मरने की कगार पर हमारी
नदियाँ
-ज्ञानेन्द्र रावत
इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहाँ मेले
नदियों के तट पर, उनके संगम
पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहाँ तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट
पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर
पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में
कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने
जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए
शर्म की बात है, जो नदियों
को माँ मानते
हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900
से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में
बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है।
वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे
38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के
शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन
बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी
प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के
अस्तित्व का संकट मुँह बाए खड़ा
है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की
अमलाखेड़ी, साबरमती और
खारी, हरियाणा की
मारकंडा, उत्तर
प्रदेश की काली और हिंडन,
आंध्र
की मुंसी, दिल्ली में
यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियाँ सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहाँ आदिकाल से नदियाँ मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं।
उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध
रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक
संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी माँके समान है। उस स्थिति में माँ से स्नेह पाने की आशा और देना संतान
का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की
केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के
किनारे हुआ, बल्कि वे वहाँ
पनपी भी हैं।
वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के
दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व
पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को
विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में
प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएँ जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक
दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण
के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का
लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन
गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब
नदी पर संकट आया, तब उससे
जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मँडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता
का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने
नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।
लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का
रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि
वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में
भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने
में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि
कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस
दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियाँ वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो
या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियाँ। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो।
असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खमियाजा सबसे ज्यादा
नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा
तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रुपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत
20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ
ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी
नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के
शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे। कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध
जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास
लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो.
बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है।
दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने
वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन
व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल
में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी
22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला
बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएँ बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी
लगाया जा रहा है, लेकिन
परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने
का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है।
इसकी शुरूआत राजीव गाँधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी।
अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा
पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू
होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाड़ियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289
किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली
के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक
जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के
कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की
छोटी-बड़ी जल धाराएँ भी सूख गई हैं।
आज नदियाँ मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल
वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल
संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की
उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की
व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए
और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार
चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो
बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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