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Jul 25, 2012

वर्षा ऋतुः मोर पपीहा बोलन लागे...

डॉ. रत्ना वर्मा
बारिश के आगमन से मदमस्त हो पंख फैलाए मोर को नाचते देख काव्य की धारा फूट पड़ती है। हिन्दी साहित्य में ऋतुओं और षट्ऋतु का जैसा सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है वह दुर्लभ है। विरह की बेला में तो कवियों ने वर्षा ऋतु को ही प्रमुखता दी है।
 बादलों का गरजना, बिजलियों का चमकना और मूसलाधार बारिश भला ऐसा सुहाना मौसम किसे नहीं भाता। मई- जून की तपा देने वाली धूप के बाद जब मानसून पहली दस्तक देता है और बादलों की पहली बूंद धरती पर गिरती है तो स्वाभाविक है धरती के साथ- साथ संपूर्ण प्राणी जगत तृप्ति का अनुभव करता है। आखिर लू के थपेड़ों ने खूब झुलसाया भी तो है,  लेकिन रिमझिम करते बादल बरसे तो खूब जमकर बरसे और धरती से उठती सौंधी खुशबू नथुनों में समायी तो सारी तपन न जाने कहां उडऩ छू हो गई।
भीगे मौसम की इस खूशबू पर हमारे आदि कवियों से लेकर आधुनिक कवियों ने इतना कुछ लिखा है जितना और किसी मौसम पर नहीं। रूठे हुए बादल को मनाने की बात हो या घनघोर बारिश को थोड़ी देर थामने की, कलम चली तो खूब चली। इंद्रधनुषी रंगों से सजे बादलों को देखकर वह आनंद विभोर हो उठता है, तो बारिश के आगमन से मदमस्त हो पंख फैलाए मोर को नाचते देख काव्य की धारा फूट पड़ती है। हिन्दी साहित्य में ऋतुओं और षट्ऋतु का जैसा सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है वह दुर्लभ है। विरह की बेला में तो कवियों ने वर्षा ऋतु को ही प्रमुखता दी है। जैसे की नागमती प्रियतम की याद में व्याकुल है-
ओनई घटा आह चहूं फेरी
कंत उबारू मदन हौ घेरी
और सूरदास की गोपियां तो अपने कृष्ण कन्हाई को बादलों में ढूंढती फिरती हैं। उन्हें श्यामवर्ण कृष्ण बादल के रूप में दिखाई देते हैं और वे शिकायत करती हैं कि क्या कृष्ण के देस में बादल नहीं गरजते- किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि... ताकि बरसते बादलों को देखकर उन्हें हमारी याद आ जाएं।
सच भी तो है, जब मौसम की पहली फुहार, पेड़- पौधों को धोती हुई पड़ती है तो पत्तों की चमक देखकर लगता है प्रकृति भी विरहिणी के विरह से दग्ध है और आंसू बहा रही है। तभी तो विरह में तड़पती हुई यक्षिणी अपने प्रेमी तक संदेश पहुंचाने के लिए बादलों का ही सहारा लेती है- ओ आषाढ़ के पहले बादल ...
कालिदास के कवि मन को इससे बढिय़ा और कोई माध्यम भला मिल सकता था? उन्होंने मेघदूतम लिखकर प्रेमियों के लिए संदेश भेजने का एक बिन पाती भेजे डाकिया जो दे दिया है। बारिश को मौसम को यूं भी कामदेव की पसंद का मौसम माना जाता है। प्रेमियों के मन में उमंगे जगाने का मौसम, लेकिन प्रेमियों के इस देश में एक प्रेमी ऐसे भी हुए हैं, जिन्हें यह मौसम इसलिए प्यारा था क्योंकि इस मौसम में आम आते हैं। उन्हें अपनी प्रेयसी से ज्यादा आम प्यारे थे। इन रसिक आम प्रेमी का नाम है मिर्जा गालिब।
जब हिन्दी साहित्य जहां बारहमासी गीतों से लबालब है तब उर्दू साहित्य भला इससे कैसे अछूता रह सकता है। उर्दू काव्य में बारिश के इस भीगे मौसम पर बेहद खूबसूरत गजल और नज्म लिखी गई है। सुदर्शन फाकिर की एक गजल जिसे चित्रा जगजीत ने अपनी आवाज दी है, सुनकर बरबस बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं जब बारिश की पहली फुहार के साथ ही गली मोहल्लों में कागज की नाव तैरने लगती थी।
वो कागज की कश्ती
वो बारिश का पानी ...
इसी तरह अख्तर शीरानी ने एक नज्म में अपने देश के इस मौसम पर बेहद भावुक बात कही है-
ओ देस के आने वाले बता
बरसात के मौसम
अब भी वहां
वैसे ही सुहाने होते हैं?
क्या अब भी वहां के बागों में
झूले और गाने होते हैं?
और दूर कहीं कुछ देखते ही
नौ उम्र दीवाने होते हैं?
ओ देस से आने वाला बता...
लोक जीवन और लोक धुनों से बंधे इन गीतों में जीवन का रस टपकता है राजेंद्र कृष्ण का गीत कारे- कारे बदरा जा रे जा रे बदरा, मोरी अटरिया न शोर मचा... बिरहिणी नायिका के मनोभावों का सुंदर चित्रण है तो साहिर लुधियानवी का जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसता की रात...
इस भीगते मौसम में भला फिल्में कैसे अछूती रह सकती है। फिल्मों में भी बरसते मौसम का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। अब तो फिल्म चलाने के लिए बारिश का दृश्य फिल्माया जाता है पर आज से तीन चार दशक पहले फिल्मों में बारिश पर कई बेहतर गीत लिखे गये हैं- ऐसे गीत जिन्हें आज भी सुनकर मन मयूर नाच उठता है। अनजान का एक खूबसूरत गीत है-
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा
कि हियरा में उठत हिलौरे।
अरे, पुरवा के झोंकवा से आयो रे
संदेसवा कि चल आज देसबा की ओर।
लोक जीवन और लोक धुनों से बंधे इन गीतों में जीवन का रस टपकता है राजेंद्र कृष्ण का गीत कारे- कारे बदरा जा रे जा रे बदरा, मोरी अटरिया न शोर मचा... बिरहिणी नायिका के मनोभावों का सुंदर चित्रण है तो साहिर लुधियानवी का जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात सौंदर्य चित्रण का अनुपम उदाहरण है। ये गीत आज भी उतने ही रसीले और मधुर हैं जितने लिखे गए थे तब।
दरअसल प्रकृति का यह रसीला रूप है ही इंद्रधनुषी कि इनके सात रंगों से कोई भी अछूता नहीं रह सकता।
तो मन को हर्षाता, नचाता, गाता, खुशियां बिखेरता यह मौसम आ गया है- अषाढ़ के लगते ही सूखी धरती हरीतिमा बन लहलहा उठेगी और सावनी फुहारों के साथ ही गांव की अमराइयों में झूले पडऩे लगेंगे। आज शहरी चकाचौंध के बीच सावन के झूले तो नजर नहीं आते पर गांवों में अब भी बरसती बंूदों के साथ लोक धुनों के स्वर यदा- कदा सुनाई दे जाते हैं-
मोर पपीहा बोलन लागे
मेंढक ताल लगावे ना।
चमक- चमक बिजुरी घन गरजे
शीतल जल बरसावे ना।

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