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Mar 5, 2021

अनकही- प्रकृति को भी चाहिए साँस लेने की जगह...


- डॉ. रत्ना वर्मा

नदी का धर्म है बहते चले जाना, यदि कोई उनके मार्ग को रोकने की कोशिश करेगा, तो वह उसे तोड़कर पूरे वेग के साथ आगे बढ़ जाएगी और हुआ भी यही हमने बाँध बनाकर उसे रोकना चाहा, पर वह तो निश्छल, स्वतंत्र और चंचला है, भला कौन उसके वेग को रोक पाया है। तभी तो, जब गंगा के रौद्र वेग को कोई नहीं रोक पाया, तो भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बाँध लिया। खैर, यह तो हुई पुराणों की बात; लेकिन वर्तमान को देखें, तो पिछले कुछ सालों से हम यह भी सुनते चले आ रहे हैं कि गंगा का जल अब अशुद्ध हो रहा है। दरअसल इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं जब अलकनंदा, भागीरथी और मंदाकिनी बिना रोक-टोक के आजादी से बहती थी, तो उनकी पवित्रता बनी हुई थी तब गंगाजल में ऐसे तत्त्व थे, जो मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते थे। अब जबकि मनुष्य अपने फायदे के लिए वहाँ बाँध बनाकर नदियों की गति में अवरोध पैदा कर रहा है, तो नदियों के मूल तत्त्व नष्ट होते जा रहे हैं, आखिर नदियों को भी तो साँस लेने के लिए  जगह चाहिए।  भला बिना ऑक्सीजन के गंगा का जल पहले कैसे शुद्ध रहेगा।

लेकिन हम मनुष्य तो बस अपना त्वरित फायदा देखते हैं लगे हुए हैं नदियों की धारा को रोकने में, पहाड़ों को, पेड़ों को काटने में। इन सबका परिणाम तो एक दिन भुगतना ही पड़ेगा। उत्तराखंड के चमोली जिले में सात फरवरी को जो कुछ हुआ उसे प्राकृतिक आपदा कहकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं। इतिहास में पहली बार ठंड में ग्लेशियर का पिघलना यह दर्शाता है कि चमोली जल- प्रलय एक कृत्रिम आपदा है। यह हादसा बताता है कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने का नतीजा कितना भयाव हो सकता है। सात साल पहले केदारनाथ में आए प्रलयंकारी त्रासदी को भी हमने बहुत जल्दी भुला दिया कितनी दुःखद थी वो त्रासदी; पर उससे सबक लेने के बजाय हम तो अपनी जड़ें ही खोदने में लगे रहे l हर बार प्रकृति हमें चेतावनी देता है कि अगर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की गई, तो परिणाम भयावह होंगे।

ऐसा नहीं है कि सरकार को समय- समय पर इन सबके बारे में चेतावनी नहीं दी गई -  2009 में सुरंग के लिए बोरिंग खुदाई के दौरान अलकनंदा के किनारे जमीन के भीतर पानी सहेजने वाली दीवार टूट गई थी, तब भी पर्यावरणविदों  ने इसे विनाश की चेतावनी माना था, पर पर्यावरण मंत्रालय ने इसे अनसुना कर दिया और निर्माण कार्य जारी रहा। सन् 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा पर हो रहे 24 पावर प्रोजेक्ट्स के निर्माण पर रोक लगाई थी, जिसकी सुनवाई आज भी जारी है। सन् 2016 में  भी नए बाँध और पावर प्रोजेक्ट को कोर्ट ने ख़तरनाक बताया था, तब पर्यावरण मंत्रालय ने ही इसका विरोध किया था और हलनामा देने की बात कही थी, पर हलफ़नामा दायर नहीं किया गया और बाँधों का निर्माण जारी रहा।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद और जलपुरुष के नाम से मशहूर राजेन्द्र सिंह का कहना है- जल से ही प्रकृति का सृजन हुआ है; इसलिए इसका सम्मान करना हम सबका धर्म है। नदियों को बाँधने से ही इस तरह की तबाही आती है। अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी नदियाँ भूकंप- प्रभावित क्षेत्र हैं और वहाँ कोई भी बड़ा निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने आगाह किया है कि विकास के दौर में सुरक्षा को भूल जाने पर इस तरह की घटनाओं से भुगतना होगा, साइंस और सेंस में सामंजस्य बैठाकर ही हम प्रकृति के गुस्से को रोक सकते हैं।  राजेन्द्र सिंह जी एक और महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं- इन नदियों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित नहीं किया जाना चाहिए;  बल्कि उन्हें तीर्थस्थल के रूप में बदलना उचित होगा। तीर्थयात्री कुछ देकर जाते हैं, जबकि पर्यटक लेकर जाते हैं।

सबसे दुःखद बात तो य है कि इतने बड़े मानव निर्मित हादसे के बाद भी सरकार ने  अब तक न तो यहाँ चल रही परियोजनाओं को बंद करने की बात कही और न ही इस विपदा के कारणों को गम्भीरता से लिया। बार- बार होने वाली इन प्राकृतिक आपदाओं को देखते हुए अब समय आ गया है कि दुनिया भर के पर्यावरणविदों को एकजुट होकर इस तरह के मानव- निर्मित विपदाओं को रोकने के लिए सख्त कानून बनाए जाने की पुरज़ोर माँग की जानी चाहिए, क्योंकि केंद्र सरकार ने मई 2020 में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 2020 का जो मसौदा पेश किया है, अगर वह लागू हो जाता है, तो उसका नाजायज फायदा बड़ी कंपनियाँ उठाएँगी और प्रकृति का दोहन करेंगी। जबकि ईआईए 2006 के मसौदे के अनुसार किसी प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले किसी भी कंपनी को क्लीयरेंस लेना जरूरी होता था। साथ ही आसपास के लोगों की सहमति भी लेनी होती थी; लेकिन, 2020 का मसौदा इसके बिल्कुल विपरीत है। विकास के नाम पर बनाए जाने वाले इस तरह के नियम पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो हैं ही, साथ ही इस प्रकार के प्रयोग उद्योग जगत् व राजनीतिक गठजोड़ को बढ़ावा देने वाले साबित होंगे, जिन्हें समय रहते रोका जाना आवश्यक है।

कितनी अजीब बात है सरकार अपने फायदे के लिए तो प्रकृति का भरपूर दोहन करते चली जा रही है; लेकिन सदियों से जो जंगलों में पहाड़ों में और नदी किनारे निवास करते रहे हैं और जिनके सहारे उनकी जिंदगी चलती थी, आज उन्हें ही जंगल से एक लकड़ी तक उठाने की अनुमति नहीं है।  तभी तो मशहूर पर्यवारणविद् डॉ. अनिल जोशी कहते हैंजहाँ यह जल प्रलय हुआ, वह क्षेत्र बायोस्फियर है। यहाँ गाँव के लोगों को पेड़ से पत्ते तक तोड़ने की इजाजत नहीं है; लेकिन पॉवर प्रोजेक्ट लग रहे हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से इतना संवदेनशील इलाका होने के बावजूद 1980 से अब तक यहाँ सड़क और बिजली प्रोजेक्ट के लिए लगभग 8.08 लाख हेक्टेयर वनभूमि को नष्ट किया गया।

जाहिर है विकास कार्य के नाम पर पेड़ों और पर्वतों की अंधाधुंध कटाई से जलवायु परिवर्तन तो होगा ही। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेंगे और फिर भविष्य में केदारनाथ व चमोली से भी बड़े हादसे देखने को मिलेंगे। बार- बार होने वाली तबाही से साबित हो चुका है कि प्रकृति के साथ छेछाड़ को हर हाल में बंद करना होगा अन्यथा विनाशकारी प्रलय के लिए आने वाली पीढ़ियों को हमें तैयार करके जाना होगा; क्योंकि विरासत में तो हम उन्हें रहने लायक प्रकृति और पर्यावरण तो दे कर नहीं जा रहे। इन सबके लिए क्या आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ कर पाएँगी? 

2 comments:

विजय जोशी said...

- प्रकृति और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिरोध नहीं. पर इस सार्वभौम सत्य को ही भूलकर इंसान ने विकास की इस अंंधी दौड़ में स्वयं का विनाश आमंत्रित कर लिया.
- भूगोल विज्ञान भी धरती के अपनी धुरी पर भार संतुलन के साथ संतुलित तरीके से घूमने के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है. पहाड़ों पर बांधों ने इस भार संतुलन को बुरी और पूरी तरह गड़बड़ा दिया है.
- महात्मा गांधी कहा करते थे : There is enough on the Earth for men's need, but not for his greed.
आ. रत्नाजी, एक बहुत ही सुंदर तथा सार्थक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने वर्तमान त्रासदी व संकट की. सो हार्दिक बधाई तथा आभार. सादर विजय जोशी

Ashwini Kesharwani said...

समसामयिक, सार्थक और सीख लेने वाला संपादकीय अनकही में रत्न की, साधुवाद।
प्रो अश्विनी केसरवानी