अकथ कहानी प्रेम की
कछु कहीं न जाई
- चन्द्र कुमार
हवेली के आँगन में जब चारों तरफ ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के बीच स्वर लहरियां बिखरी तो लगा कि जैसे एक शांत हवेली जीवंत हो उठी है। नापासर कस्बे में अब खंडहर बन चुकी ऐसी अनेकों हवेलियाँ और दिखी जो यहाँ के वैभवशाली अतीत की गवाही देती है।
जब बीकानेर के लोकायन परिवार में पहली सात-दिवसीय राजस्थान कबीर यात्रा के आयोजन को लेकर चर्चाएँ शुरू हुई तो मन में कहीं गहरे कुछ चिंताएँ भी घर करने लगी थी। पहले कभी ऐसी संगीत यात्राओं में शरीक होने का अवसर नहीं मिला था, शायद एक बड़ा कारण तो वहीं था लेकिन उससे भी बड़ा कारण इस यात्रा से कबीर का नाम जुड़ा होना था। मध्यकाल से लेकर आज तक, कबीर के संपूर्ण व्यक्तित्व को समझने में जितनी भूलें हमने की है वे यहाँ भी दोहराई जा सकती थी। लेकिन आयोजन तो होना ही था और मुझे इसमें जाना ही था, सो चल पड़ा।
कबीर को हमेशा से ही एक समाज- सुधारक या धर्मगुरू के रूप में व्याख्यित करने वालों को यह थोड़ा चुभ सकता है लेकिन एक कवि या गीतकार रूप में हमारे बीच कबीर की उपस्थिति तब से अब तक निर्बाध रही है और आगे भी रहेगी। कबीर की यह उपस्थिति पिछली छ: शताब्दियों में लोक परम्परा के विस्तार में रचती- बसती हुई मौखिक परंपरा की सबसे सशक्त लोक चेतना कब बन गई, अंदाजा लगाना नामुमकिन है। बैंगलोर की संस्था कबीर प्रोजेक्ट मालवा के सुप्रसिद्ध वाणी गायक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपान्या के साथ मिलकर उन्हीं के इलाके मालवा में विगत दो सालों से मालवा कबीर यात्रा का आयोजन कर रही है। मालवा में कबीर एक संत से कहीं ज्यादा आस्था, विश्वास और लोक स्मृति का अभिन्न अंग है और कबीर का यही स्वीकृत लोक रूप दरअसल कबीर यात्रा की आत्मा है। कबीर की इसी लोक सुवास को महसूस करने का मौका इस बार लोकायन के माध्यम से राजस्थान वासियों को मिला।
फरवरी का अंतिम सप्ताह वैसे तो कुछ खास नहीं होता। बस ऋतु बदल रही होती है लेकिन इस बार तो बीकानेर की फिजा ही बदली हुई थी! 23 फरवरी को बीकानेर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर बसे चूरू जिले के मोमासर गांव में इस सात-दिवसीय संगीत-यात्रा का विधिवत आगाज हुआ। लोक संस्कृति में प्रकृति अपने विभिन्न आयामों के साथ क्रीड़ा करती हमें अक्सर दिखाई देती है। रेत से चैतरफा घिरे इस गाँव में ठंड अभी भी अपना असर दिखा रही थी लेकिन देश- विदेश से आए 250 से ज्यादा यात्री, कबीर साधक तथा स्थानीय लोगों का हुजूम तो कबीर और अन्य निर्गुण संतों की वाणियों के रस में ऐसा डूबा रहा कि सर्द रात का कहीं एहसास ही नहीं हुआ। देर रात तक चले सत्संग एवं वाणी-समागम में मालवा के प्रसिद्ध वाणी गायक और कबीर साधक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपन्या, बैंगलोर से शबनम विरमानी, कच्छ प्रांत के मुरालाला मारवाड़ा, जैसलमेर अंचल के महेशाराम और स्थानीय लोक गायिका भंवरी देवी ने कबीर की वाणियों को संगीत के सुरों से साधा। हालांकि मोमासर में मन जैसे ठहर सा गया था लेकिन यात्रा का यही तो मंत्र है- चरैवेति, चरैवेति।
अगली सुबह का हमारा पड़ाव था सींथल गांव। मोमासर से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर मुख्य मार्ग छोडऩे के बाद बहुत देर तक टेढ़े- मेढ़े और संकरें रास्तों से होते हुए जब यात्रियों से भरी हमारी तीन बसें गुरुकुल विद्यालय प्रांगण पहुँची तो एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ कि रेत के टीलों के बीच विद्या का ऐसा मंदिर भी हो सकता है। वैसे एक के बाद एक ऐसे कई अचरज हमें यात्रा में आगे भी होने वाले थे। इतने दुर्गम स्थान पर हमारे स्वागत और सत्कार का जैसा माहौल था, वह राजस्थान के अलावा कहीं और हो ही नहीं सकता। हजारों विद्यार्थियों की उपस्थिति में कबीर साधकों ने एक बार फिर तंबूरे पर तान छेड़ी जो देर दोपहर तक चलती रहीं। शाम होने तक मुख्य कार्यक्रम के लिए नापासर जाने का समय आ चुका था। नापासर के मुख्य बाजार में कार्यक्रम होना था। लोग बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे। शबनम विरमानी द्वारा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म हद- अनहद का प्रदर्शन शुरू होते ही पूरा पांडाल भर चुका था। रात ढलते-ढलते वाणियों का दौर शुरू हुआ और जब तक कार्यक्रम चला, पूरा शामियाना भरा रहा। शायद मोमासर के आनंद की खबर और गाँव में आये इतने बड़े लवाजमे ने कौतूहल बना दिया हो लेकिन आखिरकार वाणियों की प्रस्तुति ने उन्हें अपने संकोच से बाहर आकर झूम कर नाचने को प्रेरित कर दिया था। नापासर में अगली सुबह का अनौपचारिक सत्र तो वाकई कमाल का था। पूरा का पूरा दल इस आनंद में आकंठ डूबा हुआ था। एक पुरानी हवेली के आँगन में जब चारों तरफ ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के बीच स्वर लहरियां बिखरी तो लगा कि जैसे एक शांत हवेली जीवंत हो उठी है। नापासर कस्बे में अब खंडहर बन चुकी ऐसी अनेकों हवेलियाँ और दिखी जो यहाँ के वैभवशाली अतीत की गवाही देती है।
यात्रा की एक खूबी यह थी कि एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक के सफर में कबीर साधक कलाकार और यात्री एक साथ बस में सफर करते थे। इस अनौपचारिक माहौल में संगीत का आनंद लेते लंबी- लंबी दूरिया कैसे तय हो जाती, कभी पता ही नहीं चला। मुख्य सड़कों का जाल अमूमन अच्छा था लेकिन गाँवों तक पहुँचने वाले सँकरे रास्ते जरूर ऊबड़- खाबड़ थे। बस में अगर संगीत का यह अनौपचारिक माहौल न होता तो शायद ये रास्ते कुछ परेशानी का सबब बनते। कश्मीरी बच्चों का एक दल तो अपनी बस में बारी-बारी से कलाकारों को आमंत्रित करता ताकि उस अनौपचारिक माहौल में वो बिना किसी परेशानी को महसूस किए अपने सफर का पूरा लुत्फ उठा सकें।
25 फरवरी को हमारा अगला पड़ाव बीकानेर से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित जामसर गाँव था। यहाँ मुख्य मार्ग पर निर्मित बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल में कार्यक्रम होना था। दूर- दूर तक किसी बस्ती का कहीं नामोनिशान तक नहीं था और ऐसा लगा कि केवल यात्री और कलाकार ही वहाँ मौजूद रहेंगे। खिली धूप में एक बहुत बड़े बरामदे में छन कर आ रही किरणों के बीच सुबह का अनौपचारिक सत्र गुजरात से आये मूसा पारा तथा कश्मीरी दल के नाम रहा। शाम को जब पंगत में बैठकर स्वादिष्ट खाना खाया और पंडाल की तरफ पहुँचा तो अचंभित था। पूरा का पूरा गाँव जैसे वहाँ उमड़ पड़ा हो। वहाँ कार्यक्रम की शुरुआत से पहले ही पाँव रखने तक की जगह नहीं थी। खचाखच भरे पंडाल में लोग कबीर के राम को जानने- समझने के लिए हद- अनहद फिल्म का मजा ले रहे थे। वाणी- समागम में जहाँ एक और पद्मश्री प्रहलाद जी, शबनम विरमानी, कालूराम बामनिया और मुरालाला मारवाड़ा जैसे विख्यात साधकों ने समा बांधा वहीं दूसरी और लोकप्रिय गायिका गवरा देवी, शिव- बद्री सुथार और भंवरी देवी जैसे स्थानीय कलाकारों ने श्रोताओं को भक्ति- रस से सराबोर कर दिया। यात्रा की संभवत सबसे सर्द रात में चाय की चुस्कियों के साथ बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल देर रात तक कबीर की वाणियों से आलोकित था। यात्रा का पहला चरण यहाँ पूरा हो गया और अब हमें बीकानेर की ओर लौटना था। सोचा कि वहाँ पहुँच कर थोड़ा आराम करेंगे!
अगले दिन बीकानेर में धरणीधर मंदिर के प्रांगण में हमारा बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ। चाय खत्म करके यात्री और वहाँ आये मेहमान मैदान में एक ओर बन रहे तालाब की भूमि पूजन में शरीक हुए। इधर मुख्य मंच पर भी कुछ हलचल होने लगी। कार्यक्रम की शुरुआत में लोकायन द्वारा तैयार किए गए स्थानीय वाणी- परंपरा के हस्ताक्षर शिव-बद्री सुथार के वाणी- संग्रह की सीडी का लोकार्पण हुआ। इसके बाद प्रहलाद जी, शबनम और शिव-बद्री सुथार ने कुछ प्रस्तुतियाँ भी दी। अब हमें दिन के खाने के लिए ले जाया गया। रविवार के दिन अगर आपको ठेठ राजस्थानी खाना मिल जाये तो और क्या इच्छा रहेगी! बड़े ही चाव से स्थानीय नवयुवकों की टीम ने हमें खाना खिलाया और फिर सुस्ताने के लिए वहीं कमरे भी खोल दिये।
मंदिर प्रांगण में एक ओर कुछ युवा साथी सुबह से ही लगे हुए थे लेकिन उस तरफ जाने का समय शायद अभी तक आया नहीं था। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद जब उत्सुकता बढऩें लगी तो रहा नहीं गया। चल कर वहाँ तक पहुँचा तो आश्चर्य की सीमा न थी। वे साथी रमता- दृग के कलाकार थे जो जयपुर और जोधपुर से आये थे। कुछ स्थानीय कलाकारों के साथ मिल कर उन्होंने कबीर पर कला-सर्जना और प्रदर्शनी का इंतजाम किया था। पेटिंग और फोटो प्रदर्शनी के अलावा चारों ओर जमीन पर बिखरी असमान रंगों की बौछारें ना जाने किस मनचले, मदमस्त, रमते दृग को बुला रही थी। धरणीधर मैदान का वह रंग संयोजन और खुला आकाश मानों उस दृग को आस पास बिखरे शून्य की खबर दे रहा था जिससे मिलने को इंसान की भटकती आंखे हमेशा बेताब रहती है। कबीर पर इतना सार्थक और दर्शनीय काम इससे पहले मैंने नहीं देखा था। शाम ढलने को ही थी कि चेाई से युवा कबीर साधक बिन्दु मालिनी और वेदान्त भी वहाँ आ गए। इसके बाद संगीत और कला की उस जुगलबंदी ने सबकी थकान उतार दी और अब हर कोई मंदिर के इसी कोने में विद्यमान था।
धरणीधर मंदिर के मुख्य मैदान में बनाया गया मंच वाकई अलौकिक था। एक पेड़ को पाश्र्व में रख कर बनाए गए मंच पर इन्स्टालेशन किया गया था। पेड़ पर नीचे से हरे प्रकाश की धारा और इन्स्टालेशन पर सफेद प्रकाश के संगम ने एक अलग ही दृश्य आंखों के सामने रचा था। मुख्य मंच पर सामने रंगबिरंगी डोरियों से सूर्यकिरणों का सा आभास पैदा किया गया था। ईमानदारी से कहें तो मंच पर रमता- दृग का यह अनूठा प्रयोग कार्यक्रम का सबसे बड़ा आकर्षण था। अंधेरा होते- होते लोग मैदान में जमा हो चुके थे। एक बार फिर कबीर साधकों ने देर रात तक समा बाँधे रखा। कार्यक्रम के बाद मैदान में जगह- जगह लगाए गए चटख रंगों के बैनरों ने अनायास ही ध्यान खींच लिया। खुले मैदान में रात को बह रही हवा से अठखेलियाँ करते वे बैनर मानों भक्ति के रस में डूब कर नाच रहे थे।
अगली सुबह पूगल जाने से पहले गवरा देवी के साथ अनौपचारिक सत्र में उनके कई रंग खुल कर सामने आये। दरअसल, मन की आंखों से दुनिया को देखने वाली इस गायिका में जैसे स्वयं सरस्वती विद्यमान है। पूगल की ख्याति लोक- गायकों के प्रश्रय स्थल के रूप में रही है। यात्रा का अगला पड़ाव पूगल इस वजह से दल के बीच सुर्खियों में था। इसके अलावा स्थानीय लोक- गायक मीर जब्बार खान वहाँ प्रस्तुति देने वाले थे। पूगल पहुँचने पर सभी यात्रियों का तिलक लगा कर स्वागत किया गया और फिर ढ़ोल- नगाड़ों के साथ गाँव में एक फेरी लगायी गयी। अतिथि स्वागत और उनका गाँव से परिचय कराने का यह तरीका अपने आप में नया था। शाम को फिल्म प्रदर्शन से शुरू हुआ कार्यक्रम सुबह चार बजे तक चलता रहा और लोगों की भीड़ देख कर यह सहज ही अंदाजा लग गया कि यह गाँव मीर जब्बार खान और मुखत्यार अली जैसे लोक गायकों को कितना आदर- सम्मान देता होगा। पूगल से सुबह जल्दी ही हमें अगले पड़ाव पर निकालना था। बताया गया था कि पूरा दिन हम जागेरी में बिताएंगे और उसके बाद शाम को दियातरा में कार्यक्रम होगा।
जागेरी का मनोरम माहौल जैसे संगीत साधना के लिए ही रचा गया हो। एक झील के किनारे सीढिय़ों पर बैठ कर सभी कलाकारों ने उस अनौपचारिक सत्र में कबीर को गाया। एक से एक कड़ी जुड़ती रही और कैसे तीन घंटे निकल गए, अंदाजा ही नहीं रहा। अब हमें दियातरा के लिए निकालना था लेकिन इच्छा थी कि वह सत्र चलता रहे और हम कबीर साधकों को सुनते रहे। दियातरा हमारे स्वागत के लिए पहले से ही तैयार था। गाँव के बीचो- बीच का स्थान कार्यक्रम के लिए चुना गया था। जब फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ तो फिल्म के किरदारों को अपने आस- पास बैठा देख लोग चकित थे। प्रहलाद जी से शुरू हुआ संगीत साधना का दौर पार्वती बाउल तक आ पहुँचा था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। अनेक कोशिशों के बावजूद भी पार्वती बाउल किसी तकनीकी दुविधा की वजह से अपनी प्रस्तुति नहीं दे पायी। कहते है कि अगर गुरु का आशीर्वाद न हो तो कुछ भी संभव नहीं होता। शायद यह दिन वैसा ही था। लेकिन इसकी कमी स्थानीय लोकप्रिय गायिका गवरा देवी ने पूरी कर दी। एक बार नहीं बल्कि दो- दो बार लोगों के बुलावे पर गवरा देवी मंच पर आई और सबको मंत्रमुग्ध कर गयी। दियातरा में कार्यक्रम समाप्त होते ही सभी यात्री अल-सुबह ही बीकानेर की ओर चल पड़े।
अब यात्रा का अंतिम पड़ाव बीकानेर आ गया था। लेकिन इच्छा थी कि बाहर से अंदर की यह यात्रा अनवरत चलती रहे। बीकानेर में मेडिकल कालेज सभागार में समापन समारोह होना था। सभी कलाकारों को आज अंतिम बार इस कार्यक्रम में प्रस्तुतियाँ देनी थी। सबने दी भी लेकिन मन उन सभी रमणीक स्थानों पर घूमता रहा जहाँ से होकर यह यात्रा अपने अंतिम पड़ाव तक पहुँची है। इन सात दिनों में जैसे जीवन को नया अर्थ मिल गया। मन हरगिज नहीं चाहता कि भीतर झाँकने की यह यात्रा कभी समाप्त हो। कबीर ने दुनिया को सच्चाई ढूँढने के नए रास्ते दिखाये है। राजस्थान कबीर यात्रा उन्हीं रास्तों से गुजर कर हमें खुद तक पहुंचाती सी लगती है। अब जबकि सभी कलाकार और यात्री इस संगीत- यात्रा के पश्चात अपने- अपने रास्तों पर निकल चुके हैं, सोचता हूँ कि अगर यात्रा में शामिल नहीं होता तो देहरी तक आये कुएं से अपनी प्यास न बुझा पाने का मलाल जिंदगी भर रहता। अब तो आलम यह है की अकथ कहानी प्रेम की, कछु कहीं न जाई।
कबीर को हमेशा से ही एक समाज- सुधारक या धर्मगुरू के रूप में व्याख्यित करने वालों को यह थोड़ा चुभ सकता है लेकिन एक कवि या गीतकार रूप में हमारे बीच कबीर की उपस्थिति तब से अब तक निर्बाध रही है और आगे भी रहेगी। कबीर की यह उपस्थिति पिछली छ: शताब्दियों में लोक परम्परा के विस्तार में रचती- बसती हुई मौखिक परंपरा की सबसे सशक्त लोक चेतना कब बन गई, अंदाजा लगाना नामुमकिन है। बैंगलोर की संस्था कबीर प्रोजेक्ट मालवा के सुप्रसिद्ध वाणी गायक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपान्या के साथ मिलकर उन्हीं के इलाके मालवा में विगत दो सालों से मालवा कबीर यात्रा का आयोजन कर रही है। मालवा में कबीर एक संत से कहीं ज्यादा आस्था, विश्वास और लोक स्मृति का अभिन्न अंग है और कबीर का यही स्वीकृत लोक रूप दरअसल कबीर यात्रा की आत्मा है। कबीर की इसी लोक सुवास को महसूस करने का मौका इस बार लोकायन के माध्यम से राजस्थान वासियों को मिला।
फरवरी का अंतिम सप्ताह वैसे तो कुछ खास नहीं होता। बस ऋतु बदल रही होती है लेकिन इस बार तो बीकानेर की फिजा ही बदली हुई थी! 23 फरवरी को बीकानेर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर बसे चूरू जिले के मोमासर गांव में इस सात-दिवसीय संगीत-यात्रा का विधिवत आगाज हुआ। लोक संस्कृति में प्रकृति अपने विभिन्न आयामों के साथ क्रीड़ा करती हमें अक्सर दिखाई देती है। रेत से चैतरफा घिरे इस गाँव में ठंड अभी भी अपना असर दिखा रही थी लेकिन देश- विदेश से आए 250 से ज्यादा यात्री, कबीर साधक तथा स्थानीय लोगों का हुजूम तो कबीर और अन्य निर्गुण संतों की वाणियों के रस में ऐसा डूबा रहा कि सर्द रात का कहीं एहसास ही नहीं हुआ। देर रात तक चले सत्संग एवं वाणी-समागम में मालवा के प्रसिद्ध वाणी गायक और कबीर साधक पद्मश्री प्रहलाद सिंह टिपन्या, बैंगलोर से शबनम विरमानी, कच्छ प्रांत के मुरालाला मारवाड़ा, जैसलमेर अंचल के महेशाराम और स्थानीय लोक गायिका भंवरी देवी ने कबीर की वाणियों को संगीत के सुरों से साधा। हालांकि मोमासर में मन जैसे ठहर सा गया था लेकिन यात्रा का यही तो मंत्र है- चरैवेति, चरैवेति।
अगली सुबह का हमारा पड़ाव था सींथल गांव। मोमासर से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर मुख्य मार्ग छोडऩे के बाद बहुत देर तक टेढ़े- मेढ़े और संकरें रास्तों से होते हुए जब यात्रियों से भरी हमारी तीन बसें गुरुकुल विद्यालय प्रांगण पहुँची तो एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ कि रेत के टीलों के बीच विद्या का ऐसा मंदिर भी हो सकता है। वैसे एक के बाद एक ऐसे कई अचरज हमें यात्रा में आगे भी होने वाले थे। इतने दुर्गम स्थान पर हमारे स्वागत और सत्कार का जैसा माहौल था, वह राजस्थान के अलावा कहीं और हो ही नहीं सकता। हजारों विद्यार्थियों की उपस्थिति में कबीर साधकों ने एक बार फिर तंबूरे पर तान छेड़ी जो देर दोपहर तक चलती रहीं। शाम होने तक मुख्य कार्यक्रम के लिए नापासर जाने का समय आ चुका था। नापासर के मुख्य बाजार में कार्यक्रम होना था। लोग बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे। शबनम विरमानी द्वारा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म हद- अनहद का प्रदर्शन शुरू होते ही पूरा पांडाल भर चुका था। रात ढलते-ढलते वाणियों का दौर शुरू हुआ और जब तक कार्यक्रम चला, पूरा शामियाना भरा रहा। शायद मोमासर के आनंद की खबर और गाँव में आये इतने बड़े लवाजमे ने कौतूहल बना दिया हो लेकिन आखिरकार वाणियों की प्रस्तुति ने उन्हें अपने संकोच से बाहर आकर झूम कर नाचने को प्रेरित कर दिया था। नापासर में अगली सुबह का अनौपचारिक सत्र तो वाकई कमाल का था। पूरा का पूरा दल इस आनंद में आकंठ डूबा हुआ था। एक पुरानी हवेली के आँगन में जब चारों तरफ ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार के बीच स्वर लहरियां बिखरी तो लगा कि जैसे एक शांत हवेली जीवंत हो उठी है। नापासर कस्बे में अब खंडहर बन चुकी ऐसी अनेकों हवेलियाँ और दिखी जो यहाँ के वैभवशाली अतीत की गवाही देती है।
यात्रा की एक खूबी यह थी कि एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक के सफर में कबीर साधक कलाकार और यात्री एक साथ बस में सफर करते थे। इस अनौपचारिक माहौल में संगीत का आनंद लेते लंबी- लंबी दूरिया कैसे तय हो जाती, कभी पता ही नहीं चला। मुख्य सड़कों का जाल अमूमन अच्छा था लेकिन गाँवों तक पहुँचने वाले सँकरे रास्ते जरूर ऊबड़- खाबड़ थे। बस में अगर संगीत का यह अनौपचारिक माहौल न होता तो शायद ये रास्ते कुछ परेशानी का सबब बनते। कश्मीरी बच्चों का एक दल तो अपनी बस में बारी-बारी से कलाकारों को आमंत्रित करता ताकि उस अनौपचारिक माहौल में वो बिना किसी परेशानी को महसूस किए अपने सफर का पूरा लुत्फ उठा सकें।
25 फरवरी को हमारा अगला पड़ाव बीकानेर से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित जामसर गाँव था। यहाँ मुख्य मार्ग पर निर्मित बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल में कार्यक्रम होना था। दूर- दूर तक किसी बस्ती का कहीं नामोनिशान तक नहीं था और ऐसा लगा कि केवल यात्री और कलाकार ही वहाँ मौजूद रहेंगे। खिली धूप में एक बहुत बड़े बरामदे में छन कर आ रही किरणों के बीच सुबह का अनौपचारिक सत्र गुजरात से आये मूसा पारा तथा कश्मीरी दल के नाम रहा। शाम को जब पंगत में बैठकर स्वादिष्ट खाना खाया और पंडाल की तरफ पहुँचा तो अचंभित था। पूरा का पूरा गाँव जैसे वहाँ उमड़ पड़ा हो। वहाँ कार्यक्रम की शुरुआत से पहले ही पाँव रखने तक की जगह नहीं थी। खचाखच भरे पंडाल में लोग कबीर के राम को जानने- समझने के लिए हद- अनहद फिल्म का मजा ले रहे थे। वाणी- समागम में जहाँ एक और पद्मश्री प्रहलाद जी, शबनम विरमानी, कालूराम बामनिया और मुरालाला मारवाड़ा जैसे विख्यात साधकों ने समा बांधा वहीं दूसरी और लोकप्रिय गायिका गवरा देवी, शिव- बद्री सुथार और भंवरी देवी जैसे स्थानीय कलाकारों ने श्रोताओं को भक्ति- रस से सराबोर कर दिया। यात्रा की संभवत सबसे सर्द रात में चाय की चुस्कियों के साथ बाबा गंगाई नाथ समाधि स्थल देर रात तक कबीर की वाणियों से आलोकित था। यात्रा का पहला चरण यहाँ पूरा हो गया और अब हमें बीकानेर की ओर लौटना था। सोचा कि वहाँ पहुँच कर थोड़ा आराम करेंगे!
अगले दिन बीकानेर में धरणीधर मंदिर के प्रांगण में हमारा बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ। चाय खत्म करके यात्री और वहाँ आये मेहमान मैदान में एक ओर बन रहे तालाब की भूमि पूजन में शरीक हुए। इधर मुख्य मंच पर भी कुछ हलचल होने लगी। कार्यक्रम की शुरुआत में लोकायन द्वारा तैयार किए गए स्थानीय वाणी- परंपरा के हस्ताक्षर शिव-बद्री सुथार के वाणी- संग्रह की सीडी का लोकार्पण हुआ। इसके बाद प्रहलाद जी, शबनम और शिव-बद्री सुथार ने कुछ प्रस्तुतियाँ भी दी। अब हमें दिन के खाने के लिए ले जाया गया। रविवार के दिन अगर आपको ठेठ राजस्थानी खाना मिल जाये तो और क्या इच्छा रहेगी! बड़े ही चाव से स्थानीय नवयुवकों की टीम ने हमें खाना खिलाया और फिर सुस्ताने के लिए वहीं कमरे भी खोल दिये।
मंदिर प्रांगण में एक ओर कुछ युवा साथी सुबह से ही लगे हुए थे लेकिन उस तरफ जाने का समय शायद अभी तक आया नहीं था। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद जब उत्सुकता बढऩें लगी तो रहा नहीं गया। चल कर वहाँ तक पहुँचा तो आश्चर्य की सीमा न थी। वे साथी रमता- दृग के कलाकार थे जो जयपुर और जोधपुर से आये थे। कुछ स्थानीय कलाकारों के साथ मिल कर उन्होंने कबीर पर कला-सर्जना और प्रदर्शनी का इंतजाम किया था। पेटिंग और फोटो प्रदर्शनी के अलावा चारों ओर जमीन पर बिखरी असमान रंगों की बौछारें ना जाने किस मनचले, मदमस्त, रमते दृग को बुला रही थी। धरणीधर मैदान का वह रंग संयोजन और खुला आकाश मानों उस दृग को आस पास बिखरे शून्य की खबर दे रहा था जिससे मिलने को इंसान की भटकती आंखे हमेशा बेताब रहती है। कबीर पर इतना सार्थक और दर्शनीय काम इससे पहले मैंने नहीं देखा था। शाम ढलने को ही थी कि चेाई से युवा कबीर साधक बिन्दु मालिनी और वेदान्त भी वहाँ आ गए। इसके बाद संगीत और कला की उस जुगलबंदी ने सबकी थकान उतार दी और अब हर कोई मंदिर के इसी कोने में विद्यमान था।
धरणीधर मंदिर के मुख्य मैदान में बनाया गया मंच वाकई अलौकिक था। एक पेड़ को पाश्र्व में रख कर बनाए गए मंच पर इन्स्टालेशन किया गया था। पेड़ पर नीचे से हरे प्रकाश की धारा और इन्स्टालेशन पर सफेद प्रकाश के संगम ने एक अलग ही दृश्य आंखों के सामने रचा था। मुख्य मंच पर सामने रंगबिरंगी डोरियों से सूर्यकिरणों का सा आभास पैदा किया गया था। ईमानदारी से कहें तो मंच पर रमता- दृग का यह अनूठा प्रयोग कार्यक्रम का सबसे बड़ा आकर्षण था। अंधेरा होते- होते लोग मैदान में जमा हो चुके थे। एक बार फिर कबीर साधकों ने देर रात तक समा बाँधे रखा। कार्यक्रम के बाद मैदान में जगह- जगह लगाए गए चटख रंगों के बैनरों ने अनायास ही ध्यान खींच लिया। खुले मैदान में रात को बह रही हवा से अठखेलियाँ करते वे बैनर मानों भक्ति के रस में डूब कर नाच रहे थे।
अगली सुबह पूगल जाने से पहले गवरा देवी के साथ अनौपचारिक सत्र में उनके कई रंग खुल कर सामने आये। दरअसल, मन की आंखों से दुनिया को देखने वाली इस गायिका में जैसे स्वयं सरस्वती विद्यमान है। पूगल की ख्याति लोक- गायकों के प्रश्रय स्थल के रूप में रही है। यात्रा का अगला पड़ाव पूगल इस वजह से दल के बीच सुर्खियों में था। इसके अलावा स्थानीय लोक- गायक मीर जब्बार खान वहाँ प्रस्तुति देने वाले थे। पूगल पहुँचने पर सभी यात्रियों का तिलक लगा कर स्वागत किया गया और फिर ढ़ोल- नगाड़ों के साथ गाँव में एक फेरी लगायी गयी। अतिथि स्वागत और उनका गाँव से परिचय कराने का यह तरीका अपने आप में नया था। शाम को फिल्म प्रदर्शन से शुरू हुआ कार्यक्रम सुबह चार बजे तक चलता रहा और लोगों की भीड़ देख कर यह सहज ही अंदाजा लग गया कि यह गाँव मीर जब्बार खान और मुखत्यार अली जैसे लोक गायकों को कितना आदर- सम्मान देता होगा। पूगल से सुबह जल्दी ही हमें अगले पड़ाव पर निकालना था। बताया गया था कि पूरा दिन हम जागेरी में बिताएंगे और उसके बाद शाम को दियातरा में कार्यक्रम होगा।
जागेरी का मनोरम माहौल जैसे संगीत साधना के लिए ही रचा गया हो। एक झील के किनारे सीढिय़ों पर बैठ कर सभी कलाकारों ने उस अनौपचारिक सत्र में कबीर को गाया। एक से एक कड़ी जुड़ती रही और कैसे तीन घंटे निकल गए, अंदाजा ही नहीं रहा। अब हमें दियातरा के लिए निकालना था लेकिन इच्छा थी कि वह सत्र चलता रहे और हम कबीर साधकों को सुनते रहे। दियातरा हमारे स्वागत के लिए पहले से ही तैयार था। गाँव के बीचो- बीच का स्थान कार्यक्रम के लिए चुना गया था। जब फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ तो फिल्म के किरदारों को अपने आस- पास बैठा देख लोग चकित थे। प्रहलाद जी से शुरू हुआ संगीत साधना का दौर पार्वती बाउल तक आ पहुँचा था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। अनेक कोशिशों के बावजूद भी पार्वती बाउल किसी तकनीकी दुविधा की वजह से अपनी प्रस्तुति नहीं दे पायी। कहते है कि अगर गुरु का आशीर्वाद न हो तो कुछ भी संभव नहीं होता। शायद यह दिन वैसा ही था। लेकिन इसकी कमी स्थानीय लोकप्रिय गायिका गवरा देवी ने पूरी कर दी। एक बार नहीं बल्कि दो- दो बार लोगों के बुलावे पर गवरा देवी मंच पर आई और सबको मंत्रमुग्ध कर गयी। दियातरा में कार्यक्रम समाप्त होते ही सभी यात्री अल-सुबह ही बीकानेर की ओर चल पड़े।
अब यात्रा का अंतिम पड़ाव बीकानेर आ गया था। लेकिन इच्छा थी कि बाहर से अंदर की यह यात्रा अनवरत चलती रहे। बीकानेर में मेडिकल कालेज सभागार में समापन समारोह होना था। सभी कलाकारों को आज अंतिम बार इस कार्यक्रम में प्रस्तुतियाँ देनी थी। सबने दी भी लेकिन मन उन सभी रमणीक स्थानों पर घूमता रहा जहाँ से होकर यह यात्रा अपने अंतिम पड़ाव तक पहुँची है। इन सात दिनों में जैसे जीवन को नया अर्थ मिल गया। मन हरगिज नहीं चाहता कि भीतर झाँकने की यह यात्रा कभी समाप्त हो। कबीर ने दुनिया को सच्चाई ढूँढने के नए रास्ते दिखाये है। राजस्थान कबीर यात्रा उन्हीं रास्तों से गुजर कर हमें खुद तक पहुंचाती सी लगती है। अब जबकि सभी कलाकार और यात्री इस संगीत- यात्रा के पश्चात अपने- अपने रास्तों पर निकल चुके हैं, सोचता हूँ कि अगर यात्रा में शामिल नहीं होता तो देहरी तक आये कुएं से अपनी प्यास न बुझा पाने का मलाल जिंदगी भर रहता। अब तो आलम यह है की अकथ कहानी प्रेम की, कछु कहीं न जाई।
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कोर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क में पढ़े चन्द्र कुमार फोर्ड फैलो रहे हैं और वर्तमान में साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक हैं। लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर लेखन है। स्थानीय समाचार पत्र में युवाओं के मार्गदर्शन के लिए एक नियमित स्तंभ लेखन के साथ ही खेल, राजनीति, शिक्षा और समाज पर उनके आलेख राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। विरासत के प्रति अपने लगाव के कारण वे अपने शहर की विरासत के संरक्षण अभियान से भी जुड़े हुए है। उनके लिए सकारात्मक ऊर्जा जीवन का मंत्र हैं। भ्रमण, संगीत और क्रिकेट की दीवानगी उन्हें अपने समय से जोड़े रखती है। संपर्क: सुथारों की बड़ी गुवाड़, बीकानेर (राजस्थान) मो.09928861470, Email- ckpurohit@gmail.com
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