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Jul 25, 2012

उदंती.com-जुलाई 2012

उदंती, जुलाई 2012
मासिक पत्रिका  वर्ष2, अंक 11, जुलाई 2012

 

कैसा छंद बना देती हैं, बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन, नभ की छवियाँ तारों वाली!
    -
माखनलाल चतुर्वेदी



 संस्मरण: बिन पानी सब सून... - डा. रत्ना वर्मा
 मौसम: मानसून की कहानी  - नवनीत कुमार गुप्ता     
 यात्रा वृतांत: अकथ कहानी प्रेम की... -चन्द्र कुमार 
 जीवनशैली: बूंदों में जाने क्या नशा है...  - सुजाता साहा
 फूड प्रोसेसिंग: भोजन के पोषक तत्व कहां... - भारत डोगरा
 कविता: पानी  - अख्तर अली
 मानसून: मोर पपीहा बोलन लागे... - आर. वर्मा
खोज: 10 नए अनोखे प्राणी  - उदंती
 शोध: तेज होता है टैक्सी चलाने वालों का दिमाग
 कालजयी कहानियाँ: उसने कहा था - चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
 लघुकथाएं: 1. सदुपयोग 2. समय चक्र  3. दो रुपए के अखबार -बालकृष्ण गुप्ता गुरु 
 जन्म शताब्दी वर्ष: मैं क्यों लिखता हूँ? - सआदत हसन मंटो
 व्यंग्य: हुए जिन्दगी से जुदा, आ लगे कतार में  - जवाहर चौधरी
 गजल: आँखें भी थक गयीं  - डा. गीता गुप्त
 विचार : मैं तो नहीं पढूंगी ... - डा. ऋतु पल्लवी
 प्रेरक कथा: खाली डिब्बा
 ब्लाग बुलेटिन से: कोलंबस होना अच्छा...  - रश्मि प्रभा
 वाह भई वाह    
 ताँका: पावस - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
 आपके पत्र
 रंग बिरंगी दुनिया

बिन पानी सब सून...

- डा. रत्ना वर्मा
पानी की कमी एक समस्या बनकर हमारे जन- जीवन को प्रभावित करने वाली है यह तो हम सभी अनुभव कर रहे थे परंतु इतनी जल्दी यह मुसीबत हमारे सामने खड़ी नजर आयेगी यह कल्पना हमने नहीं की थी और अब भी हम इस गंभीर समस्या से आँखें मूंदे हुए हैं।
पूरा देश इन दिनों पीने की पानी की समस्या से जूझ रहा है। हमारे देश की राजधानी दिल्ली से लगभग प्रतिदिन यह समाचार आता है कि वहां नलों के नीचे सैकड़ों की संख्या में लोग लाइन लगाए खड़े रहते हैं। दिल्ली शहर यमुना नदी के किनारे बसा है, फिर भी वहां के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि यमुना जो देश की बड़ी नदियों में से एक है, को प्रदूषण से एक जहरीला नाला बना दिया गया है। ऐसे में अन्य बड़े शहरों में कैसा हाहाकार मचा होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। गर्मी के मौसम में पानी की यह समस्या और भी विकराल बन जाती है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैंने इस वर्ष किया है-
 पिछले साल की तरह इस साल भी हम अपने प्रदेश के 45 डिग्री से भी अधिक पार कर चुके तापमान से राहत पाने उत्तराखंड की पहाडिय़ों पर छुट्टी मनाने जिलिंग (काठगोदाम से सड़क के रास्ते लगभग ढ़ेेड़ घंटे का मार्ग) की पहाडिय़ों पर गए। यह स्थान नैनीताल जिले के मटियाल गांव के ऊपर पहाडिय़ों के बीच बसा वह सुंदर स्थल है जहां सड़क नहीं है और टे्रकिंग करके ही वहां तक पंहुचा जा सकता है। लेकिन गर्मी से राहत इस साल वहां भी नहीं मिली। उत्तराखंड में पहाड़ के लोग भी इस बार गर्मी की तपन झेल रहे हैं और पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। मैदानी इलाके में रहने वाले हम जैसे लोग पहाड़ में रहने वालों की समस्या को तब तक महसूस नहीं कर सकते जब तक उसे स्यवं अनुभव न करें और अपनी आँखों से पीने के पानी के लिए उन्हें जूझते न देखें। लेकिन हम कई बरसों से समाचारों में पढ़ते रहे हैं जिसमें हमारे पर्यावरणविद् अपने अध्ययनों के आधार पर लगातार यह कहते आ रहे हैं कि विश्व में अगली लड़ाई पानी के लिए होगी।  यह लड़ाई अब शुरु हो चुकी है। पहाड़ों पर साल- दर- साल बढ़ रही गर्मी और पानी के लिए तरसते वहां के जीव- जंतु इसके गवाह हैं।
पानी की कमी एक समस्या बनकर हमारे जन- जीवन को प्रभावित करने वाली है यह तो हम सभी अनुभव कर रहे थे परंतु इतनी जल्दी यह मुसीबत हमारे सामने खड़ी नजर आयेगी यह कल्पना हमने नहीं की थी और अब भी हम इस गंभीर समस्या से आँखें मूंदे हुए हैं। अपनी इस यात्रा में जब हमने अपनी आँखों से यह सब देखा और स्वयं इस समस्या से रूबरू हुए तो विश्वास करना पड़ा कि हम अपने पर्यावरण के प्रति कितने लापरवाह हो चुके हैं। एक वह समय था जब आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपने के लिए हमारे बुजूर्ग छायादार और फलदार पेड़ लगाते थे, यह सोच कर कि हमारे बच्चे जब बड़े होंगे तो इन हरे- भरे पेड़ों की छांह तले बैठ कर इसकी ठंडी हवा को महसूस कर हमें याद करेंगे कि हमारे दादा- परदादा ने हमारे बेहतर जीवनयापन के लिए ये पेड़ लगाये थे। पर आज के लोग अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए पेड़ तो नहीं लगाते बल्कि क्रांक्रीट के जंगल जरूर खड़े करते चले जा रहे हैं। ऐसे जंगल जो अगली पीढ़ी को मुसीबत के अलावा और कुछ नहीं देने वाले।
...तो मैं बता रही थी उत्तराखंड इन दिनों पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। वहां के रहने वालों से बात करने पर जानकारी मिली कि पहाड़ के नीचे रहने वाले तो फिर भी किसी तरह अपने लिए पीने के पानी का इंतजाम कर लेते हैं। जैसे नदी से या बोरिंग से। (यद्यपि नदी भी हमें सूखे ही मिले, क्योंकि छह दिन के इस पड़ाव में दो दिन हम स्वयं भी पानी की कमी से जूझे थे और नहाने के लिए नदी ही गए थे, जहां पर भी पानी बहुत कम था लगभग नहीं के बराबर)  हम जिस इलाके में रूके थे वहां के लोग भी पहाड़ों से नीचे उतर कर बोरिंग से पीने का पानी भरकर ऊपर ले जाते थे। वैसे जिस बोरिंग से वे सब और हम भी पानी ले जाते थे उसकी खासियत यह थी कि उस बोरिंग को बगैर ओटे ही लगातार पानी आते रहता था इतना स्वच्छ कि मिनरल वाटर भी पीछे रह जाए। चूंकि वहां पानी पहाड़ों पर बसे घरों पर पहुंचाना होता था इसलिए पानी के उनके बरतन बहुत बड़े नहीं होते थे। मुश्किल से 5-7 लीटर पानी ही वे एक बार में ले जा पाते थे। ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां ही पानी भरने दूर- दूर से आती थीं। बिना पानी के कैसे गुजारा होता है पूछने पर वे लोग कहते थे पीने को पानी मुश्किल से मिलता है वहां नहाने की बात ही कहां उठती है हम तो कई कई दिन नहाते ही नहीं।
 बहुत ही कम पानी में जीवन गुजारना हो तो वह पहाड़ में पानी की समस्या से जूझ रहे लोगों से सीखना होगा। हम शहरों के नलों में पानी के लिए लाइन लगाए लोगों को देखकर परेशान हो जाते हैं पर कोई इन पहाड़ में रहने वालों का दुख भी देखे जो पानी का मटका या पीपा लेकर ऊंची- ऊंची पहाडिय़ों पर चढ़ते- उतरते हैं। पिछले साल भी हम इसी इलाके में गए थे पर तब हालात आज से बेहतर थे। जंगल हरे- भरे थे। फलों की भरमार थी। लोग खुश नजर आते थे पर आज उनकी आंखों में निराशा साफ झलकती है।
  वहां पिछले एक साल से वर्षा ही नहीं हुई है। इस वर्ष पहली बार उस क्षेत्र में तापमान 32 से 35 डिग्री तक गया। जंगल का एक बहुत बड़ा इलाका आग से जल गया है। पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेती करने वाले किसानों की हालत तो बहुत ही खराब है। पानी के अभाव में उनकी फसलें सूख रहीं हैं। सरकार ने ग्रीन हाऊस प्रोजेक्ट के माध्यम से वहां के किसानों को फायदा दिलाने की कोशिश की है पर पानी के अभाव में यह भी उनके फायदे का नहीं रहा। ग्रीन हाऊस के पौधों को बचाने के लिए वे पानी लाएं तो कहां से लाएं। पहाड़ों के सभी सोते सूख चुके हैं। पशु- पक्षी प्यासे भटक रहे हैं। मानसून के इंतजार में किसानों की आंखें पथरा गई हैं।
जाहिर है प्रकृति हमसे नाराज है। बेदर्दी से काटे जा रहे जंगल, नदियों पर बनाए जा रहे बांध, कल- कारखानों का फैलता जाल और भूजल का दोहन आदि सबने मिलकर आज ये हालात बना दिए हैं कि जिन पहाड़ों पर से झरनों के हजारों सोते नीचे आकर नदियों से मिल जाया करते थे वे पहाड़ आज उजाड़ हो गए हैं। मानसून भी इस बार 10 दिन विलंब से आया है और इस बरस इसके कमजोर रहने की संभावना भी बताई जा रही है।
याद रहे बिन पानी सब सून।

मौसमः मानसून की कहानी

- नवनीत कुमार गुप्ता
मानसून की महत्ता को देखते हुए इसके पूर्वानुमान का महत्व बढ़ जाता है। हमारे देश की अनेक कहानी एवं दंतकथाओं में प्राचीन समय में मौसम पूर्वानुमान के लिए उपयोग किए जाने वाले तरीके मिल जाएंगे। इस समय मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के लिए 16 मापदंडों वाले माडल का उपयोग किया जाता है।
मौसम की विविधता हमारे देश को विशिष्ट बनाती है। वैसे तो सर्दी, गर्मी और बारिश यहां के तीन मुख्य मौसम हैं लेकिन बारिश का महत्व विशेष ही है। बारिश में मानसून आता है जिससे गरजते बादल बरसकर भीषण गर्मी से राहत दिलाते हैं। हमारे कृषि प्रधान देश में मानसून की वर्षा देश भर में अच्छी पैदावर की नई आशा जगा देती है।
हमारे देश में ग्रीष्मकालीन मानसून का आगमन दक्षिण- पश्चिम दिशा से होता है। इसलिए यह दक्षिण- पश्चिम मानसून कहलाता है। दरअसल, मानसून शब्द का उपयोग सबसे पहले भारत में ही किया गया था। यह अरबी भाषा के मौसिम शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऋतु। इसके नामकरण का भी रोचक किस्सा है। अरब सागर के दक्षिण- पश्चिमी भाग से मध्य एशिया की ओर जो हवाएं चलती थीं, उन्हें अरब सौदागर मौसिम कहते थे। उन्हीं हवाओं के सहारे वे अपने पालदार जहाजों में यात्रा के लिए निकलते थे। इस प्रकार वर्षा लाने वाली उन्हीं हवाओं को मानसून कहा जाने लगा।
आज हम जानते हैं कि मानसून जल- कणों से भरी वे हवाएं हैं जो गर्मियों में किसी महाद्वीप के विस्तृत भूभाग के खूब तप जाने के कारण बने कम वायुमंडलीय दाब को भरने के लिए हिंद महासागर की ओर से आती हैं। सर्दियों में देश का उत्तरी भूभाग ठंडा पड़ जाता है जबकि सागर की सतह का पानी अपेक्षाकृत गर्म रहता है। इसलिए उत्तरी भूभाग से ठंडी हवाएं समुद्र की ओर बहने लगती हैं। दक्षिण एशियाई मानसून प्रणाली भारतीय उपमहाद्वीप के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह मानसून भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में वर्षा के लिए जिम्मेदार है।
दक्षिण एशिया में मानसून प्राय: जून से सितंबर तक सक्रिय रहता है। देश के उत्तरी और मध्य भाग के गर्मी से तप जाने के कारण वायुमंडलीय दाब बहुत कम हो जाता है। इसलिए उस खाली स्थान को भरने के लिए हिंद महासागर से जल- कणों से भरी नम हवाएं तेजी से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बहने लगती हैं। ये हवाएं उत्तर में हिमालय की ओर खिंची चली जाती हैं। 
वहां दीवार की तरह खड़ा हिमालय उन नम हवाओं को मध्य एशिया की ओर जाने से रोक देता है जिससे वे नम हवाएं ऊपर उठती हैं। ऊपरी वायुमंडल में तापमान कम होने के कारण उनमें वर्षा की बूंदें बनने लगती हैं। और फिर, उन बूंदों से लदे बादल बरस पड़ते हैं और वर्षा की झड़ी लग जाती है। जो प्रकृति के कण- कण में नई उमंग का संचार करती है।
हमारे देश में साल भर में कुल जितनी वर्षा होती है, उसका 80 प्रतिशत से भी अधिक भाग मानसून की ही देन है। हमारे देश की अधिकांश खेती इसी वर्षा पर निर्भर करती है। धान, मक्का, कपास, मोटे अनाजों, दलहनों और तिलहनों की कई फसलें खरीफ यानि मानसून के ही मौसम में उगाई जाती हैं। इनका उत्पादन मानसून से प्रभावित होता है। अगर मानसून कमजोर हुआ तो सूखा पड़ सकता है, और यदि मानसून जम कर बरसता है तो अतिवृष्टि के कारण बाढ़ तबाही मचा देती है।
असल में मानसून का हमारे देश की अर्थव्यवस्था से सीधा सम्बंध है। सितंबर माह के आसपास मानसून तेजी से वापस लौटने लगता है। ये लौटती हुई ठंडी, सूखी हवाएं बंंगाल की खाड़ी से नमी लेकर दक्षिण भारत में बरसती हैं। इसे उत्तर- पूर्वी मानसून कहा जाता है। तमिलनाडु में साल भर जितनी वर्षा होती है, उसका 50- 60 प्रतिशत हिस्सा इसी लौटते हुए मानसून की देन होता है। दक्षिण भारत में अक्टूबर से दिसंबर का समय इसी उत्तर- पूर्वी मानसून का समय होता है। दक्षिण भारत में उस समय होने वाली बारिश काफी लाभदायक होती है।
काफी समय से मानसून को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन किया जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार दक्षिण पश्चिमी मानसून पर अल- निनो और ला- निना जैसी घटनाओं का भी असर पड़ता है। ऊष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर की सतह का तापमान बढ़ जाने की घटना को अल- निनो कहते हैं। सतह का तापमान घट जाने की घटना ला- निना कहलाती है। इन घटनाओं के साथ ऊष्णकटिबंधीय पश्चिमी प्रशांत महासागर में सतह का वायुमंडलीय दाब भी बढ़ता या घटता है जो सदर्न आसिलेशन कहलाता है। इन घटनाओं को सम्मिलित रूप से अल- निनो या ला- निना सदर्न आसिलेशन कहते हैं। अल- निनो होने पर पश्चिमी प्रशांत महासागर में वायुमंडलीय दाब बढ़ जाता है और ला- निना की स्थिति में वायुमंडलीय दाब घट जाता है। इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से भी मानसून के प्रभावित होने की संभावना व्यक्त की जाती रही है।
मानसून की महत्ता को देखते हुए इसके पूर्वानुमान का महत्व बढ़ जाता है। हमारे देश की अनेक कहानी एवं दंतकथाओं में प्राचीन समय में मौसम पूर्वानुमान के लिए उपयोग किए जाने वाले तरीके मिल जाएंगे। इस समय मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के लिए 16 मापदंडों वाले माडल का उपयोग किया जाता है। सन 1988 से मानसून के दीर्घ अवधि के पूर्वानुमानों के लिए इसी माडल का उपयोग किया जा रहा है।
आजकल मौसम विभाग अनेक सुपर कंप्यूटरों की मदद से मौसम का पूर्वानुमान लगाता है। आज नए वैज्ञानिक उपकरणों और उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों तथा तस्वीरों से मौसम वैज्ञानिकों को मानसून का पूर्वानुमान लगाने में काफी मदद मिल रही है। वे कई बार लगभग सटीक पूर्वानुमान भी लगा रहे हैं लेकिन मानसून की रहस्यमय परिघटना का अभी भी पूरी तरह खुलासा नहीं हुआ है।
वैज्ञानिक विभिन्न कारकों को समझकर इसकी गुत्थी सुलझाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। असल में मानसून की परिघटना इतनी रहस्यमय है कि हर साल इसकी एकदम सटीक भविष्यवाणी करना संभव नहीं हो पाता।

जीवन का लोक राग है कबीर यात्रा

अकथ कहानी प्रेम की

कछु कहीं न जाई

- चन्द्र कुमार

हवेली के आँगन में जब चारों तरफ ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के बीच स्वर लहरियां बिखरी तो लगा कि जैसे एक शांत हवेली जीवंत हो उठी है। नापासर कस्बे में अब खंडहर बन चुकी ऐसी अनेकों हवेलियाँ और दिखी जो यहाँ के वैभवशाली अतीत की गवाही देती है।
जब बीकानेर के लोकायन परिवार में पहली सात-दिवसीय राजस्थान कबीर यात्रा के आयोजन को लेकर चर्चाएँ शुरू हुई तो मन में कहीं गहरे कुछ चिंताएँ भी घर करने लगी थी। पहले कभी ऐसी संगीत यात्राओं में शरीक होने का अवसर नहीं मिला था, शायद एक बड़ा कारण तो वहीं था लेकिन उससे भी बड़ा कारण इस यात्रा से कबीर का नाम जुड़ा होना था। मध्यकाल से लेकर आज तक, कबीर के संपूर्ण व्यक्तित्व को समझने में जितनी भूलें हमने की है वे यहाँ भी दोहराई जा सकती थी। लेकिन आयोजन तो होना ही था और मुझे इसमें जाना ही था, सो चल पड़ा।
कबीर को हमेशा से ही एक समाज- सुधारक या धर्मगुरू के रूप में व्याख्यित करने वालों को यह थोड़ा चुभ सकता है लेकिन एक कवि या गीतकार रूप में हमारे बीच कबीर की उपस्थिति तब से अब तक निर्बाध रही है और आगे भी रहेगी। कबीर की यह उपस्थिति पिछली छ: शताब्दियों में लोक परम्परा के विस्तार में रचती- बसती हुई मौखिक परंपरा की सबसे सशक्त लोक चेतना कब बन गई, अंदाजा लगाना नामुमकिन है। बैंगलोर की संस्था कबीर प्रोजेक्ट मालवा के सुप्रसिद्ध वाणी गायक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपान्या के साथ मिलकर उन्हीं के इलाके मालवा में विगत दो सालों से मालवा कबीर यात्रा का आयोजन कर रही है। मालवा में कबीर एक संत से कहीं ज्यादा आस्था, विश्वास और लोक स्मृति का अभिन्न अंग है और कबीर का यही स्वीकृत लोक रूप दरअसल कबीर यात्रा की आत्मा है। कबीर की इसी लोक सुवास को महसूस करने का मौका इस बार लोकायन के माध्यम से राजस्थान वासियों को मिला।
फरवरी का अंतिम सप्ताह वैसे तो कुछ खास नहीं होता। बस ऋतु बदल रही होती है लेकिन इस बार तो बीकानेर की फिजा ही बदली हुई थी! 23 फरवरी को बीकानेर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर बसे चूरू जिले के मोमासर गांव में इस सात-दिवसीय संगीत-यात्रा का विधिवत आगाज हुआ। लोक संस्कृति में प्रकृति अपने विभिन्न आयामों के साथ क्रीड़ा करती हमें अक्सर दिखाई देती है। रेत से चैतरफा घिरे इस गाँव में ठंड अभी भी अपना असर दिखा रही थी लेकिन देश- विदेश से आए 250 से ज्यादा यात्री, कबीर साधक तथा स्थानीय लोगों का हुजूम तो कबीर और अन्य निर्गुण संतों की वाणियों के रस में ऐसा डूबा रहा कि सर्द रात का कहीं एहसास ही नहीं हुआ। देर रात तक चले सत्संग एवं वाणी-समागम में मालवा के प्रसिद्ध वाणी गायक और कबीर साधक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपन्या, बैंगलोर से शबनम विरमानी, कच्छ प्रांत के मुरालाला मारवाड़ा, जैसलमेर अंचल के महेशाराम और स्थानीय लोक गायिका भंवरी देवी ने कबीर की वाणियों को संगीत के सुरों से साधा। हालांकि मोमासर में मन जैसे ठहर सा गया था लेकिन यात्रा का यही तो मंत्र है- चरैवेति, चरैवेति।
अगली सुबह का हमारा पड़ाव था सींथल गांव। मोमासर से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर मुख्य मार्ग छोडऩे के बाद बहुत देर तक टेढ़े- मेढ़े और संकरें रास्तों से होते हुए जब यात्रियों से भरी हमारी तीन बसें गुरुकुल विद्यालय प्रांगण पहुँची तो एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ कि रेत के टीलों के बीच विद्या का ऐसा मंदिर भी हो सकता है। वैसे एक के बाद एक ऐसे कई अचरज हमें यात्रा में आगे भी होने वाले थे। इतने दुर्गम स्थान पर हमारे स्वागत और सत्कार का जैसा माहौल था, वह राजस्थान के अलावा कहीं और हो ही नहीं सकता। हजारों विद्यार्थियों की उपस्थिति में कबीर साधकों ने एक बार फिर तंबूरे पर तान छेड़ी जो देर दोपहर तक चलती रहीं। शाम होने तक मुख्य कार्यक्रम के लिए नापासर जाने का समय आ चुका था। नापासर के मुख्य बाजार में कार्यक्रम होना था। लोग बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे। शबनम विरमानी द्वारा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म हद- अनहद का प्रदर्शन शुरू होते ही पूरा पांडाल भर चुका था। रात ढलते-ढलते वाणियों का दौर शुरू हुआ और जब तक कार्यक्रम चला, पूरा शामियाना भरा रहा। शायद मोमासर के आनंद की खबर और गाँव में आये इतने बड़े लवाजमे ने कौतूहल बना दिया हो लेकिन आखिरकार वाणियों की प्रस्तुति ने उन्हें अपने संकोच से बाहर आकर झूम कर नाचने को प्रेरित कर दिया था। नापासर में अगली सुबह का अनौपचारिक सत्र तो वाकई कमाल का था। पूरा का पूरा दल इस आनंद में आकंठ डूबा हुआ था। एक पुरानी हवेली के आँगन में जब चारों तरफ ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के बीच स्वर लहरियां बिखरी तो लगा कि जैसे एक शांत हवेली जीवंत हो उठी है। नापासर कस्बे में अब खंडहर बन चुकी ऐसी अनेकों हवेलियाँ और दिखी जो यहाँ के वैभवशाली अतीत की गवाही देती है।
यात्रा की एक खूबी यह थी कि एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक के सफर में कबीर साधक कलाकार और यात्री एक साथ बस में सफर करते थे। इस अनौपचारिक माहौल में संगीत का आनंद लेते लंबी- लंबी दूरिया कैसे तय हो जाती, कभी पता ही नहीं चला। मुख्य सड़कों का जाल अमूमन अच्छा था लेकिन गाँवों तक पहुँचने वाले सँकरे रास्ते जरूर ऊबड़- खाबड़ थे। बस में अगर संगीत का यह अनौपचारिक माहौल न होता तो शायद ये रास्ते कुछ परेशानी का सबब बनते। कश्मीरी बच्चों का एक दल तो अपनी बस में बारी-बारी से कलाकारों को आमंत्रित करता ताकि उस अनौपचारिक माहौल में वो बिना किसी परेशानी को महसूस किए अपने सफर का पूरा लुत्फ उठा सकें। 
25 फरवरी को हमारा अगला पड़ाव बीकानेर से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित जामसर गाँव था। यहाँ मुख्य मार्ग पर निर्मित बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल में कार्यक्रम होना था। दूर- दूर तक किसी बस्ती का कहीं नामोनिशान तक नहीं था और ऐसा लगा कि केवल यात्री और कलाकार ही वहाँ मौजूद रहेंगे। खिली धूप में एक बहुत बड़े बरामदे में छन कर आ रही किरणों के बीच सुबह का अनौपचारिक सत्र गुजरात से आये मूसा पारा तथा कश्मीरी दल के नाम रहा। शाम को जब पंगत में बैठकर स्वादिष्ट खाना खाया और पंडाल की तरफ पहुँचा तो अचंभित था। पूरा का पूरा गाँव जैसे वहाँ उमड़ पड़ा हो। वहाँ कार्यक्रम की शुरुआत से पहले ही पाँव रखने तक की जगह नहीं थी। खचाखच भरे पंडाल में लोग कबीर के राम को जानने- समझने के लिए हद- अनहद फिल्म का मजा ले रहे थे। वाणी- समागम में जहाँ एक और पद्मश्री प्रहलाद जी, शबनम विरमानी, कालूराम बामनिया और मुरालाला मारवाड़ा जैसे विख्यात साधकों ने समा बांधा वहीं दूसरी और लोकप्रिय गायिका गवरा देवी, शिव- बद्री सुथार और भंवरी देवी जैसे स्थानीय कलाकारों ने श्रोताओं को भक्ति- रस से सराबोर कर दिया। यात्रा की संभवत सबसे सर्द रात में चाय की चुस्कियों के साथ बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल देर रात तक कबीर की वाणियों से आलोकित था। यात्रा का पहला चरण यहाँ पूरा हो गया और अब हमें बीकानेर की ओर लौटना था। सोचा कि वहाँ पहुँच कर थोड़ा आराम करेंगे!
अगले दिन बीकानेर में धरणीधर मंदिर के प्रांगण में हमारा बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ। चाय खत्म करके यात्री और वहाँ आये मेहमान मैदान में एक ओर बन रहे तालाब की भूमि पूजन में शरीक हुए। इधर मुख्य मंच पर भी कुछ हलचल होने लगी। कार्यक्रम की शुरुआत में लोकायन द्वारा तैयार किए गए स्थानीय वाणी- परंपरा के हस्ताक्षर शिव-बद्री सुथार के वाणी- संग्रह की सीडी का लोकार्पण हुआ। इसके बाद प्रहलाद जी, शबनम और शिव-बद्री सुथार ने कुछ प्रस्तुतियाँ भी दी। अब हमें दिन के खाने के लिए ले जाया गया। रविवार के दिन अगर आपको ठेठ राजस्थानी खाना मिल जाये तो और क्या इच्छा रहेगी! बड़े ही चाव से स्थानीय नवयुवकों की टीम ने हमें खाना खिलाया और फिर सुस्ताने के लिए वहीं कमरे भी खोल दिये।
 मंदिर प्रांगण में एक ओर कुछ युवा साथी सुबह से ही लगे हुए थे लेकिन उस तरफ जाने का समय शायद अभी तक आया नहीं था। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद जब उत्सुकता बढऩें लगी तो रहा नहीं गया। चल कर वहाँ तक पहुँचा तो आश्चर्य की सीमा न थी। वे साथी रमता- दृग के कलाकार थे जो जयपुर और जोधपुर से आये थे। कुछ स्थानीय कलाकारों के साथ मिल कर उन्होंने कबीर पर कला-सर्जना और प्रदर्शनी का इंतजाम किया था। पेटिंग और फोटो प्रदर्शनी के अलावा चारों ओर जमीन पर बिखरी असमान रंगों की बौछारें ना जाने किस मनचले, मदमस्त, रमते दृग को बुला रही थी। धरणीधर मैदान का वह रंग संयोजन और खुला आकाश मानों उस दृग को आस पास बिखरे शून्य की खबर दे रहा था जिससे मिलने को इंसान की भटकती आंखे हमेशा बेताब रहती है। कबीर पर इतना सार्थक और दर्शनीय काम इससे पहले मैंने नहीं देखा था। शाम ढलने को ही थी कि चेाई से युवा कबीर साधक बिन्दु मालिनी और वेदान्त भी वहाँ आ गए। इसके बाद संगीत और कला की उस जुगलबंदी ने सबकी थकान उतार दी और अब हर कोई मंदिर के इसी कोने में विद्यमान था।
धरणीधर मंदिर के मुख्य मैदान में बनाया गया मंच वाकई अलौकिक था। एक पेड़ को पाश्र्व में रख कर बनाए गए मंच पर इन्स्टालेशन किया गया था। पेड़ पर नीचे से हरे प्रकाश की धारा और इन्स्टालेशन पर सफेद प्रकाश के संगम ने एक अलग ही दृश्य आंखों के सामने रचा था। मुख्य मंच पर सामने रंगबिरंगी डोरियों से सूर्यकिरणों का सा आभास पैदा किया गया था। ईमानदारी से कहें तो मंच पर रमता- दृग का यह अनूठा प्रयोग कार्यक्रम का सबसे बड़ा आकर्षण था। अंधेरा होते- होते लोग मैदान में जमा हो चुके थे। एक बार फिर कबीर साधकों ने देर रात तक समा बाँधे रखा। कार्यक्रम के बाद मैदान में जगह- जगह लगाए गए चटख रंगों के बैनरों ने अनायास ही ध्यान खींच लिया। खुले मैदान में रात को बह रही हवा से अठखेलियाँ करते वे बैनर मानों भक्ति के रस में डूब कर नाच रहे थे।
अगली सुबह पूगल जाने से पहले गवरा देवी के साथ अनौपचारिक सत्र में उनके कई रंग खुल कर सामने आये। दरअसल, मन की आंखों से दुनिया को देखने वाली इस गायिका में जैसे स्वयं सरस्वती विद्यमान है। पूगल की ख्याति लोक- गायकों के प्रश्रय स्थल के रूप में रही है। यात्रा का अगला पड़ाव पूगल इस वजह से दल के बीच सुर्खियों में था। इसके अलावा स्थानीय लोक- गायक मीर जब्बार खान वहाँ प्रस्तुति देने वाले थे। पूगल पहुँचने पर सभी यात्रियों का तिलक लगा कर स्वागत किया गया और फिर ढ़ोल- नगाड़ों के साथ गाँव में एक फेरी लगायी गयी। अतिथि स्वागत और उनका गाँव से परिचय कराने का यह तरीका अपने आप में नया था। शाम को फिल्म प्रदर्शन से शुरू हुआ कार्यक्रम सुबह चार बजे तक चलता रहा और लोगों की भीड़ देख कर यह सहज ही अंदाजा लग गया कि यह गाँव मीर जब्बार खान और मुखत्यार अली जैसे लोक गायकों को कितना आदर- सम्मान देता होगा। पूगल से सुबह जल्दी ही हमें अगले पड़ाव पर निकालना था। बताया गया था कि पूरा दिन हम जागेरी में बिताएंगे और उसके बाद शाम को दियातरा में कार्यक्रम होगा।
जागेरी का मनोरम माहौल जैसे संगीत साधना के लिए ही रचा गया हो। एक झील के किनारे सीढिय़ों पर बैठ कर सभी कलाकारों ने उस अनौपचारिक सत्र में कबीर को गाया। एक से एक कड़ी जुड़ती रही और कैसे तीन घंटे निकल गए, अंदाजा ही नहीं रहा। अब हमें दियातरा के लिए निकालना था लेकिन इच्छा थी कि वह सत्र चलता रहे और हम कबीर साधकों को सुनते रहे। दियातरा हमारे स्वागत के लिए पहले से ही तैयार था। गाँव के बीचो- बीच का स्थान कार्यक्रम के लिए चुना गया था। जब फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ तो फिल्म के किरदारों को अपने आस- पास बैठा देख लोग चकित थे। प्रहलाद जी से शुरू हुआ संगीत साधना का दौर पार्वती बाउल तक आ पहुँचा था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। अनेक कोशिशों के बावजूद भी पार्वती बाउल किसी तकनीकी दुविधा की वजह से अपनी प्रस्तुति नहीं दे पायी। कहते है कि अगर गुरु का आशीर्वाद न हो तो कुछ भी संभव नहीं होता। शायद यह दिन वैसा ही था। लेकिन इसकी कमी स्थानीय लोकप्रिय गायिका गवरा देवी ने पूरी कर दी। एक बार नहीं बल्कि दो- दो बार लोगों के बुलावे पर गवरा देवी मंच पर आई और सबको मंत्रमुग्ध कर गयी। दियातरा में कार्यक्रम समाप्त होते ही सभी यात्री अल-सुबह ही बीकानेर की ओर चल पड़े।
अब यात्रा का अंतिम पड़ाव बीकानेर आ गया था। लेकिन इच्छा थी कि बाहर से अंदर की यह यात्रा अनवरत चलती रहे। बीकानेर में मेडिकल कालेज सभागार में समापन समारोह होना था। सभी कलाकारों को आज अंतिम बार इस कार्यक्रम में प्रस्तुतियाँ देनी थी। सबने दी भी लेकिन मन उन सभी रमणीक स्थानों पर घूमता रहा जहाँ से होकर यह यात्रा अपने अंतिम पड़ाव तक पहुँची है। इन सात दिनों में जैसे जीवन को नया अर्थ मिल गया। मन हरगिज नहीं चाहता कि भीतर झाँकने की यह यात्रा कभी समाप्त हो। कबीर ने दुनिया को सच्चाई ढूँढने के नए रास्ते दिखाये है। राजस्थान कबीर यात्रा उन्हीं रास्तों से गुजर कर हमें खुद तक पहुंचाती सी लगती है। अब जबकि सभी कलाकार और यात्री इस संगीत- यात्रा के पश्चात अपने- अपने रास्तों पर निकल चुके हैं, सोचता हूँ कि अगर यात्रा में शामिल नहीं होता तो देहरी तक आये कुएं से अपनी प्यास न बुझा पाने का मलाल जिंदगी भर रहता। अब तो आलम यह है की अकथ कहानी प्रेम की, कछु कहीं न जाई।

लेखक के बारे में:

कोर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क में पढ़े चन्द्र कुमार फोर्ड फैलो रहे हैं और वर्तमान में साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक हैं। लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर लेखन है। स्थानीय समाचार पत्र में युवाओं के मार्गदर्शन के लिए एक नियमित स्तंभ लेखन के साथ ही खेल, राजनीति, शिक्षा और समाज पर उनके आलेख राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। विरासत के प्रति अपने लगाव के कारण वे अपने शहर की विरासत के संरक्षण अभियान से भी जुड़े हुए है। उनके लिए सकारात्मक ऊर्जा जीवन का मंत्र हैं। भ्रमण, संगीत और क्रिकेट की दीवानगी उन्हें अपने समय से जोड़े रखती है। संपर्क: सुथारों की बड़ी गुवाड़, बीकानेर (राजस्थान) मो.09928861470, Email- ckpurohit@gmail.com

जीवन- शैली

बूंदों में जाने क्या नशा है...
- सुजाता साहा
बारिश में जब आप रेन कोट या छतरी लेकर सड़क पर निकलते हैं तो ढेरों मुसीबतें झेलनी पड़ती है जो इस भीगे मौसम के नशे को फीका करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए बूंदों में जाने क्या नशा है ... गाते हुए कुछ पल के लिए तन मन को भीगोने आए इस सुहाने मौसम को हाथ से फिसल कर जाने मत दीजिए।
बरसात... एक बहुत आनंदित करने वाला एहसास है। बारिश की बूंदे तन को ही नहीं, मन को भी भीतर तक भिगो देती हैं। पानी की बूंदे पेड़ों की पत्तियों को नहलाती हुई धरती के अंतस में समा जाती हैं। बारिश से नहाई धरती को देखकर प्रफुल्लित मन बरबस ही प्रकृति को करीब से निहारने के लिए मचल उठता है।
यह सब पढ़कर आप कह सकते हैं कि यह सब तो किताबी बातें हैं, कवि मन की कल्पनाएं हैं, क्योंकि जब भी आप इस खुशनुमा मौसम में बरसती बूंदों का आनंद लेने के लिए कहीं जाने के बारे में सोचते हैं तो सड़कों का हाल देखकर आपको रोना आ जाता होगा, क्यों सही कहा ना मैंने? 
लेकिन जहां जीवन में खूबसूरती है वही कुछ गंदगी भी है। सुख और दुख की तरह हमें दोनों को स्वीकार करके चलना पड़ता है। इसलिए जिस प्रकार बरसात अपने साथ हरियाली लाती है उसी प्रकार कई बाधाएं भी लाती है। जिस तरह आप बरसात में हरियाली को देखकर खुश होते हैं उसी प्रकार कीचड़ देखकर मन दुखी हो जाता है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि आप सिर्फ दूसरे पक्ष को ही देखें, आप इसके उजले पक्ष को देखना शुरु कीजिए फिर देखिए किस तरह आप प्रफुल्लित होकर गाने लगेंगे... बूंदों में जाने क्या नशा है, छम छम इठलाती बूंदे, तन मन पिघलाती बूंदे...।
बारिश का मौसम है तो आप सिर्फ सड़कों का रोना मत रोइए। और ऐसा मत सोचिए कि हम क्या कर सकते हैं। बल्कि हम ही बहुत कुछ कर सकते हैं। जरूरत है आपको थोड़ा सा अपने आप को बदलने की।
कुछ लोग बारिश का मौसम देखा और निकल पड़ें अपने कार में सैर करने को। रास्ते में गड्ढा दिखा तो कार की रफ्तर धीमी करने के बजाए तेजी से कार वहां से निकाल लेते हैं। नतीजन वहां चल रहे लोगों पर कीचड़ की छींटें पड़ी। अगर आप भी ऐसा करते हैं तो अपनी इस आदत को सुधार लीजिए।
जैसे जब हम अपनी चार पहियों वाली गाड़ी में बैठकर फर्राटे से पानी भरे गड्ढ़ों से गाड़ी दौड़ाते हैं तो राह चलते राहगीर की ओर तो देख ही सकते हैं। यदि देख सकते हैं तो क्यों न हम पानी वाली जगह पर गाड़ी की रफ्तार धीमी करके शालीनता का परिचय दें। इस काम में तो हम किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा ना। 
इसी तरह अकसर देखा गया है कि जब हम किसी परिचित के घर मिलने जाते हैं और वहां से विदा लेते वक्त बारिश शुरु हो जाती है तो मेजबान छाता, रेनकोट देकर अपनी शालीनता का परिचय देता है ताकि हम भीगे नहीं। लेकिन क्या हम उन चीजों को लौटाते वक्त भी उतनी ही तत्परता दिखाते हैं? या लिया हुआ सामान न लौटाने का आपने संविधान बना लिया है। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि उन चीजों को सही समय पर लौटाकर हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभा सकते है। क्योंकि जिन्होंने आपको बारिश से भीगने से बचाया है उन्हें भी इस मौसम में इन सबकी जरूरत है। तो यह काम तो हमें ही करना होगा ना किसी दूसरे को नहीं।
कौन होगा जो अपने घर को साफ सुथरा नहीं रखना चाहता। तभी तो कई मेजबान कृपया जूता चप्पल बाहर उतारे कहने में संकोच नहीं करते। जो यह बात कहने का साहस नहीं जुटा पाते। इसका यह मतलब तो नहीं कि हम उनके साफ सुथरे घर और कालीन को कीचड़ से सने अपने जूते- चप्पल से रौंदते चले जाएं। कोई कहें या नहीं कहे हमें जूते चप्पल बाहर उतारकर ही अपनी समझदारी का परिचय देना चाहिए। यह हमारा उत्तरदायित्व है। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो बोलने के बावजूद भी अपने जूते चप्पल बाहर नहीं उतारते।
यह तो हुई बारिश में दूसरों का ख्याल रखने की बात अब थोड़ा सा अपना भी ध्यान रख लिया जाए। रिमझिम बारिश  हो और पकौड़े खाने न मिले तो फिर ऐसी बारिश का क्या मतलब। पर मौसम का बहाना लेकर तली हुई चीजें बाहर खाकर कहीं हम बीमारी को आमंत्रण तो नहीं दे रहे। बरसात तो खैर बहाना है तली, गरम चीजें खाने का, किन्तु इन दिनों बाहर खाना कितना नुकसानदायक हो सकता है इसे भी जरा सोच लें खासकर बच्चों के खानपान को लेकर लापरवाही तो बिल्कुल भी नहीं। तो बाहर का खाना न खाकर जान है तो जहान है को सार्थक कर ही सकते है। बाहर का ही नहीं घर में भी पकौड़े या अन्य तेल की चीजें जरूरत से ज्यादा खाकर कहीं हम अपनी सेहत के दुश्मन तो नहीं बन रहे और निरोगी काया के फार्मूले को झूठला रहे।
यह सब कहने यह मतलब नहीं कि आप बरसात में पकौड़े का मजा ही न लें। बिल्कुल लें बल्कि अपने दोस्तों और परिचितों को भी इसमें शामिल करें, क्योंकि बारिश में जब आप रेन कोट या छतरी लेकर सड़क पर निकलते हैं तो ढेरों मुसीबतें झेलनी पड़ती है जो इस भीगे मौसम के नशे को फीका करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए बूंदों में जाने क्या नशा है ... गाते हुए कुछ पल के लिए तन मन को भीगोने आए इस सुहाने मौसम को हाथ से फिसल कर जाने मत दीजिए।

खान-पान

फूड प्रोसेसिंगः भोजन के पोषक तत्व कहां गुम हो जाते हैं?
-भारत डोगरा
भारतीयों का औसत भोजन मुख्य तौर पर अनाज पर ही आश्रित होता है व प्रोसेसिंग के गलत तरीकों से जो पोषण तत्व खो जाते हैं उनकी पूर्ति अन्य तरह के भोजन से नहीं हो सकती है। इस वजह से निर्धन लोगों को इसका अधिक नुकसान उठाना पड़ता है।
कुपोषण की समस्या एक बहुआयामी समस्या है जिसके अनेक कारण हैं। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण मगर अनदेखा कारण है प्रमुख खाद्यों के प्रसंस्करण या प्रोसेसिंग के अनुचित तौर तरीके।
हमारे देश में चावल निश्चय ही सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है व दुर्भाग्य से चावल की अधिक पालिशिंग द्वारा पोषक तत्वों का सबसे अधिक ह्रास किया जा रहा है। इस विषय पर एक विशेषज्ञ एल. रामचंद्रन ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक खाद्य नियोजन- कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष में लिखा है कि केवल मात्रात्मक स्तर पर देखें तो साधारण मिलिंग व पालिशिंग में मात्रात्मक हानि 8 से 16 प्रतिशत होती है, मगर अत्यधिक पालिशिंग की जाए तो यह हानि 27 प्रतिशत तक पहुंच जाती है।
इसी प्रकार आधुनिक रोलर मिलों में गेंहू के पोषक तत्वों में बहुत क्षति होती है। इन मिलों में अनाज के दाने को कई चरणों में तोडऩे की विधि अपनाते हुए उसके बाहरी हिस्से को आटा पीसते समय अलग कर दिया जाता है।
रामचंद्रन के अनुसार अनाजों के इस तरह के प्रोसेसिंग से मात्रात्मक स्तर पर प्रतिवर्ष मनुष्यों के खाने योग्य 80 लाख टन अनाज का नुकसान होता है। पर गुणात्मक स्तर पर जो नुकसान होता है वह  भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अनाज के जो हिस्से छीले- फैंके जाते हैं वे उन्हीं पोषक तत्वों में समृद्ध है जिनकी कमी औसत भारतीय के भोजन में विशेष तौर पर पाई जाती है।
भारत जैसे निर्धन देश के लिए पोषण तत्वों का यह विनाश निश्चय ही चिंता का विषय है। रामचंद्रन के शब्दों में भारतीयों का औसत भोजन मुख्य तौर पर अनाज पर ही आश्रित होता है व प्रोसेसिंग के गलत तरीकों से जो पोषण तत्व खो जाते हैं उनकी पूर्ति अन्य तरह के भोजन से नहीं हो सकती है। इस वजह से निर्धन लोगों को इसका अधिक नुकसान उठाना पड़ता है।
पोषक तत्वों की हानि का एक अन्य बहुत बड़ा स्रोत खाद्य तेलों का हाइड्रोजनीकरण है। पहले तेल को रासायनिक प्रक्रिया द्वारा गंधमुक्त व रंगहीन किया जाता है। फिर इसका हाईड्रोजनेशन किया जाता है। हाईड्रोजनेशन की प्रक्रिया में असंतृप्त वसा संतृप्त वसा में तब्दील हो जाते हैं। अधिक मात्रा में लिए जाने पर संतृप्त वसा स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हो सकती है। दूसरी ओर, असंतृप्त वसा, विशेषकर कुछ किस्म की बहु- असंतृप्त वसा, पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है व अनेक रोगों, व्याधियों से रक्षा करने में सहायक हैं। एक ओर वनस्पति घी हमें आवश्यक पोषण से वंचित रखता है, वहीं दूसरी ओर हम पर गैर- जरूरी व नुकसानदायक पदार्थों का बोझ डालता है।
इसके अलावा भारतीय भोजन में बहुत से नए- नए खाद्य पदार्थ जुड़ रहे हैं जिनमें दिखावट ज्यादा है पोषण कम। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के इन नए उत्पादों का चलन पहले अधिक आय के परिवारों में ही होता है, पर विज्ञापनों के जोर पर इसे अच्छी सुखद जीवनशैली से इतना जोड़ दिया जाता है कि देखा- देखी कम आय के लोग भी इन्हें अपनाने का प्रयास करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें जरूरी खर्चों में कटौती क्यों न करनी पड़े। अपेक्षाकृत अधिक कीमत पर कम या नहीं के बराबर पोषक तत्व देना इन खाद्य पदार्थों की विशेषता है। इन्हें अधिक खाने से, विशेषकर बच्चों में, कई स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इन खाद्य पदार्थों में तरह-  तरह के नमकीन, शीतल पेय, बढ़- चढ़ कर अपने गुणों का दावा करने वाली तथाकथित एनर्जी ड्रिंक, शक्ति पेय, व बेबी फूड आदि शामिल हैं।
पोषण विशेषज्ञ एलन बैरी ने कुछ वर्ष भारत में काम करने के बाद लिखा है कि विज्ञापनों के द्वारा निम्न आय के लोगों के मन में भी इन खाद्य पदार्थों के काल्पनिक गुणों की बात बिठा दी जाती है, विशेषकर बच्चों को इनसे मिलने वाले लाभ के बारे में। वास्तव में इनसे अधिक खर्च पर कम पोषण मिलता है। अत: इन नए खाद्य पदार्थों पर खर्च करने में इन लोगों की पोषण स्थिति बिगड़ रही है क्योंकि वास्तव में आवश्यक भोजन (दाल-  रोटी- सब्जी) के लिए पैसे कम बचते हैं।
ब्राजील में एक अध्ययन में डा. एनी डायस ने देखा कि बच्चों में कुपोषण है पर इस हालत में भी लोग कोका कोला, पेप्सी व फैन्टा पर खर्च करते हैं। ब्राजील में बिकने वाले फेन्टा आरेंज में संतरे का रस बिलकुल नहीं होता पर यह बहुत बिकता है। ब्राजील में विटामिन सी की कमी का कुपोषण है पर यहां संतरे अमरीका आदि विकसित देशों को निर्यात कर दिए जाते हैं।
एक स्तर पर इस पोषण विनाश को रोकने के लिए सीधे सरल उपाय सुझाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए रबर रोलर शेलर चावल मिलों में धान से चावल अलग करने व उसे पालिश करने की प्रक्रियाएं अलग- अलग होती हैं। अत: हम बिना पालिश किया चावल प्राप्त कर सकते हैं। ब्रेड व बिस्कुट निर्माताओं को मैदे के स्थान पर पूरे गेहूं का आटा इस्तेमाल करने के लिए कहा जा सकता है। शीतल पेय की दुनिया में कोला व लिम्का आदि की जगह साफ-  स्वच्छ ढंग से नींबू- पानी, गन्ने के रस, फलों के रस की बिक्री की व्यवस्था हो सकती है। तेल के हाईड्रोजनेशन, वनस्पति घी के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। गुड़ साफ पैकेटों में उपलब्ध कराया जा सकता है ताकि चीनी का उपयोग कम किया जा सके। प्रसंस्कृत खाद्यों में खतरनाक रसायनों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
इस तरह के समाधान- सलाह पहले भी कई बार दिए गए हैं पर कोई असरदार कार्यवाही नहीं हुई है। क्यों? अनाज के अपव्ययी व हानिकारक प्रसंस्करण पर बहुत शोध करने के बाद एल. रामचंद्रन ने इस विषय पर अपनी राय जाहिर की है कि इस गलत रास्ते से यह उद्योग हटता क्यों नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस प्रवृत्ति के विरुद्ध अब तक के प्रयास सफल नहीं होने का कारण निहित स्वार्थों का जबर्दस्त दबाव व पहुंच है।
एक ओर वे उद्योग हैं जो परिष्कृत आटे या मैदे का उत्पादन व उपयोग करते हैं व दूसरी ओर मुर्गीपालन, डेयरी, मांस आदि के उद्योग हैं जो गेहूं व चावल के पौष्टिक अवशेष मुर्गियों व पशुओं को खिलाने के लिए सस्ते में प्राप्त कर लेते हैं। अनाज को ज्यादा से ज्यादा परिष्कृत कर उद्योग तिहरा लाभ उठा रहा है। वे परिष्कृत करने के लिए पैसा लेते हैं, पालिशिंग आदि को बेचकर पैसा कमाते हैं व इस तरह एक बार पोषण गुण कम करने के बाद फिर कृत्रिम रूप से विटामिन, खनिज आदि मिलाने के लिए भी पैसे लेते हैं।
कुछ इसी तरह का विश्लेषण कालिन टज ने अपनी पुस्तक द फैमीन बिजनेस में इस संदर्भ में किया है कि पश्चिमी देशों में उद्योगपति अधिक पौष्टिक गेहूं के आटे की ब्राउन ब्रेड के स्थान पर कम पौष्टिक मैदे की सफेद ब्रेड बेचना क्यों पसंद करते हैं। उनके लिए आटे की ब्रेड की अपेक्षा मैदे की ब्रेड बेचना अधिक मुनाफे का काम है। आटे की ब्रेड में कम प्रसंस्करण होता है अत: उसके लिए अधिक दाम लेना कठिन है। साथ ही इसे कम मात्रा में खाने से ही पेट भरता है, अत: ब्रेड की कुल बिक्री पर भी शायद प्रतिकूल असर पड़े। मैदे की ब्रेड बनाने पर बहुत से अवशेष पशु आहार के रूप में बिकते हैं यह लाभ भी आटा ब्रेड बनाने से नहीं मिलेगा। उद्योगपति अपने उद्योग में ऐसा बदलाव क्यों करे जिसमें उन्हें पहले की अपेक्षा मुनाफा कम होने की संभावना है। स्पष्ट है उद्योगपतियों के अनुसार कम पौष्टिक ब्रेड का उत्पादन बेहतर है क्योंकि अधिक पोषण वाली ब्रेड के उत्पादन से उनका मुनाफा कम होने का डर है। यही वजह है कि कई बार मैदे वाली ब्रेड में ब्राउन रंग का उपयोग कर इसे पूरे आटे की ब्रेड के रूप में बेच दिया जाता है।
अत: इस समय एक ऐसे सशक्त उपभोक्ता आंदोलन की व स्वास्थ्यवर्धक भोजन आंदोलन की आवश्यकता है जो जनसाधारण को वर्तमान खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की संरचना व इसके तौर तरीके के कारण हो रहे पोषण के अपव्यय व विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के विषय में शिक्षित कर सके। जन शिक्षण अभियान के आधार पर ही सरकार पर दबाव डाला जा सकता है। यह भी आवश्यक है कि इस आंदोलन से जुड़े लोगों व संस्थाओं द्वारा इस तरह के छोटे- छोटे विकेंद्रित प्रयास किए जाएं कि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर ही सही बिना पालिश किया चावल, आटे की ब्रेड व बिस्कुट, साफ सुथरा गुड़, स्वास्थ्यवद्र्धक शीतल पेय वगैरह लोगों तक पहुंचने लगें।
(स्रोत फीचर्स)

पानी

- अख़्तर अली
युद्ध विशेषज्ञों का मानना है
अगला विश्व युद्ध पानी के लिये
हो सकता है।
युद्ध तय है
वजह तय होना बाकी है।
कोई वजह नहीं मिली
तो पानी तो है ही।
पानी के लिये होगा रक्तपात
पानी से लगेगी आग।
प्रेम पर पानी फिर जायेगा
पानी पर लकीर खींच दी जायेगी
लकीर बनेगी बहाना,
फिर होगा आरम्भ खून बहाना
पानी खून की तरह जम जाएगा
खून पानी की तरह बह जायेगा
धरती लहू से सींच दी जायेगी
लाशों की फसल अच्छी होगी।
किसी की आँखों से पानी टपक रहा होगा
किसी की आँखों का पानी सूख चूका होगा।
पानी के लिए युद्ध देख
पानी भी शर्म से
पानी पानी हो जायेगा।
पानीदार चेहरे गुम जायेगे
सभ्यता पानी में बह जाएगी
बाढ़ भंवर और सुनामी के बाद
विश्व के रंगमंच पर
नये रूप में प्रस्तुत होगा पानी।
रक्त से बुझेगी
पानी की प्यास
मस्तिष्क को पानी
कीचड़- कीचड़
कर देगा।
जब पानी के लिये युद्ध होगा
तब पानी चुल्लू भर पानी में डूब मरेगा।
युद्ध के बाद
शांति की अपील करते बच्चे
हाथ में तख्ती लिये
सड़कों पर निकलेंगे
जिस पर लिखा होगा
जल ही जीवन है।
प्रभु जिन्हें उम्मीद है
पानी के लिये युद्ध होगा
उनकी उम्मीदों पर
पानी फेर दो।

संपर्क- फजली अपार्टमेन्ट, आमानाका, रायपुर ( छत्तीसगढ़), मो. 09826126781 श्
Email-  akhterspritwala@yahoo.co.in

वर्षा ऋतुः मोर पपीहा बोलन लागे...

डॉ. रत्ना वर्मा
बारिश के आगमन से मदमस्त हो पंख फैलाए मोर को नाचते देख काव्य की धारा फूट पड़ती है। हिन्दी साहित्य में ऋतुओं और षट्ऋतु का जैसा सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है वह दुर्लभ है। विरह की बेला में तो कवियों ने वर्षा ऋतु को ही प्रमुखता दी है।
 बादलों का गरजना, बिजलियों का चमकना और मूसलाधार बारिश भला ऐसा सुहाना मौसम किसे नहीं भाता। मई- जून की तपा देने वाली धूप के बाद जब मानसून पहली दस्तक देता है और बादलों की पहली बूंद धरती पर गिरती है तो स्वाभाविक है धरती के साथ- साथ संपूर्ण प्राणी जगत तृप्ति का अनुभव करता है। आखिर लू के थपेड़ों ने खूब झुलसाया भी तो है,  लेकिन रिमझिम करते बादल बरसे तो खूब जमकर बरसे और धरती से उठती सौंधी खुशबू नथुनों में समायी तो सारी तपन न जाने कहां उडऩ छू हो गई।
भीगे मौसम की इस खूशबू पर हमारे आदि कवियों से लेकर आधुनिक कवियों ने इतना कुछ लिखा है जितना और किसी मौसम पर नहीं। रूठे हुए बादल को मनाने की बात हो या घनघोर बारिश को थोड़ी देर थामने की, कलम चली तो खूब चली। इंद्रधनुषी रंगों से सजे बादलों को देखकर वह आनंद विभोर हो उठता है, तो बारिश के आगमन से मदमस्त हो पंख फैलाए मोर को नाचते देख काव्य की धारा फूट पड़ती है। हिन्दी साहित्य में ऋतुओं और षट्ऋतु का जैसा सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है वह दुर्लभ है। विरह की बेला में तो कवियों ने वर्षा ऋतु को ही प्रमुखता दी है। जैसे की नागमती प्रियतम की याद में व्याकुल है-
ओनई घटा आह चहूं फेरी
कंत उबारू मदन हौ घेरी
और सूरदास की गोपियां तो अपने कृष्ण कन्हाई को बादलों में ढूंढती फिरती हैं। उन्हें श्यामवर्ण कृष्ण बादल के रूप में दिखाई देते हैं और वे शिकायत करती हैं कि क्या कृष्ण के देस में बादल नहीं गरजते- किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि... ताकि बरसते बादलों को देखकर उन्हें हमारी याद आ जाएं।
सच भी तो है, जब मौसम की पहली फुहार, पेड़- पौधों को धोती हुई पड़ती है तो पत्तों की चमक देखकर लगता है प्रकृति भी विरहिणी के विरह से दग्ध है और आंसू बहा रही है। तभी तो विरह में तड़पती हुई यक्षिणी अपने प्रेमी तक संदेश पहुंचाने के लिए बादलों का ही सहारा लेती है- ओ आषाढ़ के पहले बादल ...
कालिदास के कवि मन को इससे बढिय़ा और कोई माध्यम भला मिल सकता था? उन्होंने मेघदूतम लिखकर प्रेमियों के लिए संदेश भेजने का एक बिन पाती भेजे डाकिया जो दे दिया है। बारिश को मौसम को यूं भी कामदेव की पसंद का मौसम माना जाता है। प्रेमियों के मन में उमंगे जगाने का मौसम, लेकिन प्रेमियों के इस देश में एक प्रेमी ऐसे भी हुए हैं, जिन्हें यह मौसम इसलिए प्यारा था क्योंकि इस मौसम में आम आते हैं। उन्हें अपनी प्रेयसी से ज्यादा आम प्यारे थे। इन रसिक आम प्रेमी का नाम है मिर्जा गालिब।
जब हिन्दी साहित्य जहां बारहमासी गीतों से लबालब है तब उर्दू साहित्य भला इससे कैसे अछूता रह सकता है। उर्दू काव्य में बारिश के इस भीगे मौसम पर बेहद खूबसूरत गजल और नज्म लिखी गई है। सुदर्शन फाकिर की एक गजल जिसे चित्रा जगजीत ने अपनी आवाज दी है, सुनकर बरबस बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं जब बारिश की पहली फुहार के साथ ही गली मोहल्लों में कागज की नाव तैरने लगती थी।
वो कागज की कश्ती
वो बारिश का पानी ...
इसी तरह अख्तर शीरानी ने एक नज्म में अपने देश के इस मौसम पर बेहद भावुक बात कही है-
ओ देस के आने वाले बता
बरसात के मौसम
अब भी वहां
वैसे ही सुहाने होते हैं?
क्या अब भी वहां के बागों में
झूले और गाने होते हैं?
और दूर कहीं कुछ देखते ही
नौ उम्र दीवाने होते हैं?
ओ देस से आने वाला बता...
लोक जीवन और लोक धुनों से बंधे इन गीतों में जीवन का रस टपकता है राजेंद्र कृष्ण का गीत कारे- कारे बदरा जा रे जा रे बदरा, मोरी अटरिया न शोर मचा... बिरहिणी नायिका के मनोभावों का सुंदर चित्रण है तो साहिर लुधियानवी का जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसता की रात...
इस भीगते मौसम में भला फिल्में कैसे अछूती रह सकती है। फिल्मों में भी बरसते मौसम का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। अब तो फिल्म चलाने के लिए बारिश का दृश्य फिल्माया जाता है पर आज से तीन चार दशक पहले फिल्मों में बारिश पर कई बेहतर गीत लिखे गये हैं- ऐसे गीत जिन्हें आज भी सुनकर मन मयूर नाच उठता है। अनजान का एक खूबसूरत गीत है-
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा
कि हियरा में उठत हिलौरे।
अरे, पुरवा के झोंकवा से आयो रे
संदेसवा कि चल आज देसबा की ओर।
लोक जीवन और लोक धुनों से बंधे इन गीतों में जीवन का रस टपकता है राजेंद्र कृष्ण का गीत कारे- कारे बदरा जा रे जा रे बदरा, मोरी अटरिया न शोर मचा... बिरहिणी नायिका के मनोभावों का सुंदर चित्रण है तो साहिर लुधियानवी का जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात सौंदर्य चित्रण का अनुपम उदाहरण है। ये गीत आज भी उतने ही रसीले और मधुर हैं जितने लिखे गए थे तब।
दरअसल प्रकृति का यह रसीला रूप है ही इंद्रधनुषी कि इनके सात रंगों से कोई भी अछूता नहीं रह सकता।
तो मन को हर्षाता, नचाता, गाता, खुशियां बिखेरता यह मौसम आ गया है- अषाढ़ के लगते ही सूखी धरती हरीतिमा बन लहलहा उठेगी और सावनी फुहारों के साथ ही गांव की अमराइयों में झूले पडऩे लगेंगे। आज शहरी चकाचौंध के बीच सावन के झूले तो नजर नहीं आते पर गांवों में अब भी बरसती बंूदों के साथ लोक धुनों के स्वर यदा- कदा सुनाई दे जाते हैं-
मोर पपीहा बोलन लागे
मेंढक ताल लगावे ना।
चमक- चमक बिजुरी घन गरजे
शीतल जल बरसावे ना।

खोज: 10 नए अनोखे प्राणी

अभी 30 मई को वैज्ञानिकों ने वर्ष 2011 में खोजे गए जीव- जंतुओं और वनस्पतियों में सर्वोत्तम 10 प्राणियों के नामों की घोषणा की है ये क्रिया पांच वर्ष पहले प्रारंभ की गई है और प्रत्येक वर्ष यह घोषणा 23 मई को की जाती है। इस संदर्भ में 23 मई का महत्व यह है कि इसी दिन जीव जंतुओं और वनस्पतियों के नामांकन और वर्गीकरण को निर्धारित करने वाले स्वीडन के वनस्पति शास्त्री कैरोलस लीनियस का जन्म दिन भी है। 


1. पापुआ न्यूगीनी में एक ऐसी आर्किड पुष्प मिला है जो रात में 10 बजे के आस-पास खिलता है और सूर्योदय से पहले उसकी पंखुडिय़ां बंद हो जाती हैं। यह विश्व का एक मात्र रात में ख्रिलनेवाला आर्किड है।

2. चीन में करोड़ों वर्ष पुराना एक विचित्र नागफनी (कैकटस) की जीवाश्म (फासिल) मिला है। यह वनस्पति देखने में एक कांतर जैसा कीड़ा लगता है। जिसके पचासों पैर हों।

3. खूबसूरत झालरदार गुब्बारे की तरह दिखने वाला समुद्री जीव वास्तव में एक अत्यंत जहरीली जेलीफिश है।

4. अत्यंत आकर्षक दमकते हुए नीलेरंग का रोएंदार जिस्म वाला यह विशाल मकोड़ा (टेरेन्टुला) ब्राजील के पवर्तीय क्षेत्र में मिला है।

5. साढ़े छह इंच लम्बी यह विश्व की सबसे विशाल कांतर हैं।

6. स्पंज जैसी दिखने वाली यह चीज वास्तव में कुकुरमुत्ता (मशरूम) की एक नस्ल है। इसकी खासियत यह है कि मुट्ठी में दबाने से यह स्पंज की तरह सिकुड़ जाता है और मुट्ठी खोलने पर फिर से पहले वाले आकार में आ जाता है।

7. यह चित्र विश्व में धरती के सबसे ज्यादा गहराई में रहने वाले जीव का है। सिर्फ 0.5 मिलीमीटर लंबाई का यह कीड़ा दक्षिण अफ्रीका की 1.3 किलोमीटर गहरी सोने की खान की तलहटी में पाया गया।

8. यह खूबसूरत नेपाली पोस्ते का फूल (पापी) हजारों साल तक इसलिए अनजाना बना रहा क्योंकि यह पहाड़ों पर 11000 से 14000 फीट की ऊंचाई पर सिर्फ पतझड़ के मौसम में खिलता है।

9. ये परजीवी ततैया स्पेन में मिलती है। धरती से सिर्फ एक इंच ऊपर उड़ते हुए अपने शिकारी चीटों की तलाश करती है। चींटी देखते ही ये गोता लगाकर उस चींटे के बदन में अपना अंडा डाल देती है।

10. यह छींकने वाला बंदन बर्मा (म्यांमार) में पाया जाता है। काले बालों और सफेद दाढ़ी वाला ये बंदर पानी बरसने पर छींकता है। इस नस्ल का अस्तित्व संकटग्रस्त है।

तेज होता है टैक्सी चलाने वालों का दिमाग

लंदन में टैक्सी चलाने वाले लोगों पर किए गए टेस्ट से पता चला है कि उनके मस्तिष्क का आकार बढ़ गया है। रास्तों के नाम याद करते- करते उन्होंने अपने दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
लंदन में टैक्सी ड्राइवर बनने का मतलब केवल ट्रैफिक के नियमों को याद करना ही नहीं होता, बल्कि हर गली- सड़क का नाम भी याद करना होता है। वैज्ञानिकों की मानें तो ये ड्राइवर अपने दिमाग का आम इंसान से ज्यादा प्रयोग करते हैं। दरअसल इन ड्राइवरों को सैलानियों को ध्यान में रखते हुए सभी पर्यटन स्थलों और साथ ही दस किलोमीटर के घेरे में करीब 25 हजार सड़कों के नाम याद करने होते हैं। लंदन के ड्राइवरों ने इसे नालेज यानी ज्ञान का नाम दिया है। इस ज्ञान को हासिल करने में चार साल का वक्त लग जाता है और आधे ही लोग इसे ठीक तरह से ग्रहण कर पाते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि टेस्ट पास करने वाले ड्राइवर केवल लाइसेन्स ही प्राप्त नहीं करते हैं, बल्कि वे अपना दिमाग भी बाकियों की तुलना में ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।
यूनिवर्सिटी कालेज लंदन के न्यूरोसाइंटिस्ट्स के एक दल ने पाया कि टेस्ट पास करने वाले ड्राइवरों के मस्तिष्क में ग्रे मैटर अन्य ड्राइवरों की तुलना में ज्यादा था। रिपोर्ट लिखने वाली एलेनोर मेगवायर ने बताया, हम जानते हैं कि मस्तिष्क का वह हिस्सा जो रास्ते याद करने में हमारी मदद करता है उसे हिपोकैम्पस कहा जाता है। सिर्फ वे ड्राइवर जो टेस्ट पास कर सके- जो नालेज हासिल कर सके- सिर्फ उन्हीं के मस्तिष्क में हमें कुछ बदलाव दिखे और ये बदलाव खास तौर से हिपोकैम्पस में देखे गए।
एलेनोर मेगवायर की टीम ने 79 ड्राइवरों पर प्रयोग किए। इन में से केवल 39 ही टेस्ट पास कर सके। इसके अलावा अन्य 31 लोगों को भी प्रयोग में शामिल किया गया। सभी 110 लोग एक ही आयु वर्ग के और एक जैसे बौद्धिक स्तर के थे। इन सब के मस्तिष्क का एमआरआई किया गया। परिणाम एक जैसे ही दिखे। लेकिन फिर तीन चार साल बाद जब दोबारा स्कैन किया गया तब परिणाम अलग दिखे। जिन लोगों ने टेस्ट पास किया था उनके मस्तिष्क में हिपोकैम्पस का आकार बढ़ गया था।

उसने कहा था

  उसने कहा था
- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
बड़े- बड़े शहरों के इक्के- गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन- संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर... बचो खालसाजी, हटो भाई, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढिय़ा बार- बार चिटौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए। बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बडिय़ाँ। दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था।
- तेरा घर कहाँ है?
- मगरे में। ...और तेरा?
- माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?
- अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।
- मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ- साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा- तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर धत कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो- तीन बार लड़के ने फिर पूछा- तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही धत मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली- हाँ, हो गई।
- कब?
- कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू। ... लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
- होश में आओ। कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है।
क्या? लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।
तो अब? अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन में पैरो के निशान देखते- देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।
हुकुम तो यह है कि यहीं...
ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।
पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।
आठ नहीं, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह- जगह खंदक की दीवारों मे घुसेड़ दिया और तीनों मे एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा । धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी । लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख! मीन गाट्ट कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन- चार लिफाफें और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?
साहब की मूर्छा हटी। लहना सिह हँसकर बोला- क्यों, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना डैम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबो में डाले। लहनासिंह कहता गया चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़- पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैंने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल- क्रिया कर दी।
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया क्या है?
लहनासिंह में उसे तो यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया और औरो से सब हाल कह दिया। बंदूके लेकर सब तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी। घाव माँस में ही था। पट्टियो के कसने से लहू बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहना, सिंह तक- तक कर मार रहा था। वह खड़ा था और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे... अचानक आवाज आयी वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पडऩे लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया।
एक किलकारी और  अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी। वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! और लड़ाई खत्म हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाकी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर नहीं हुई कि लहना के दूसरा घाव भारी घाव लगा है। लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में दंतवीणो पदेशाचार्य कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन- मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा- दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलिफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडिय़ाँ चली, जो कोई डेढ़ घंटे के अन्दर पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते- होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा तुम्हें बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।
  और तुम?
  मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाडिय़ाँ आती होगीं। मेरा हाल बुरा नहीं हैं। देखते नहीं मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।
  अच्छा, पर...
  बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चि_ी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।
और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाडिय़ाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते- चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?
अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया।  वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ । क्यों हुआ?
वजीरासिंह पानी पिला दे।
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफसर की चि_ी मिली। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चि_ी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़े में निकल कर आया। बोला लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
  मुझे पहचाना?
  नहीं।
तेरी कुड़माई हो गयी? ... धत... कल हो गयी... देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
  वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था ।
स्वप्न चल रहा हैं। सूबेदारनी कह रही है मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातो पर चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।
रोती- रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गयी। लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया।
वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला कौन? कीरतसिंह?
वजीरा ने कुछ समझकर कहा हाँ।
भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।
वजीरा ने वैसा ही किया।
हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा- भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था।
वजीरासिंह के आँसू टप- टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा - फ्रांस और बेलजियम 67वीं सूची मैदान में घावों से मरा न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ऐसे अकेले कथा लेखक थे जिन्होंने मात्र तीन कहानियां लिखकर कथा साहित्य को नई दिशा और आयाम प्रदान किये। गुलेरी की साहित्यिक सक्रियता की अवधि कम है। उनका जन्म 1883 ई. में हुआ और 1922 ई. में उनका निधन हो गया। उनकी तीन कहानियों में - पहला सुखमय जीवन 1911 ई. में भारत मित्र में छपी। दूसरा उसने कहा था जो उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण और हिंदी साहित्य की अब तक की श्रेष्ठ कहानी मानी जाती है, 1915 ई. में छपी। उनकी तीसरी कहानी बुद्धू का कांटा है। यह हिंदी कहानी के विकास का आरंभिक समय था।

जन्म शताब्दी वर्षः मैं क्यों लिखता हूँ?

- सआदत हसन मंटो
मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुखतलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता। पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात गलत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ।
अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो जाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ। हो सकता है, $फाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो जरूरी है। हाथ न चले तो जबान ही चलनी चाहिए यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बगैर कुछ भी नहीं कर सकता।
लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें आसमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हकीकत नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज एक सूखी रोटी की मोहताज है?
मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ।
रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंजूर है। वह ख़ुद को हर चीज से निरपेक्ष कहता है- यह गलत है। वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए। और इबादत बड़ी ही नर्म और नाजुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।
मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जर्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व गरीब किस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है। किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे जुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ जरूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ों लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीडि़त वाशिंदा। इस बजाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा।
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अ$फसानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है। जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी- कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाजे पर दस्तक देने आ रहा है। उसके भारी- भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अ$फसानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं। उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं- मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी न$फासत पसंदी को नजरअंदाज कर जाता हूँ।
सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि यह खुदा जितना बड़ा अ$फसाना साज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है।
मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो जिंदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्$ख हकीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है।
मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन- चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।
मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज से गुजारी जाए तो एक कैद है। अगर वह बदपरहेजियों से गुजारी जाए तो भी एक कैद है। किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस।

लघुकथाएँ

सदुपयोग

  वह एक बड़ा व्यापारी था। चीजों के हद दर्जे तक सदुपयोग के लिए विख्यात या कुख्यात- जो चाहे कह लें- था। एक बार ग्यारह बजे रात को दुकान से वापस आया, तो अपनी खांसी के लिए दवा खोजते- खोजते उसकी नजर एक मलहम की ट्यूब पर पड़ी। जलने पर काम आने वाला मलहम था और अंकित एक्सपाइरी डेट के मुताबिक अगले महीने तक खराब हो जाने वाला था।
उसे खुद पर गुस्सा आया कि उसने पहले ध्यान क्यों नहीं दिया, फिर वह सोचने लगा कि उसका उपयोग कैसे किया जाए।
मालिक, पांच दिन की छुट्टी चाहिए, गांव जाना है, मां बहुत बीमार है। घरेलू नौकर की आवाज ने उसका ध्यान भंग किया।
हूं... तुमको मालूम है कि मैं नियम का बिल्कुल पक्का हूं। और तुम इस साल की सभी छुट्टियां ले चुके हो।
मालिक, मां बहुत बीमार है, चल-फिर नहीं सकती- ऐसा गांव का आदमी बता रहा था। मां घर में बिल्कुल अकेली रहती है। मेरा जाना बहुत जरूरी है। नौकर ने उसके पैर दबाते हुए कहा।
अच्छा, ला, बीड़ी- माचिस दे और दो मिनट सोचने दे।
बीड़ी के दो-तीन कश लेने के बाद उसने अचानक अपने नौकर से कहा, ला, अपनी बाईं हथेली दिखा।
नौकर ने हथेली सामने की और उसने उसकी पांचों उंगलियों पर जलती हुई बीड़ी को एक-एक बार रख दिया।
नौकर दर्द से कराह उठा।
मालिक ने मलहम की वही ट्यूब देते हुए उससे कहा, इसको लगा लेना। चार-पांच दिनों में बिलकुल ठीक हो जाएगा। तब तक तेरी छुट्टी। जा...।

समय चक्र

सुधा अपनी नौकरानी और पास- पड़ोस की महिलाओं को अक्सर यह बताती थी कि जमाना बदल गया है... बकरी, गाय, कुतिया जैसे जानवर ही अपने बच्चों को दूध पिलाते हैं। सुविधा, व्यवस्था और पैसा हो तो बच्चे को अपना दूध पिलाकर कमजोर क्यों हों और फिगर भी क्यों खराब करें!
25 वर्ष बाद बच्चा सोच रहा था कि खून खरीदने को पैसा हो, तो अपना खून मम्मी को देकर कौन कमजोरी मोल ले!
पैसा था, सुविधा भी थी, पर मुश्किल यह हुई कि काफी खोजने के बाद भी जरूरत का खून नहीं मिला। और इस बीच...

    दो रुपए के अखबार

मार्निंग वाक के बाद रोज की तरह बाहर दरवाजे पर अखबार पढ़ते लालू से टहलने निकले रिटायर्ड प्रोफेसर सतीश शर्मा ने पूछा, बेटे लालू, अविश्वास प्रस्ताव का क्या हुआ?
एमबीए कर रहे शंकर ने लेफ्ट- राइट करते हुए पूछा, मेरे लायक कोई वैकेंसी निकली है क्या?
धीरे- धीरे दौड़ते रमेश ने पूछा, आज क्या नंबर आया है?
कालेज की छात्रा सीमा ने थोड़ा रुककर पूछा, भैया लालू, कौन- सी फिल्म रिलीज हुई है?
कालोनी की महिला शीलू ने पास आकर पूछा, लालू बेटा, जरा देखकर बताना, सोने का क्या भाव चल रहा है?
लालू सोच रहा था- दो रुपए के अखबार ने मुझे खास बना दिया है!



मेरे बारे में

31 दिसंबर, 1948 को जन्म, सेवानिवृत्त प्राचार्य, व्यंग्य, गीत, लघुकथाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 40 वर्षों से लेखन से जुड़ा हुआ हूं। पहला लघुकथा संग्रह प्रकाशनाधीन। संपर्क: डा. बख्शी मार्ग, खैरागढ़-491881,
जिला: राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) मो. 08815241149 
 Email- ggbalkrishna@gmail.com

हुए जिन्दगी से जुदा, आ लगे कतार में

- जवाहर चौधरी
इतना झंझट था तो आप लोगों को यह सब पहले बताना चाहिए। मैं पांच साल पहले ही अपना आरक्षण करवा लेता। बिना आरक्षण मैंने कभी रेलयात्रा नहीं की, अंतिम यात्रा में फंस गया। तत्काल जैसी कोई व्यवस्था नहीं है क्या?
आप कतार में हैं .... कृपया प्रतीक्षा कीजिए। किसी ने कान में फुसफुसाहट से जरा ज्यादा तेज आवाज में कहा तो शरीर में जान जैसी कुछ आई, मैंने पूछा- क्यों भई !! कतार में क्यों हैं?
शमशान में लकड़ी खत्म हो गई है। उसने बताया।
कब आएगी लकड़ी! ?
कुछ कहा नहीं जा सकता है। अभी तो वृक्षारोपण चल रहा है।
वृक्षारोपण चल रहा है !! क्या मतलब है आपका?
यही कि आप कतार में हैं , कृपया प्रतीक्षा कीजिए।
ऐसा कैसे हो सकता है! बिजली वाला शवदाहगृह भी तो है।
हां है, लेकिन बिजली लगातार नहीं आती है। अभी भी बिजली नहीं है ...यूनो ..पावर कट।
तो ! बिजली आने में कितनी देर लगेगी ! ग्यारह बजे तक तो आ जाती है।
हां, आ जाती है लेकिन वोल्टेज बराबर नहीं रहते हैं कभी।
वोल्टेज कम होते हैं ना ? इसमें दिक्कत क्या है, थोड़ा ज्यादा समय लगेगा और क्या।
ना , यह संभव तो है पर उचित नहीं है।
इसमें क्या मुश्किल है ?!
आप वेज हैं या नानवेज ?
वेज।
आपने बेकरी में मैदे को डबलरोटी में बदलते देखा है ?
डबलरोटी !
सोच लीजिए , आप राख होना चाहेंगे या डबलरोटी।
अगर नानवेज होता तो ?!
तो तंदूरी- विदाउट- मसाला हो जाते लेकिन राख नहीं।
लेकिन भइया, प्रतीक्षा का टाइम किसके पास है आजकल। शवयात्रा शुरू होने के पहले ही घड़ी देखने लगते हैं लोग।
मजबूरी है साहब, मैं कुछ नहीं कर सकता।
कुछ ले- लेवा कर रास्ता निकालो ना। लोगों का समय खराब हो रहा है।
किसका समय ?
जो मुझे शमशान पहुंचाने आए हैं।
शवयात्रा में शामिल लोग?!
और नहीं तो कौन! मेरे रिश्तेदार, मित्र, कवि-लेखक.... सब।
वे सब जा चुके हैं। उसने बताया।
अंतिम संस्कार किए बगैर!!
क्या करते बेचारे ..... आप कतार में जो हैं ....।
बिना शोकसभा और शोक-भाषण के !! ...... ऐसे ही छोड़ कर चले गए !!
ऐसे कैसे चले जाएंगे ! रसीद ले गए हैं।.... अब आप बाकायदा कतार में हैं।
कब तक रहना होगा कतार में ?
अभी तो सन् 2022 चल रहा है। जनवरी 2028 तक तो चिता-फु ल है।
इतना वेटिंग !! सोलर उर्जा का कोई सिस्टम नहीं है क्या ?
वैज्ञानिक लगे पड़े हैं , पर मशीन बनाने में दिक्कत आ रही है। अभी तो उसमें रोटी भी नहीं सिंकती है, मुर्दा क्या जलेगा।
2028 तक तो घर वाले भूल जाएंगे मुझे।
हम नहीं भूलने देंगे। यहां से रिमाइंड लेटर जाता है कि आपके मुर्दे का नंबर आ गया है।
इतना झंझट था तो आप लोगों को यह सब पहले बताना चाहिए। मैं पांच साल पहले ही अपना आरक्षण करवा लेता। बिना आरक्षण मैंने कभी रेलयात्रा नहीं की, अंतिम यात्रा में फंस गया। तत्काल जैसी कोई व्यवस्था नहीं है क्या?
इतने ही समझदार थे तो देहदान क्यों नहीं कर दी? ... कोई झंझट नहीं होता।
देहदान ! ... सरकारी अस्पताल में जिन्दा देह से ही वे इतना कुछ सीख जाते हैं कि मरी देह में उनकी कोई रुचि नहीं रह जाती है।
तो फिर कम से कम पांच पेड़ लगाना चाहिए थे, अपने मुर्दा शरीर का इंतजाम आप खुद नहीं करोगे तो नगर निगम के भरोसे में कतार ही मिलेगी। पहले तो ठीक से काम करते नहीं हो बाद में नखरों का बाजा बजाने लगते हो।
शिकायत मत करो। शिकायतें सुन सुन कर ही मरा हूं मैं। अब क्या हो सकता है बताओ।
बड़ा मुश्किल है। चिल कव्वे भी तो लुप्त हो गए हैं ससुरे ! वरना कोई उम्मीद रहती।
तो क्या चील-कव्वों को खिलवा देते!?
मजबूरी का नाम ... यू नो। कहो तो समुद्र में फिंकवा दें ?
समुद्र! .... समुद्र तो खारा होता है। नमक ही नमक।
अच्छा है ना, मछली उपवास पर हुईं तो भी जल्दी गल जाओगे।
मुझे नमक से परहेज की आदत हो गई है। ब्लडप्रेशर .... यूनो।
फिर तो सारी है जी, आप कतार में हैं.... कृपया प्रतीक्षा कीजिए।
इतनी लंबी प्रतीक्षा कैसे संभव होगी ?
ज्यादा दिक्कत नहीं है। यहां दिनभर सारे मुर्दा पड़े सोते रहते हैं और रात भर अंताक्षरी खेलते हैं।
संपर्क- 16 कौशल्यापुरी, चितावद रोड़, इन्दौर- 452001
मो. 09826361533, Blogs- jawaharchoudhary.blogspot.com

आँखें भी थक गयीं


 - डा. गीता गुप्त

वादा किया था आओगे तुम मेरे गांव में
अब धूप भी जा बैठी है देखो छांव में।

हम राह देखते रहें आँखे भी थक गयीं
बेड़ी किसी ने डाल दी लगता है पांव में।

ऐसा तो नहीं राह में ही लूट गये कहीं
रहजन खड़े हैं चारो तरफ ठांव-ठांव में।

सोचा था पांव डालके बैठेंगे झील में
सब भूल गये दुनियाँ की कांव-कांव में।

वादे किये थे कसमें भी खायी थीं इसलिए
हमने लगा दी पूरी जिंदगी ही दांव में।

संपर्क-  ई-182/2, प्रोफेसर्स कालोनी,
भोपाल 462002 (म.प्र.) मो. 09424439324

विचार.

मैं तो नहीं पढ़ूँगी..
- डॉ. ऋतु पल्लवी
प्रश्न उठता है कि जब पठन- पाठन की दुनिया इतनी रोचक, इतनी प्रभावी और इतनी सफल है तो आज हमारी वर्तमान पीढ़ी इससे विमुख क्यों होती जा रही है?
त्रिलोचन जी अपनी प्रसिद्ध कविता चंपा 'काले -काले अछर नहीं चीन्हती' में चंपा को पढऩे- लिखने के अनेक लाभ बताते हुए पढ़ाई की ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं परन्तु अंत में चंपा यही कहती है... मैं तो नहीं पढूंगी! आज जब कि पठन- पाठन की रूचि और प्रचलन दोनों निरंतर कम होते जा रहा है। प्रिंट माध्यम पर इलेक्ट्रॉनिक माध्यम हावी हो रहा है, कवि की यह समस्या हम सब की समस्या बनकर सामने खड़ी है और पूछ रही है... मैं क्यों पढूं?
मैं क्यों पढूं जब कि आजकल पढऩे को कुछ भी अच्छा नहीं रहा। अखबारों में लूटमार और घोटालों के चर्चे, पत्रिकाओं में मनोहर कहानियां और किताबें छपती हैं उन बड़े लोगों की जो लेख लिखते नहीं खरीदते हैं। एक समय था जब घर के बच्चे चम्पक- नंदन, रामचरित मानस के प्रसंग और गांधी- तिलक की जीवनी पढ़कर बड़े होते थे परन्तु आज चाचा चौधरी और डोरेमोन टीवी पर है जबकि मानस के राम और हनुमान शक्तिमान बनकर फिल्मों में ज्ञान -विज्ञान की बातें किताबों से अधिक इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं। और तो और अब तो शिक्षक भी ऑन लाइन ही मिल जाते हैं। फिर क्यों उलझें बच्चे किताबों कि दुरूह दुनिया से ? पहले माता- पिता और शिक्षक बच्चों की वय और मनोवृत्ति के अनुकूल उपयोगी पुस्तकें लाकर उन्हें पढऩे के लिए देते थे परन्तु आज के बच्चे को अपने मनोनुकूल ज्ञान और मनोरंजन एक बटन दबाने पर ही प्राप्त हो जाता है। आप कहेंगे ये प्रगति है, विकास है। मैं इस बात से सहमत हूँ और इस प्रगति के विरोध में बिल्कुल नहीं हूँ परन्तु पठन- पाठन के समग्र प्रभाव और किताबी माध्यम (प्रिंट माध्यम) की सफलता को अधिक सशक्त मानती हूँ। मनोवैज्ञानिक रूप से भी देखें तो टीवी या कम्प्यूटर पर देखी गयी कोई घटना या कहानी हमारे मस्तिष्क पर उतना स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ती जितना कि एक अच्छा पढ़ा हुआ लेख । यदि किसी पढ़ी हुई कहानी, कविता या लेख ने सचमुच आपके मर्म को छुआ है तो आप उस संवेदना को जीवन पर्यंत याद रखते हैं। वास्तव में आज के प्रचलित माध्यम टीवी, कम्प्यूटर आदि का मूलाधार भी तो पठकथा ही है, अत: इन माध्यमों को भी विस्तार के लिए पठन- पाठन का सहारा लेना ही पड़ता है। पूरा प्रयास किया जाता है शरतचंद्र के उपन्यास को परदे पर उतारने का और यदि निर्देशक की मेधा और अनुभूति पुस्तक के मर्म तक पहुँचने में सफल हो जाती है तो हो गयी फिल्म हिट अन्यथा बेकार है। जनसंचार माध्यम के रूप में भी जितनी सफलता प्रिंट या मुद्रण माध्यम को प्राप्त हुई है उतनी इलेक्ट्रॉनिक या अन्य किसी माध्यम को कभी प्राप्त नहीं हो सकती।
कहते हैं किताबें हमारी सबसे अच्छी मित्र हैं। जिसने भी कहा है सही कहा है और आज की आपाधापी भरी व्यस्त जिन्दगी में तो यह और प्रासंगिक है। जिसने किताबों को अपना मित्र बना लिया उसका दिमाग कभी खाली नहीं रहता। विभिन्न विचारों, संवेदनाओं, आस्था- विश्वास का संग्रह उसके मस्तिष्क में होता जाता है। ये पठन- पाठन उसकी चिंतन मनन और मेधा शक्ति का विस्तार करता है, उसकी सोच का दायरा बढ़ता है और वह वास्तव में बुद्धिजीवी बनता है।
वैसे पढऩे के लिए सबके अपने- अपने उद्देश्य हैं, कोई साक्षर बनने के लिए पढ़ता है, कोई हिसाब -किताब के लिए पढ़ता है तो कोई उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए पढ़ता है। परन्तु जिस पठन को आदर्श माना जाता है वह है स्वान्त: सुखाय। यह वह पढऩा है जिसमें पढऩे वाला केवल अपने पढऩे के लिए पढ़ता है। पढऩे का नशा भी अद्भुत है- पढऩे वाला जब पढऩे के आनंद में डूब जाता है फिर उसे दीन- दुनिया की कोई खबर नहीं रहती, खाना-पीना तक विस्मृत हो जाता है । इस अनुभूति की दुनिया में पहुँचकर मनुष्य आम जीवन के सब सुख-दु:ख भूल जाता है, यथार्थ की दुनिया से फेन्टेसी की दुनिया में पहुँच जाता है। किताबों की दुनिया अनंत है एक किताब पढ़कर कोई प्रेरणा प्राप्त करता है तो दूसरी किताब पढ़कर कोई जीवन का सार ढूँढता है।
प्रश्न उठता है कि जब पठन- पाठन की दुनिया इतनी रोचक, इतनी प्रभावी और इतनी सफल है तो आज हमारी वर्तमान पीढ़ी इससे विमुख क्यों होती जा रही है? यहाँ मुझे पुन: त्रिलोचनजी की चम्पा याद आती है, ग्वाले की छोटी सी अनपढ़ बच्ची हमारे पढ़े- लिखे समाज को उसका आइना दिखा देती है जब वह कहती है, हाय राम तुम पढ़-लिख के इतने झूठे हो! वास्तव में यह हमारे समाज की विडम्बना ही है कि आज पढ़ लिख कर ऊँचे ओहदों पर पहुँचने वाला कथित शिक्षित वर्ग, समाज के अन्य वर्गों से अधिक भ्रष्ट और अधिक अनैतिक हो गया है। हमारे समाज का यही दर्द, यही टीस हम सबको भी कहीं न कहीं भेदती है, तभी तो आज हम अपने बच्चों को पढऩे के लिए उस शिद्दत से प्रेरित नहीं कर पाते, उनके सामने पढ़े- लिखे समाज का एक आदर्श उपस्थित नहीं कर पाते। समय आ गया है कि अति भौतिकतावादी और मशीनीकरण की इस अंधी दौड़ में कहीं ठहरकर हमें अपनी संवेदनाओं को टटोलना होगा। ये काले- काले अक्षर, मोटी- मोटी किताबें हमारे सभ्य समाज को आकर देतीं हैं, हमारे अध्ययन- चिंतन- मनन को आयाम देतीं हैं जिनके अभाव में मनुष्य एक मशीनी पुतला बनकर रह जाएगा।
संपर्क- 82/ ए, वसन्त विहार झाँसी -284002 (उप्र)
मो.  09415587495, ritup16@yahoo.com

प्रेरक

खाली डिब्बा
यह जापान में प्रबंधन के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाने वाला बहुत पुराना किस्सा है जिसे 'साबुन के खाली डिब्बे का किस्सा' कहते हैं। कई दशक पहले जापान में साबुन बनानेवाली सबसे बड़ी कंपनी को अपने एक ग्राहक से यह शिकायत मिली कि उसने साबुन का व्होल-सैल पैक खरीदा था पर उनमें से एक डिब्बा खाली निकला। कंपनी के अधिकारियों को जांच करने पर यह पता चल गया कि असेम्बली लाइन में किसी गड़बड़ के कारण साबुन के कई डिब्बे भरे जाने से चूक गए थे।
कंपनी ने एक कुशल इंजीनियर को रोज पैक हो रहे हजारों डिब्बों में से खाली रह गए डिब्बों का पता लगाने के लिए तरीका ढूँढने के लिए निर्देश दिया। कुछ सोच विचार करने के बाद इंजीनियर ने असेम्बली लाइन पर एक हाई-रिजोल्यूशन एक्स-रे मशीन लगाने के लिए कहा जिसे दो-तीन कारीगर मिलकर चलाते और एक आदमी मॉनीटर की स्क्रीन पर निकलते जा रहे डिब्बों पर नजर गड़ाए देखता रहता ताकि कोई खाली डिब्बा बड़े- बड़े बक्सों में नहीं चला जाए। उन्होंने ऐसी मशीन लगा भी ली पर सब कुछ इतनी तेजी से होता था कि वे भरसक प्रयास करने के बाद भी खाली डिब्बों का पता नहीं लगा पा रहे थे।
ऐसे में एक अदना कारीगर ने कंपनी अधिकारीयों को असेम्बली लाइन पर एक बड़ा सा इंडस्ट्रियल पंखा लगाने के लिए कहा। जब फरफराते हुए पंखे के सामने से हर मिनट साबुन के सैंकड़ों डिब्बे गुजरे तो उनमें मौजूद खाली डिब्बा सर्र से उड़कर दूर चला गया।
सिंपल! (www.hindizen.com से)

ब्लाग बुलेटिन से : कोलंबस होना अच्छा लगता है...


उदंती में हमने जो नयी श्रृंखला की शुरूआत की है उसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से लेकर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज में दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए...
राज सिलस्वल के ब्लॉग RajkiBaat से।                                         - संपादक



कोलंबस की खोज और मैं.... उसने देश खोजा, मैं छुपे कवियों की तलाश में गूगल के टापू पर डेरा डालती हूँ, एहसासों के समंदर में आँख लगाकर अर्जुन की मानिंद बैठ कोलंबस होना मुझे अच्छा लगता है। आज की खोज हैं- राज सिलस्वल।
http://rajkibaatpatekibaat.blogspot.in/! 
इनका कहना है कि 'मेरा मानना है कि अच्छी कविता भी बाजार की मांग और आपूर्ति के नियमों का निर्वाह करती है। यह एक कमोडिटी है और एक सुंदर कमोडिटी है और मैं भोगवाद की कविता का समर्थन करता हूँ। लगभग 15 वर्ष पहले लिखा और फिर लिखना बंद कर दिया। लगा की कोई फायदा नहीं है। वर्ष 2011 से लगा कि फायदा है तो मन से लिख रहा हूँ। अपने दोस्तों का और गूगल हिन्दी लिप्यंतरण का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे दुबारा लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरे अच्छे और बुरे लेखन के लिए ये दोनों भी जिम्मेदार है!'
2011 के नवम्बर महीने से इन्होंने लिखना शुरू किया- इनके ब्लॉग भ्रमण में मैंने पाया कि कहीं गीतों से पुट हैं तो कहीं अबूझे बोल से ख्याल, एक रिदम!
ब्लॉग पर इनका पहला कदम RajkiBaat: Thank you Note to Gulzar Saab
उदंड कल्पनाओं की कल्पना लिए राज जी की कलम कुछ यूँ हमसे मिलती है- उदण्ड कल्पनाएँ
'उदण्ड कल्पनाओं ने
यथार्थ के सीमाओं
का उल्लंघन किया है...और
चली गयी हैं छूने
अनंत के अंत को'
कवि पन्त ने कवि को परिभाषित किया, कवि राज ने कविता को... कवि पन्त ने कहा- 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'
कवि राज ने कहा
'ह्रदय से छलककर
कागज पर बिखरना
कविता है...
शब्दों का
छंदों मैं बंधकर
ह्रदय में उतरना
कविता है...
भावनाओं का
ह्रदयबन्ध तोड़कर
स्वछंद नरतन
कविता है...
शब्द गंगा का
उमड़ घुमड़ कर
अभिव्यक्तियों को
ह्रदय से बहा ले जाना
कविता है...
स्वछंद चिंतन, मनन, अभिकल्पन, परिकल्पन
या फिर
ह्रदय का ह्रदय से ह्रदय तक गमन
कविता है' कविता क्या है ?
दिसम्बर में इन्होंने कई एक रचनाएँ लिखीं (2011), तात्पर्य यह कि नवम्बर से अधिक... रचनाएँ तो बेशक सभी अच्छी हैं, पर सब मैं ही उठाकर ले आई तो इनके ब्लॉग भ्रमण के दरम्यान आपके लिए कुछ नया नहीं रह जायेगा! वैसे यह कहना भी गलत है, रचनाएँ हमेशा नवीन रहती हैं और हर बार समयानुसार नए अर्थ दे जाती हैं। उदाहरण के तौर पर कवि दिनकर की रश्मिरथी... जब भी पढ़ा जाए एक नया जोश होता है और कृष्ण
अपने करीब लगते हैं ।
चलिए हम दिसम्बर की शाख से इनकी कुछ रचनाएँ लेते हैं -
की मुझको मुक्त कर जाओ
'कि तुम हो शून्य, या कोई हकीकत
मुझको बतलाओ
कि मुझको मुक्त कर जाओ...'
यथार्थ और परिकल्पनाएं
'तुम्हारी चाह में
जब उम्र भरती है उड़ान
तो पहुँच जाता है मन
अभिव्यक्ति के उस क्षितिज पर
जहाँ भाषाएँ गूंगी हैं
और बोलती हैं केवल भावनाएं
अपर्याप्त शब्द
'शब्दों में बंधी
लाश को देखो
मरणासन कल्पना
में जीवन का
अंश ढूँढो'...
समय कहाँ रुकता है, दिन -रात, महीने, साल सब बदलते हैं तो आ गया नया साल यानि 2012, दे गया कुछ और सौगात हमारी साहित्यिक जिज्ञासा को -
दिग दिग दिगंत
का से कहूं में जिया रे पिहरवा
...और अब तक
सुनो प्रिया ...
'सुनो प्रिया ...
वो पिघल गया है, जो बर्फ का पहाड़
तुम मेरे सीने पर छोड़ गयी थी
दरिया बनाया है मैंने उसका
आग तो थी ही, बुझने नहीं दी
आखिर बर्फ के इक सर्द ढेले में
कितना पानी होगा?
समय लगता है पिघलने में
दरिया बनने में
कोशिश करना
अन्दर से पिघलने की
दरिया बनने और
अपने बहाव में बहने का
अलग ही मजा है
मठाधीशों से हारने का
तो बहाना था तुम्हारा
खुद से हारने को
दूसरों की जीत नहीं कहते
याद है
'गोन विथ द विंड'
पहले मैंने चखी थी
और फिर तुमने पढ़ी थी?
टांग दिए थे तुमने अपने बुत
उन तटस्थ स्तंभों पर
जो सदियों वहीं खड़े हैं
तटस्थ कहीं के! दम्भी स्तंभ!!
और हाँ तुम तथ्यों के
सत्य की प्रवचना करती थी ना?
में आज भी संवेदनाओं का
स्पंदन हूँ
शायद इसीलिए
हर बर्फीले ठोसपन को
दरिया बना देता हूँ
तुम्हारे नल के मीठे पानी में
जो आतिश है
वो मेरे चुम्बन की है
पी के देखना
वही दरिया है ये !!
आप इनके ब्लॉग तक जाएँ... मेरी पसंद के चनाब से एहसासों का एक घूंट भरें!
संपर्क:  brahma emerald county, B- 2, FLAT- 901, NIBM road, Pune- 411048
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