा रुपया के घड़ी चोराय
आना पड़ेगा जेल में।
अटकन-मटकन का गीत:
अटकन-मटकन दही चटाकन
लउहा लाटा बन के काँटा
चिहुरी-चिहुरी पानी गिरे, सावन म करेला फूले
चल-चल बिटिया गंगा जाबो, गंगा ले गोदावरी
पाका-पाका बेल खाबो, बेल के डारा टूटगे
भरे कटोरा फूटगे।
विशेष पर्व में गेड़ी तथा मटकी फोर के प्रचलन मिलते हैं, उसी तरह वर्षा ऋतु में फोदा का। शीत ऋतु
में उलानबांटी का और ग्रीष्म ऋतु में गिल्ली-डंडा की लोकप्रियता बढ़ जाती है।
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में लोक खेलों के सर्वाधिक स्वरूप सामूहिक हैं, किन्तु एकल रुप में भी उलानबाटी चरखी व
पानालरी का तथा दलगत में पतारीमार, अल्लगकूद, पिट्टूल, गिल्लीडंडा तथा भिर्री खेल का प्रचलन
मिलता है।
राष्ट्र की स्वतंत्रता के पश्चात अन्य क्षेत्र व अंचल के लोगों का
छत्तीसगढ़ में प्रवेश तीब्रगति से हुआ। परिणाम स्वरुप विभिन्न क्षेत्र व अंचल के
पारम्परिक खेल भी आ गये। खेल, मात्र मनोरंजन प्रदान करने वाला माध्यम होने के कारण यहाँ की संस्कृति
में शीघ्रातिशीघ्र वे समाहित होने लगे। वर्तमान समय में ऐसे अनेक लोक खेल मिलते
हैं,
जो यहाँ के नहीं
हैं। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है, मानों छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन से ही उद्भूत हैं। उदाहरण के तौर पर
चुन-चुन मलिया,
चिकि-चिकि बाम्बे
और आँधी चपाट जैसे खेलों को लिया जा सकता है।
(छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक शंखनाद, लोकरंग अरजुन्दा स्वप्न जहाँ आकार लेते हैं से
साभार)