हमारी नदियोँ के किनारे
फैला है
ज्ञान और अध्यात्म का पाठ
- पंकज चतुर्वेदी
बहुत पुरानी बात है, हमारे देश
में एक नदी थी सिंधु। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोहन जोदड़ों नाम का शहर
मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व
सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-श्वांस का रिश्ता था। नदियों के किनारे समाज
विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का
प्रयोग, अग्नि का इस्तेमाल के अन्वेषण हुए।
मन्दिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व अध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनिया भर में फैला। कह सकते हैं
कि भारत की सांस्कृतिक व भावात्मक एकता का सम्वेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है।
इंसान मशीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम
की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना
पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
बीते चार दशकों के दौरान समाज व सरकार ने कई परिभाषाएँ, मापदण्ड, योजनाएँ
गढ़ीं कि नदियों को बचाया जाये, लेकिन विडम्बना है कि उतनी ही तेजी से
पावनता और पानी नदियों से लुप्त होता रहा।
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु
जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस सम्पूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहाँ से
पानी बहकर नदियों में आता है। इसमें हिमखण्ड, सहायक नदियाँ, नाले आदि
शामिल होते हैं।
जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा
होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो
हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले
को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदण्ड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्राह्मणी, महानदी और
साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियाँ हैं। इनमें से तीन नदियाँ - गंगा, सिंधु और
ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखण्डों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों
को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः
वर्षा पर निर्भर होती हैं।
यह आँकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक
क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का
सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से
हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445
प्रतिशत है। आँकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा
समृद्ध हैं, लेकिन चिन्ता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी
बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियाँ सूखी रह जाती हैं।
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिये भी
चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना
सम्भव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की
कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण।
धरती के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के चलते मौसम में बदलाव
हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।
मानसून के तीन महीनों में बमुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही
अन्धाधुन्ध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी
परिस्थितियाँ नदियों के लिये अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं।
बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और
ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर
प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और
गोदावरी का पथ कम वर्षा वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लाख घनमीटर प्रति
वर्गकिलोमीटर ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति
में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिये नदियों
के अधिक दोहन, बाँध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी
छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।
नदियाँ अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों
के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहाकर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अन्धाधुन्ध
जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों
के इस्तेमाल आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलबा बहकर नदियों में गिर
जाता है।
परिणामस्वरूप नदियाँ उथली हो रही हैं, उनके
रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी
खतरनाक है कि सरकार व समाज इन्तजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन
पर कब्जा कर लें। इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से
प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है।
आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है।
कल-कारखानों की निकासी, घरों की गन्दगी, खेतों में
मिलाए जा रहे रासायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई
ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग
किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी
सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों
का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी बताएँ, लेकिन नदियों की
गन्दगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।
आज देश की 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं और मरने के कगार
पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की
मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिण्डन, आन्ध्र की
मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियाँ
सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।
हालत यह है कि देश की 27 नदियाँ नदी के
मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चेनाब, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा, बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णरेखा, सरयू, रामगंगा, गौला, सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक, गंडक, कमला, सोन एवं
भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व
के लिये जूझ रही हैं।
दरअसल पिछले 50 बरसों में
अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप
में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की
वृत्ति बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और
जन-जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिये जब नदी पर संकट आया, तब उससे
जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट
मँडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने
नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।
राष्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट
बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी
सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी
प्रवाहित होता है। ये नदियाँ इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी
बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़
रुपए के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।
अभी तो देश में नदियों की सफाई नारों के शोर और आँकड़ों के
बोझ में दम तोड़ती रही हैं। बड़ी नदियों में जाकर मिलने वाली हिण्डन व केन जैसी
नदियों का तो अस्तित्व ही संकट में है तो यमुना कहीं लुप्त हो जाती है व किसी
गन्दे नाले के मिलने से जीवित दिखने लगती है। सोन, जोहिला, नर्मदा के
उद्गम स्थल अमरकंटक से ही नदियों के दमन की शुरुआत हो जाती है तो कही नदियों को
जोड़ने व नहर से उन्हें जिन्दा करने के प्रयास हो रहे हैं। नदी में जहर केवल पानी
को ही नहीं मार रहा है, उस पर आश्रित जैव संसार पर भी खतरा होता है।
नदी में मिलने वाली मछली केवल राजस्व या आय का जरिया मात्र नहीं है, यह जल
प्रदूषण दूर करने में भी सहायक होती हैं।
जल ही जीवन का आधार है, लेकिन भारत की
अधिकांश नदियाँ शहरों के करोड़ों लीटर जल-मल व कारखानों से निकले जहर को ढोने वाले
नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों में शव बहा देने, नदियों के
प्राकृतिक प्रवाह को रोकने या उसकी दिशा बदलने से हमारे देश की असली ताकत, हमारे
समृद्ध जल-संसाधन नदियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
आज फिर तालाब की याद आ रही है
यह देश-दुनिया जब से है तब से पानी एक
अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल, जैसी
विषमताएँ प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग
भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिण्डों से पलायन कर गए। उसके पहले का
समाज तो हर जल-विपदा का समाधान रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आँगन, गाँव के
पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएँ गायब हुए हैं।
बावडिय़ों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा
आदि समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को
अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती
संरचना, पानी की माँग व आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि
कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कण्ठ तर हो जाएगा।
वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या
हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे
बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश के कस्बे-शहर में बनने वाली
जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आँक पाता है जो हमारा
पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावडिय़ाँ, कुईं और
झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु
में ऐरी, नागालैण्ड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र
में पैट, उत्तराखण्ड में गुल, हिमाचल प्रदेश में
कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारम्परिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की
आँधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बाँध
बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है।
गुजरात के कच्छ के रण में पारम्परिक मालधारी लोग खारे पानी के
ऊपर तैरती बारिश की बूँदों के मीठे पानी को 'विरदा' के प्रयोग
से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती
है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ
पानी बनता है जो शाम को बहता है। वहाँ के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को
सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई-कई तालाबों की शृंखला
में मोड़कर हर बूँद को बड़ी नदी व वहाँ से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी
परम्परा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस 'पद्धति
तालाब' प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की
अन्तरशृंखला भी विस्मयकारी है।
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुन्देलखण्ड में भी पहाड़ी
के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ''ओने'' (अतिरिक्त पानी की निकासी का मुँह) से नाली
निकालकर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोडऩे व ऐसे पाँच-पाँच तालाबों
की कतार बनाने की परम्परा 900वीं सदी में चन्देल राजाओं के काल से रही है।
वहाँ तालाबों के आन्तरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के
बन्धान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी
फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रुठे तो पहले नल, फिर नलकूप
के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताश रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।
यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने
के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र
उपाय है। यदि देश की महज पाँच प्रतिशत जमीन पर पाँच मीटर औसत गहराई में बारिश का
पानी जमा किया जाए तो पाँच सौ लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी की खेती की जा सकती है।
इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता
है।
और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर
सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें
सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मानित किया जाए और एक बार फिर
समाज को ' पानीदार' बनाया जाए। यहाँ ध्यान रखना जरूरी है कि
आंचलिक क्षेत्र की पारम्परिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं
पाएँ सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में
स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरुकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल
का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार)