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Mar 5, 2021

उदंती. com, मार्च–2021

     वर्ष- 13 अंक- 7

नारी की करूणा अंतर्जगत का उच्चतम विकास है जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए हैं। -जयशंकर प्रसाद

इस अंक में

अनकही: प्रकृति को भी चाहिए साँस लेने की जगह.... -डॉ. रत्ना वर्मा

कोरोना: क्या टीके की दूसरी खुराक में देरी सुरक्षित है? -स्रोत फीचर्स

महिला दिवस: एक आँख का क्या बंद करें और क्या खोलें -डॉ. पद्मजा शर्मा

पर्व-संस्कृति: खालसाई ओज का प्रतीक होला महल्ला –डॉ. पूर्णिमा राय

संस्मरण: तुम्हारे जाने के बाद -कल्पना मनोरमा

परिणामः हिन्दी प्रचारिणी सभा कैनेडा द्वारा आयोजित -लघुकथा प्रतियोगिता

किताब:  उम्र भर देखा किए -डॉ. प्रताप सहगल

गज़़ल: बेटियाँ - अशोक शर्मा

जन्म दिवस: लोहिया- तुम थे फक्कड़ फ़कीर की बानगी - विजय जोशी

यात्रा: दापोली में तीन दिन: नीला सागर... काली घटाएँ, सफेद लहरें -प्रिया आनंद

कविता: सुनो -भावना सक्सेना

कविता: डरी सहमी औरतें -रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

उर्दू व्यंग्य:   एक मुर्दे से बातचीत -अताउल हक कासमी, अनुवाद  -अखतर अली

लघु व्यंग्य: कच्चा माल-लघुकथाओं के लिये  -महेश राजा

अनुसंधान: सूचना एवं संचार टेक्नॉलॉजी के प्रमुख पड़ाव -डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

प्रेरक: बेहतर जीवन जीने के 7 सिद्धांत -निशांत

शोध: प्रथम परोपकारी पक्षी -स्रोत

अनकही- प्रकृति को भी चाहिए साँस लेने की जगह...


- डॉ. रत्ना वर्मा

नदी का धर्म है बहते चले जाना, यदि कोई उनके मार्ग को रोकने की कोशिश करेगा, तो वह उसे तोड़कर पूरे वेग के साथ आगे बढ़ जाएगी और हुआ भी यही हमने बाँध बनाकर उसे रोकना चाहा, पर वह तो निश्छल, स्वतंत्र और चंचला है, भला कौन उसके वेग को रोक पाया है। तभी तो, जब गंगा के रौद्र वेग को कोई नहीं रोक पाया, तो भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बाँध लिया। खैर, यह तो हुई पुराणों की बात; लेकिन वर्तमान को देखें, तो पिछले कुछ सालों से हम यह भी सुनते चले आ रहे हैं कि गंगा का जल अब अशुद्ध हो रहा है। दरअसल इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं जब अलकनंदा, भागीरथी और मंदाकिनी बिना रोक-टोक के आजादी से बहती थी, तो उनकी पवित्रता बनी हुई थी तब गंगाजल में ऐसे तत्त्व थे, जो मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते थे। अब जबकि मनुष्य अपने फायदे के लिए वहाँ बाँध बनाकर नदियों की गति में अवरोध पैदा कर रहा है, तो नदियों के मूल तत्त्व नष्ट होते जा रहे हैं, आखिर नदियों को भी तो साँस लेने के लिए  जगह चाहिए।  भला बिना ऑक्सीजन के गंगा का जल पहले कैसे शुद्ध रहेगा।

लेकिन हम मनुष्य तो बस अपना त्वरित फायदा देखते हैं लगे हुए हैं नदियों की धारा को रोकने में, पहाड़ों को, पेड़ों को काटने में। इन सबका परिणाम तो एक दिन भुगतना ही पड़ेगा। उत्तराखंड के चमोली जिले में सात फरवरी को जो कुछ हुआ उसे प्राकृतिक आपदा कहकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं। इतिहास में पहली बार ठंड में ग्लेशियर का पिघलना यह दर्शाता है कि चमोली जल- प्रलय एक कृत्रिम आपदा है। यह हादसा बताता है कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने का नतीजा कितना भयाव हो सकता है। सात साल पहले केदारनाथ में आए प्रलयंकारी त्रासदी को भी हमने बहुत जल्दी भुला दिया कितनी दुःखद थी वो त्रासदी; पर उससे सबक लेने के बजाय हम तो अपनी जड़ें ही खोदने में लगे रहे l हर बार प्रकृति हमें चेतावनी देता है कि अगर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की गई, तो परिणाम भयावह होंगे।

ऐसा नहीं है कि सरकार को समय- समय पर इन सबके बारे में चेतावनी नहीं दी गई -  2009 में सुरंग के लिए बोरिंग खुदाई के दौरान अलकनंदा के किनारे जमीन के भीतर पानी सहेजने वाली दीवार टूट गई थी, तब भी पर्यावरणविदों  ने इसे विनाश की चेतावनी माना था, पर पर्यावरण मंत्रालय ने इसे अनसुना कर दिया और निर्माण कार्य जारी रहा। सन् 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा पर हो रहे 24 पावर प्रोजेक्ट्स के निर्माण पर रोक लगाई थी, जिसकी सुनवाई आज भी जारी है। सन् 2016 में  भी नए बाँध और पावर प्रोजेक्ट को कोर्ट ने ख़तरनाक बताया था, तब पर्यावरण मंत्रालय ने ही इसका विरोध किया था और हलनामा देने की बात कही थी, पर हलफ़नामा दायर नहीं किया गया और बाँधों का निर्माण जारी रहा।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद और जलपुरुष के नाम से मशहूर राजेन्द्र सिंह का कहना है- जल से ही प्रकृति का सृजन हुआ है; इसलिए इसका सम्मान करना हम सबका धर्म है। नदियों को बाँधने से ही इस तरह की तबाही आती है। अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी नदियाँ भूकंप- प्रभावित क्षेत्र हैं और वहाँ कोई भी बड़ा निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने आगाह किया है कि विकास के दौर में सुरक्षा को भूल जाने पर इस तरह की घटनाओं से भुगतना होगा, साइंस और सेंस में सामंजस्य बैठाकर ही हम प्रकृति के गुस्से को रोक सकते हैं।  राजेन्द्र सिंह जी एक और महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं- इन नदियों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित नहीं किया जाना चाहिए;  बल्कि उन्हें तीर्थस्थल के रूप में बदलना उचित होगा। तीर्थयात्री कुछ देकर जाते हैं, जबकि पर्यटक लेकर जाते हैं।

सबसे दुःखद बात तो य है कि इतने बड़े मानव निर्मित हादसे के बाद भी सरकार ने  अब तक न तो यहाँ चल रही परियोजनाओं को बंद करने की बात कही और न ही इस विपदा के कारणों को गम्भीरता से लिया। बार- बार होने वाली इन प्राकृतिक आपदाओं को देखते हुए अब समय आ गया है कि दुनिया भर के पर्यावरणविदों को एकजुट होकर इस तरह के मानव- निर्मित विपदाओं को रोकने के लिए सख्त कानून बनाए जाने की पुरज़ोर माँग की जानी चाहिए, क्योंकि केंद्र सरकार ने मई 2020 में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 2020 का जो मसौदा पेश किया है, अगर वह लागू हो जाता है, तो उसका नाजायज फायदा बड़ी कंपनियाँ उठाएँगी और प्रकृति का दोहन करेंगी। जबकि ईआईए 2006 के मसौदे के अनुसार किसी प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले किसी भी कंपनी को क्लीयरेंस लेना जरूरी होता था। साथ ही आसपास के लोगों की सहमति भी लेनी होती थी; लेकिन, 2020 का मसौदा इसके बिल्कुल विपरीत है। विकास के नाम पर बनाए जाने वाले इस तरह के नियम पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो हैं ही, साथ ही इस प्रकार के प्रयोग उद्योग जगत् व राजनीतिक गठजोड़ को बढ़ावा देने वाले साबित होंगे, जिन्हें समय रहते रोका जाना आवश्यक है।

कितनी अजीब बात है सरकार अपने फायदे के लिए तो प्रकृति का भरपूर दोहन करते चली जा रही है; लेकिन सदियों से जो जंगलों में पहाड़ों में और नदी किनारे निवास करते रहे हैं और जिनके सहारे उनकी जिंदगी चलती थी, आज उन्हें ही जंगल से एक लकड़ी तक उठाने की अनुमति नहीं है।  तभी तो मशहूर पर्यवारणविद् डॉ. अनिल जोशी कहते हैंजहाँ यह जल प्रलय हुआ, वह क्षेत्र बायोस्फियर है। यहाँ गाँव के लोगों को पेड़ से पत्ते तक तोड़ने की इजाजत नहीं है; लेकिन पॉवर प्रोजेक्ट लग रहे हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से इतना संवदेनशील इलाका होने के बावजूद 1980 से अब तक यहाँ सड़क और बिजली प्रोजेक्ट के लिए लगभग 8.08 लाख हेक्टेयर वनभूमि को नष्ट किया गया।

जाहिर है विकास कार्य के नाम पर पेड़ों और पर्वतों की अंधाधुंध कटाई से जलवायु परिवर्तन तो होगा ही। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेंगे और फिर भविष्य में केदारनाथ व चमोली से भी बड़े हादसे देखने को मिलेंगे। बार- बार होने वाली तबाही से साबित हो चुका है कि प्रकृति के साथ छेछाड़ को हर हाल में बंद करना होगा अन्यथा विनाशकारी प्रलय के लिए आने वाली पीढ़ियों को हमें तैयार करके जाना होगा; क्योंकि विरासत में तो हम उन्हें रहने लायक प्रकृति और पर्यावरण तो दे कर नहीं जा रहे। इन सबके लिए क्या आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ कर पाएँगी? 

कोरोना- क्या टीके की दूसरी खुराक में देरी सुरक्षित है?

सार्स-कोव-2 महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों में एक बड़ी समस्या टीकों की कमी और उसका वितरण है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों ने दूसरी खुराक को स्थगित करने का सुझाव दिया है, ताकि अधिक से अधिक लोगों को पहली खुराक मिल सके। अमेरिका में अधिकृत फाइज़र टीके की दो खुराकों के बीच 21 दिन और मॉडर्ना के लिए 28 दिन की अवधि तय की गई थी। अब सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने 42 दिन के अंतराल के निर्देश दिए हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल का सुझाव दिया गया है और दावा है कि यह शायद बेहतर होगा। तो टीके की एक खुराक के बाद आप कितने सुरक्षित हैं और यदि दूसरी खुराक न मिले, तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ सवालों पर चर्चा।             

दो खुराक क्यों ज़रूरी?

वास्तव में टीकों को प्रतिरक्षा स्मृति बनाने की दृष्टि से तैयार किया जाता है। इसकी मदद से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हमलावर वायरसों की पहचान करने और उनसे बचाव करने की क्षमता मिलती है, भले ही प्रणाली ने पहले कभी इनका सामना न किया हो। अधिकांश कोविड टीके नए कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन की प्रतियों के माध्यम से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करते हैं। दो खुराक देने का मतलब अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। ड्यूक ह्यूमन वैक्सीन इंस्टिट्यूट के मुख्य परिचालन अधिकारी थॉमस डेनी के अनुसार पहली खुराक प्रतिरक्षात्मक स्मृति शुरू करती है, तो दूसरी खुराक इसे और ठोस बनाती है। उदाहरण के लिए फाइज़र टीके की एक खुराक से लाक्षणिक संक्रमण के जोखिम में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आ सकती है जबकि मॉडर्ना टीके की एक खुराक से यह जोखिम 80 प्रतिशत कम हो जाता है। दोनों खुराकें मिलने पर दोनों टीकों के द्वारा जोखिम लगभग 95 प्रतिशत कम हो जाता है।      

42 दिन के अंतर अनुमति क्यों?

सीडीसी के अनुसार दो खुराकों के बीच 42 दिनों तक
की अनुमति का निर्णय इस फीडबैक के आधार पर लिया गया है कि तारीखों का लचीलापन लोगों के लिए मददगार है। जहाँ यूके में दो खुराकों के बीच की अवधि को बढ़ाने का उद्देश्य अधिक लोगों का टीकाकरण करना है
, वहीं सीडीसी का मानना है कि इससे दूसरी खुराक की जटिलता कम होगी। गौरतलब है कि अमेरिका में टीकाकरण देर से शुरू हुआ है और पहली खुराक मिलने के दो महीने बाद मात्र 3 प्रतिशत लोगों को ही दूसरी खुराक मिल पाई है। टीका निर्माता माँग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में पूरा टीकाकरण करने में कुछ समझौते तो करने ही होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध होने पर अलग रणनीति अपनाई जा सकती है; लेकिन फिलहाल उपलब्ध संसाधनों से ही काम चलाना होगा।           

42 दिनों तक आप कितने सुरक्षित हैं

फाइज़र और मॉडर्ना के परीक्षण के आकड़ों के अनुसार लोगों में पहली खुराक के लगभग 14 दिनों बाद सुरक्षा देखी गई है। इस दौरान टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में कमी और गैर-टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। देखा जाए तो दोनों ही टीकों की पहली खुराक कोविड के मामलों को रोकने में 50 प्रतिशत (फाइज़र) और 80 प्रतिशत (मॉडर्ना) प्रभावी थे। परीक्षण किए गए अधिकतर लोगों को दूसरी खुराक 21 या 28 दिन में मिली थी। बहुत थोड़े से लोगों (0.5 प्रतिशत) को 42 दिन इंतज़ार करना पड़ा। इतनी छोटी संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।    

क्या आंशिक प्रतिरक्षा अधिक खतरनाक वायरस पैदा करेगी?

चूंकि महामारी की शुरुआत में इस वायरस के विरुद्ध किसी तरह की प्रतिरक्षा नहीं थी; इसलिए नए कोरोनावायरस के विकसित होने की संभावना बहुत कम थी। लेकिन वर्तमान में लाखों लोगों के संक्रमित होने और एंटीबॉडी विकसित होने से उत्परिवर्तित वायरसों के विकास की संभावना काफी बढ़ गई है। रॉकफेलर युनिवर्सिटी के रेट्रोवायरोलॉजिस्ट पॉल बीनियाज़ के अनुसार टीके किसी भी तरह लगाए जाएँ, एंटीबॉडी के जवाब में वायरस विकसित होता ही है।

जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का पूरा कोर्स न करने पर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं, उसी तरह ठीक से टीकाकरण न होने पर आपका शरीर एंटीबॉडी-प्रतिरोधी वायरस के लिए स्वर्ग बन जाता है। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार नए-नए वायरसों के पैदा होने की गति सिर्फ प्रतिरक्षा प्रणाली के मज़बूत या कमज़ोर होने पर नहीं, बल्कि जनसंख्या में उपस्थित वायरस की कुल संख्या पर भी निर्भर करती है। बड़े स्तर पर टीकाकरण के बिना नए संस्करणों की संख्या बढ़ने का खतरा है।   

क्या पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबा अंतराल टीके को अधिक प्रभावी बना सकता है?

ऐसी संभावना से इन्कार तो नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो सभी कोविड टीके एक समान नहीं हैं और खुराक देने का तरीका भी विशिष्ट डिज़ाइन पर निर्भर करता है। कुछ टीके mRNA टीके अस्थिर आनुवंशिक सामग्री पर आधारित होते हैं, कुछ स्थिर डीएनए पर तो कुछ अन्य प्रोटीन अंशों पर निर्भर होते हैं। इनको छोटी वसा की बूँदों या फिर निष्क्रिय चिम्पैंज़ी वायरस के साथ दिया जाता है।

ऐसी भिन्नताओं को देखते हुए डीएनए आधारित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल के बाद भी प्रभाविता बनी रही। यह mRNA आधारित मॉडर्ना और फाइज़र की अनुशंसित अवधि की तुलना में लगभग तीन से चार गुना अधिक है। उम्मीद है कि समय के साथ-साथ शोधकर्ता टीके की खुराक देने की ऐसी योजना बना पाएँगे जो नैदानिक परीक्षणों के दौरान निर्धारित खुराक योजना से भिन्न होगी। (स्रोत फीचर्स)

8 मार्च महिला दिवस - एक आँख का क्या बंद करें और क्या खोलें

                                                     -डॉ. पद्मजा शर्मा (साहित्यकार एवं शिक्षाविद) 

पिछले दिनों एक खबर पढ़ी। मन गुस्से से भर गया। आज भी हम और हमारा समाज लड़के वाली ग्रंथि से बाहर नहीं आए हैं। हम पढ़ लिए, आधुनिक कहलाए मगर विचार और सोच हमारी अब भी वही कि बेटा होना जरूरी है, वरना मरते समय मुँह में गंगा जल कौन डालेगा। चिता को अग्नि कौन देगा। बुढ़ापे की लाठी कौन होगा। इसलिए घर में एक लड़का तो चाहिए और एक लड़का ही नहीं कम से कम दो होने चाहिए। एक आँख का क्या बंद करना और क्या खोलना। लड़की नहीं चाहिए क्योंकि उसके विवाह के लिए दहेज जुटाना पड़ता है। वह पराया धन है। उसकी कमाई हमें थोड़े ही मिलेगी जो उसे पढ़ाएँ लिखाएँ। भले आज  हम लड़कियों को उच्च शिक्षा लेते हुए देख रहे हैं पर इनसे कहीं ज्यादा संख्या, कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ लड़कियों की है ।

खबर थी कि लड़का न होने पर दो पुत्रियों की माँ को घर से निकाला। उसे रोज पति द्वारा ताने दिए जाते कि न तो तेरे बेटा है और न तू दहेज लाई। पहली लड़की के होने पर उसे कहा गया कि पीहर से दो लाख रुपए ला। दूसरी लड़की होने पर पाँच लाख रुपए की माँग की गई। फिर माँ को दोनों बेटियों के साथ घर से निकाल दिया। माँ अपने साथ हुए अत्याचार के कारण महिला थाने गई और पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया। आरोपी पति को गिरफ्तार कर लिया गया और कोर्ट में पेश किया गया। जहाँ उसे जमानत भी नहीं मिली।

एक समाचार था कि बेटियाँ होने के तानों से तंग आकर महिला ने तीन पुत्रियों के साथ कुएँ में कूदकर जान दे दी। कई बार हम सोचते हैं ऐसे केस तो अनपढ़ गँवारों में होते होंगे। पढ़े लिखे लोग ऐसी सोच नहीं रखते। अगर हम ऐसा सोचते हैं तो गलत सोचते हैं। मैं एक ऐसी महिला को जानती हूँ जो उच्च शिक्षित है और उसके पति बड़े अफसर हैं। जब उनके घर पहली लड़की हुई तो घर में सब उदास हो गए और पति ने कहा लड़का होता तो बात और थी। घर में तेरी इज्जत बढ़ जाती। भाठा पैदा किया। इससे तो बांझ रह जाती तो बढ़िया रहता। दूसरी लड़की होने पर तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह महिला बताती है कि रात को कभी जब बच्ची रोती तो कहते इसे बाहर लेकर जा। मेरी नींद खराब कर रही है। वह कहती मेरी भी नींद खराब होती है। दिन भर मुझे भी घर का काम करना होता है। थोड़ी देर आप भी संभाल लो। कहते- लड़कियाँ जनी है, तू ही संभाल। कोई हीरे थोड़े ही हैं जो संभालूँ।  ऐसे लोगों को कोई समझाए कि लड़कियाँ लड़कों से कमतर नहीं है। लम्बी ऊँची उड़ान भरने लगी हैं ।

स्त्रियाँ अपने साथ हुए अत्याचारों के विरोध में कोर्ट जा सकती हैं और प्रताड़ित करने वाले को सजा दिला सकती हैं। पर इसकी नौबत ही क्यों आए? जरूरत है अपनी सोच बदलने की। यह सोच पूरे समाज की बदलनी होगी किसी एक की नहीं। और बेटा- बेटी तो एक ही डाल के दो फूल हैं। उनमें भेदभाव क्यों ? आज के जमाने में तो बिलकुल नहीं जब वे दोनों समान रूप से सब क्षेत्रों में आ जा रहे हैं और काम कर रहे हैं। जमीन- आसमान- अन्तरिक्ष सब जगह कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। लड़की के जन्म लेने पर भी लड्डू बाँटिए जैसे लड़के के जन्म पर बाँटते है । ऐसी स्थिति न पैदा हो कि बेटी की माँ को मरना पड़े।

पर्व-संस्कृति - खालसाई ओज का प्रतीक होला महल्ला

-डॉ. पूर्णिमा राय 

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहाँ एक ओर त्योहारों को अनदेखा और नजर अंदाज किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर लोगों में आपसी सदभाव और मिलनसारिता के भाव धूमिल होने लग ग हैं। जब भी होली की बात आती है, तो एक अजीब सी सिहरन मन, देह, आत्मा को कंपित कर जाती है। एक अनोखा- सा एहसास मन को उद्वेलित करने लगता है। अकेलेपन की त्रासदी का शिकार जनमानस आनंद के पलों की अनुभूति हेतु व्याकुल होता है। उसके लिए एकमात्र त्योहार ही आनंद के स्रोत हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा।  सामयिक जीवन में लोगों के पास इंटरनेट की पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हैंलोग आज घरों से तो क्या ..अपने कमरे से बाहर निकलकर अन्य स्थान पर जाने के लि भी तैयार नहीं, तो फिर हम कैसे होली जैसे पावन, मादकतापूर्ण, ऋतुराज के संदेशवाहक फाल्गुन का आनंद उठा सकते हैं !

फगुआ, धुलेंडी, फाल्गुनी आदि नामों से सुसज्जित होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एवं भारतीय संस्कृति का एक मुख्य एवं सुप्रसिद्ध भारतीय त्योहार है। बसंत का संदेशवाहक होली पर्व संगीत और रंग का परिचायक तो है ही,साथ ही प्राकृतिक छटा भी पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देती है। होली का सामाजिक धार्मिक एवं आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व भी है। होली हास-परिहास और उल्लास के साथ-साथ सामाजिक समरसता, समानता, एकत्व एवं मित्रता का सन्देश देने वाला पर्व  है।

होली' संस्कृत शब्द 'होल से संबंधित माना जा रहा है जिसका अर्थ  है 'आग पर भूनी हुई हरे चने, मटर आदि की फलियाँ'  चैत्र मास में न फसलें पकने को तैयार होती हैं।  भारतीय मान्यता के अनुसार नए अन्न का उपयोग करने से पहले अग्नि भेंट किया जाता है।  नए अनाज की बालियों को होली की अग्नि में भूनकर भगवान के प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।  इन भुनी बालियों को होला कहा जाता है। इसे होली के दिन खाया जाता है।  पंजाब क्षेत्र में गेहूं वैसाख के महीने में होली के आने के बाद या इसके दौरान काटा जाता है।  

पंजाब क्षेत्र में होली के मुल्तान शहर में प्रहलाद-पुरी मंदिर में जन्म लिया।  होली शब्द से होलिका और प्रहलाद का प्रसंग भी जुड़ा हुआ है । प्रह्लाद को मारने के लक्ष्य से उसकी बुआ होलिका का स्वयं जल जाना भक्त प्रहलाद की भक्ति भावना का जीवंत उदाहरण है।  अबीर, गुलाल और रंगों की महक बिखेरती होली कहीं लाठी से, कहीं फूलों से, तो कहीं अपनी वीरता एवं युद्ध कला का अभ्यास करते हु सिंह वीरों के खालसाई जज्बे से भरे प्रदर्शन में दिखाई देती है।

होली के शुभावसर पर पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब में  मक्खन और दूध  एक मटकी में डालकर एक उच्च स्थान पर लटका दिया जाता  है, जिसे तोड़ने की परंपरा आज भी जारी है। एक पिरामिड के रूप में छ लोगों को एक दूसरे के कंधों पर अपने हाथों से खड़े होना होता है। जो लोग मटकी तोड़ने के लिए बने पिरामिड में भाग नहीं लेते, वे बाहर रहकर पानी और रंगों को जोर से उनपर फेंकते हैं। यह मान्यता है कि ऐसा करना भगवान श्रीकृष्ण के माखन चोरी प्रसंग की याद को तरोताजा करता है जब वह भी अपने गोप -ग्वालों के साथ ऊँचे पर टँगी मटकी से माखन चुराने के लि लालायित रहते थे।

तेज पुंज, दशम नानक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने  जनमानस में शक्ति भरने के लिए होला महल्ला की परंपरा आरंभ की थी। उन्होंने युद्ध-कौशल, युद्ध-अभ्यास में पारंगत करने के लक्ष्य से जनसमूह को सैन्य-शक्ति में परिवर्तित किया था।  होला-महल्ला में होला; शब्द खालसाई बोली से लिया गया है और  महल्लाअरबी भाषा का शब्द है।  जिसका अर्थ है  आक्रमण, अर्थात् युद्ध-कौशल का अभ्यास।

होला मोहल्ला पंजाब का प्रसिद्ध उत्सव है।  सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनन्दपुर साहिब में होली  के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। यहाँ होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिक्ख शौर्य, कला प्रदर्शन एवं वीरता के करतब दिखाए जाते हैं।

वेखके आनंद आ गया,

जी सोहनाँ लगिया आनंदपुर मेला।

गुराँ दे दवारे आ गया,

जी होके कम्म तों पंजाब सारा वेहला।।

खालसा का निर्माण स्थल आनंदपुर साहिब में हर वर्ष नित नवल उत्साह के साथ संगत ट्रक, ट्राली, बस रेलगाड़ी, पैदल, मोटर साइकिल आदि हरेक प्रकार के साधनों से केसरी और नीले दस्तार और चोला सजाकर होला मुहल्ला की पारंपरिक गुरु मर्यादा को बरकरार रखने एवं होली उत्सव काआनंद पाने के लि पहुँच जाते हैं। आनंदपुर की नवेली दुल्हन की तरह सजावट की जाती है । सर्वप्रथम किले आनंदगढ़ पर फूलों की वर्षा होती है। पाँच प्यारे नगाड़े बजाते हैं। जो बोले सो निहाल के नारों से धरती आकाश गुंजायमान होता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में तख्त श्री केसगढ़ साहिब से आरंभ होकर विशाल नगर कीर्तन पारंपरिक ढंग से हरेक वर्ष की भाँति दुर्ग आनंदगढ़ से गुजरता हुआ हिमाचल  की सीमा के निकट चरण गंगा स्टेडियम में संपन्न होता है ।

बाजाँ वाला सत्गुरु, सानूँ है उडीकदा

छेती करो संगते जी, समाँ जावै बीततदा

चल गुरु घर करने दीदारे, गड्डी च जगा मलियै

दिन होले ते मोहल्ले वाला आया, आनंदपुर चलियै।।

 इस शुभावसर पर शस्त्रों से सज्जित गुरु के प्यारे सिंह साहिबान गतका खेलते,नेज़ेबाजी करते,घुड़सवारी दौड़ प्रतियोगिता करते,मार्शल आर्ट के खतरनाक प्रदर्शन करके अपने उत्साह ,वीरता एवं पराक्रम के साथ-साथ गुरु मर्यादा का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जिन्हें देखकर स्वत: ही तन मन से हरेक प्राणी गुरु रंग में सराबोर हो जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष सैंकड़ों  निहंग सिंह आते हैं , जिनमें एक विशेष आकर्षण एवं  प्रेरणा स्रोत श्री अवतार सिंह महाकाल नामक निहंग सिंह जी हैं । इन्होंने 2012 में गुरु कृपा से हेमकुंट साहिब की पैदल यात्रा की है। यह हर वर्ष 645 मीटर का दुमाला (जिसका वज़न 95 किलो/ 75 किलो) बाबा दीप सिंह जी के आशीष से पहनकर आते हैं। इनका लक्ष्य है कि युवक माँ-बाप की सेवा करें,गुरु मर्यादा में रहें,केश कत्ल न करें,गीदड़ की मानिंद जीवन न जिएँ;  बल्कि गुरु के सिंह बनें। मनमत से दूर रहकर गुरमत में रहें।

पंजाब में होली का विशेष आकर्षण और आनंद सही मायनों में आनंदपुर के होला मोहल्ले में शामिल होकर ही आता है।


सम्पर्कः
गोकुल एवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर 143001

 drpurnima01.dpr@gmail.com

संस्मरण- तुम्हारे जाने के बाद

-कल्पना मनोरमा
अगर आज तुम हमारे बीच होतीं, तो हम फरवरी में तुम्हारी छाँछठवी सालगिरह मना रहे होते। वो भी बिल्कुल नासमझ बचपन को मन में समेटे हुए क्योंकि माँ के रहते इंसान कब बड़ा हुआ है! लेकिन तुम्हारे जाने के बाद ये बातें सब हवा हो गईं। हम अचानक बेमतलब के बड़े हो गए और नादानियाँ छोड़ पतझड़ में, ठूँठों में  फूल तलाशते-से भटकने लगे। तुम थीं तो तुम्हारे दुनिया से विदा लेने की बात सोचने मात्र से हमारी आँखें भर आती थीं। न जाने कितनी बार बचपन के सपनों में हमने देखा था कि तुम हमें अकेला छोड़कर दुनिया से चली गयीं हो और हम बौराये-से घर-आँगन और खेतों में हूकते-बिलखते फिर रहे हैं। सपना टूटते-टूटते देर हो जातीतो हमारी देह पसीने-पसीने होकर आँख खुलती और जब तुम्हें अपने साथ सोया देखते तो  चैन आ जाता था। सुबह होते ही हम तुमसे पूछते थे  कि आख़िर इतने गंदे वाले सपने हमें क्यों आते हैं? तुम धीरे से हँसते हुए कहती थीं । हम जिसको जितना ज़्यादा प्यार करते हैं, उतना ही ज़्यादा उसके खोने के सपने हमें डराते रहते हैं लेकिन तुम डरना मत क्योंकि हम तो तुम्हारे बुढ़ौती तक साथ रहेंगे। तुम्हारे बच्चों का ब्याह भी करेंगे। माँ सच्ची में तुम्हारे सारे वादे कितने झूठे निकले।

13 दिसम्बर 2014 रात भर अस्पताल के एक इमरजेंसी कक्ष में ध्यानमग्न रहने के बाद ब्रम्हमुहुर्त अज़ान की बेला चुनकर तुम मौन ही मौन रुखसत हो गईं। हमारी दृष्टि के इस छोर से उस छोर तक का पसारा पलक मारते झप्प हो गया। अस्पताल के प्रतीक्षालय में खड़े हम और इमरजेंसी रूम से आती शब्दहीन तुम! सफेद कपड़े में लिपटी जब मेरी ओर बढ़ती आ रही थी तब समय के उस टुकड़े  पर विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा था कि वो भी हमारे जीवन का हिस्सा था। पल भर में आशा ने हमारा हाथ बेरहमी से झटक दिया था और ख़ालीपन का एक विशाल गुबार हमारी ओर एकाएक उमड़ता चला आया। हम अडोल दुःख के चक्रवात में डूबते चले गये। हमारी आँखों के सामने ममता का खेल छितराकर दाना-दाना बिखर गया। दुःख के विशाल डिब्बे में हम एक तन्हा नन्हें कंकड़ की तरह बजने लगे थे। मन भांयभांय कर हूकने को हुआ था और हमने सोचा भी था कि चिल्ला-चिल्ला कर भीड़ जुटा कर तुम्हारी कठोरता सबको दिखाएँ कि देखो-देखो ये हमारी माँ है, जो हमसे बिना कुछ कहे-सुने अंतहीन सफ़र पर निकल गई हैं। क्या कोई ऐसे जाता है भला अपनों को छोड़कर लेकिन सब कुछ शान्तभाव से सहन करो। चिल्लाने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। तुम्हारे बार-बार कहे चिरपरिचित वाक्य ने कान में बज-बजकर मुझे काठ हो जाने पर मजबूर कर दिया। हमने चाहा था कि कोई हमें तुम्हारी तरह सांत्वना की छाती में छिपा ले। कोई अपनेपन के कंधे आगे बढ़ाकर कह दे कि रख लो सिर, हम तुम्हारे साथ हैं। तो कम से कम हम हूक मारकर एक बार तो रो लेते लेकिन निःशब्द काल में कोई नहीं बोला। अंततोगत्वा तुम्हारी बेटी होने के नाते हमने किसी के कंधे का आसरा देखना छोड़ दिया। किसी की ओर दुःखभरी बाहें नहीं फैलाईं क्योंकि तुम्हीं तो कहती थीं कि जब दुःख उमड़कर तुम्हारी आँखें भरने लगेतो तुम किसी की ओर देखो मत, बस अपनी नजरें नीचे झुका लो। आँसू ख़ुद-ब-ख़ुद सूख जायेंगे। हमने वही किया। मन की खाइयों में दुःख का नमक जो सिर्फ़ हमारे बीच का था, झरता रहा। जिसे देख पाना साधारण की बात नहीं । माँ तुम इस खारे संसार सागर के बीच मीठी नदी थीं। कितनों ने अपने दुःख तुम में विसर्जित कर अपने को हल्का किया था। नदी का धर्म होता है निरंतर बहना। उस बात को तुमने आत्मसात कर अपना जीवन संसार को समर्पित कर दिया था और हमारी आँखों से मानो सारा पानी सूख गया था। हम आत्मा तक जड़ होते चले गये ।लोगों ने समझा था कि हम निष्ठुरता वश नहीं रोये । कहने वालों ने कहा भी था हमसे कि हमारा रोना अच्छा होगा उस आत्मा के लिए जिसने अभी-अभी  शरीर छोड़ा है। वे लोग नहीं जानते थे कि आँसू बहानालाचार दिखना तुम्हें बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए हमारी आँखें न डोली न डबडबाई। जैसे तुमने अपने दुख को बिना किसी के साथ साझा किए आत्मा की गहराइयों में समन किया था। बिल्कुल वैसे ही हमने कोशिश की थी और तुम्हारी बात को अमर कर लिया था, अपनी साँसों में। हाँ, हमारे प्रति कहे तुम्हारे निरे व्यक्तिगत कोमल शब्द जब मन को हूला मारते तो आँसू छर्र-छर्र फ़ैल जाते। जिन्हें हमने बहने दिया था अकेले में बेफिकरी से छाती तक। जिसमें तुम्हारा ही दिया दिल धड़क रहा था।

खैरतुम अपने आँचल में स्थिरता लिए बरामदे में हमारे सामने सोती रहीं और हमें बार-बार तुम्हारे जीवित होने का अंदेशा होता रहा। आस-पास घिरी बैठी तुम्हारी देवरानी-जेठानी, बहनें, भतीजीबहुएँ और भाभजें बखानती रही थीं तुम्हारी जिंदगी। हमारा ध्यान तो बस उस चादर के हिलने पर लगा था जिसे तुम सिर से पाँव तक ओढ़े, सारे कष्टों से मुक्त हो चैन की नींद सो रही थीं। मन फिर-फिर गुनताड़ा लगाता रहा था कि चादर हिलने का मतलब तुम्हारा जिंदा होना हो सकता है। हम एक चमत्कार होने की कामना करते जा रहे थे; उस भगवान से जिसको तुमने और हमने खुद से ज़्यादा पूजा था। लेकिन जीवन के बीहड़ में कुछ अच्छा न घट सका और तुम्हारे बिना बन रहे भीषण अकेलेपन के बीच भी न हमें रोना आयान बोलना और हँसना तो अभी तक नहीं आ पाया है तुम्हारे सामने जैसा।

हमारा भसक कर ढेर होना भले न किसी को दिख रहा था लेकिन अगरबत्तियाॅं जल-जल कर ढेर होती जा रही थीं। वे दूर से दिख रही थीं। दीया टिमटिमाता जा रहा था तुम्हारे लिए। रात बिसूरती जा रही थी कोने अन्तरे में मुँह दिए। तुम्हारे अपने लोग तुम्हारे दुःख के साथ तुम्हारे प्रति अपनी  फ़र्ज़ अदायगी की चर्चा भी हुलसित हो-होकर करते जा रहे थे। तुम्हारे परम स्नेही सेवादारों को भर-भर मुँह सराहा जा रहा था। शोक में लिपटी भेंटवार्ताएँ स्तुतिगान में कैसे बदल जाती हैं; हमने पहली बार इस मानवीय प्रपंच को नज़दीक से देखा था। बहुत अचरज हुआ था हमें। तुम बोल पातीं उस दिन, तो जरूर पूछती कि आदमी हर काम सिर्फ अपने मतलब के लिए ही क्यों करता है? गहरे शोक में भी मनुष्य कैसे झूठे जीवन का अनुलोम-विलोम, सत्य से आँख चुराकर जीता जा रहा था । धरती के इस उथले प्रपंची खेल को नजरअंदाज कर आसमान अपनी धुन में पानी गिराता जा रहा था। हवा खूंटा तुड़वाकर इधर से उधर दौड़ रही थी। मौसम में थरथराहट घुलती जा रही थी। रात के स्याह अँधेरे में गिरतीं बूँदें देख लोग डरने लगे थे कि ठौर ज़्यादा गीला हो गया तो क्या होगा...?

यज्ञ पूर्ण होने पर पानी बरसना शुभ माना जाता है। हमने सुना था कभी । उसी बिना पर हम मन ही मन उसको शुभ माने जा रहे थे क्योंकि तुमने भी तो अपने जीवनयज्ञ में साँसों की पूर्णाहुति ही डाली थी। उसी को शुभ और सत्यापित करने बादल जल-कलश लिए झुक आये थे। तुम्हारा दर्द तुम्हारे शरीर में जमता जा रहा था । तुम अविचल अडिग संन्यासियों की भाँति पलकें बन्द किये अपने होने या न होने में रमती जा रही थीं। तुम्हारे शारीर के शांत होने और वाणी मौन हो जाने से हमारा मन ही खाली नहीं हुआ था बल्कि खाली हुआ था घर-द्वार, हमारे बचपन की हर वोशाख़ जिसपर लटक रहा था ममता का झूला। तुम्हारी मानवीय चेतना जरुर निश्चेष्ट हुई थी लेकिन तुम्हारे कहे शब्द अब ज्यादा  बोल रहे थे।

सुबह होते ही सभी फुर्ती में आ गए थे सिवा तुम्हारे। जिस घर की धरती को तुम मंत्रों के साथ जगाती थीं, उस दिन वह स्वयं जाग गयी थी। तुम्हारे घर के लिए वह बड़ा काम था। उसे अपनी मालकिन को ससम्मान विदा करना था। ईंट-ईंट तुम्हारी छुवन को सवाया कर लौटा देना चाहती थी। घर मानो टेर रहा था तुम्हें लेकिन तुम न बोली थीं। फिर तुम्हारे बिना सहयोग के पहली बार उस घर का कार्य आरम्भ हुआ। तुम्हारी ज़िंदगी की दूसरी बार बारात सजने की तैयारियांँ होने लगी थीं,जो हमारे लिए निरी नई और कल्पनातीत थी।

दिन पाण्डु रोगी-सा हारा हुआ सूरज गोद लिए धीरे से निकला था लेकिन धूप ने तुम्हारा पक्ष लेते हुए जबरन पूरे साज-ओ-सामन के साथ अपने पलक पाँवड़े डाल दिये थे। जो लोग रात से चिंतित थे वे अब तुम्हारे जीवन में किये परोपकार के फलित होने की बातें करने लगे थे। बूढ़ी-पुरानी तुम्हें आशीष रही थीं। तुम्हारे त्याग और कर्मठता के खूब चर्चे होते जा रहे थे । साथ ही साथ तुम्हारे  श्रृंगार के लिए सामान जुटाया जाने लगा था। नई साड़ी और श्रृंगार के सामान के साथ तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे लिए लाल रेशमी शॉल मंगाई थी। तुम्हारी नाक में पहने सोने के नकफूल को उतारने के लिए किसी ने कहा था लेकिन उसे न उतारा जाए,  तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे मान में फिर से बोला था। अच्छा लगा था कि तुम सुन पाती तो तुम्हें उसपर नाज हो आता।

उसी नकफूल के साथ-साथ फूलों के हार भी तुम्हें पहनाए गए। स्वर्ग-विमान को गुलाब और गेंदों ने खूब महकाया था। तुम्हारे घर की मुंडेरें झुक-झुककर तुम्हें निहार रही थीं । दरवाज़े-चौखटें गहरी कचोट में भी तुम्हारी बलाएँ लेती जा रही थीं। तार पर फैली तुम्हारी साड़ी उड़कर तुमसे लिपट जाना चाहती थी। भीतर बरामदे से उठाकर तुम्हें सदरद्वार की उस देहरी के थोड़े भीतर रखा गया था जिसके बाहर तुम आखरी बार पाँव निकालने जा रही थीं। कभी अपनी कच्ची उम्र के साथ उसके भीतर दाख़िल हुई थीं। दिन-रात एक  कर उसको सम्हाला-सजाया और भरसक सुख दिया था बिलकुल प्रौढ़ों की तरह। मुझे हमेशा मलाल रहा कि मेरी माँ बचपन ही बूढी हो गयी थीं उसके लिए लेकिन तुम्हारे चेहरे पर इस बात का मलाल कभी नहीं देखा। मेरे साथ देहरी स्तब्ध थी लेकिन जिसका जो मन था कहता जा रहा था और रोता जा रहा था लेकिन हमारे शब्द पूर्ण शोक में डूब चुके थे। वे होठों पर स्फुरित होना भूल गए थे। मन का आकाश पूरी तरह से मौन हो चुका था। मन का एक भावुक और पूर्णरूपेण स्नेह आप्लावित तुम्हारे नाम का कोना रिक्त हो चला था ।

तुम्हारी अंतिम विदाई में तुम्हें जो जानता था वो भी आया नहीं जानता था वो भी आया। तुम्हें छू-छूकर ताई-चाचियांँ तुम्हारे हाथ-पाँव की नरमाहट और लुच-लुच हथेलियों के गुदास की तारीफ़ करती जा रही थीं । तुम्हें दुल्हन की तरह सजाया गया था। तुम्हारे जीवन साथी ने सगर्व एक चुटकी सिंदूर तुम्हारी माँग में भरकर अपने प्रति तुम्हारे स्नेहिल समर्पण को सम्मानित कर दिया था। हमेशा की तरह तुम्हारे छोटे-छोटे गेहुँआ पीले पाँवों में गुलाबी रंग खिल उठा था । तुम्हें सजाने के दौरान किसी ने हमें तुमको छूने नहीं दिया था या हमने खुद ही चेष्टा नहीं की थी। हमें लग रहा था जितनी देर और हो जाये तुम सोई रहो यूँ ही सही उतना ही ठीक रहेगा। पहले कभी तुम अपने मायके जाने के लिए पाँवों में रंग लगाती थीं तो भी मेरा हाल बेहाल होने लगता था कि अब तुम्हारे बिना दिन कैसे कटेगा।

वो अभागा दिन था जो तुम हमेशा के लिए हमसे विदा लेने जा रही थीं और हम हमेशा के लिए अनाथ होने जा रहे थे फिर भी हम ज़िंदा थे। बेकार है ये संसार माँ! यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रुकता और चलता है। सब अपनी खुशी के लिए मेला देखते हैं। इस सबके बावजूद तुमने क्या-क्या न सहा लेकिन हमें कभी अपनी छाती से अलग न होने दिया। उस दिन हमारे प्रेम का संसार हमारी आँखों के सामने लुट रहा था और हम बेबस लाचार बने सबों को ताक रहे थे। तुम क्या थीं हमारे लिए कहना मुश्किल है लेकिन जो थीं बहुत जरूरी और कीमती थीं।

जीवन के सारे विमर्शों और द्वंद्वों को तुम अपनी खुली हथेलियों पर रखे थीं। फिर भी जमीन से उठाकर तुम्हें चार कन्धों पर चढ़ा लिया गया था। तुम्हारे ऊपर बताशे, मखाने और पैसे बरसाये जाने की रस्म निभाई जा रही थी जो हमें दो कौड़ी की लग रही थी लेकिन रस्में तो खोखली और रूढ़िवादिता से बंधीं होती हैं। उनमें प्रखरता की बात हम सोच भी कैसे सकते थे इसलिए जो होना था होता गया।

बहुत कुछ कहे और अनकहे के बीच आख़िरकार एक स्त्री संसार के हाथों में गुमराह होने छूटती जा रही थी और दूसरी स्त्री संसार को अपने में तिरोहित कर उड़ती जा रही थी।जिनके लिए तुमने फूल चुने थे वे तुम्हें रामनामी अभीष्ठ-अमर ध्वनि में राख होने के लिए जा रहे थे। अग्नि पूरे मनोयोग से तुम्हें अपनाने के लिए तैयार हो चुकी थी। हमारे बीच कभी न पूरने वाली मीलों लंबी दूरी पसरती जा रही थी।ये कैसी विदाई थी माँ? मन आज भी उस अनुत्तरित प्रश्न को सुलझाने में ढेर उलझ जाता है कि हम कैसे लुटे बंजारे से पीछे छूट गए थे और तुमने मुड़कर भी नहीं देखा था। बहुत कुछ कहना है तुम्हारे औदार्य के लिये। कहती रहूँगी जब तक रहूँगी। तुम्हें केवल प्रेम ही मिले; जिस रूप में भी तुम हो।

लेखक के बारे में- जन्म - 04 जून 1972,  शिक्षा- कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक एवं बी.एड. इग्नू से एम.ए, (हिंदी भाषा), सम्प्रति-अध्यापन व स्वतंत्र लेखन, प्रकाशित कृतियाँ - प्रथम नवगीत संग्रह –कब तक सूरजमुखी बनें  हम’, दो काव्य संग्रह एवं एक कथा संग्रह प्रकाशनाधीन , सम्मान- दोहा शिरोमणि 2014 सम्मान , वनिका पब्लिकेशन द्वारा (लघुकथा लहरी सम्मान 2016), वैसबरा शोध संस्थान द्वारा (नवगीत गौरव सम्मान 2018 ), प्रथम कृति पर- सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा (सूर्यकान्त निराला 2019 सम्मान) सम्पर्कः बी 24 ऐश्वर्ययम आपर्टमेंट , प्लाट न.17, द्वारका सेक्टर 4 नई दिल्ली , पिन-110075, फोन नं. 8953654363,  Email-kalpanamanorama@gmail.com

हिन्दी प्रचारिणी सभा कैनेडा की ओर से आयोजित लघुकथा-प्रतियोगिता परिणाम

अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ 

( प्रथम पुरस्कार-1)

- डॉ. सुषमा गुप्ता

चार साल की बच्ची का मन मासूम था। अपने घर की खिड़की से अक्सर वह सामने वाले घर की बालकनी में कुछ खेल होते देखती थी। एक रोज़ उसने सामने वाली दीदी से पूछा
आपने सामने क्या फेंका?’
दीदी के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। कुछ सोचकर उन्होंने कहा-‘वह सामने वाले घर में मेरा दोस्त रहता है। कभी मैं उसे कुछ कहना भूल जाती हूँ, तो इस तरह लिख कर संदेश दे देती हूँ। दोस्तों में ऐसे संदेश देना चलता रहता है।

उस नन्ही बच्ची को यह बात बहुत सुंदर लगी। उसने नया-नया अक्षर- ज्ञान लेना शुरू किया था। उसका एक ही दोस्त था, साथ वाले घर में रहने वाला दो साल का नन्हा बंटी। वह सोचने लगी उसको संदेश भेजती हूँ, पर यह सोचकर उदास हो गई कि उसको अभी पढ़ना नहीं आएगा। अगले ही पल यह सोचकर मुस्कुरा दी कि तो क्या हुआ ,मैं ही पढ़कर सुना दूंगी।
उसने एक कागज़ पर जितने अक्षर सीखे थे, सब लिख दिए और अपने आँगन से उसके आँगन में फेंक दिया, फिर अपने गेट से निकलकर तेज़ी से उसके घर की तरफ गई। उसके आँगन में पड़ी अपनी चिट्ठी को देख ,खुशी से चहकती हुई, उसके घर के अंदर गई।
वह टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था। लड़की ने उसका हाथ थामकर कहा-‘तेरे लिए कुछ है।

नन्हे बंटी ने बाल-सुलभ जिज्ञासा से तुतलाहट भरी आवाज़ में पूछा ‘त्या ?’
लड़की हाथ पकड़क उसको बाहर की तरफ़ खींचने लगी, ‘आ दिखाती हूँ।

छोटे-छोटे दो कंगारू फुदकते हुए बाहर आँगन की तरफ बढ़ गए। आँगन में शहतूत का पेड़ भी था, काले शहतूत का पेड़। चिट्ठी उड़कर उस पेड़ के नीचे जा गिरी थी।
हवा तेज़ थी। अनगिनत पके शहतूत, पेड़ के नीचे पड़े थे। काले धब्बों से ज़मीन पटी हुई थी । चिठ्ठी  उड़कर उन काले शहतूतों से लिपट गई थी। लड़की ने आहिस्ता से उसको उठाकर देखा। शहतूत के धब्बों से कागज़ जामुनी हो गया था और बहुत से अक्षर उस रंग में घुलकर काले हो, लुप्त हो चुके थे। बच्ची का मन बुझ गया। इतने मन से उसने वह चिट्ठी लिखी थी हालाँकि उसको याद था कि उसने उसमें क्या लिखा है पर...

इतनी छोटी उम्र में भी उसको यह तो पता था कि नन्हा बंटी उस चिट्ठी को पढ़ नहीं पाएगा, चिट्ठी उसी को पढ़कर सुनानी थी। उसके बावजूद खो गए शब्द उसके लिए किसी खोई हुई अपनी सबसे सुंदर गुड़िया से कम नहीं थे, जिसका दु:ख बहुत बड़ा था।
लड़की की नन्ही-नन्ही हिरनी -जैसी आँखों में बड़े-बड़े आँसू तैर गए। छोटा लड़का तो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। वह टुकुर-टुकुर बस देख रहा था।  जब छोटी लड़की रोने लगी, तो उस छोटे लड़के के दिल में भी कुछ हलचल हुई। उसने धीरे से उसको हिलाकर अपनी मीठी तोतली ज़ुबान में पूछा
त्या हुआ!

काले जामुनी धब्बों से भरी हुई चिट्ठी जो उस लड़की की नन्ही हथेली में रखी थी, उसने लड़के के आगे कर दी। लड़के को तब भी समझ ना आया कि हुआ क्या है। उसने फिर पूछा- ‘त्या हुआ?’

लड़की ने मुट्ठी बंद की और अपने घर की तरफ दौड़ गई। सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर फूट-फूट कर रोने लगी।

शब्दों के गुम जाने के बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी।

काँटा  (प्रथम पुरस्कार-2)

-राम करन

 बारहों महीने वे व्यस्त रहते। मैं सुबह उन्हें खेत में जाते देखता और शाम को खेत से आते। कभी वे खुरपा-खुरपी, कभी हँसिया, कभी कुदाल, कभी फावड़ा आदि लेकर जाते। एक दिन मैंने पूछ लिया –कितना जोतते हैं?’

पाँच... पाँच बीघे,’ वे बोले।

तब तो खाने की कमी नही होती होगी,’ मैने पूछा।

हाँ, नही होती,’  वे बोले।

बेचना पड़ता होगा?’ मैंने पूछा।

नही। बेचने भर का नही होता,’ वह सहजता से बोले।

लेकिन मैं चकित था। मैने पूछा –पाँच बीघे का अनाज खा जाते हैं?’

वे बोले –अरे गल्ले पर है। खेत मेरा नहीं है।’

आपका कितना बीघा है?’

उन्होंने ने हाथ से कुछ नहीं’ का इशारा किया। मैने पूछा-भाई-पाटीदार के पास भी नही होगा?’

वे बोले –नही, किसी के पास नही है।’

लेकिन खेती सब करते हैं.... सब किसान हैं,’ मैंने कहा।

वे मुस्कराए और बोले –हाँ।’

तब तो अनुदान-सहायता कुछ नही मिलता होगा?’

कहाँ से मिलेगा? जब किसी के नाम पर एक धुर भी नहीं है।

दादा-परदादा से ही ऐसे...

हाँ। दादा-परदादा का भी खेत नहीं था।

लेकिन गाँव के दूसरे लोगों के पास तो पाँच-पाँच दस-दस बीघा है।

उन्हें भगवान ने दिया है।

मतलब आपको भगवान ने नहीं दिया?’

हाँ, ऐसा ही है।

मैं उनको और खँगालने लगा। मैंने पूछा –भगवान ने आपको क्यों नहीं दिया?’

अब नहीं दिया तो नहीं दिया। क्योंहीं दिया ये वही जाने,’ वे मुस्कुरा कर बोले।

अच्छा आपको लगता है कि भगवान ही सबको देता है? देता है तो भेदभाव क्यों?’ मैंने उन्हें टटोला।

इस बार वे झल्लाए, ‘भगवान के नाम पर संतोष तो करने दीजिए...कहाँ सिर फोड़ लूँ...। मैं समझ गया कि काँटा बहुत गहराई में है।

विद्या  (द्वितीय पुरस्कार)

-महेश शर्मा

कोचिंग के लिए निकलने ही वाला था कि मम्मी ने टोक दिया – पहले दादी को किसी डॉक्टर को दिखा लाओ! सुबह से तकलीफ में हैं!

मैं मन ही मन बुरी तरह से झल्ला उठा –

मेडिकल के प्रि-एक्जाम की कोचिंग है यह - कोई मज़ाक नहीं है! पापा इतनी महँगी फीस कैसे भर रहे हैं, यह सोचकर कभी-कभी बहुत ग्लानि होती है - इसलिए अब एक मिनट भी फालतू खर्च करना मुझे बर्दाश्त नहीं है! हर हाल में यह एक्जाम क्रेक करना है मुझे!

मैंने स्कूटर का रूख एक प्राइवेट हॉस्पिटल की तरफ मोड़ दिया। सरकारी अस्पताल की कतार में खड़े रह कर सारा दिन बर्बाद नहीं करना है मुझे!

और यह मम्मी ने सिर्फ हज़ार रुपये क्या सोचकर पकड़ा दिये मुझे? किस माने में जी रहे हैं ये लोग! अरे तीन सौ रुपये तो डॉक्टर की फीस ही होगी – फिर आजकल बिना ब्लड-यूरिन टेस्ट करवाए कोई डॉक्टर इलाज कहाँ शुरू करता है – तो पाँच-छह सौ उसमे लग जाएँगे – फिर दवाइयाँ!! अगर पैसे कम पड़ गए तो क्या करूँगा?

तभी पीछे सीट पर बैठी दादी ने एक अलग ही रट लगानी शुरू कर दी – डॉक्टर के नहीं जाना मुझे – नाभि खिसकने का दर्द है यह – उस चूड़ी वाली बुढ़िया के पास ले चल!

दादी की इस दक़ियानूसी सोच से मेरा पारा चढ़ने लगा – मैंने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की; लेकिन सब बेकार! उनकी ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा!

बाज़ार की उस तंग सी गली में वह चूड़ियों की एक छोटी सी दुकान थी।

उस बुढ़िया ने वहीं भीतर फर्श पर बिछी एक दरी पर दादी को लिटा कर उपचार शुरू कर दिया – मैं अपना मुँह फेर कर खड़ा हो गया – नहीं देखना था मुझे यह सब!!

दस मिनट बाद मुस्कुराती हुई दादी ने मेरे कंधे को थपथपाकर चलने का इशारा किया! मैंने थोड़ी बेरुखी से पूछा – कितने पैसे देने हैं इस चूड़ीवाली को!

दादी अभी कुछ कहती कि उस बुढ़िया ने अपने झुर्रीदार चेहरे पर उभर आई हँसी को काबू में करते हुए कहा – अरे बेटा, यह तो विद्या है – इसके पैसे नहीं लेने चाहिए – पाप लगता है!

जाओ तुम पढ़-लिखकर  खूब बड़े आदमी बनो!

वाजिब कीमत  (तृतीय पुरस्कार)

-सन्दीप तोमर

  दिन गटर के भर जाने से मास्साहब की घर में पानी की निकासी बन्द हो जाती, मास्साहब ही क्या पूरी गली के घरों का आलम यही होता। मास्साहब बालेश्वर को बुला खरपच्ची से गटर खुलवाते। बालेश्वर इस काम की मुँहमाँगी कीमत वसूलता। उसका पेशा ही वही था। मासाहब्ब आए दिन गटर बन्द होने से दुःखी थे। आखिर उन्होंने मोटे पाइप को मुख्य सड़क की गटर लाइन से जोड़ समस्या का निदान कर लिया। अब वे  निश्चिन्त थे। कुछ दिन पहले ही छत का पाइप अवरूद्ध होने पर उन्हें बालेश्वर का ध्यान आया। मास्साहब बालेश्वर के बैठने के ठिये से उसे बुला लाए थे। बालेश्वर ने पाइप लाइन खोलने के तीन हजार रुपये माँगे। मास्साहब ने कहा-भाई, ये काम इतने का नहीं है। फिर इसमें गटर जैसी कुछ गंद भी नहीं, छत का पानी ही आता है।

मास्साहब, इतना ही जानते हो तो खुद कर लो। मेरी क्या जरूरत है।

मास्साहब ने पुरानी पहचान, अपने व्यवहारउसकी पूर्व में की सहायता की दुहाई भी दी; लेकिन उस पर उनका कोई असर न पड़ा। आखिर मास्साहब को मुँह माँगी कीमत पर काम करवाना पड़ा। बालेश्वर आधे-पौने घण्टे में काम निपटा पैसे लेकर जा चुका तो मास्साहब बहुत देर तक दिहाड़ी का हिसाब-किताब लगाते रहे। 

इस घटना को बामुश्किल महीना भी नहीं हुआ कि माहमारी के चलते, शहर में आपातकाल जैसी स्थिति हो ग। मास्साहब को ख्याल आया कि कैसे मजदूर, गरीब इस दौर में गुजर-बसर कर रहे होंगे। वे इस सोच में डूबे थे, अचानक डोरबेल बजने पर उनका ध्यान भंग हुआ। दरवाजा खोला तो देखा, बालेश्वर सामने था। मास्साहब को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। 

कहो, कैसे आये बालेश्वर?’

साहब, सब काम-धाम बन्द है, खाने तक को पैसे नहीं हैं, कुछ मदद कर देते तो...।

उसकी बात भी पूरी नहीं हुई थी, मास्साहब की आँखों के सामने छत का पाइप खुलवाने की  पूरी घटना चलचित्र की तरह घूम ग। वे बोले-बताओ, क्या करूँ?’

कुछ पैसे मिल जाते, तो बच्चो के लिए राशन ...।

अरे पास ही मेरा विद्यालय हैं, वहाँ बना-बनाया खाना आता है, मैं साथ चलकर दिलवा देता हूँ।

उसने सकुचाते हुए बना-बनाया खाना ले जाने में लाचारी जाहिर की, मास्साहब के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कान आ ग। जेब से चार पाँच-पाँच सौ के नोट उसके हाथ पर थमाते हुए बोले-लो, पास की दुकान से घी-तेल, आटा, दाल ले लेना; लेकिन एक बात है, उस दिन के काम के तीन हजार रुपये वाकई ज्यादा थे।

बालेश्वर ने गर्दन झुकाते हुए पैसे लेने को हाथ आगे बढ़ा दिया।

विशमास्टर : ए कोरोना वॉरियर

( सांत्वना पुरस्कार-1)

- मार्टिन जॉन

वह अपने घर के बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठकर मोबाइल में कोविड-19 के ताज़ा स्टेट्स देखने में मशगूल था कि मेन गेट पर एक बाइक आकर रुकी । ई-कार्ट के विशमास्टर को बाइक से उतरते देख उसने फटाफट अपने हाथों को बरामदे में ही रखे सेनिटाइर से सेनिटाइ किया, मास्क लगाया और गेट के पास ज़रूरत से ज़्यादा दूरी बनाकर खड़ा हो गया ।

    कोरोना काल में ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियाँ कुछ दिनों तक बंद रहने के बाद  पिछले पखवाड़े से खुल गई थीं । अब वह ज़रूरत के बहुत सारे उपयोगी सामान ऑर्डर प्लेस कर मँगवा लेता है । इन सामानों की ख़रीदारी के लिए घर से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं रही। बिग बास्केट, जमोटा, अमेज़न, फ्लिपकर्ट के खुल जाने से वह बेहद प्रसन्न था; क्योंकि इस सुविधा से  ‘स्टे होम, स्टे से’ का एक हद तक पालन हो जा रहा था ।

     विशमास्टर एक हाथ में पैकेट लिये दूसरे हाथ से गेट खोलने जा ही रहा था कि वह जोर से चिल्लया , अरे , फिर तुमने गेट को छू लिया ...हाथ मत लगाओ ! उसकी आवाज़ की कर्कशता ने  विशमास्टर पर डंडे जैसा प्रहार किया। वह सहम गया ।

  सॉरी सर ..एक्सट्रीमली सॉरी !

हर बार यही कहते हो और हाथ लगा देते हो ! उसके स्वर के रूखेपन के एहसास से विशमास्टर एक पल के लिए थम गया ।

आगे ख्याल रखूँगा ।...पैकेट ले लीजि सर !

अरे भाई , बाउंड्री पर रख दो न !अपनी जगह से हिले बगैर उसने उसी लहज़े में कहा ।

जी सर ! ...फीडबैक दे दीजिगा प्लीज !

‘हाँ , हाँ दे दूँगा !

विशमास्टर पैकेट से भरे बड़े और वजनी बैग कंधे से लटका कर जैसे ही बाइक स्टार्ट करने को उद्यत हुआ, उसने यूँ  ही पूछ डाला , तुम लोगों को डर नहीं लगता ?

डर ?विशमास्टर ने हेलमेट के पारदर्शी काँच से अपनी आँखों को फैलाकर उसके चेहरे पर टिकाया , लगता है सर।...लेकिन... 

लेकिन क्या ?’

उसके आगे झुकते नहीं !....झुक जाएँगे तो आप सब की सेवा कैसे कर पाएँगे !

ज़वाब सुनकर वह झेंप-सा गया। मन ही मन बुदबुदाया ‘नाहक ही ऐसा बेतुका सवाल पूछ डाला’।

इफ यू डोंट माइंड .......एक बात कहूँ सर ? विशमास्टर ने हेलमेट उतारकर अपने हाथों  में ले लिया। अपने बुझे और मायूस चेहरे पर ‘सर्विस विद स्माइल’ के तहत  मुस्कान लाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा , सेफ्टी और सोशल डिस्टेंसिंग  मेन्टेन करना तो ज़रूरी है सर।.......लेकिन इतना भी नहीं कि उससे  इंसानियत का खात्मा हो जाए!                                                                                वह  झटके से बाइक स्टार्ट कर पलक झपकते आँखों से ओझल हो गया  और दे गया शालीन पलटवार से  शर्मिंदगी का वायरस जिसके चपेट में आकर वह यथावत् खड़ा रह गया ।

राजा-बेटा ( सांत्वना-2)

-अनिता ललित

 क्या माँ! तुम सुबह से रात तक अकेली काम में लगी रहती हो। विकी को बोलो तुम्हारी मदद किया करे। सिमरन माँ से कहने लगी।

अरे! क्यों तू उसके पीछे पड़ी है...मदद करे! मदद करे! क्या हो गया है तुझे? पढ़ाई कर रहा है वो बेचारा। मैं कर रही हूँ न। सदा की तरह, माँ का अपना रटा-रटाया जवाब था। अच्छा ये बता! तू इस बार इतनी खीझी हुई क्यों है? जब से ससुराल से आई है, बात-बात पर विकी से गुस्सा हो रही है। लगता है, लॉकडाउन का कुछ ज़्यादा ही असर हुआ है तुझपर। पहले तो कभी नहीं टोकती थी इतना। किसी बात पर झगड़ा हुआ है क्या उससे? मुस्कुराते हुए माँ ने पूछा।

नहीं माँ! ऐसा कुछ नहीं है ... अनमनी -सी होकर सिमरन बोली, उसे भी काम करने की आदत होनी चाहिए न, तुम्हारा हाथ बँटाना चाहिए। अब इतना छोटा भी नहीं रहा। कहते हुए सिमरन कपड़े उठाने चली गई।

थोड़ी ही देर बाद विकी के कमरे से कुछ शोर की आवाज़ सुनाई दी। सिमरन विकी को डाँट रही थी कि वो जाकर चाय बनाए , और विकी था कि चादर ताने पड़ा था। माँ ने बीच-बचाव करते हुए कहा, अरे क्या सिमु! सोने दे उसे! क्यों तू उसके साथ ज़बरदस्ती कर रही है? कुछ सालों में अपने आप समझ आ जाएगी। तेरी भाभी आएगी तो देखना, सब करेगा... माँ हँसते हुए बोली।

नहीं करेगा! तब भी कुछ नहीं करेगा! राजा-बेटा है न तुम्हारा! बल्कि तब तो और भी नहीं करेगा! वो इसलिए, क्योंकि तुमने तो उससे कभी कुछ कराया नहीं! और अगर करेगा  ... तो भी तुम्हें ही बुरा लगेगा कि देखो! पत्नी के लिए कैसे चाय बनाने पहुँच गया, कभी मुझे तो एक गिलास पानी तक नहीं पिलाया! तब तुम... हाँ माँ! तुम! तुम इसके और इसकी पत्नी के बीच में दीवार बनकर खड़ी हो जाओगी, उनके गले में एक काँटे की तरह फँस जाओगी और फिर... दोनों का जीना दूभर हो जाएगा; इसलिए बहुत ज़रूरी है, कि इन लाटसाहब से अभी से काम कराओ। ...चलो! उठो विकी!  ... विकी की चादर खींचते हुए सिमरन चीखती जा रही थी, मानों उसे कोई दौरा पड़ गया हो। उसकी साँस फूलने लगी थी।

और अवाक् खड़ी माँ, सिमरन के इस रूप में छिपे उसके गुस्से और दर्द को शिद्दत से महसूस कर पा रही थी। उसने हौले से सिमरन का हाथ थामा और गंभीर आवाज़ में बेटे से बोली, विकी! बहुत देर हो चुकी है! सूरज सिर पर चढ़ आया है। दस मिनट में उठकर बाहर आ जाना।