उफरैखाल पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा के मध्य में स्थित है, जिसे पहले राठ कहा
जाता था, जिसका अर्थ
है पिछड़ा इलाका। यहीं एक दूधातोली लोक विकास संस्थान (दूलोविसं) है, जिसे ‘चिपको आंदोलन’ और ‘वन संवर्धन आंदोलन’ के लिए स्थापित
किया गया था। इस संस्थान के संस्थापक श्री सच्चिदानन्द भारती (ढ़ौढ़ियाल) ने इस
क्षेत्र में वनों को बचाने और बढ़ाने के लिए यहाँ के लोगों, विशेषकर महिलाओं को
संगठित किया और इस कार्य को जन-आंदोलनों का रूप दिया।
ग्रामवासियों ने पानी, जंगल और मिट्टी संरक्षण के विज्ञान को समझा और बरसों से
नंगे पड़े पहाड़ों को जंगल से ढक दिया। आज यहाँ पानी संग्रहण से पेड़ लहलहा रहे हैं।
इस प्रयास में उन्होंने गाँव वालों के साथ मिलकर सबसे पहले
उफरैखाल की नंगी और बंजर पड़ी जमीन में वृक्षारोपण का काम शुरु किया। सन् 1987 में
जबरदस्त सूखा पड़ा, इस स्थिति
में सभी वृक्षारोपण की विफलता से चिंतित थे, लेकिन उनमें इस समस्या के निराकरण के लिए चिन्तन-मनन भी
होता रहा और अंतत: इसका एक उपाय तलाशा गया कि क्यों नहीं रोपे गए पौधों के समीप
गड्ढे खोदे जाएँ और फिर यही किया गया, जिसमें वर्षा का
पानी जमा होता गया और इससे मिट्टी और पौधों में काफी दिनों तक नमी बनी रही। इस
उपाय से पौधों के सूखने का प्रतिशत घटने लगा।
1990-91 के आते-आते जंगल हरा-भरा हो गया। आज एक दशक बाद यह वन
पूर्ण रूप से एक घने जंगल का रूप धारण कर चुका है, जिसमें बांज, बुरॉस, काफल, अमाट,
चीड़, उतीस आदि स्थानीय
प्रजातियों के अलावा बड़े पैमाने पर देवदार के पेड़ हैं।
दूलोविसं के संस्थापक श्री भारती ने आगे चलकर दिल्ली स्थित ‘गाँधी शांति प्रतिष्ठान’ के श्री अनुपम
मिश्र के साथ सलाह मशविरा किया और राजस्थान के अलवर, जैसलमेर, इत्यादि जिलों के परम्परागत जल संग्रहण ढांचों तथा
वर्तमान प्रयासों को देखा- समझा और फिर गाडखर्क के जंगल में छोटे-छोटे तालाबों की
एक शृंखला
निर्मित करने में जुट गए,
जिसके
लिए गाँव वालों ने
अपना श्रम दिया।
इस प्रयास का तुरन्त ही प्रभाव दिखने लगा और इससे जंगल के
तीनों तरफ सूखी रोलियों (नाले) ने आज सदाबहार नालों का रूप धारण कर लिया है। इन
नालों के संगम से एक नई गंगा का अवतरण हुआ, जिसे गाड गंगा का नाम दिया गया हैं।
गाडखर्क वन में संस्थान द्वारा 1500 छोटे-बड़े तालाब बनाए गए
हैं, जिन्हें जल
तलाई नाम दिया गया है। इस पहाड़ी क्षेत्र के प्रत्येक ढलान पर खुदाई करके तलाई
बनाई गई है। खोदी गई मिट्टी से इनकी मेड़ ऊँची की गई और उस पर पेड़ और दूमड़ घास
लगाई गई। इस प्रकार इन तलाइयों से पहाड़ी के शिखर से ही वर्षा जल का संग्रहण आरम्भ
हो जाता है और इनका पानी रिस-रिसकर निचली तलाइयों से होता हुआ नालों में पहुँचता
है। नालों में ज्यादा पानी संगृहीत करने के लिए पत्थर और सीमेंट के कुछ बँधा भी बनाए गए हैं।
आज इन जल तलाइयों में वर्षा ऋतु के 4-5 महीने बाद तक पानी बना
रहता है, जिससे
आसपास के जंगलों और मिट्टी में बराबर नमी बनी रहती है। श्री भारती के अनुसार यहाँ
डेढ़ दर्जन गांवों में 4 घनमीटर (घमी) से लेकर 100-150 घमी की 7,000 तलाइयों का
निर्माण किया जा चुका है।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें: श्री सच्चिदानन्द भारती
दूधातोली लोक विकास संस्थान उफरैखाल, पौड़ी गढ़वाल, उत्तरांचल
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