जब अंग्रेज भारत में राज करने आए थे तो यहाँ पर करीब 25 लाख तालाब, झील व अन्य
वाटर बॉडीज, पानी का काम हो चुका था। आज के वाटर बॉडीज तालाब, झील छोटा
हो या बड़ा उसे सिविल इंजीनियर बनाता है लेकिन तब हमारे यहाँ कोई सिविल इंजीनियरिग
की इंस्टीट्यूट नहीं थी, ऐसी पदवी, डिग्री वाले लोग
नहीं थे जो पाँच साल की पढ़ाई करते हों। हमारे देश में करीब 25 हजार
तालाब थे कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक तथा बाड़मेर, जैसलमेर से
लेकर पूरब के मेघालय तक। जिस राज्य का नाम मेघ पर है उस राज्य के लोगों को मेघ का
पानी रोकना आता था। आज हम जिसको अंग्रेजी में वाटर हार्वेस्टिंग कहते हैं ये नया
शब्द है पाँच, दस साल पहले हमारे में से किसी साथी ने चलाया होगा लेकिन
हमारा समाज इस शब्द को सिर्फ चलाता नहीं था उसका उपयोग करता था। -अनुपम मिश्र
पानी को लेकर नित नये मुहावरे गढऩे में माहिर अनुपम मिश्र ने
सच कहा कि शायद हम इंतजार कर रहे हैं आकाश से आने वाली किसी वाणी का, जो हमारी
नदियों को बचा सके। हम निकम्मे हो गये हैं। आओ! "नदी पुनर्जीवन" शीर्षक को
पलट दें। नदियों को मरने दें। आखिर इतने सालों में हमने कितनी ही नदियों को मार ही
तो दिया है। देश की 14 बड़ी नदियां बड़े संकट का शिकार हैं, तो छोटी
नदियों को हम एक-एक कर मार ही रहे हैं। आयोजन स्थल के निकट लोदी गार्डन के पुल के
नीचे से होकर कभी एक नदी बहती थी। खैरपुर से खान मार्केट के बीच। अब खान मार्केट
के सामने नदी क्यों बहे? सड़क बहे। हमारी गाडिय़ाँ बहें। हमने उसे मार
दिया। हम फाँसी देने वाले का नाम भी याद रखते हैं। लेकिन हमने इस नदी का नाम भी
याद नहीं रखा। 1900 तक दिल्ली के नक्शे में कई नदियों के नाम मिलते हैं। सच है!
उसके बाद नदियाँ जमीन से भी मिटीं और कागज से भी। नदी बचाने के नाम पर काम भी
कागजी ही हुए। किसी सरकार के आने-जाने से इस रवैये में कोई बड़ा फर्क कभी नहीं
पड़ा।
दिल्ली ने कभी अपने पानी की चिंता नहीं करती। उसने अपने 800 तालाब मार
दिए। वह पहले यमुना, फिर गंगा और अब हिमाचल की रेणुका झील से
पानी लाकर पीने की योजना बना रही है। आगे क्या? आगे शायद इंग्लैंड
का पानी ले आये। हम नदियों को कब्जा कर रहे हैं। नदियाँ उफनकर शहरों को बाढ़ से
डुबो रही हैं। पहले उड़ीसा, बिहार और बंगाल ही बाढ़ में डुबते- उतराते
थे, अब मुंबई और बंगलूरु भी डूब रहे हैं। रूस जैसे जिन देशों ने
नदियों का पानी रोकने की कोशिश की, उनके समुद्र सूख
गये। जहाज रेत में ऐसे धंसे कि आज तक नहीं निकल पाये।
उन्होंने चेतावनी तो दी कि यदि नदियाँ इसी तरह मरती रहीं, तो हमारा
अस्तित्व ही एक दिन संकट में पड़ जायेगा। तब हमे अपने पुनर्जीवन की चिंता करनी
पड़ेगी। उल्लेखनीय है कि विश्व वन्यजीव संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले
मात्र 40 वर्षों में पशु पक्षियों की आबादी घटकर दो-तिहाई रह गई है।
इस अवधि के दौरान मीठे जल पर आश्रित पक्षी, जानवरों और मछलियों
की संख्या में 70 और उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की प्रजातियों में 60 फीसदी
गिरावट हतप्रभ करने वाली है। लेकिन सच यह भी है कि नदियों का कैलेंडर 12 महीने का
नहीं होता।
अनुपम मिश्र ने कहा कि नदियां लाखों सालों का कैलेंडर बनाकर
चलती हैं। वे लाखों साल में बनती हैं। अत: वे यूं मर भी नहीं सकती। न मालूम कौन सी
नदी कितने बरस बाद फिर कब जिंदा हो जाये? कुछ पता नहीं।
लेकिन नदियाँ बचेंगी, तो किसी कानून या नीति से नहीं। समाज कभी
जलनीति नहीं बनाता; वह जलदर्शन बनाता है। लाखों साल का संस्कार
आधारित जलदर्शन! हम कानून तोड़ सकते हैं, लेकिन संस्कार का
अभी भी इस देश में मान है। उसी से उम्मीद।
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