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May 10, 2016

विलुप्ति के कगार पर बारहसिंघा

           विलुप्ति के कगार पर

               बारहसिंघा

                     - देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
उत्तर प्रदेश के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के हरे-भरे मैदानों में कभी विशाल झुण्डों के रूप में पाया जाने वाला अद्वितीय मृग बारहसिंघाप्रदेश का राजकीय पशु होने के बावजूद अपने ही गृहराज्य में स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए बुरी तरह संघर्ष कर रहा है। जबकि कभी दुधवा नेशनल पार्क बारहसिंघों का स्वर्ग इस कारण से कहा जाता था क्योंकि जंगल के मैदानों में चार से सात सौ की संख्या वाले बारहसिंघों के झुण्ड अक्सर दिखाई देते थे जो अब कभी कभार अंगुलियों पर गिनने लायक ही दिखते हैं। प्राकृतिक एवं मानव जनित कारणों के साथ ही दुधवा के अफसरों की निज स्वार्थपरता तथा उदासीनता के कारण खूबसूरत सींगों के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध मृग बारहसिंघातेजी से विलुप्त हो रहे वन्यप्राणियों की श्रेणी में माना जाने लगा है। इसके बाद भी इनकी वंशवृद्धि के प्रयासों का शुरू न किया जाना अपने आप में ही शोचनीय विषय बन गया है।
विश्व की दुर्लभतम वन्यजीवों की प्रजातियों में से एक बारहसिंघापिछली सदी तक उत्तर भारत तथा दक्षिण नेपाल में पाया जाता था। वैसे हिमालय की तलहटी के साथ ही आसाम से लेकर पूर्व में सुन्दरवन व पश्चिम में सिन्धु नदी के दलदल और बाढय़ुक्त मैदानों एवं दक्षिण में गोदावरी तक इनकी उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं। भारतीय द्वीप में बारहसिंघों की तीन उप प्रजातियाँ पायी जाती है। जीववैज्ञानिकों में सरबस डुबासोलीनाम से प्रसिद्ध इस वन्यजन्तु को अंग्रेजी में स्वॉप डियरभी कहते हैं। भारत-नेपाल सीमावर्ती उत्तर प्रदेश के जिला लखीमपुर-खीरी के विश्व पर्यटन मानचित्र पर स्थापित विख्यात दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र में सरबस डुबासोलीतथा मध्यप्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में सरबस ब्राडेरीके साथ ही आसाम में रंजीत सिंगी प्रजाति मिलती है। लगभग 180 किलो वजन तथा 54 इंच रुंचे कंन्धे से इस मृग हिरनके सींग करीब 5 इंच व्यास तथा 30 इंच तक लम्बे होते हैं। वैसे भारत से सटे नेपाल के दक्षिण भाग में भी कुछ बारहसिंघे दिखाई पड़ जाते हैं। नर बारहसिंघों के सिर पर सींगों का जहाँ खूबसूरत मुकुट होता है वहीं मादा के सिर पर सींग नहीं पाये जाते हैं, नर के सींग प्रत्येक साल प्रजननकाल समाप्त होते ही झड़ जाते हैं लेकिन अगला प्रजनन आने से कुछ सप्ताह पहले ही पूर्ण विकसित सींग फिर से निकल आते हैं। विकसित सींग रक्षा के अलावा प्रजनन के समय मादा को आकर्षित करने के भी काम आते हैं। बारहसिंघे के भूरे शरीर पर घने बाल नर आते है। नर की गर्दन पर जरा लम्बे व गहरे भूरे रंग के बाल भी देखे जा सकते हैं। गर्मियों में इस मृग का रंग जरा हल्का व धब्बेदार हो जाता है। एक समय था जब दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र में जहाँ इस मृग के बड़े-बड़े झुण्ड आसानी से नजर आ जाते थे, वहीं अब होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन एवं मानवजनित कारणों से ऐसे झुण्ड भी दुर्लभ हो चले हैं, जिसमें पचास बारहसिंघा हो। यद्यपि इस स्थिति के लिए दुधवा नेशनल पार्क के अफसरों की लापरवाही व उदासीनता के साथ उनकी स्वार्थपरता भी कम जिम्मेदार नहीं है। विश्व में पाये जाने वाले बारहसिंघों की कुल संख्या की अपेक्षा दुधवा नेशनल पार्क में ही सर्वाधिक बारहसिंघा पाए जाते हैं। 28 जनवरी 1986 को पार्क आँकड़ों में इनकी संख्या 2750 बतायी गई थी। बीते करीव डेढ़ दशक में 2001 तक इनकी संख्या बढऩे के बजाय घटकर 1808 तक पहुँच गई थी। उसके बाद के समय में घटती संख्या सिमट कर तीन अंकों में रह गई है। अलबत्ता जंतु वैज्ञानिकों की शोध रिपोर्ट और बारहसिंघों की गिरती संख्या इनके लगातार कम होने की चेतावनी दे रही हैं। जबकि गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार बारहसिंघों की संख्या चार-पांच सौ के आसपास बतायी जा रही है। बारहसिंघों के बारे में इस रोचक तथ्य को माना जाता है कि जहाँ-जहाँ भी साल वृक्ष प्रचुरता में पाये जाते हैं वहाँ इनकी संख्या के बढऩे की संभावनाएँ ज्यादा होती है। दुधवा नेशनल पार्क में साखू का विशाल जंगल होने के बाद भी लगातार कम हो रही बारहसिंघों की संख्या चिन्ताजनक है ही साथ में पार्क प्रशासन द्वारा वन्यजीवों के संरक्षण हेतु किए जा रहे कार्यो एवं प्रयासों पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है।
दुधवा नेशनल पार्क का वनक्षेत्र बारहसिंघा सहित हिरन प्रजाति में काकड़, चीतल, पाढ़ा के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। इसमें सोठियाना के वनक्षेत्र को बारहसिंघों का स्वर्ग कहा जाता था। जबकि किशनपुर वन्यजीव बिहार के झादी ताल समेत दुधवा वन क्षेत्र के ककराहा ताल, भादी, नगराहा, बाके एवं टाइगर ताल आदि वेटलैंड और मैदानी क्षेत्रों में बारहसिंघों के झुण्ड दिखायी देते थे। इसका कारण था कि मानसून सत्र में 'सुहेली सिंचाई परियोजनासे पूर्व बाढ़ का पानी अमूमन वनक्षेत्र में एकत्र नहीं होता था अगर पानी रूका भी तो बदलते मौसम के साथ ही सूखकर बनने वाले दलदल में जंगली वनस्पतियाँ घास आदि उगती थीं जो बारहसिंघों के जीवन पोषण एवं प्रजनन को बढ़ावा देती थी। लेकिन सुहेली सिंचाई परियोजनाके तहत सुहेली नदी पर जब से बाँ बन गया उसके बाद से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के द्वारा बरपाए जा रहे कहर एवं विनाशलीला से दुधवा के वन्यजीव-जन्तुओं के अस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया है। अदूरदर्शिता से बनाए गए सुहेली बाँध ने पानी के तेज प्रवाह को बाधित कर दिया। इसका परिणाम यह निकला कि पूर्व में बाढ़ के पानी से साथ बहने वाली रेत एवं मिट्टी आदि की सिलटिंग अब जंगल के निचले भागों एवं तालावों में एकत्र होने लगी। जबकि सुहेली नदी में पेड़ आदि गिरने से पानी के बाधित प्रवाह के कारण गहरी सुहेली नदी रेत से भरकर उथली हो गई है। इस तरह वर्षा सीजन में प्रतिवर्ष आने वाली भीषण बाढ़ के कारण नदी का समीपवर्ती हराभरा जंगल सूख रहा है एवं वनस्पतियाँ एक लम्बे समय तक जलमग्न होकर नष्ट होने लगी है। बाध के कारण उत्पन्न जलभराव एवं सिल्टेशन से बारहसिंघों के प्राकृतिक आवास बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। परिणाम स्वरूप प्राकृतिक रूप से मिलने वाले चारा को खाकर जीवित रहने वाले शाकाहारी बारहसिंघा अब चारा तथा आवास के लिए उचे स्थान की तलाश में वनक्षेत्रों से पलायन करने को बिवश हुए। जंगल के बाहर आने पर ग्रामीणों ने इनका अंधाधुंध शिकार करना शुरू कर दिया। गौरतलब यह भी है कि इस तराई क्षेत्र में मानसून का समय एवं बारहसिंघों के प्रजनन का समय लगभग एक ही होता है। बरसात में वनक्षेत्रों में भीषण जलभराव के कारण बारहसिंघों को प्रजनन हेतु अन्य क्षेत्रों की ओर भागने के लिए मजबूर करता है तो गरमी में उन्हें पेयजल की समस्या का सामना करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि सिंचाई के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सुहेली बाँध परियोजना बनी थी इसका कोई लाभ क्षेत्रीय कृषकों को नहीं मिला वरन् इसके विपरीत पूरा वन्यजीवन एवं जंगल बर्बाद हु जा रहे हैं। वन्यप्राणियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण यह तराई क्षेत्र जो दुर्लभ प्रजाति के वन्यजीवों से भरपूर एवं हरे-भरे गगनचुंबी पेड़ों का वनाच्छादित है। निरंतर हो रहे अवैध वन कटान से जंगल के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया है। इसके अलावा नेपाल सीमा से जुड़े वनक्षेत्र पर नेपाली नागरिकों का दबाव बना रहता है। इसमें पेड़ काटना हो या फिर वनपशु का शिकार करना हो , उसमें नेपाली कतई संकोच नहीं करते हैं। जबकि वन संपदा एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिए दुधवा नेशनल पार्क के जंगल को प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल तो दिया गया लेकिन क्षेत्रीय एवं समीपवर्ती नागरिकों के हितों की उपेक्षा की गई। दुधवा नेशनल पार्क बनने से पूर्व ग्रामीणों को जंगल से मिलने वाली वन उपज पर पाबंदी लगा दी गई है। जिसका परिणाम यह निकला कि पार्क की स्थापना से पूर्व जंगल एवं जानवरों से भावात्मक लगाव रखने वाले ग्रामीणजन अब चोरी-छिपे जंगल को भारी क्षति पहुँचाने एवं वन पशुओं का अवैध शिकार करने में भी पीछे नहीं रहते हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि वन्यजीवों की सुरक्षा करने के बजाय अब उनके द्वारा की जाने वाली फसल क्षति, जनहानि एवं पहुँचाए जाने अन्य नुकसानों के कारण ग्रामीणों का स्वभाव वन्यजीवों के प्रति कू्र हो गया है। इसमें मानव को तो कम वरन् सबसे अधिक नुकसान वन्यजीवों को ही पहुँच रहा है।
उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु बारहसिंघाको मूलरूप से संरक्षण देने के लिए स्थापित किये गये दुधवा नेशनल पार्क के आला अफसर बाघों की वंशवृद्धि के लिए किये जा रहे प्रयासों के अति उत्साह में अपने मूल उद्देश्य से भटक गये हैं। जिसका परिणाम यह निकल रहा है कि सरकारी बजट का बंदरवाट एवं खारु-कमारु नीति के कारण दुधवा नेशनल पार्क में चल रहे टाइगर प्रोजेक्टकी असफलता जगजाहिर हो चुकी है। दुधवा नेशनल पार्क में वन्यजीवों की लगातार घटती संख्या का मुख्य कारण है कि यहाँ पर बीते तीन दशक से वन्यजीव संरक्षण के लिए वैज्ञानिक विधि वाले पंचवर्षीय फारेस्ट मैनेजमेंट प्लान के तहत वन प्रबन्धन किया जा रहा है। इसमे बीते करीब बारह साल से केवल मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) रूपक डे द्वारा बनाए गए वैज्ञानिक विधि वाले फारेस्ट मैनेजमेंट प्लान के अनुसार कार्य चल रहे हैं। लेकिन पांच वर्ष के समापन पर उसके गुण और दोषों की समीक्षा किए बिना फिर से उसी प्लान के अन्तर्गत कार्य हो रहे हैं। प्लान अगर अच्छा था, तो उसके परिणाम भी सार्थक निकलने चाहिए थे? लेकिन उसके परिलक्षित हो रहे दुष्परिणामों के फलस्वरूप अब अपने गृह राज्य के संरक्षित दुधवा के जंगल में राजकीय पशु बारहसिंघाको वर्तमान में अस्तित्व को बचाने के लिए बुरी तरह संघर्ष करना पड़ रहा है। जबकि दिनों-दिन वनराज बाघ के दर्शन भी दुलर्भ होने लगे हैं। प्राकृतिक परिवर्तन और मानवजनित कारणों से बदली परिस्थितियों में मानव एवं वन्यजीवों में बढ़ रहे संघर्ष के मद्देनजर नए ढंग से फारेस्ट मैनेजमेंट प्लान अभी तक नहीं बनाया जा सका है। इससे लगता है कि विभाग के अधिकारी की नहीं वरन् सरकार भी वन्यजीव संरक्षण और वन प्रबन्धन के प्रति कतई गंभीर नहीं है। जिसके चलते अदूरर्शिता एवं कुप्रबन्धन के कारण दुधवा नेशनल पार्क में पाए जाने वाले 15 प्रजातियों के उभयचर प्राणियों समेत सरीसृपों की 25 प्रजातियों तथा पक्षियों की 411 प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट के बादल लगातार गहराते ही जा रहे हैं। ऐसी दशा में वन्यजीवों की सुरक्षा संरक्षण के लिए दीर्घकालिक नई कार्ययोजना के साथ-साथ समय रहते समीपवर्ती ग्रामीणों में वन्यजीव-जन्तुओं के प्रति दया व प्रेम की भावना जागृत करने के लिए जनजागरण अभियान नहीं चलाया गया, तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब पार्क में स्वच्छंद विचरण कर रहे विलुप्तप्राय दुर्लभ खूबसूरत, अद्वितीय वन्यजीव इतिहास के पन्नों में सिमटने के साथ ही कागजी तस्वीरों में ही दिखायी देने लगेंगे, इस संभावना से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।           
सम्पर्क-  नगर पालिका काम्पलेक्स पलियाकलाँ, लखीमपुर- खीरी (उ.प्र.)
262902, मो. 9415166103

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