- डा. रत्ना वर्मा
पानी की कमी एक समस्या बनकर हमारे जन- जीवन को प्रभावित करने वाली है यह तो हम सभी अनुभव कर रहे थे परंतु इतनी जल्दी यह मुसीबत हमारे सामने खड़ी नजर आयेगी यह कल्पना हमने नहीं की थी और अब भी हम इस गंभीर समस्या से आँखें मूंदे हुए हैं।
पूरा देश इन दिनों पीने की पानी की समस्या से जूझ रहा है। हमारे देश की राजधानी दिल्ली से लगभग प्रतिदिन यह समाचार आता है कि वहां नलों के नीचे सैकड़ों की संख्या में लोग लाइन लगाए खड़े रहते हैं। दिल्ली शहर यमुना नदी के किनारे बसा है, फिर भी वहां के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि यमुना जो देश की बड़ी नदियों में से एक है, को प्रदूषण से एक जहरीला नाला बना दिया गया है। ऐसे में अन्य बड़े शहरों में कैसा हाहाकार मचा होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। गर्मी के मौसम में पानी की यह समस्या और भी विकराल बन जाती है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैंने इस वर्ष किया है-
पिछले साल की तरह इस साल भी हम अपने प्रदेश के 45 डिग्री से भी अधिक पार कर चुके तापमान से राहत पाने उत्तराखंड की पहाडिय़ों पर छुट्टी मनाने जिलिंग (काठगोदाम से सड़क के रास्ते लगभग ढ़ेेड़ घंटे का मार्ग) की पहाडिय़ों पर गए। यह स्थान नैनीताल जिले के मटियाल गांव के ऊपर पहाडिय़ों के बीच बसा वह सुंदर स्थल है जहां सड़क नहीं है और टे्रकिंग करके ही वहां तक पंहुचा जा सकता है। लेकिन गर्मी से राहत इस साल वहां भी नहीं मिली। उत्तराखंड में पहाड़ के लोग भी इस बार गर्मी की तपन झेल रहे हैं और पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। मैदानी इलाके में रहने वाले हम जैसे लोग पहाड़ में रहने वालों की समस्या को तब तक महसूस नहीं कर सकते जब तक उसे स्यवं अनुभव न करें और अपनी आँखों से पीने के पानी के लिए उन्हें जूझते न देखें। लेकिन हम कई बरसों से समाचारों में पढ़ते रहे हैं जिसमें हमारे पर्यावरणविद् अपने अध्ययनों के आधार पर लगातार यह कहते आ रहे हैं कि विश्व में अगली लड़ाई पानी के लिए होगी। यह लड़ाई अब शुरु हो चुकी है। पहाड़ों पर साल- दर- साल बढ़ रही गर्मी और पानी के लिए तरसते वहां के जीव- जंतु इसके गवाह हैं।
पानी की कमी एक समस्या बनकर हमारे जन- जीवन को प्रभावित करने वाली है यह तो हम सभी अनुभव कर रहे थे परंतु इतनी जल्दी यह मुसीबत हमारे सामने खड़ी नजर आयेगी यह कल्पना हमने नहीं की थी और अब भी हम इस गंभीर समस्या से आँखें मूंदे हुए हैं। अपनी इस यात्रा में जब हमने अपनी आँखों से यह सब देखा और स्वयं इस समस्या से रूबरू हुए तो विश्वास करना पड़ा कि हम अपने पर्यावरण के प्रति कितने लापरवाह हो चुके हैं। एक वह समय था जब आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपने के लिए हमारे बुजूर्ग छायादार और फलदार पेड़ लगाते थे, यह सोच कर कि हमारे बच्चे जब बड़े होंगे तो इन हरे- भरे पेड़ों की छांह तले बैठ कर इसकी ठंडी हवा को महसूस कर हमें याद करेंगे कि हमारे दादा- परदादा ने हमारे बेहतर जीवनयापन के लिए ये पेड़ लगाये थे। पर आज के लोग अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए पेड़ तो नहीं लगाते बल्कि क्रांक्रीट के जंगल जरूर खड़े करते चले जा रहे हैं। ऐसे जंगल जो अगली पीढ़ी को मुसीबत के अलावा और कुछ नहीं देने वाले।
...तो मैं बता रही थी उत्तराखंड इन दिनों पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। वहां के रहने वालों से बात करने पर जानकारी मिली कि पहाड़ के नीचे रहने वाले तो फिर भी किसी तरह अपने लिए पीने के पानी का इंतजाम कर लेते हैं। जैसे नदी से या बोरिंग से। (यद्यपि नदी भी हमें सूखे ही मिले, क्योंकि छह दिन के इस पड़ाव में दो दिन हम स्वयं भी पानी की कमी से जूझे थे और नहाने के लिए नदी ही गए थे, जहां पर भी पानी बहुत कम था लगभग नहीं के बराबर) हम जिस इलाके में रूके थे वहां के लोग भी पहाड़ों से नीचे उतर कर बोरिंग से पीने का पानी भरकर ऊपर ले जाते थे। वैसे जिस बोरिंग से वे सब और हम भी पानी ले जाते थे उसकी खासियत यह थी कि उस बोरिंग को बगैर ओटे ही लगातार पानी आते रहता था इतना स्वच्छ कि मिनरल वाटर भी पीछे रह जाए। चूंकि वहां पानी पहाड़ों पर बसे घरों पर पहुंचाना होता था इसलिए पानी के उनके बरतन बहुत बड़े नहीं होते थे। मुश्किल से 5-7 लीटर पानी ही वे एक बार में ले जा पाते थे। ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां ही पानी भरने दूर- दूर से आती थीं। बिना पानी के कैसे गुजारा होता है पूछने पर वे लोग कहते थे पीने को पानी मुश्किल से मिलता है वहां नहाने की बात ही कहां उठती है हम तो कई कई दिन नहाते ही नहीं।
बहुत ही कम पानी में जीवन गुजारना हो तो वह पहाड़ में पानी की समस्या से जूझ रहे लोगों से सीखना होगा। हम शहरों के नलों में पानी के लिए लाइन लगाए लोगों को देखकर परेशान हो जाते हैं पर कोई इन पहाड़ में रहने वालों का दुख भी देखे जो पानी का मटका या पीपा लेकर ऊंची- ऊंची पहाडिय़ों पर चढ़ते- उतरते हैं। पिछले साल भी हम इसी इलाके में गए थे पर तब हालात आज से बेहतर थे। जंगल हरे- भरे थे। फलों की भरमार थी। लोग खुश नजर आते थे पर आज उनकी आंखों में निराशा साफ झलकती है।
वहां पिछले एक साल से वर्षा ही नहीं हुई है। इस वर्ष पहली बार उस क्षेत्र में तापमान 32 से 35 डिग्री तक गया। जंगल का एक बहुत बड़ा इलाका आग से जल गया है। पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेती करने वाले किसानों की हालत तो बहुत ही खराब है। पानी के अभाव में उनकी फसलें सूख रहीं हैं। सरकार ने ग्रीन हाऊस प्रोजेक्ट के माध्यम से वहां के किसानों को फायदा दिलाने की कोशिश की है पर पानी के अभाव में यह भी उनके फायदे का नहीं रहा। ग्रीन हाऊस के पौधों को बचाने के लिए वे पानी लाएं तो कहां से लाएं। पहाड़ों के सभी सोते सूख चुके हैं। पशु- पक्षी प्यासे भटक रहे हैं। मानसून के इंतजार में किसानों की आंखें पथरा गई हैं।
जाहिर है प्रकृति हमसे नाराज है। बेदर्दी से काटे जा रहे जंगल, नदियों पर बनाए जा रहे बांध, कल- कारखानों का फैलता जाल और भूजल का दोहन आदि सबने मिलकर आज ये हालात बना दिए हैं कि जिन पहाड़ों पर से झरनों के हजारों सोते नीचे आकर नदियों से मिल जाया करते थे वे पहाड़ आज उजाड़ हो गए हैं। मानसून भी इस बार 10 दिन विलंब से आया है और इस बरस इसके कमजोर रहने की संभावना भी बताई जा रही है।
याद रहे बिन पानी सब सून।
पिछले साल की तरह इस साल भी हम अपने प्रदेश के 45 डिग्री से भी अधिक पार कर चुके तापमान से राहत पाने उत्तराखंड की पहाडिय़ों पर छुट्टी मनाने जिलिंग (काठगोदाम से सड़क के रास्ते लगभग ढ़ेेड़ घंटे का मार्ग) की पहाडिय़ों पर गए। यह स्थान नैनीताल जिले के मटियाल गांव के ऊपर पहाडिय़ों के बीच बसा वह सुंदर स्थल है जहां सड़क नहीं है और टे्रकिंग करके ही वहां तक पंहुचा जा सकता है। लेकिन गर्मी से राहत इस साल वहां भी नहीं मिली। उत्तराखंड में पहाड़ के लोग भी इस बार गर्मी की तपन झेल रहे हैं और पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। मैदानी इलाके में रहने वाले हम जैसे लोग पहाड़ में रहने वालों की समस्या को तब तक महसूस नहीं कर सकते जब तक उसे स्यवं अनुभव न करें और अपनी आँखों से पीने के पानी के लिए उन्हें जूझते न देखें। लेकिन हम कई बरसों से समाचारों में पढ़ते रहे हैं जिसमें हमारे पर्यावरणविद् अपने अध्ययनों के आधार पर लगातार यह कहते आ रहे हैं कि विश्व में अगली लड़ाई पानी के लिए होगी। यह लड़ाई अब शुरु हो चुकी है। पहाड़ों पर साल- दर- साल बढ़ रही गर्मी और पानी के लिए तरसते वहां के जीव- जंतु इसके गवाह हैं।
पानी की कमी एक समस्या बनकर हमारे जन- जीवन को प्रभावित करने वाली है यह तो हम सभी अनुभव कर रहे थे परंतु इतनी जल्दी यह मुसीबत हमारे सामने खड़ी नजर आयेगी यह कल्पना हमने नहीं की थी और अब भी हम इस गंभीर समस्या से आँखें मूंदे हुए हैं। अपनी इस यात्रा में जब हमने अपनी आँखों से यह सब देखा और स्वयं इस समस्या से रूबरू हुए तो विश्वास करना पड़ा कि हम अपने पर्यावरण के प्रति कितने लापरवाह हो चुके हैं। एक वह समय था जब आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपने के लिए हमारे बुजूर्ग छायादार और फलदार पेड़ लगाते थे, यह सोच कर कि हमारे बच्चे जब बड़े होंगे तो इन हरे- भरे पेड़ों की छांह तले बैठ कर इसकी ठंडी हवा को महसूस कर हमें याद करेंगे कि हमारे दादा- परदादा ने हमारे बेहतर जीवनयापन के लिए ये पेड़ लगाये थे। पर आज के लोग अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए पेड़ तो नहीं लगाते बल्कि क्रांक्रीट के जंगल जरूर खड़े करते चले जा रहे हैं। ऐसे जंगल जो अगली पीढ़ी को मुसीबत के अलावा और कुछ नहीं देने वाले।
...तो मैं बता रही थी उत्तराखंड इन दिनों पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। वहां के रहने वालों से बात करने पर जानकारी मिली कि पहाड़ के नीचे रहने वाले तो फिर भी किसी तरह अपने लिए पीने के पानी का इंतजाम कर लेते हैं। जैसे नदी से या बोरिंग से। (यद्यपि नदी भी हमें सूखे ही मिले, क्योंकि छह दिन के इस पड़ाव में दो दिन हम स्वयं भी पानी की कमी से जूझे थे और नहाने के लिए नदी ही गए थे, जहां पर भी पानी बहुत कम था लगभग नहीं के बराबर) हम जिस इलाके में रूके थे वहां के लोग भी पहाड़ों से नीचे उतर कर बोरिंग से पीने का पानी भरकर ऊपर ले जाते थे। वैसे जिस बोरिंग से वे सब और हम भी पानी ले जाते थे उसकी खासियत यह थी कि उस बोरिंग को बगैर ओटे ही लगातार पानी आते रहता था इतना स्वच्छ कि मिनरल वाटर भी पीछे रह जाए। चूंकि वहां पानी पहाड़ों पर बसे घरों पर पहुंचाना होता था इसलिए पानी के उनके बरतन बहुत बड़े नहीं होते थे। मुश्किल से 5-7 लीटर पानी ही वे एक बार में ले जा पाते थे। ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां ही पानी भरने दूर- दूर से आती थीं। बिना पानी के कैसे गुजारा होता है पूछने पर वे लोग कहते थे पीने को पानी मुश्किल से मिलता है वहां नहाने की बात ही कहां उठती है हम तो कई कई दिन नहाते ही नहीं।
बहुत ही कम पानी में जीवन गुजारना हो तो वह पहाड़ में पानी की समस्या से जूझ रहे लोगों से सीखना होगा। हम शहरों के नलों में पानी के लिए लाइन लगाए लोगों को देखकर परेशान हो जाते हैं पर कोई इन पहाड़ में रहने वालों का दुख भी देखे जो पानी का मटका या पीपा लेकर ऊंची- ऊंची पहाडिय़ों पर चढ़ते- उतरते हैं। पिछले साल भी हम इसी इलाके में गए थे पर तब हालात आज से बेहतर थे। जंगल हरे- भरे थे। फलों की भरमार थी। लोग खुश नजर आते थे पर आज उनकी आंखों में निराशा साफ झलकती है।
वहां पिछले एक साल से वर्षा ही नहीं हुई है। इस वर्ष पहली बार उस क्षेत्र में तापमान 32 से 35 डिग्री तक गया। जंगल का एक बहुत बड़ा इलाका आग से जल गया है। पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेती करने वाले किसानों की हालत तो बहुत ही खराब है। पानी के अभाव में उनकी फसलें सूख रहीं हैं। सरकार ने ग्रीन हाऊस प्रोजेक्ट के माध्यम से वहां के किसानों को फायदा दिलाने की कोशिश की है पर पानी के अभाव में यह भी उनके फायदे का नहीं रहा। ग्रीन हाऊस के पौधों को बचाने के लिए वे पानी लाएं तो कहां से लाएं। पहाड़ों के सभी सोते सूख चुके हैं। पशु- पक्षी प्यासे भटक रहे हैं। मानसून के इंतजार में किसानों की आंखें पथरा गई हैं।
जाहिर है प्रकृति हमसे नाराज है। बेदर्दी से काटे जा रहे जंगल, नदियों पर बनाए जा रहे बांध, कल- कारखानों का फैलता जाल और भूजल का दोहन आदि सबने मिलकर आज ये हालात बना दिए हैं कि जिन पहाड़ों पर से झरनों के हजारों सोते नीचे आकर नदियों से मिल जाया करते थे वे पहाड़ आज उजाड़ हो गए हैं। मानसून भी इस बार 10 दिन विलंब से आया है और इस बरस इसके कमजोर रहने की संभावना भी बताई जा रही है।
याद रहे बिन पानी सब सून।
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