- डॉ. रत्ना वर्मा
मेरा बचपन गाँव में बीता है। पढ़ाई के लिए अवश्य हम भाई-बहनों
को शहर भेज दिया गया पर परीक्षा खत्म होते ही हम पूरी छुट्टियाँ गाँव में ही
बीताते थे। इस तरह जन्म से लेकर 20-22 साल की उम्र तक तो पूरी गर्मी यानी लगभग दो
माह हम गाँव में ही रहते थे। पर्व- त्यौहार और अन्य पारिवारिक समारोह में तो साल
भर आना- जाना लगा ही रहता था। आज भले ही गाँव जाना कम हो गया है पर छूटा अब भी
नहीं है। दीपावली का त्यौहार हम आज भी
गाँव में ही मनाते हैं। दादा जी के जमाने से चली आ रही सत्यनारायण की कथा जो तुलसी
पूजा के दिन ही की जाती है को आज की पीढ़ी अब तक निभाते चली आ रही है। गाँव के
ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व के सिद्धेश्वर मंदिर में प्रति वर्ष लगने वाले
पुन्नी मेला (कार्तिक पूर्णिमा) के दिन मंदिर के शिखर में झंडा बदलने की पारिवारिक
परम्परा का पालन भी मंदिर की प्रतिष्ठा के बाद से आज तक जारी है। तात्पर्य यह कि शहरवासी होकर भी हमारे परिवार
का गाँव से नाता अभी बना हुआ है। ऐसे बहुत से परिवार हैं जो आज भी गाँव से जुड़े
हुए हैं। चाहे वह पुश्तैनी जमीन-जायजाद के नाते हो चाहे खेती किसानी के नाते।
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है कि तालाब कहीं भी हो
उसके किनारे मंदिर होता था, जहाँ मंदिर नहीं होते थे वहाँ पीपल या बड़
के विशाल वृक्ष अवश्य होते थे। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रात: स्नान के बाद भगवान की आराधाना के साथ
पेड़ों पर जल चढ़ाने की परम्परा भी रही है। यह परम्परा आज भी जारी है तभी तो मेले, मड़ई और
कुम्भ जैसे धार्मिक महत्त्व के पर्व, तालाब और नदी के
किनारे ही सम्पन्न होते हैं।
ये सब बताने तात्पर्य अपनी बचपन की यादों को आपसे साझा करना
भर नहीं है। गाँव के बहाने अपनी परम्परा, अपनी मिट्टी से
जुड़े संस्कारों को भी साझा करना है। खासकर तब जब उदंती का यह अंक जल संग्रहण
विशेषांक के तौर पर तैयार हो रहा है। यह तो हम सभी जान गए हैं कि आज हमारे देश में
जल संग्रहण के परम्परागत तरीके समाप्ति के कगार पर है। एक समय था जब गाँव की आबादी
के अनुसार गाँव में तालाब होते थे। बिना तालाब के गाँव की आज भी कल्पना नहीं की जा
सकती। क्योंकि जल संग्रहण का तालब से बेहतर और कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। तभी तो
तालाब खुदवाने की एक परम्परा हुआ करती थी। तालाब खुदवाना पुण्य का काम माना जाता
था। तालाब के रहते मौसम चाहे कैसा भी हो पानी की समस्या का सामना कभी करना ही नहीं
पड़ता था। लेकिन अब जो तालाब हमारे पूर्वज खुदवा गए उन्हें ही बचाने की जुगत नहीं
की जाती, ऐसे में नए ताल-तलैया खुदवाने की बात करना बेमानी ही लगता है।
शहरों का हाल तो और भी बुरा है। जितने भी तालाब थे उन्हें पाट
कर उन जगहों पर बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी की जा रही हैं। पानी की पूर्ति कहाँ से होगी इस ओर किसी का
ध्यान नहीं जाता। इस संदर्भ में मैं पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी की प्रसिद्ध
किताब आज भी खरे हैं तालाब का उल्लेख करना चाहूँगी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में
परम्पारगत जल स्रोत तालाब का हमारे जीवन में कितना महत्त्व है इसके बारे में हम
सबको जागरुक किया है। जब से मिश्र जी की इस किताब का प्रकाशन हुआ है देश भर में
बहुत से लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र के तालाबों को बचाने की मुहिम सी चलाई और आज
भी चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ में भी हमें अपने अपने शहर और गाँवों के तालाब को बचाने
के लिए प्रयास आरंभ करना होगा और जहाँ के तालाब खत्म हो गए हैं वहाँ उसके महत्त्व
को रेखांकित करते हुए फिर से तालाब खुदवाने होंगे। सरकार अपने स्तर पर कुछ तालाबों
को बचा रही है, पर यह भी उतना ही सत्य है कि आज बहुत सारे तालाबों की जगह
बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़ में इन्हीं तालाबों के चलते कभी
सूखे की नौबत नहीं आती थी परंतु आज हालात खराब हैं।
पीने के पानी की समस्या के साथ साथ किसानों को भी पानी के लिए
तरसना पड़ रहा है। इससे पहले कभी भी छत्तीसगढ़ के किसानों में आत्म हत्या की खबर
नहीं सुनाई पड़ती थी पर गत वर्ष से यहाँ के किसानों द्वारा आत्महत्या करने की
चौकाने वाली खबरें आ रही हैं, जिसके कई कारण है जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण
कारण खेती के लायक पर्याप्त पानी का अभाव और अपनी परम्परागत खेती से दूर होते
जाना। वर्षा तो कम ज्यादा प्रति वर्ष होती है पर हम वर्षा जल को संजो कर नहीं रख
पा रहे हैं जिसका परिणाम है कि हमारी भूमि सूखते जा रही है। हमने जमीन के नीचे का
सारा संचित जल तो नल और बोरिंग के जरिए खींच- खींच कर निकाल तो लिया है पर उसे भरा
रखने के उपाय करना भूल गए, नतीजा सामने है आज महानगरों में लोग पानी
खरीद कर पी रहे हैं।
मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित जल पुरुष के नाम से मशहूर
राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में पिछले दिनों जल सत्याग्रह की शुरूआत हुई है। इस
सत्याग्रह के माध्यम से वे सबको बताना चाहते हैं कि पानी की जमीन को पानी के लिये
रखना होगा। पानी की जमीन हम छीन रहे हैं और धरती का पेट खाली करते जा रहे हैं। जब
तक धरती का पेट खाली रहेगा। पानी का पुनर्भरण नहीं हो सकता। रिवर और सीवर को अलग
करना होगा। वर्षाजल को नाले के प्रवाह से अलग करना होगा। नाला और पीने के पानी को
मिलाने की राजनीति वास्तव में मैले की मैली राजनीति ही है।
तो हमें भी अनुपम जी की पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब से
प्रेरणा लेनी होगी और राजेन्द्र सिंह के जल सत्याग्रह के आन्दोलन को आगे बढ़ाना
होगा। हमें पानी बचाने के परम्परागत उपायों को फिर से अपनाना होगा। सूख चुके
तालाबों को फिर से भरना होगा और नए तालाब भी खुदवाने होंगे ताकि आगे आने वाली
पीढ़ी यह न कहे कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए पीने का पानी ही नहीं बचाया।
2 comments:
सरकार को रेल रोड के सभी प्रोजेक्ट को तत्काल बन्द करके पूरा पैसा पानी,नहर ,केनाल और नदियों को जोड़ने में डाइवर्ट कर देना चाहिए ।आने वाले दिनों में वाटर हार्वेस्टिंग के अभियान को लोगो के जिम्मे न छोड़ कर सरकारी मुहकमो के माध्यम से करवाना जरूरी है।शहरों में पीने का पानी सुलभ नहीं ।यहां तक महाराष्ट्र में होटलों में आधे गिलास पानी परोसने का आदेश है।गांवमें किसान की फसलें बिना पानी के खुद दम तोड़ रही हैं और किसानो को दम तोड़ने के लये मजबूर कर रही है।पानी -आपातकाल लागू कर इस समस्या से जूझने की महती जरूरत है ।
राजनीतिज्ञ इसे अपनी पहली प्राथमिकता समझ के जुट जाएँ तो विकराल स्तिथि पैदा होने से पहले खुशहाली आ सकती है।
गंगा प्रोजेक्ट को कुछ सालो बाद भी हाथ में लिया जा सकता है ।
मन की बात में यह प्रश्न अगर उठ सके हो देश में अच्छे दिनों की शुरुआत हो सकती है।
बेहतरीन आलेख, आदरणीया रत्ना जी।
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