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Sep 10, 2011

उदंती.com-सितम्बर 2011

उदंती.com-सितम्बर 2011

आर्थिक युद्ध किसी राष्ट्र को नष्ट करने का एक सुनिश्चित तरीका है, उसकी मुद्रा को खोटा कर देना। (और) यह भी उतना ही सत्य है कि किसी राष्ट्र की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सुनिश्चित तरीका है, उसकी भाषा को हीन बना देना।... (लेकिन) यदि विचार भाषा को भ्रष्ट करते है तो भाषा भी विचारों को भ्रष्ट कर सकती है — जार्ज ओर्वेल
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अनकही: प्रकृति का प्रतिशोध - डॉ. रत्ना वर्मा
ओजोन दिवस: धरती का रक्षा कवच - नवनीत कुमार गुप्ता
मीडिया: पत्रकारिता महज धन्धा न रह जाये ... - एल. एन. शीतल
हिन्दी: मेरे वतन की खुशबू ... - देवी नागरानी
वाह भई वाह
संरक्षण: गिद्ध को बचाने की कोशिश - डॉ. चन्द्रशीला गुप्ता
सुरक्षा: आतंकवादी मंसूबे ताडऩे वाली मशीन?
पर्यटन: झील पर तैरती बस्तियां - पा.ना. सुब्रमणियन
बातचीत: मैं देवदास जैसा नहीं हूं - उर्विश कोठारी
लघु कथाएं: दम तोड़ता सच, मजबूरी, छोटा परिवार - संजय जनागल
कविता: मौका तो दो ... - पूजा शर्मा
कहानी: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
दंड का भेद: / पिछले दिनों
व्यंग्य: पद्मश्री सम्मान और मूंगफल्ली - रवि श्रीवास्तव
सेहत: वे हंसना सीख रहे हैं!
शोध: दर्द निवारक पेड़ ...
किताबें: छत्तीसगढ़ में राम वनवास की कथा
रंग बिरंगी दुनिया

गिद्ध को बचाने की कोशिश

- डॉ. चन्द्रशीला गुप्ता
पहले बीमार या बूढ़े मवेशी जंगल में गिद्धों के भोजन के लिए छोड़ दिए जाते थे लेकिन अब इन्हें बूचडख़ाने पहुंचा दिया जाता है साथ ही पशुओं के शव भी जंगल में फेंकने के बजाए हड्डियों के व्यापारियों को बेच दिए जाते हैं।
भारत में वर्ष 2009 गिद्ध की तीनों प्रजातियों के लिए शुभ रहा है। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) की पत्रिका हॉर्नबिल में खबर छपी कि पहली बार पत्तल चोंच गिद्धों ने प्रजनन केन्द्रों में सफलतापूर्वक जनन किया है, सफेदपीठ गिद्ध के तीन जोड़ों ने भी अपने परिवार में वृद्धि की है, और इनके दोनों बच्चे भी अच्छी तरह से हैं। गिद्ध संरक्षण संस्था के पिंजोर (हरियाणा) व राजभाटखाव (प. बंगाल) जनन केन्द्रों से इस अच्छी खबर के अलावा एक अन्य राहत देने वाली खबर थी कि रानी (असम) में एक और केन्द्र खुला है और चौथे केन्द्र के लिए मध्यप्रदेश में स्थान ढूंढा जा रहा है। म.प्र. में गिद्धों की संख्या 1250 आंकी गई है।
भारत में गिद्धों की 9 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें 6 प्रजातियों में तीन पत्तल चोंच (जिप्स टेन्युइरोस्ट्रिक), सफेद पीठ (जिप्स बेंगालेन्सिस) व देशी गिद्ध (जिप्स इण्डिकस) को आईयूसीएन ने अधिक जोखिमग्रस्त प्रजातियां माना है। ये साइट्स की अनुसूची 1 में दर्ज हैं। 2 प्रजातियां सर्दियों की मेहमान हैं।
करीब 20 वर्ष पहले तक देश में गिद्धों की संख्या 4 करोड़ थी मगर आज ये मात्र 60,000 के करीब रह गए हैं। इसका पता तब चला जब सन 1997 में बीएनएचएस की टीम ने घना अभयारण्य (भरतपुर) में सफेद पीठ गिद्ध के बहुत कम संख्या वाले समूह दिखे। सन 1990 में सफेद पीठ गिद्ध विका के शिकारी पक्षियों में सर्वाधिक पाए जाने वाले पक्षी थे, सन 2000 में भरतपुर में कोई जनन जोड़ा नहीं बचा था। सन 1996 से 2006 के बीच गिद्ध जनसंख्या में 97 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई। इतनी तेज गिरावट किसी भी प्रजाति में नहीं हुई है।
बीएनएचएस के गिद्ध जनन केन्द्र की टीम द्वारा सन 1992 से 2007 के बीच किए गए सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया कि तीनों प्रजातियों के गिद्ध कम हुए हैं लेकिन इस अवधि में सफेद पीठ एशियाई गिद्धों की संख्या 99.9 प्रतिशत कम हो गई। शेष दोनों प्रजातियों की कुल कमी 98.8 प्रतिशत रही। इस टीम ने डिक्लोफेनेक का उपयोग पूर्णत: बंद न होने पर इन तीनों प्रजातियों के नष्ट हो जाने की आशंका जताई।
सफेद पीठ गिद्ध सन 1992 में जहां लाखों में मौजूद थे वहीं 11 वर्ष में ये मात्र 11000 रह गए। देशी गिद्ध सन 2009 में 45000 रह गए और पत्तल चोंच गिद्ध मात्र 1000 बचे हैं। गिद्ध जनसंख्या में यह महाविपत्ति भले ही भरतपुर में देखी गई हो, यूएसए की एक टीम ने इसकी मूल वजह पाकिस्तान में खोजी। इस टीम को 1600 गिद्धों के शव वहां खेतों में मिले। उनके पोस्टमार्टम से पता चला कि मौत की वजह किडनी का फेल होना तथा शरीरांगों में सूजन थी। पेट के अंदर के अंगों पर यूरिक एसिड मिला था।
दरअसल वेटरनरी उपयोग में आने वाली दर्दनिवारक औषधि डिक्लोफेनेक के अंधाधुंध उपयोग को गिद्धों की इस हालत का जिम्मेदार पाया गया। मृतभक्षी गिद्ध जब किसी ऐसे पशु का मांस खाते हैं जिसे अधिक मात्रा में यह औषधि दी गई थी, तब यह औषधि गिद्धों के किडनी व लीवर में जमा होने लगती है जिससे अन्य अंगों पर यूरिक एसिड जमा हो जाता है। ज्यादातर मामलों में तो ऐसे शवों का मांस खाने के 75 घंटों के भीतर ही गिद्ध मर जाते हैं। गिद्ध की इन तीनों संकटग्रस्त प्रजातियों का भोजन पशुओं की किडनी व लीवर है अन्य प्रजातियां मांसपेशियां खाती हैं। यही वजह है कि वे अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।
बीएनएचएस द्वारा छेड़े गए अभियान के फलस्वरूप सन 2006 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस औषधि के वेटरनरी उपयोग पर प्रतिबंध लगाया व 3 माह की अवधि में इसे बाजार से पूर्णत: बाहर करने के निर्देश दिए। इस प्रतिबंध पर सख्ती से अमल की जरूरत है।
आठ अन्य वैकल्पिक औषधियां उपलब्ध होने के बावजूद चिकित्सक अब इंसानों वाली डिक्लोफेनेक पशुओं के लिए लिख रहे हैं। 2008 में डिक्लोफेनेक पर 'पशु चिकित्सा के लिए नहीं' लिखना अनिवार्य कर दिया गया। इसका भी पूरी तरह पालन नहीं हो रहा है। इस तरह डिक्लोफेनेक का पर्यावरण में प्रवेश जारी है। संरक्षण अधिकारियों का मानना है कि झोला छाप चिकित्सक ही डिक्लोफेनेक का उपयोग कर रहे हैं।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सहयोग से बीएनएचएस देश के गिद्ध क्षेत्रों में दर्द निवारक औषधियों की पड़ताल कर रहा है। इसके बाद डिक्लोफेनेक के इस्तेमाल पर जमीनी प्रतिबंध की कार्य योजना बनाएंगे। औषधि उद्योग को भी संरक्षण कार्य में शामिल करने की योजना बनाई जा रही है।
वजहें और भी हैं
मध्य भारत में किए गए एक शोध में सफेद पीठ गिद्ध के ऊतकों में अंतराकोशिकीय परजीवी मलेरिया परजीवी पाया गया। ये ऊतक डिक्लोफेनेक से मुक्त थे। दो बीमार गिद्धों में मलेरिया के लक्षण दिखाई दिए, मलेरिया के समुचित उपचार से ये स्वस्थ हो गए। जाहिर है, सफेद पीठ गिद्धों के लुप्त होने की अन्य वजहें भी हैं।
गिद्धों की ज्यादातर प्रजातियां अपना घोंसला ऊंची इमारतों, ऊंचे वृक्षों व खड़ी चट्टानों के दर्रों में बनाती हैं। इंसानी हस्तक्षेप व घटते जंगल इनके आवासों में कमी कर रहे हैं। एक अन्य वजह इनके भोजन में कमी है, पहले बीमार या बूढ़े मवेशी जंगल में गिद्धों के भोजन के लिए छोड़ दिए जाते थे लेकिन अब इन्हें बूचडख़ाने पहुंचा दिया जाता है साथ ही पशुओं के शव भी जंगल में फेंकने के बजाए हड्डियों के व्यापारियों को बेच दिए जाते हैं।
गिद्धों की विलुप्ति की चिंता में बीएनएचएस ने तीनों प्रजातियों के प्रजनन केन्द्र स्थापित करने की योजना बनाई औरतीन प्रजनन केन्द्र पिंजोर (हरियाणा), राजभाटखाव (प. बंगाल) व रानी (असम) में खोले। ये केन्द्र बी.एन.एच.एस., जुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन व राज्य शासन द्वारा संयुक्त रूप से चलाए जा रहे हैं। वैसे बीएनएचएस यहां वयस्कों की बजाए चूजों को ही लाकर रखता है। उसका कहना है कि चूजों का लालन- पालन यहीं होने से वे यहां सहज होकर प्रजनन कर पाते हैं। वयस्क अवस्था में लाने पर प्रजनन में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती है।
जनन केन्द्रों पर गिद्धों का प्रजनन कराना व चूजों को पाल पोस कर बड़ा करना बेहद मुश्किल काम है। ये स्वभाव से एकनिष्ठ प्राणी है व आजीवन जोड़ा बनाकर रहते हैं। साल में एक ही चूजा जनते हैं, चूजों को वयस्क बनने में 4 वर्ष का समय लगता है। वयस्कों को प्राकृतिक आवास में पुनस्र्थापित करना भी जोखिम भरा है क्योंकि वातावरण के डिक्लोफेनेक मुक्त होने की कोई गारंटी नहीं है। पत्तल चोंच गिद्ध का प्रजनन कराना तो सबसे मुश्किल है। प्रथम बार पिछले वर्ष 2 चूजों के जन्म से थोड़ी आस बनी है। तीनों जनन केन्द्रों पर 280 गिद्ध उपलब्ध हैं और तीनों प्रजातियों की जनन सफलता से संरक्षण के लिए प्रजनन केन्द्र स्थापना की नीति को समर्थन मिला है। अब गिद्धों का भविष्य एक ओर जनन केन्द्रों और दूसरी ओर पशु चिकित्सा में डिक्लोफेनेक के पूर्ण प्रतिबंध पर निर्भर है। जनन केन्द्रों में पले वयस्क गिद्धों का डिक्लोफेनेक मुक्त वातावरण में पहुंचने के मामले में दिल्ली दूर ही नजर आ रही है।
किडनी और लीवर खाने वाली ये तीनों गिद्ध प्रजातियां कोई शव प्राप्त होने पर पहले मांस खाने वाली प्रजातियों को मौका देती है ताकि लीवर- किडनी जैसे अंग स्वत: बाहर निकल आएं। जहां गिद्ध- भोज चल रहा होता है वहां पीछे की पंक्ति में बैठे कुछ गिद्ध अवश्य दिखेंगे। वे इन्हीं तीनों प्रजातियों के सदस्य होते हैं जो अपनी बारी का इंतजार करते बैठे होते हैं। वैसे पिछले 10-15 वर्षों से ऐसे दृश्य दुर्लभ हो रहे हैं।
गिद्ध कभी स्वस्थ जंतु पर हमला नहीं करते। हां, वे बीमार या घायल पशु को अवश्य मार डालते हैं। यही वजह है कि ये शिकारी पक्षी न कहलाकर सफाईकर्मी कहलाते हैं। इनकी दृष्टि व घ्राण क्षमता बड़ी तीक्ष्ण होती है। ये उड़ते- उड़ते अपेक्षाकृत ज्यादा दूरी या ऊंचाई से अपने शिकार को ताड़ लेते हैं और 1- 2 कि.मी. दूर से भी शवों को सूंघ लेते हैं।
जब कोई साबुत शव इन्हें मिलता है तो ये उसकी मोटी खाल उधेडऩे में अक्षम होने से किसी बड़े शिकारी, जैसे जंगली कुत्ते, भेडि़ए आदि का इंतजार करते हैं। वे थोड़ा खाकर शव को छोड़ जाते हैं, तब गिद्ध शव के समीप आते हैं। यही वजह है कि इनके भोज में एकाधिक प्रकार के प्राणी शामिल होते हैं। भरपेट खाने के बाद ये आराम से बैठकर या सोकर भोजन पचाते हैं। ये अपने शिशुओं के लिए भोजन नहीं ले जाते वरन् अपने आमाशय से उलटकर अधपचा भोजन खिलाते हैं।
गर्म क्षेत्रों के लिए गिद्ध सफाईकर्मी के रूप में बेहद जरूरी है क्योंकि इनके आमाशय में बेहद संक्षारक अम्ल होता है। यह हैजा या एन्थ्रेक्स जैसे विषाणुओं को भी नष्ट कर देता है। यह मांस अन्य सफाईकर्मी पक्षियों के लिए हानिकारक हो सकता है। ये अपने आमाशयी अम्ल का उपयोग खुद की रक्षा के लिए भी करते हैं- खतरा मंडराने पर शत्रु के सामने वमन करके डराते हैं। गिद्ध जनसंख्या में कमी से स्वच्छता एवं हाइजीन बनाए रखना आसान नहीं रहा है क्योंकि अब पशुओं के शव या तो चूहे या फिर जंगली कुत्ते खाकर नष्ट करते हैं। इन सफाईकर्मियों से रेबीज के बढऩे का खतरा है।
गिद्धों का धार्मिक व सामाजिक महत्त्व भी है। रामायण में रावण द्वारा सीताहरण कर ले जाने से रोकने में जटायु अपने प्राण न्यौछावर करता है। इस पक्षी की कमी से पारसी समाज बेहद चिंतित है। इस समाज की परंपरानुसार मृत्यु के बाद शवों को ऊंची मीनार पर रखा जाता है। गिद्ध यहां शव का मांस पूरी तरह से खाकर केवल हड्डियां शेष छोड़ते हैं। तिब्बतियों में भी यही परंपरा है। हाल ही में गिद्धों की कमी से चिंतित पारसी समुदाय ने इराक से बड़ी संख्या में गिद्ध आयात किए हैं।
नेपाल में कल्चर रेस्तरां नाम से एक प्रोजेक्ट शुरू किया गया है। एक बड़ा खुला चारागाह इसके लिए सुरक्षित रखा गया है जहां प्राकृतिक रूप से मरणासन्न या बेहद बीमार या बूढ़ी गायों को गिद्धों के भोजन के लिए रखा जाता है।
(स्रोत फीचर्स)

आतंकवादी मंसूबे ताडऩे वाली मशीन?

फास्ट झूठ पकडऩे वाली मशीन की ही तरह काम करता है और व्यक्ति के विभिन्न शारीरिक लक्षणों को रिकॉर्ड करता है - जैसे हृदय गति, निगाहों की स्थिरता ताकि उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज लगाया जा सके।
खबर है कि एक ऐसा यंत्र बनाया गया है जो यात्रियों के मन में पैदा हो रहे किसी भी दुर्भावना पूर्ण विचार को ताड़ लेगा। कहा जा रहा है कि इससे सुरक्षाकर्मियों को यह पता लगाने में मदद मिलेगी कि कहीं आप कोई अपराध तो नहीं करने वाले हैं।
नेचर पत्रिका के मुताबिक यू.एस. घरेलू सुरक्षा विभाग द्वारा आतंकवादी मंसूबों का पूर्वाभास करने वाले कार्यक्रम फ्यूचर एट्रिब्यूट स्क्रीनिंग टेक्नॉलॉजी (फास्ट) का प्राथमिक परीक्षण भी पूरा हो गया है।
दरअसल फास्ट झूठ पकडऩे वाली मशीन की ही तरह काम करता है और व्यक्ति के विभिन्न शारीरिक लक्षणों को रिकॉर्ड करती है - जैसे हृदय गति, निगाहों की स्थिरता ताकि उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज लगाया जा सके। मगर पोलीग्राफ टेस्ट और इसमें एक महत्त्वपूर्ण फर्क यह है कि फास्ट में व्यक्ति को स्पर्श किए बगैर ही ये सारी बातें जांचनी होती हैं, उदाहरण के लिए जब व्यक्ति हवाई अड्डे के गलियारे से गुजर रहा हो। इसमें व्यक्ति से पूछताछ की भी गुंजाइश नहीं है।
फिलहाल फास्ट का परीक्षण सिर्फ प्रयोगशाला में ही हुआ है और मैदानी परीक्षण का इंतजार है। परीक्षण का तरीका यह रहा है कि इस यंत्र के सामने से गुजरने से पहले कुछ व्यक्तियों को कहा जाता है कि वे कोई विध्वंसक कार्य करने की तैयारी करें। वैज्ञानिकों के सामने अहम सवाल यह है कि क्या इस तरह के व्यक्ति वास्तविक आतंकवादी के द्योतक हैं। इस बात को लेकर भी चिंता जाहिर की जा रही हैं कि जब लोगों को पता होगा कि ऐसा कोई यंत्र काम कर रहा है तो उनका व्यवहार बदल जाएगा। घरेलू सुरक्षा विभाग का कहना है कि प्रयोगशाला में किए गए परीक्षणों में इस यंत्र की सत्यता 70 प्रतिशत आंकी गई है।
इस संदर्भ में कई वैज्ञानिकों ने यह भी सवाल उठाया है कि क्या वास्तव में दुर्भावना पूर्ण मंसूबों का कोई अनूठा लक्षण होता है जिसे आप यात्रा के दौरान होने वाली सामान्य अफरा- तफरी से अलग करके देख सकें। देखा गया है कि यदि आप किसी के फिंगरपिं्रट भी लेना चाहें तो व्यक्ति की धड़कन बढ़ जाती है।
फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइन्टिस्ट के स्टीवन आफ्टरगुड का मत है कि इस टेस्ट से कुछ हासिल नहीं होगा, सिवाय इसके कि आपको खतरे की मिथ्या घंटियां सुनाई पड़ती रहेंगी, जिनके चलते आम नागरिकों के लिए यात्रा करना एक दुखदायी अनुभव बन जाएगा। उनके हिसाब से यह मान्यता ही गलत है कि दुर्भावना का कोई शारीरिक या कार्यिकीय पहचान चिन्ह होता है। इस तथ्य के मद्देनजर यह कवायद एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है।

झील पर तैरती बस्तियां

- पा.ना. सुब्रमणियन
दक्षिण अमरीका की सबसे ऊंची और लम्बी पर्वत श्रंृखला 'एंदेस (हिमालय के बाद यही पृथ्वी पर सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला है) उस महाद्वीप के उत्तर से दक्षिण तक लगभग 7000 किलोमीटर लम्बी है। इसी पर्वत के ऊपर दुनिया का सबसे ऊँचाई में स्थित (समुद्र तल से 3810 मीटर- 12580 फीट) नौचालन योग्य झील 'टिटिकाका' भी है जो लगभग 180 किलोमीटर लम्बा है। इस झील का बड़ा हिस्सा पेरू में समाहित है जबकि एक हिस्सा बोलीविया के अन्र्तगत भी आता है। 13 वीं से लेकर 16 वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में 'इनका' सभ्यता फल फूल रही थी।
इस झील में एक विस्मयकारी बात जो दिखाई देती है वह है वहां के तैरते हुए टापू। उस इलाके में एक जनजाति 'उरो' हुआ करती थी जो इन्काओं से भी पहले की थी। बाहरी आक्रमण से अपने आपको बचाने के लिए उन्होंने एक नायाब तरीका ढूँढ निकाला। इसके लिए सहायक हुई वहां झील के किनारे उगने वाली एक जलीय वनस्पति (रीड-मुश्कबेंत) avsscv अंग्रेजी में Scirpus totora कहा गया है। एक प्रकार से यह हमारे भर्रू वाला पौधा ही है जो लगभग 8/10 फीट तक ऊंचा होता है। अन्दर से पोला। समझने के लिए कह सकते हैं कि पतला सा बांस जिसे बेंत सरीखे मोड़ा भी जा सकता हो। इन लोगों ने इस तोतोरा को काट- काट कर एक के ऊपर एक जमाया जिससे एक बहुत ही मोटी परत या प्लेटफोर्म बन जाए। आपस में उन्हें जोड़ कर वाँछित लम्बा चौड़ा भी बना दिया। यह पानी पर तैरने लगी। इसे इतना बड़ा बना दिया कि उस पर अपनी एक झोपड़ी भी बना सकें। अब उनकी झोपड़ी पानी पर तैरने लगी। तोतोरा की एक खूबी यह भी है कि पानी में रहते हुए उनकी जड़ें निकल कर आपस में एक दूसरे को गूँथ भी लेती हैं। जब नीचे का भाग सडऩे लग जाता तो ऊपर से एक और परत तोतोरा की बिछा दी जाती। इस तरह यह प्लेटफोर्म कम से कम 30 वर्षों तक काम में आता है। वैसे वे लोग इन झोपडिय़ों में किनारे ही रहा करते थे और अपने प्लेटफोर्म को किनारे से बांधे रखते थे परन्तु जब भी उन्हें बाहरी लोगों के आक्रमण का डर सताता तो वे किनारा छोड़ कर झील में आगे निकल जाते थे जैसे हम अपनी नावों को करते हैं। हाँ ये लोग तोतोरा की डंठलों से अपने नाव का भी निर्माण करते हैं। समुद्र में जाने योग्य बड़े- बड़े नाव इस तोतोरा से बनाये जाने का भी उल्लेख मिलता है। तोतोरा केवल उरो लोगों की ही नहीं बल्कि झील के किनारे रहने वालों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। जिस प्रकार बांस से हम दैनिक उपयोग की वस्तुएं, कलात्मक सामग्रियां आदि बनाते हैं, वैसे ही तोतोरा का भी प्रयोग होता है।

तोतोरा की एक खूबी यह भी है कि पानी में रहते हुए उनकी जड़ें निकल कर आपस में एक दूसरे को गूँथ भी लेती हैं। जब नीचे का भाग सडऩे लग जाता तो ऊपर से एक और परत तोतोरा की बिछा दी जाती।

इसी तकनीक को आधार बनाकर टिटिकाका झील में बड़े- बड़े द्वीप बना दिए गए हैं जिनमें कई झोंपडिय़ाँ बनी हुई हैं। उरो जनजाति के तो लगभग 1000 लोग ही जीवित हैं परन्तु इन द्वीपों में बसने वाले उनमें से आधे ही हैं। कहा जाता है कि उरो जनजाति के लोगों का खून काला होता था (शायद हमारे काले गुलाब की तरह) जो उन्हें वहां उस जानलेवा ठंडे पानी के ऊपर जीने के लिए सहायक हुआ करता था। शुद्ध उरो मूल की अंतिम महिला का निधन 1959 में हो गया था और आज जो वहां बसते हैं वे 'ऐमारा' और 'इनका' से मिश्रित वर्ण के हैं। फिर भी वे उरो परंपरा को संजोये हुए हैं। उनकी भाषा भी अब बदल कर ऐमारा लोगों की हो गयी है।
मूलत: उरो लोग तो बड़े ही शर्मीले प्रकृति के रहे हैं परन्तु आज जो उनके वंशज तितिकाका के बड़े- बड़े द्वीपों जैसे तोरानिपाता, हुआका, हुअकानि, सांता मारिया आदि में रह रहे हैं वे वास्तव में एकदम आधुनिक हैं। आलू और बार्ली की खेती करते है, मछलियों और पक्षियों का शिकार भी करते हैं। उन्हें मालूम है कि कैसे उनकी जीवन शैली को देखने के लिए बाहरी लोगों को जुटाया जाए। उन्होंने अपने द्वीपों में पर्यटकों के रहने के लिए भी कमरे बना रखे हैं। सर्वसुविधायुक्त। उनके स्वयं के घरों में भी सभी आधुनिक संसाधन उपलब्ध हैं जैसे फ्रीज, डिश टीवी वगैरह। बिजली के लिए इन्होंने सौर ऊर्जा के संयंत्र लगा रखे हैं। पर्यटक वहां रहें, उनके साथ नाचे गाएं, उनका खाना खाएं। लेकिन एवज में अपनी गाँठ भी ढीली करें।
इन लोगों की तैरती बस्तियों तक पहुँचने के लिए हमें पूनो जाना होगा जिसे टिटिकाका का प्रवेश द्वार कहते हैं। यहाँ से मोटर बोट मिलते हैं जिनमें आगे की यात्रा की जाती है। पूनो जाने के लिए पेरू की राजधानी लीमा से नियमित उड़ाने उपलब्ध हैं। पूनो के पास वाला हवाई अड्डा जुलियाका कहलाता है। अब जब पेरू जा ही रहे हैं तो वहां 'माचू पिच्चु' भी देख आना चाहिए। पहाड़ों पर 'इनका' लोगों के द्वारा बसाया गया प्राचीन नगर जो विश्व के सात नए आश्चर्यों में से एक है। यदि ऐसा कार्यक्रम बनता है तो लीमा से 'कुज्को' की उड़ान भरनी होगी। कुज्को से रेलगाड़ी चलती है और पूनो तक आती भी है। इस तरह एक पंथ दो काज। माचू पिच्चु भी देख लेंगे। आप धोखे में न रहे। हम यहाँ कभी नहीं गए परन्तु सपना तो देख ही सकते हैं।
संपर्क: 23, यशोदा परिसर, कोलार रोड, भोपाल (मप्र) मो. 09303106753


70 वर्ष पूर्व प्रकाशित: कुन्दन लाल सहगल से बातचीत

मैं देवदास जैसा नहीं हूँ
- उर्विश कोठारी
मेरे चाहने वाले सिनेमा फैन मुझे देखकर खुश होते है, इससे मुझे भी खुशी मिलती है लेकिन वह मुझे इस तरह से जानने लगें तो बेहद दु:ख नहीं होगा? मैं देवदास जैसा गया गुजरा नहीं हूं। परदे के देवदास की तरह मैं जिंदगी को जुआ मानकर नहीं चलता, ना ही उसकी तरह अनिश्चित और अस्थिर जिंदगी जीता हूं।
सहगल के सीने में देवदास का दर्द है। इसलिए वह देवदास का किरदार बखूबी निभा सके... अपनी जिंदगी में भी सहगल का खुद पे काबू नहीं था... यही वजह है कि देवदास को परदे पर जिंदा करने में वह कामयाब हुए। सहगल इस दुनिया में रहते हुए भी पारो और चंद्रा (चंद्रमुखी) की झांकी कर सके थे। इसलिए वह इत्मीनान से परदे पर अपना रोल अदा कर गए।
ऐसी कई कथाएं देवदास की सफलता के बाद सहगल के बारे में कही- सुनी गई। कुछेक दर्शक देवदास के सहगल की मिसाल लेकर खुद देवदास बन बैठे। तब से सहगल को मिलने की बेकरारी पैदा हुई थी। परदे के देवदास का दिल टटोलने की इच्छा भी वहीं से जागी थीं। आखिरकार वह मुझको खींच ले गई कलकत्ता के कलाधाम न्यू थियेटर्स तक-
- मैं आपके इंटरव्यू के लिए खास बम्बई से आया हूं और ...
0 वो तो सब ठीक है लेकिन मेरा पता आपने कहां से ढूंढा? कलकत्ता में रहने वाले को भी मेरा अता- पता मालूम नहीं और आप हैं कि बम्बई से सीधे मेरे घर पहुंच गए। मुझे सचमुच ताज्जुब होता है।
- ऐसी बात नहीं। सबसे पहले मैं स्टूडियो गया था और वहां पर मि. सोरेन सेन को मिला।
0 समझा। अब फरमाइए, आप जो भी पूछना चाहते हैं...
- आपके बारे में कई लोग सोचते हैं कि ...
0 ओ हो, लोग मेरे बारे में सोचते भी हैं? अच्छा, उनका क्या अभिप्राय है?
- कुछ लोग मानते हैं कि देवदास का किरदार आप इसलिए अच्छी तरह से कर सके क्योंकि...
0 मेरी योग्यता के सिवा और कोई कारण हो सकता है भला? लोगों ने कोई नया कारण ढूंढ निकाला है? वो भी बताइए मुझे।
- ... कि आप असल में देवदास की जिंदगी जी रहे हैं। इसलिए आप देवदास की भूमिका में तन्मय हो सके।
0 यानि लोग ऐसा मानते हैं कि मैं दूसरा देवदास हूं।
- हां, कुछ ऐसा ही समझिए।
0 भई, ये तो मेरे पर खुला आरोप है। मेरे चाहने वाले सिनेमा फैन मुझे देखकर खुश होते है, इससे मुझे भी खुशी मिलती है लेकिन वह मुझे इस तरह से जानने लगें तो बेहद दु:ख नहीं होगा? मैं देवदास जैसा गया गुजरा नहीं हूं। परदे के देवदास की तरह मैं जिंदगी को जुआ मानकर नहीं चलता, ना ही उसकी तरह अनिश्चित और अस्थिर जिंदगी जीता हूं। औरों की तरह मैं भी एक गृहस्थ हंू। अपनी बीवी और बाल बच्चों के साथ सुख चैन से जिंदगी बिताता हूं। स्टूडियो से बाहर निकलने के बाद और किसी चीज के बारे में सोचता नहीं। फिर भी लोग जब मुझ पे ऐसा इल्जाम लगाएं तो मुझे दु:ख नहीं होगा?
- सहगल की बात सुन कर मेरे मन में भी उनके लिए हमदर्दी पैदा हुई। मेरे सवाल से उनको दु:ख हुआ होगा, यह सोच मुझे पछतावा हुआ। फिर भी उनको बुरा लगा या नहीं, ये जानने के लिए मैंने उनसे पूछा, यह सवाल तो मैंने सिर्फ इण्टरव्यू को रसिक बनाने के लिए ही किया था। मुझे डर है कि आप कहीं इसका उलटा अर्थ न लगाएं।
0 नहीं दोस्त, यह तो ठीक ही हुआ कि एक तरह से बात साफ हो गई। इसके बाद लोग मुझे देवदास न समझें तो मुझे बड़ी खुशी होगी।
- अच्छा आपका पूरा नाम?
0 कुन्दल लाल सहगल
- आप इस दिशा में किस तरह आकर्षित हुए?
0 सच कहूं तो मुझे कभी इसका आकर्षण नहीं हुआ। मुझे घसीटा गया था, ऐसा भी कह सकता हूं। सन् 1930 में बतौर रिप्रजेन्टेटिव, रेमिंगटन टाइपराइटर कंपनी में कलकत्ते आया। उस वक्त मि. सरकार से मेरी ऐसे ही मुलाकात हुई। हम मिले तब वह एक फिल्म कंपनी निकालने की सोच रहे थे। मशीनरी के आर्डर दिए जा चुके थे। सिर्फ स्टूडियो तैयार नहीं हुआ था। एक दिन मि. हाफिज, मि. काजी और मि. पंकज मलिक संगीत की चर्चा कर रहे थे। मुझमें बचपन से गाने की लगन है, ऐसा कहना ठीक होगा। जब कभी फुर्सत मिले तो मेरी जुबां पे कोई गीत या कोई धुन रहती थी। मेरे ऐसे स्वभाव के बारे में लोग जानते थे। इसलिए चर्चा पूरी होने के बाद उन्होंने मुझे नई कंपनी में आने की आफर की। क्या मालूम क्यों लेकिन उस वक्त मैं उनकी कंपनी में बतौर एक्टर जाने के लिए राजी नहीं था। बाद में उन्होंने मुझको बहुत समझाया, अच्छे प्रास्पेक्ट्स के बारे में बड़ी- बड़ी बातें कीं। तब जाकर मैंने उनकी बात मानी। लेकिन शुरुआती दिनों में मुझे काफी कठिनाइयां झेलनी पड़ी क्योंकि मेरे माता- पिता बिल्कुल ही नहीं चाहते थे कि मैं फिल्मों में जाऊं। फिर भी मैं इस दिशा में दाखिल हो ही गया।
- इतना कहकर मि. सहगल सिगरेट पीने के लिए रुके। मैंने उनसे सवाल किया। आपने शास्त्रीय संगीत का अभ्यास किया है?
0 संगीत की तालीम तो मैंने ली ही नहीं। अपने हिसाब से मैंने गाना शुरु किया और गाने लगा। एक दिन दिलचस्प वाकया हुआ। उस्ताद फैयाज खां यहां आए थे। उन्होंने मुझे सूचित किया कि कोई उस्ताद तो रखना ही चाहिए। उस पर मैंने उन्हें कहा, आप ही मेरे उस्ताद बन जाइए। और मैंने उनको अपना उस्ताद मान लिया।
- आपकी पहली फिल्म कौन- सी थी?
0 मोहब्बत के आंसू
- आपको अपनी कौन- सी फिल्म सब से ज्यादा पसंद है?
0 यह तय करना मेरा काम नहीं, अपनी फिल्मों को मैं कभी क्रिटिसाइज नहीं करता। यही नहीं, मैं कभी अपनी फिल्म देखने के लिए भी नहीं जाता। आज तक अपनी सिर्फ एक ही फिल्म मैंने देखी है।
- स्टूडियो लाइफ के बारे में आपका क्या ख्याल है?
0 मुझे तो यह गे लाइफ लगती है। जो लोग निष्ठापूर्वक काम करने की प्रवृत्ति रखते हैं, उनको किसी भी प्रकार की नुक्ताचीनी करने की फुर्सत ही नहीं। जो लोग खुद पर काबू नहीं रख पाते वो (स्टूडियो) लाइफ के बारे में कुछ भी बोलते हैं। सच कहें तो कुछ लोग गंदी सोच के साथ ही सिनेमा की ओर जाते हैं। फिल्मी कंपनियां आगे नहीं बढ़ पातीं इसका कारण यही है। इसी वजह से अपना फिल्म उद्योग अधोगति की ओर जा रहा है।
- आपको कैसी भूमिका पसंद आती है?
0 यह बात ही मेरे लिए नई है। कुछ रोल मुझे पसंद हैं और कुछ नहीं, ऐसा मैंने कभी सोचा ही नहीं। अगर कोई यह कहता है कि फलां रोल सिर्फ मैं ही कर सकता हूं तो यह अहंकार है। मैं अहंकार में नहीं, सेवा भाव के साथ काम करता हूं। मैं हमेशा किसी भी प्रकार की भूमिका मिले, ऐसी अपेक्षा करता हूं।
- तब तो विद्यापति में सान्याल का रोल अगर आपको मिलता तो आप उसे ज्यादा इंसाफ दे सकते?
0 हां, अगर वह काम मेरे हिस्से में आया होता तो सान्याल की बराबरी करने में शायद मैं कामयाब हो सकता था।
- मि. बरुआ और मि. नितिन बोस- इन दोनों में से आपके हिसाब से कौन अच्छा डायरेक्टर है?
0 दोनों अच्छे हैं, दोनों के पास अपनी- अपनी श्रेष्ठता है। - आपको लीला देसाई का काम अभिनय की हैसियत से कैसा लगता है?
0 आशास्पद, प्रेसीडेन्ट और दुश्मन दोनों चित्रों में मैंने उनके साथ काम किया था। मुझे उनके काम से तसल्ली हुई।
- कुछ लोग मानते हैं कि दुश्मन में लीला देसाई की बजाए कानन देवी ने आपके साथ काम किया होता तो ज्यादा अच्छा होता। आप ऐसा मानते हैं?
0 मुझे लगता है कि आप अटपटे सवाल पूछने के आदी हैं। कुछ भी हो, मैं सवाल का जवाब इस तरह से दूंगा। कानन के साथ काम करना मुझे ज्यादा अच्छा लगता है। इसलिए शायद आप जो कहते हैं ऐसा हो सकता था लेकिन लीला देसाई के साथ काम करके मुझे असंतोष हुआ है, ऐसा कहने के लिए मैं तैयार नहीं।
- आपको कैसी फिल्में ज्यादा पसंद आती हैं?
0 मुझे सोशल पिक्चर ज्यादा पसंद हैं। स्टंट फिल्मों को मैं बिल्कुल ही पसंद नहीं करता। समाज की समस्याओं का अच्छा- सा हल निकालें, ऐसी फिल्में ज्यादा पसंद की जाएंगी, ऐसी मेरी मान्यता है। फिर भी जनता की रसवृत्ति (रूचि) के बारे में कुछ कहना कठिन है। कभी सामाजिक चित्रपट अच्छा लगता है तो दूसरी बार कोई और। उनको प्रभात फिल्म कंपनी के ऐतिहासिक चित्र भी पसंद आते हैं और न्यू थियेटर्स की सामाजिक फिल्में भी उनको चाहिए, लेकिन इतना तो मैं तय मानता हूं कि पुराणकालीन (पौराणिक) फिल्मों का जमाना नहीं रहा। अब तो सिर्फ संदेशात्मक फिल्मों की ही आवश्यकता है...
- काननबाला और शांता आप्टे में से आप किसको श्रेष्ठ हीरोइन मानते हैं?
0 ये कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि अब तक मैंने शांता आप्टे के साथ कभी काम नहीं किया। हां इतना कह सकता हूं कि कुछ अभिनेत्रियां ज्यादा सेल्फिश होने के कारण पूरा फायदा अपने हिस्से में खींच लेती है। हीरो केरेक्टर के बारे में वह कभी नहीं सोचती। ऐसी अभिनेत्रियों के साथ करने में दिक्कत होगी। ये तो स्वाभाविक है।
- मुम्बई फिल्म कंपनियों के बारे में आपका क्या अभिप्राय है?
0 मेरा यह कम भाग्य (दुर्भाग्य) है कि मैं आपके सवाल का जवाब नहीं दे सकता। मेरी आंखें इतनी खराब है कि मैं फिल्म देख ही नहीं सकता। अगर मैं फिल्म हाउस में दो घंटे तक बैंठू तो मेरे सर में दर्द होगा। इसलिए आपके सवाल का मैं ठीक से जवाब नहीं दे सकता।
- मैं अगला सवाल पूछने ही वाला था कि उन्होंने बीच में मुझसे कहा...
0 मुझे लगता है कि आप ढेर सारे सवाल पूछने की ठान कर आए हैं। मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन हम बीच में थोड़ी सी चाय पी लें तो आपको कोई एतराज तो नहीं होगा? (ऐसा कहकर मि.सहगल ने एक बंदे को चाय लाने का हुक्म दिया। )
- चाय पीते- पीते मैंने पूछा, अब तक के आपके किरदारों में से आपको सबसे ज्यादा कौन-सा किरदार पसंद है।
0 आप शायद ये मानते होंगे कि लोगों को मेरे रोल से जितना संतोष हुआ है उतना मुझे भी हुआ होगा लेकिन सच कहूं तो अब तक एक भी कैरेक्टर से मैं संतुष्ट नहीं हूं। मुझे जो चाहिए वो अब तक मिला नहीं। अपने वास्तविक जीवन की कुदरती छवि जब तक परदे पर नहीं आती, तब तक छायाचित्रों में क्या मजा, ऐसा मेरा मानना है। आज तक ऐसा वातावरण मेरे लिए दुर्लभ रहा है, इसीलिए मैं तो कहूंगा अब तक अपने काम में मैं सफल नहीं हूं।
- मि. बरुआ को आप अच्छा अभिनेता मान सकते हैं?
0 अभिनय तो उनके लिए सिर्फ हॉबी है। वह महान डायरेक्टर है, ऐसा मैं जरूर मानता हूं।
- आपकी पढ़ाई कहां तक हुई?
0 यह सवाल आपने ना ही पूछा होता तो अच्छा था क्योंकि कोई डिग्री पा सकूं, उतना अभ्यास मैंने किया ही नहीं। इतनी अंग्रेजी जानता हूं कि मेरा काम होता रहे। बाकी घर में अभ्यास कर के अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाने की खास कोशिश करता हूं। मेरे नाम आने वाले खतों में जब कभी बी.ए. लिखा हुआ देखता हूं तो मुझे ताज्जुब होता है।
- आपकी पैदाइश कलकत्ता में हुई थी?
0 नहीं, जम्मू (कश्मीर) में। बड़ा भी वहीं पर हुआ। लाहौर में थोड़ी बहुत पढ़ाई की।
- आप कौन- सी जाति से हैं?
0 हिन्दू क्षत्रिय।
- आपकी उम्र कितनी है?
0 35 साल
- शादीशुदा है?
0 वह तो मैंने पहले बताया। फिर भी यदि आप सुनना चाहें तो, मैं शादीशुदा हूं। ईश्वर कृपा से एक बच्ची और एक बच्चा है। मेरे पिताजी का देहान्त हो चुका है। मेरी माता जी मेरे साथ रहती है। इससे ज्यादा कुछ पूछना चाहें तो खुशी से पूछिए।
- फर्ज कीजिए कि अगर इस क्षेत्र में न होते तो आज आप क्या काम कर रहे होते?
0 तो आज मैं रेमिंगटन टाइपराइटर कंपनी के रिप्रजेन्टेटिव की हैसियत से कलकत्ते की सड़कों पर हाथ में बैग लिए घूमता नजर आता।
- अपनी हॉबीज के बारे में कुछ कहिए।
0 सुनिए, फिल्में तो मैं देखता नहीं, मुझे पढऩे का और घुड़सवारी का शौक है, इसलिए उन्हीं में मसरू$फ रहता हूं। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि मेरे कोई और शौक हैं।
- अधिकार फिल्म आपको कैसी लगी?
0 क्लासिक, लेकिन लोगों को शायद यह पसंद न आई हो क्योंकि उसके डायलाग जरा कठिन हैं। उनको समझने की कोशिश करनी चाहिए। जब तक डायलाग ठीक से समझ में नहीं आते, पिक्चर की असली खूबियां भी समझ नहीं सकते।
- स्टूडियो से बाहर निकलने के बाद किस तरह से आप अपना बाकी वक्त बिताते हैं?
0 घर में ही बैठा रहता हूं। पढ़ता हूं। अगर कुछ न सूझे तो सो जाता हूंं। लोग अक्सर दोपहर और रात को- दो बार सोते हैं लेकिन मैं तो तीन बार सोने का आदी हूं। सुबह मैं जल्दी उठ कर घुड़सवारी के लिए जाता हूं। वापस आ कर तीन घंटे सो जाता हूं। इसके बाद थोड़ा बहुत पढ़ के खाना खा लेता हूं और फिर सो जाता हूं। इस तरह शाम हो जाती है और मैं खाना खा कर फिर सो जाता हूं। मैं बहुत आलसी हूं, है ना ? आप के चेहरे पर से मैं देख सकता हूं कि जो पूछना था, वह सब कुछ आप पूछ चुके है कि नहीं?
- मैं भी थोड़ा हंस के मि. सहगल से सहमत हुआ।
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के एल सहगल का यह सम्भवत: एक मात्र प्रकाशित विशेष वार्तालाप है जो 23 अप्रैल 1939 के गुजराती साप्ताहिक 'बे घड़ी मोज' (संपादक: शयदा- गुजराती भाषा के गजलगों एवं उपन्यासकार) में प्रकाशित हुआ था। गुजराती के हास्य कथा लेखक ज्योतिन्द्र दवे (1901-1980) के जीवन एवं लेखन पर पिछले कई वर्षों से शोध कार्य में लिप्त उर्विश कोठारी (अहमदाबाद) को गुजराती भाषा में प्रकाशित बे घड़ी मोज के एक अंक में उपरोक्त साक्षात्कार पढऩे को मिला। मात्र 200 (लगभग) गीतों- भजनों के बल पर अमरता हासिल कर चुके सहगल साहब का देहान्त 18 जनवरी 1947 को जलन्धर में हो गया था। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप 70 वर्ष पूर्व प्रकाशित उपरोक्त साक्षात्कार का उर्विश कोठारी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद लिस्नर्स बुलेटिन (मासिक पत्रिका) हर मंदिर सिंह 'हमराज' के संपादन में फरवरी 2011 के अंक में प्रकाशित किया है।
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दम तोड़ता सच

दम तोड़ता सच- संजय जनागल
गुलाम को गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि बस स्टेण्ड पर बम फटने से पहले वह वहाँ पर खड़ा था। बस स्टेण्ड पर उस समय केवल वह एक ही मुसलमान था। इसलिए शक उस पर गया। अंधेरे कमरे में गुलाम को घेरे पुलिस अधिकारी बोले, 'बता इस घटना के पीछे किसका हाथ है?'
'साब मैं सच कह रहा हूँ। मुझे इस बम के बारे में कुछ भी पता नहीं?'
आंखे तरेरकर साहब बोला, 'तो फिर ये बता कि तू पाँच बजकर पाँच मिनट पर बस स्टेण्ड पर कैसे खड़ा था?'
'साहब मैं तो वहाँ पर अपने बच्चे रहमान की स्कूल बस का इंतजार कर रहा था।' गुलाम ने रोते हुए कहा।
'तड़ाक- तड़ाक, धम- धम' सभी पुलिस अधिकारियों ने हाथ साफ किये। 'साले झूठ बोलता है' कहते हुए सभी अफसरों ने मार-मार कर उससे गुनाह कबूल करवाया। गुनाह कबूल करने के बाद उसे जेल में एक तरफ पटक दिया गया।
एक कोने में सिसकता गुलाम जेल की छत की तरफ देखते हुए मन में सोचने लगा, 'मेरे खुदा, यह कौन से गुनाह की सजा है जो तू मुझे दे रहा है।' फिर जोर-जोर से रोने लगा। उसकी आवाज जेल की दीवारों में ही दब कर रह गई।
दूसरे दिन अखबार के मुख्य पृष्ठ पर पुलिस अधिकारियों के बहादुरी के किस्से और इनाम की घोषणाएँ छपी- कि उन्होंने एक खूंखार आतंकवादी को पकडऩे में सफलता प्राप्त की है।

मजबूरी

मैंने पीएचडी करने की सोची। दिनों-दिन पीएचडी करने की तृष्णा बढऩे लगी थी। हर किसी से इसके बारे में चर्चा करता, लेकिन कोई राह दिखाई नहीं दी। काफी मशक्कत के बाद एक सर ने हाँ भर दी। फोन पर बात की तो कहा घर आ जाना बात कर लेंगे। दो दिन बाद घर आने को कहा।
दो दिन बाद घर के आगे खड़ा डोर बेल बजा रहा था। अन्दर से एक लड़के ने दरवाजा खोला। मुझे ड्राइंग रूम में बिठाया। मैं वहाँ बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर के बाद वो लड़का पानी लेकर आया और फिर मेरा नाम पूछा और काम भी।
फिर वह पुन: अंदर चला गया। करीब आधे घण्टे बाद उस लड़के ने बताया कि सर किसी काम में उलझे हुए हैं इसलिए आज नहीं मिल सकेंगे, मुझे कल आने को कहा गया। मैंने जाने से पहले उस लड़के से पूछा, 'आप कौन है?'
लड़के ने कहा, 'मैं सर के गाइडेन्स में पीएचडी कर रहा हूँ।' लड़के का उत्तर सुनकर मेरे पांव वहीं जम गये। चाहते हुए भी मैं चल नहीं पाया।
असमंजस में पड़ गया कि पीएचडी के लिए दोबारा पूछने आऊँ या नहीं।

छोटा परिवार

लड़की के लिए लड़का तलाश रहे राधे ने दोस्त को अपनी व्यथा बतायी-'मोनू यार क्या बताऊँ? लड़की का रिश्ता कहीं तय हो तो लड़के के बारे में सोचूं?'
'आखिर किस तरह का लड़का चाहिये तुझे?' मोनू ने पूछा।
'मैं चाहता हूँ कि मेरी बेटी को छोटा परिवार मिले। जहां तक हो लड़का एक ही हो और ज्यादा से ज्यादा, बस दो। जो भी लड़का नजर में आता है उसका परिवार बड़ा ही होता है। माँ-बाप, दादा-दादी, दो भाई, दो बहिनें। पूरा संयुक्त परिवार ही मिलता है। आखिर करूँ तो क्या करूँ?'
मोनू ने अपना हाथ राधे के कंधे पर रखते हुए कहा, 'देख यार जिस तरह तू अपनी लड़की के लिए छोटे परिवार की तलाश कर रहा है, उसी प्रकार दूसरे लोग भी अपनी- अपनी लड़कियों के लिये छोटे-छोटे परिवार ढूँढ रहे हैं। परन्तु तू मुझे बस एक बात बता, अगर बच्चे माता-पिता को अपने साथ नहीं रखेंगे तो आखिर बूढ़े माँ-बाप कहाँ जायेंगे? परिवार तो बढ़ेगा ही। तुझे तो बल्कि संयुक्त परिवार में ही अपनी बेटी देनी चाहिए।'
मोनू की बात सुनकर राधे को अपने बूढ़े माँ-बाप का ख्याल आया जिन्हें पिछले सप्ताह ही वृद्धाश्रम में छोडऩा पड़ा था क्योंकि लड़की के पिता की शर्त थी कि परिवार छोटा होना चाहिए और उनका लड़का-लड़की से प्यार भी करता था।

संपर्क: सूचना सहायक, सचिव, मुख्यमंत्री कार्यालय,
सचिवालय, जयपुर, मो. 7597743310
ईमेल: rjlabsanjay@gmail।com



प्रकृति का प्रतिशोध

यह तो हम सब जान ही गए हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ मानव सभ्यता के विनाश का कारण है। जब भी हमने प्रकृति के नियमों में दखलअंदाजी की है प्रकृति ने बाढ़, सूनामी, भूकंप जैसी विनाशकारी आपदाओं के जरिए हमें दंड दिया है। इन दिनों सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रकृति की नाराजगी के रूप में हमें इशारा कर रही है कि हमने अब भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो मानवता का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
प्रकृति के साथ जिस तरह का व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का व्यवहार वह भी हमारे साथ कर रही है। दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा यह नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि इस बार हम मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद बाढ़ और बारिश का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाए जिससे कि लोगों के जान-माल की पर्याप्त सुरक्षा की जा सके। मौसम विभाग के अनुसार भारत में सितम्बर के आरंभ में मानसून समाप्त हो जाता है लेकिन इस वर्ष यह आज तक जारी है, यही नहीं यह मानसूनी वर्षा अक्टूबर तक भी खिंच सकती है, जो असमान्य बात है।
दिल्ली में एक ही दिन तीन घंटे तक हुई बारिश में इतना पानी बरस गया जितना पूरे महीने में बरसता है। परिणामत: दिल्ली की सभी सड़कें नदियों में परिवर्तित हो गईं। यहां तक कि सबसे आधुनिक हवाई अड्डा ढाई फुट पानी में डूब गया। आज कुछ ही घंटों की बारिश में रेल, बसें सभी कुछ बंद हो जाती हैं जिससे जन- जीवन अस्त- व्यस्त हो जाता है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार जैसे अनेक राज्यों में इस वर्ष हुई बाढ़ की तबाही से जान- माल का इतना भयानक नुकसान हुआ है कि उसका अनुमान लगाना भी संभव नहीं है।
ऐसा ही कुछ मंजर पूरे एशिया में नजर आया है पाकिस्तान का सिन्ध क्षेत्र और थाईलैंड जैसे देश भयानक बाढ़ की आपदा से ग्रसित हैं। सिन्ध में बाढग़्रस्त पीडि़तों की संख्या 65 लाख से ज्यादा हो गई है। और चीन की बात करें तो वहां के इतिहास में सबसे विकराल बढ़ इस बार आई है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वहां 12 करोड़ 30 लाख लोग बाढ़ से पीडि़त हैं। प्रकृति अपना रंग कैसे- कैसे दिखाती है उसका ज्वलंत उदाहरण है भूटान जहां एक हिस्से में तो बाढ़ ने तबाही मचा दी पर वहीं दूसरे हिस्से को जरा भी नुकसान नहीं पंहुचा। वैज्ञानिक उसका एकमात्र कारण उस हिस्से के जंगलों का बचा रहना मानते हंै। तो हम सबको यह स्पष्ट तौर पर जान लेना होगा कि प्रकृति का प्रकोप अकल्पनीय व विकराल होता है।
जहां तक नगरों और महानगरों में बाढ़ से होने वाली तबाही है तो जल निकासी की माकूल व्यवस्था का न होना उसका स्थाई कारण बनता है। मुंबई में 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकार भी स्वीकार करती रही है। जब कभी शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य पहुंचाता होता है, जो कि तात्कालिक उपाय होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर शासन और प्रशासन स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। बाढ़ को हम प्राकृतिक आपदा के रूप में देखते हैं लेकिन जब हमारे नगरों की सड़कें नदियां बन जाती हैं तो इसका कारण प्राकृतिक नहीं मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। नगर-निर्माण के दौरान भविष्य में होने वाली ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखकर कोई भी योजना नहीं बनाई जाती। बाढ़ के संदर्भ में देखें तो आधारभूत सुविधा के लिए सड़क और नाले तो बना दिए जाते हैं परंतु प्रति वर्ष किए जाने वाले उनके रख- रखाव की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। नतीजा दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में साल दर साल आ रही बाढ़ की समस्या है जिसका एकमात्र सबसे बड़ा और प्रमुख कारण सीवरों और नालों की सफाई- व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है।
आज हम यह भूल चुके हैं कि सदियों से प्रकृति भारी बारिश के माध्यम से धरती को उपजाऊ बनाने का पावन कार्य करती थी। बारिश का पानी पहाड़ों से बहता हुआ अपने साथ पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी भी फसल वाली धरती तक फैलाता हुआ चला जाता था, तभी तो हमारी धरती शस्य- श्यामला और सुजला- सुफला बनी हुई थी। भारत को सोने की चिडिय़ा यूं ही नहीं कहा जाता था। लेकिन तब मनुष्य अपनी बुद्धिमता का प्रयोग अपनी धरती मां की उन्नति और उसे बचाए रखने के लिए करता था न कि अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए।
वर्तमान में अपने क्षणिक लाभ के लिए मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का जिस बेदर्दी से अंधाधुंध दोहन किया है, उसका लाभ तो उसे त्वरित नजर आया लेकिन वह लाभ उस नुकसान की तुलना में नगण्य है जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ रहा है। इन दिनों जैसा दृश्य समूचे विश्व में प्राकृतिक-असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है वह सब मानवीय भूलों का ही परिणाम है, अत: दुनिया में मानवता को यदि बचा कर रखना है तो सबकी भलाई इसी में है कि हम जिस डाल पर खड़े हैं, उसी को काट गिराने का आत्मघाती कदम न उठाएं। हम इस तथ्य को भली-भाँति समझ लें कि प्रकृति का संतुलन ही समस्त मानवता की प्राणवायु है।


-डॉ. रत्ना वर्मा

धरती का रक्षा कवच

- नवनीत कुमार गुप्ता
आम जनता को ओजोन आवरण को बचाने के लिए ऐसे उत्पादों का प्रयोग सीमित करने का प्रयास करना चाहिए जो ओजोन गैस के विघटन के लिए जिम्मेदार तत्त्वों से बने होते हैं।
पृथ्वी पर जीवन के लिए वायुमंडल में विभिन्न गैसों का संतुलन महत्त्वपूर्ण है। अन्य गैसों के समान ओजोन भी जीवन की गतिशीलता में आवश्यक भूमिका निभाती है। ओजोन गैस पृथ्वी के वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में एक ऐसा आवरण बनाती है जिससे अंतरिक्ष से पृथ्वी की सतह की ओर आने वाला हानिकारक पराबैंगनी विकिरण ऊपरी वायुमंडल में ही रुक जाता है। इस प्रकार धरती के जीव- जंतु हानिकारक पराबैंगनी विकिरण के कुप्रभाव से बचे रहते हैं।
लेकिन आज पृथ्वी पर विभिन्न जीवन- सहायक कारकों का संतुलन बिगड़ रहा है और ओजोन आवरण भी झीना होता जा रहा है। ओजोन आवरण के पतले होने के कारण पृथ्वी पर हानिकारक पराबैंगनी विकिरण की अधिक मात्रा पहुंच सकती है। इसके परिणामस्वरूप त्वचा रोग एवं कैंसर जैसी विकृतियों में वृद्धि होने की संभावना है।
असल में ओजोन आवरण के झीनेपन का सम्बंध वायुमंडल में हाइड्रोक्लोराफ्लोरो कार्बन व अन्य हानिकारक रसायनों की मात्रा में वृद्धि से है। इन तत्त्वों का रिसाव रेफ्रिजरेटर, एयरकंडीशनर, स्प्रे व कुछ औद्योगिक कार्यों से होता है। वैज्ञानिकों को सत्तर के दशक में ओजोन आवरण के पतले होने के प्रमाण मिले थे। इस पर चिंता व्यक्त करते हुए 1985 में संपूर्ण विश्व ने इस समस्या से निपटने के प्रयत्न आरंभ किए। यह ऐतिहासिक पहल वियना संधि के नाम से मशहूर है। इसके बाद मॉन्टियल संधि हुई। 1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ओजोन आवरण के संरक्षण के लिए हुई मॉन्टियल संधि की स्मृति में 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस घोषित किया। इस साल ओजोन दिवस का ध्येय वाक्य 'हाइड्रो क्लोराफ्लोराकार्बन हटाने का अद्वितीय अवसर' है। संयुक्त राष्ट्र की अपील में पूरी दुनिया से ओजोन आवरण के संरक्षण के लिए पहल करने को कहा गया है। वैज्ञानिकों से उम्मीद है कि वे ओजोन आवरण एवं जलवायु परिवर्तन के सम्बंधों पर और ध्यान देंगे।
जहां एक ओर ओजोन गैस ऊपरी वायुमंडल में ओजोन आवरण के रूप में जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है वहीं धरती की सतह पर वायुमंडल में इसकी अधिक मात्रा हानिकारक हो सकती है। ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) ने देश में, विशेषकर राजधानी दिल्ली में बढ़ते ओजोन के स्तर के बारे में आगाह किया है। टेरी को 2010 में भारत के कुछ बड़े शहरों में हवा की गुणवत्ता सम्बंधी आंकड़ों के अध्ययन से ये परिणाम मिले हैं। टेरी ने चिंता जाहिर की है कि यदि 2030 तक ऐसा ही चलता रहा तो ओजोन और कण पदार्थ, दोनों ही उच्च स्तर तक पहुंच जाएंगे। शोधकर्ताओं का कहना है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का मुख्य कारण मोटर गाडिय़ों से निकलने वाला धुआं है। इस बात से यह तो साफ है कि प्रकृति में प्रत्येक कारक का अपना- अपना स्थान निश्चित है जिसके चलते वह लाभकारी और हानिकारक हो सकता है। लेकिन प्रकृति ने मानव को ऐसा दिमाग दिया है जिसके बल पर हानिकारक तत्त्वों को पहचान सकता है और उनका उपयोग सीमित करके उनसे होने वाले नुकसान से निजात पा सकता है। इसलिए आम जनता को ओजोन आवरण को बचाने के लिए ऐसे उत्पादों का प्रयोग सीमित करने का प्रयास करना चाहिए जो ओजोन गैस के विघटन के लिए जिम्मेदार तत्त्वों से बने होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

भाषा

मेरे वतन  की खुशबू  केसर लुटा रही है
-देवी नागरानी
हर एक देश की तरक्की उसकी भाषा से जुड़ी होती है, जो हमारे अस्तित्व की पहचान है, उसकी अपनी गरिमा है। भाषा केवल अभिव्यक्ति ही नहीं, बोलने वाले की अस्मिता भी है और संस्कृति भी है जिसमें शामिल रहते हैं आपसी संबंधों के मूल्य, बड़ों का आदर-सम्मान, परिवार के सामाजिक सरोकार, रीति-रस्मों के सामूहिक तौर तरीके।
हिंदी भाषा भारतीय जनता के विचारों का माध्यम है, अपने आप को अभिव्यक्त करने की मूल शैली है और इसी नींव पर टिकी है भारतीय संस्कृति। बाल गंगाधर तिलक का कथन इसी सत्य को दिशा दे रहा है 'देश की अखंडता- आजादी के लिए हिन्दी भाषा एक पुल है'।
हमें अपनी हिन्दी जुबां चाहिये, सुनाए जो लोरी वो मां चाहिये
कहा किसने सारा जहां चाहिये, हमें सिर्फ हिन्दोस्तां चाहिये
तिरंगा हमारा हो ऊंचा जहां, निगाहों में वो आसमां चाहिये
मुहब्बत के बहते हों धारे जहां, वतन ऐसा जन्नत निशां चाहिये
जहां देवी भाषा के महके सुमन, वो सुन्दर हमें गुलसितां चाहिये
भारतवर्ष की बुनियाद 'विविधता में एकता' की विशेषता पर टिकी है और इसी डोर में बंधी है देश की विभिन्न जातियां, धर्म व भाषाएं। भारतीय भाषाओं के इतिहास में एक नवसंगठित सोच से नव निर्माण की बुनियाद रखी जा रही है। भारत से विभिन्न देशों में हमारे भारतीय जाकर बसे हैं - मॉरीशस, सूरीनाम, जापान, मास्को, थाईलैंड, इंग्लैंड, यूएसए, कनाडा जहां उनके साथ गई है कश्मीर से कन्याकुमारी तक के अनेक प्रांतों की भाषाएं, जिसमें है उत्तर की पंजाबी, सिंधी, उडिय़ा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश की भाषाएं, गुजराती, बंगाली, राजस्थानी, मराठी और दक्षिण प्रांतों की तमिल, तेलुगू और कोंकणी भाषा। ये भाषाएं अपनी संस्कृति से जुड़ी रहकर अपने प्रांतीय चरित्र को उजागर करती हैं। संस्कृति को नष्ट होने से बचाना है तो सर्व प्रथम अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी को बचाना पड़ेगा।
आजादी के पहले और आजादी के बाद जो भारतीय विदेशों में जाकर बसे उनमें सामाजिक फर्क है। आजादी के पहले वाले मजबूर, मजदूर, कुछ अनपढ़ लोग गरीबी का समाधान पाने के लिये मॉरीशस, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिनाद में जा बसे थे जहां उन्हें अपनी जरूरतों के लिये संघर्ष करना पड़ा।
आजादी के बाद जो भारतीय गए वे कुशल श्रमिक भारतीय थे, पढ़े लिखे थे और महत्वकांक्षा वाले थे। उनमें आत्मविकास की चाह और साथ अपनी मातृभूमि के विकास की चाह भी थी। भारतीय धर्म, संस्कृति, साहित्य की पृष्ठभूमि उनके पास थी, लेकिन उन्हें जो अभाव विदेशों में महसूस होता है वह है, आपसी संबंधों का अभाव। पुरानी और नई पीढ़ी के बीच बढ़ता हुआ जनरेशन गैप। वहां की विकसित जीवनशैली और भारतीय सभ्यता के अंतर के कारण एक असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर, पारिवारिक संबंधों को लेकर, एक अंतरद्वंद्व पैदा होता है और यही अंतरद्वंद्व इस भारतीय भाषा के लिये बड़ी बुनियाद है।
हर एक देश की तरक्की उसकी भाषा से जुड़ी होती है, जो हमारे अस्तित्व की पहचान है, उसकी अपनी गरिमा है। विदेशों में गए भारतीय परिवारों की मुलाकात जिस सभ्यता के साथ होती है उस सभ्यता में किशोर अवस्था आने से पहले बच्चा मां- बाप से अलग हो जाता है, पति- पत्नी के रिश्ते की कडिय़ां आर्थिक आजादी के कारण ढीली पड़ जाती हैं। कुछ पाकर कुछ खोने के बीच के अंतरद्वंद्व का समाधान पाने के लिये भारतीय संस्कृति की स्थापना करने और हिन्दी को विश्व मंच पर स्थान दिलाने का कार्य किया जा रहा है। इस महायज्ञ में हिन्दी भाषी ही नहीं पंजाबी और गुजराती भाषियों का भी योगदान हैं।
अब तो सरिता का बहाव अंतराष्ट्रीयता की ओर बढ़ रहा है। अगर मैं अमेरीका की बात करूं तो इस दिशा में मकसद को मुकाम तक लाने के लिये निम्न रूपों से प्रयत्न हो रहे हैं- 1. संस्थागत 2. व्यक्तिगत व 3. मीडियागत
1. संस्थागत : न्यूयार्क के भारतीय विद्या भवन की ओर से हिन्दी को एक दिशा हासिल हुई है, जिसके अध्यक्ष है नवीन मेहता। डॉ. पी. जयरामन के निर्देशन में हिन्दी शिक्षण और संस्थाओं के साहित्यतिक और सांस्कृतिक कार्य सफलता पूर्वक हो रहे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति एक ऐसा संस्थान है जो विश्व में हिन्दी भाषा और साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति के प्रचार- प्रसार के लिये काम कर रही है। इसके नेतृत्व में भाषा की प्रगति को दशा और दिशा मिल रही है। इसके वर्तमान अध्यक्ष हैं गुलाब खंडेलवाल। हिन्दी शिक्षण की दिशा में सफल प्रयासों के कारण आज अमेरिका में कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है।
हम भारतीयों का लक्ष्य यही है कि जर्मन, फ्रेंच, स्पैनिश, रूसी, चीनी व जापानी भाषाओं की तरह हिन्दी भी हर स्कूल में पढ़ाई जाए। अमेरिका शिक्षा विभाग का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जा रहा है। हिन्दी प्रसार के इन प्रयत्नों के अतिरिक्त इसी दशक में समिति ने अपनी वेबसाइट को विकसित किया है, जिसका नाम है।
अमेरिकन काउंसिल फॉर टीचिंग फॉरेन लैंग्वेज की व्यवस्था के अंतर्गत अमेरिका के अनेकों शहरों में हिन्दी की कार्यशालाएं होती हंै जिसमें भावी शिक्षकों को सत्रों में बांटकर गुजराती, पंजाबी, मराठी, बिहारी, सिंधी और विज्ञान से सम्बन्धित कक्षाओं के माध्यम से ज्ञान प्रदान करती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति हिन्दी भाषा के प्रचार- प्रसार से जुड़ी अमेरिका की पहली और सबसे पुरानी संस्था है। इस संस्था की एक विशिष्ट परम्परा रही है अमेरिका में कवि सम्मेलनों का आयोजन। इस समिति की त्रैमासिक मुख्य पत्रिका है विश्वा जिसके संपादक हैं रवि प्रकाश सिंह और साथ में ई-विश्वा नामक त्रैमासिक वेब पत्रिका, रचनाकारों को साहित्य से जोडऩे का बखूबी प्रयास कर रही है।
इसके अतिरिक्त 'अखिल विश्व हिन्दी समिति' संस्थागत रूप में कई स्कूलों की स्थापना करती रही है जहां पर भाषा प्रेमी अटलांटा, क्रानबरी में अपनी सेवाएं प्रेषित कर रहे हैं इस समिति के अध्यक्ष हैं डॉ. बिजय के मेहता। इस समिति के द्वारा आयोजित कई अधिवेशन व साहित्यक गोष्ठियां न्यूयार्क के हिन्दू सेंटर फ्लूशिंग में संपन्न होती हैं। इस संस्था कि ओर से त्रैमासिक पत्रिका 'सौरभ' निकलती है जिसके मुख्य संपादक और अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं डा. दाऊजी गुप्त। इन सभी कार्यों से यह स्पष्ट है कि संस्थाओं द्वारा प्रवासी भारतीय भाषा की जड़ें मजबूत करने में लगे हुए है।
न्यूयार्क स्थित 'विश्व हिंदी न्यास समिति' की ओर से प्रतिवर्ष अधिवेशन आयोजित होते हैं इसमें शामिल होने का सौभाग्य मुझे भी मिला है जहां लोक भाषा, लोक गीत, लोक गाथा, नाटक, कथन और प्रस्तुतिकरण का अनूठा संगम इस अधिवेशन के दौरान देखने को मिला। चौधरी, कैलाश शर्मा और उनकी पूरी टीम ने आश्चर्यजनक रूप से 'विभिन्नता में एकता' का जो समन्वय प्रस्तुत किया, वह काबिले तारीफ रहा। वहां देखने को मिलती है हमारे देश के तीज त्यौहार की झलकियां, विभिन्न प्रांतों की शादियों की रस्में, जलियांवाला बाग की अंधाधुंध गोलियों की बौछार और देश के वीरों के स्वतंत्रता संग्राम की स्मृतियां। समिति की ओर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी जगत' देश विदेश को जोडऩे का काम कर रही है। इस कार्य में जापान से सुरेश ऋतुपर्ण जुड़े हुए हैं। कुछ और भी पत्रिकाएं जो अमेरिका व कैनेडा से साहित्य का संचार कर रही है वे हैं हिन्दी चेतना (श्यान त्रिपाठी), वसुधा (स्नेह ठाकुर)।
2. व्यक्तिगत: व्यक्तिगत रूप में कुछ सस्थाएं है जो न्यूयार्क व न्यूजर्सी में बड़े ही सक्रिय रूप से कार्य कर रही है: हिन्दी यूएसए अमेरिका स्थित न्यूजर्सी की जमीं पर नई पीढ़ी को हिन्दी के साथ जोडऩे का काम कर रही है। इसके स्वयंसेवक देवेंद्र सिंह अनेक गतिविधियों द्वारा प्रवासी बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़े रखने में कामयाब रहे हैं। यहां पच्चीस से ज्यादा पाठशालाएं चल रही हैं और 700 से अधिक छात्र व छात्राएं छठवीं कक्षा तक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। 50 स्वयंसेवक इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। हिन्दी यूएसए हर साल हिन्दी महोत्सव का आयोजन करता है जहां सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ तीज त्यौहार के पर्व भी मनाए जाते हैं। हिन्दी भाषा वह धागा है जो हर प्रांतीय भाषा को अपने साथ गूंथ कर उसे अपनी आत्मीयता से जोड़ लेता है। इनकी ओर से प्रकाशित ई-पत्रिका 'कर्म भूमि' अपने प्रयासों से हिन्दी के प्रचार- प्रसार में अपना हाथ बंटा रही है।
हिन्दी विकास मंडल सुधा ओम ढींगरा की देख रेख में अपने आप एक दीप प्रज्वलित कर रहा है। ये हिन्दी सेवक सेविकाएं अपने निजी समय से कुछ समय निकाल कर छुट्टी के दिनों में बाल विहार कक्षाएं चलाकर परदेस में देश का माहौल बनाये रखने में कामयाब हुए हैं। यहां हर साल दो बार संस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं जहां संस्था के छात्रों के अलावा कई रचनाकार, लेखक भी भागीदारी लेते हैं जहां उनका सम्मान भी किया जाता है।
हिन्दू रिलीजन क्लासेस चिनमाया मिशन एंड साधु वासवानी इजन इन डिफरेंट सिटीज ऑफ यूएसए भी इन्हीं संस्कारों से जोडऩे के प्रयास के अंतर्गत आयोजित पाठशालाएं चलाती है, जहां गीता सार, संस्कृत के श्लोक व संगीत सिखाएं जाते हैं। मातृभाषा को भी प्रमुखता मिल रही है जिसमें पंजाबी, गुरुमुखी, सिंध, तमिल, लगभग 20 प्रांतीय भारतीय भाषाएं देवनागरी लिपी में सिखाई जाती हैं। किसी ने खूब कहा है- 'तुम्हारे पास लिपी है, भाषा है, इसलिये तुम हो, लिपी गुम हो जाये, भाषा लुप्त हो जाये, तुम अपनी पहचान खो बैठोगे।'
हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं का आपस में कोई टकराव नहीं बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। किसी कवि ने कहा है-भाषाएं आपस में बहनें, बदल बदल कर पहनें गहने।
3. मीडिया: वैश्वीकरण के इस दौर में संचार प्रणाली द्वारा पूरे विश्व में टेलीफोन, मोबाइल, कम्प्यूटर, टीवी, सिनेमा, रेडियो व इंटरनेट जैसे माध्यमों से भौगोलिक दूरियों का मतलब बदल गया है। जनमानस पर हिन्दी का प्रभाव गहरा हो गया है। ब्लाग के माध्यम से देश विदेश के लोग आपस में जुड़े हैं। अनेकों वेब पत्रिकाएं इंटरनेट द्वारा विदेशों में बसे भारतीय जनता को मिलती हैं इनमें खास है साहित्यकुंज (सुमन घई), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (पुर्णिमा बर्मन), गर्भनाल (आत्माराम जी), वेब दुनिया, और भारत की प्रकाशित पत्रिकाएं और दैनिक पत्र जन मानस पर हिन्दी का गहरा प्रभाव डाल रही हैं। भूगोल के दायरों को मिटाने में कामयाब यह यज्ञ ग्लोबलाइजेशन का सफल संकेत है और इस प्रकार का आदान- प्रदान हिन्दी को
विश्व मंच पर स्थापित करने का महत्वपूर्ण कदम है।
डलास से एक साप्ताहिक रेडियो पत्रिका 'कवितांजली' हर रविवार को प्रसारित होती है जो नेट द्वारा विश्व में सुनी जाती है। भाषाई विकास की दिशा में यह अच्छा प्रयास है। (इस प्रसारण के संयोजक डॉ. नंदलाल सिंह व प्रस्तुतकर्ता आदित्य प्रकाश सिंह हैं।
इंटरनेट की प्रणाली ने दुनिया की सीमा रेखा को मिटा दिया है। कम्प्यूटर पर विभिन्न भाषाओं के फॉन्ट उपलब्ध होने के कारण वेबसाइट संस्करण अंग्रेजी या अन्य कई भाषाओं में पढ़ा जा सकता है, जैसे 'चिट्ठाजगत'। इसी से दुनिया को ग्लोबल विलेज का रूप हासिल हुआ है। अब महात्मा गांधी का विश्व ग्राम का सपना सभी भौगोलिक सीमाएं तोड़कर आधुनिक संचार प्रणालियों द्वारा साकार होता हुआ दिखाई दे रहा है। संस्कृति तोडऩे की नहीं जोडऩे की प्रतिक्रिया है। प्रवासियों ने भारतीय भाषा और संस्कृति को जिस तरह विश्व भर में फैलाया है, वह प्रयास अद्वितीय है।
विश्व मंच पर इस प्रतिभाशाली नव युग की पीढ़ी को सर्व भाषाओं की दिशा में विकसित होता देखकर यह महसूस होता है कि हर युग में रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक शांति निकेतन स्थापित हो रहा है। विश्वास बनता जा रहा है कि जहां- जहां इस तरह की संस्कृति पनपती रहेगी वहां- वहां हिन्दुस्तान का दिल धड़कता रहेगा और उसकी सुगंध चहूं ओर फैलती रहेगी। मेरी ग़ज़ल का एक शेर इसी भाव को अभिव्यक्त करता है-
रहती महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी-सौंधी
मेरे वतन की खुशबू, केसर लुटा रही है।
इस भाषायी नवजागरण का नया आगाज बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार है। जयहिन्द
- न्यू जर्सी, dnangrani@gmail.com

पत्रकारिता महज धन्धा न रह जाये...

- एल. एन. शीतल
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं, लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे।
पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत और अंधकारमय वर्तमान से गुजरते हुए जब हम भविष्य की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें संभावनाओं के अनेक टापू दिखायी देते हैं। कहीं ये टापू, बाजारवाद के मौजूदा ज्वार में न डूब जायें इसके लिए हमें उन सवालों के माकूल जवाब देने होंगे जिनकी वजह से इन टापुओं के दरकने या बेवक्त डूबने का
अंदेशा है।
एक अच्छा अखबार होने का मतलब है- लोगों के लिए, लोगों का अखबार। हर अखबार लोगों का हो, महज सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता का न हो, लोगों के लिए हो, सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता या फिर किसी व्यक्ति विशेष के लिए न हो। लेकिन वस्तुत: ऐसा है नहीं। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि हम और ज्यादा समय गंवाये बगैर ऐसे उपाय करें, जिनके कारआमद नतीजे हासिल हों और जो पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल बनायें।
इन उपायों की शृंखला में सबसे पहले एक ऐसा स्वायत्तशासी, उच्चाधिकार प्राप्त नीति नियामक आयोग बनाया जाना चाहिए जो मुख्य रूप से दो काम करे। एक तो यह, कि वह बेलगाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होड़ ले रहे प्रिंट मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता पर रोक लगाये। चूंकि, हमारे पाठक संगठित नहीं हैं, इसलिए उनके दीर्घकालकि सरोकारों से जुड़ी सामग्री के लिए, इस नियामक निकाय की भूमिका अत्यंत सार्थक रहेगी। वह निकाय तय करे कि कोई अखबार चित्रों या अन्य सामग्री ('लिंग वर्धक यंत्र', 'कंडोम के मजे', 'फुल बॉडी मसाज', 'दोस्ती करो और दिल खोलकर बातें करो' आदि के जरिये अश्लीलता न परोसे। दूसरे, उक्त नीति नियामक आयोग का दायित्व यह सुनिश्चित करना भी हो कि किसी भी अखबार में विज्ञापनों के लिए दिये जा रहे स्थान तथा समाचारों को मिलने वाले स्थान का अनुपात तर्कसंगत हो। जो अनुपात निर्धारित किया जाये उसका सख्ती से पालन भी हो।
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य है लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे। वह आयोग यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सत्ता- प्रतिष्ठान 'मित्र' और 'शत्रु' अखबारों की आंतरिक तथा गुप्त सूची बनाकर विज्ञापनों की बंदरबांट न कर पाये। चुनावों के समय मीडिया के एक बड़े वर्ग की शर्मनाक हरकतों पर तो खुद शर्म भी बेहद शर्मसार है। ऐसी स्थिति में यदि यह सुझाव अमल में लाया जाता है तो पाठकों को मिलने वाली सामग्री का स्तर सुधरेगा उन्हें ज्यादा सामग्री मिलेगी तथा अखबारों की आजादी अप्रभावति रह सकेगी।
यह आरक्षण का दौर है। वंचितों को तर्कसंगत आरक्षण का विरोध नहीं किया जा सकता। इसलिए अखबारों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ग्रामीण जनता तथा मजदूरों के दीर्घकालिक हितों को पोषित करने वाली सामग्री को समुचित तयशुदा स्थान अनिवार्यत: मिले, भले ही वे अखबारों को विज्ञापन देने की स्थिति में नहीं हैं। इसके लिए यदि कोई कानून भी बनाना पड़े, तो बनाया जाना चाहिए।
कहने के लिए अखबारों की ज्यादती के शिकार पाठकों और सरकारों के मनमाने रवैये से पीडि़त अखबारों की व्यथा-कथा सुनने के लिए एक संस्था है- प्रेस कौंसिल। लेकिन यह अधिकारविहीन संस्था एक तमाशा-मात्र बनकर रह गयी है। यह दोषियों को सिर्फ चेतावनी दे सकती है, दंड देने का हक इसे नहीं है। पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल हो, इसके लिए जरूरी है कि इस संस्था को, निर्वाचन आयोग की तरह, अखिल भारतीय स्तर पर 'प्रेस नियामक आयोग' का व्यापक स्वरूप दिया जाये और प्रदेशों में भी इसका राज्य स्तरीय ढांचा तैयार हो। यह आयोग जिला स्तर पर निगरानी जत्थे तैनात करे, जो शुरूआती स्तर पर पाठकों की शिकायतों की पड़ताल करके उन्हें अंतिम सुनवाई के लिए अग्रेषित कर सकें। इससे पाठकीय सरोकारों के प्रति अखबारों की जवाबदेही बढ़ेगी। चूंकि, प्रेस को अनौपचारिक तौर पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है, इसलिए परम आवश्यक है कि हमारे अखबारों की उत्पादन-प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसमें पाठकीय सरोकारों के प्रति जवाबदेही भी तय हो। इसे सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि अखबारों में ऐसे लोग आयें, जो योग्य हों, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वचनबद्ध हों तथा वे अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों की तुलना में मिशनरी जज्बे से ज्यादा भरे हों। ऐसे युवाओं को पत्रकारिता में लाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल, सुनिश्चित भविष्य, तथा अच्छे वेतन अनिवार्य हैं। सभी समाचार पत्र अपने मशीनी संसाधनों जितनी तवज्जो अपने इंसानी संसाधनों को भी दें, यह निहायत जरूरी है। वर्तमान में अखबारों के आंतरिक ढांचे में सबसे बड़ा ग्रहण यही लगा है कि पत्रकारों की गुणवत्ता को तिरोहित कर प्रबंधनपरस्त नरमुंडों को प्रश्रय देने की परिपाटी चल पड़ी है। ऐसे पालित पत्रकारों के वेतन पर विशेष जोर न देने के पर्याप्त निजी कारण होते हैं। इसके लिए मौजूदा दोषपूर्ण कानूनी प्रावधानों को बदलना होगा। सभी विज्ञापनदाताओं के लिए यह अनिवार्य करना होगा कि वे सिर्फ उन्हीं अखबारों को विज्ञापन दें जो अपने पत्रकारों को निर्धारित वेतनमान दे रहे हैं।
चूंकि, अखबार नाम की संस्था के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही अनिवार्य है, इसलिए यही पारदर्शिता अखबारों के संसाधनों पर भी लागू होनी चाहिए। किसी भी पत्र-पत्रिका को शुरू करने की अनुमति दिये जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अखबार के प्रकाशन पर कितनी राशि खर्च होगी, वह कहां से आयेगी और अखबार चलाने वाले का आर्थिक आधार क्या है। ज्यादा उचित तो यह होगा कि अखबार चलाने वाले प्रतिष्ठान केवल अखबार ही चलाये, कोई और धंधा न करे, क्योंकि अखबार धंधा तो हो गये हैं, लेकिन उन्हें महज धंधा ही नहीं माना जा सकता। अन्य धंधों की तुलना में वे अंतत: एक मिशन भी हैं, चौथा स्तंभ भी हैं और जन-प्रतिष्ठान भी।
बाजारवाद की अंधी होड़ में मुख्य उत्पाद के साथ एक अन्य उत्पाद मुफ्त देने के भ्रामक विज्ञापन, दरअसल उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी है। यह धोखाधड़ी तमाम धंधों में धड़ल्ले से चल रही है। हालांकि यह होनी तो इन धंधों में भी नहीं चाहिए, लेकिन अखबारों में तो हरगिज नहीं। आज अखबारों में ऐसी लंबी- चौड़ी विज्ञापनबाजी को पाठक-प्रोत्साहन का नाम दिया जाता है। उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि यदि उनके पास पांच या पचास करोड़ रुपये के पुरस्कार देने के लिए धन हैं तो वे क्यों नहीं अखबार की कीमत कम कर देते, क्यों नहीं अखबार की सामग्री को ज्यादा पठनीय बना देते, क्यों नहीं विज्ञापनदाता की देहलीज पर माथा रगडऩे या विज्ञापन ऐंठने के लिए कमजोर विज्ञापनदाताओं को धमकाने की हरकतें बंद कर देते। यानी, यह तय किया जाना चाहिए कि कोई भी अखबार इस तरह के छद्म प्रलोभनों से अपने पाठकों को हरगिज नहीं भरमायेगा।
हमारे पत्रकारिता संस्थान पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं और वह भी अधकचरे। इस पर भी उन्हें मुगालता यह कि उनकी आधी- अधूरी जानकारी ही अंतिम सच है। जब वे किसी अखबार का हिस्सा बनने की प्रक्रिया से जुड़ते हैं तो उनके उस ज्ञान की पोल पहले दिन ही खुुल जाती है। यह दुरावस्था भविष्य के लिए एक भयावह संकेत है। आज दरकार इस बात की है कि मौजूदा पाठ्यक्रम में, बदलती चुनौतियों के अनुरूप आमूलचूल परिवर्तन किया जाये। शिक्षकों और शिक्षण-शैली को भी बदलने की जरूरत है। ऐसे शिक्षक लाये जाने चाहिए जिन्हें समुचित व्यावहारिक ज्ञान हो।
वर्तमान में पूरा भारतीय समाज पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ की चपेट मेें है। वह दरक रहा है। विडम्बना यह है कि लगभग सभी अखबार इस हमले और घुसपैठ को रोकने तथा पाठक को उससे आगाह करने के बजाय खुद उसके वाहक बन बैठे हैं। चूंकि, अखबार निकालने वाले लोग वही हैं, जो उस घुसपैठ से लाभान्वित हो रहे हैं, इसलिए वे पहरुए की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। भविष्य में पश्चिम का बाजार और ज्यादा हावी होगा, सांस्कृतिक हमला और ज्यादा तेज होगा, नतीजतन हमारे मूल्य तिरोहित होंगे, समाज विखंडित होगा और कुल मिलाकर हम कमजोर होंगे। अंदेशा इस बात का है कि अखबार अपने मौजूदा चरित्र को पकड़े रहने पर आमादा रहेंगे। मात्र पाठकीय दबाव ही ऐसा अकेला जरिया है, जिसके बूते अखबारों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। इसलिए भविष्य के वास्ते पाठकों की दोहरी जिम्मेदारी है कि वे न केवल उस खतरे से खुद आगाह रहें बल्कि अखबारों की दशा और दिशा को भी नियंत्रित रखें।
एक अंगेरजी अखबार के संपादक ने पद मुक्त होने के अवसर पर लिखे अपने 'विदा- लेख' में पाठकों को 'मी लॉर्ड' से संबोधित किया। कितना अच्छा लगता है पाठक के लिए 'मी लॉर्ड' का यह संबोधन! लेकिन इसी के साथ दु:ख भी होता है कि हमारे ज्यादातर अखबार अपनी कथनी और करनी के जरिये पाठकों के इस सम्मान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हमें जागरूक पाठक होने के नाते अपनी इस अपमानजनक स्थिति को खत्म करना होगा। इसके लिए एक पाठकीय यज्ञ वक्त का तकाजा है जिसमें समिधा डालना हम सभी का युगधर्म है। तभी पत्रकारिता की उज्ज्वल संभावनाओं के जगमग टापू फैलते नजर आयेंगे।
संपर्क: 12, टाइप-4, सेक्टर बी, पिपलानी, भोपाल 462021 मो. 093018 20315

वाह भई वाह

चाकलेट
टीचर बच्चों को अच्छी आदतों के बारे में बता रहा था। उसने एक बच्चे से पूछा, अगर गलती से तुम्हारा पैर एक वृद्ध महिला पर पड़ जाए, तो क्या करोगे?
बच्चा - सॉरी बोलूंगा।
टीचर- बहुत अच्छा, अगर वह खुश होकर तुम्हें चाकलेट दे, तो फिर तुम क्या करोगे?
बच्चा (तपाक से)- तो मैं दूसरे पैर पर चढ़ जाऊंगा, ताकि मुझे एक और चाकलेट मिले।
बेहोश
सब्जी वाला सब्जी को ताजा रखने के लिए उस पर पानी छिड़क रहा था।
काफी देर हो गई तो बोर होकर एक खरीददार ने सब्जी वाले से कहा, तुम्हारी सब्जियां होश में आ गईं हों तो मुझे एक किलो टमाटर दे दो भाई।
चार जुआरी
चार व्यक्तियों को अदालत में पेश किया गया। इल्जाम था कि वे पार्क में बैठे जुआ खेल रहे थे। मजिस्ट्रेट ने बारी- बारी से सवाल पूछे। पहले ने कहा, मैं उस दिन यहां था ही नहीं। सबूत के तौर पर अपने ट्रेवल एजेंट से रेल टिकट की रसीद दे सकता हूं। दूसरा बोला- उस दिन मैं घर पर बुखार में पड़ा था। डॉक्टर का सर्टिफिकेट पेश कर सकता हूं। तीसरे का जवाब था - मैंने आज तक कभी जुआ नहीं खेला, ताश को हाथ तक नहीं लगाया। चौथा चुपचाप खड़ा रहा। जब उससे पूछा, और तुम भी जुआ नहीं खेल रहे थे -वह बोला- जी, मैं अकेला जुआ कैसे खेल सकता हूं?

मौका तो दो...

- पूजा शर्मा
अभी- अभी तो रखे हैं
अपने नन्हें कदम जमीं पर
जरा मुझे इस जमीं को पहचानने तो दो
अभी- अभी तो चलना सीखा है मैनें
जरा- सा संभलने का मौका तो दो...

ऐसा नहीं है कि मैं
सपने नहीं देखना चाहती
या उनके टूट जाने से डरती हूँ...
मैं भी सपने देखना चाहती हूँ
उन्हें सँजोना चाहती हूँ
उनके पीछे दौडऩा चाहती हूँ
उन्हें जीना भी चाहती हूँ
परा जरा- सा मेरी आँखों को
खुलने तो दो...

ये भी नहीं कि मैं
जिंदगी का खेल खेलना नहीं चाहती
या इसे हारने से डरती हूँ
मैं भी जिंदगी जीना चाहती हूँ
एक बड़ा दांव लगाना चाहती हूँ
इसके निराले खेल चाहती हूँ
इसे जीतना भी चाहती हूँ
पर जरा- सा, दो पल चैन- से
इसे समझने का मौका तो दो...

लेखक के बारे में:
ग्रेजुएशन तक बायो-साईंस की स्टुडेंट। पी.जी. इकोनोमिक्स में।
लिखने की बहुत शौकीन हूँ। या कह लीजिये कि मेरी जिंदगी का
आधा हिस्सा इन पन्नों में ही है...
संपर्क: D/o आर बी शर्मा, डी.एफ.ओ. रेसीडेंस, इको सेंटर,
बनिया कालोनी, सीधी (मप्र) 486661
Blogs:- http://poojashandilya.blogspot.com

कालजयी कहानी

- रवीन्द्रनाथ टैगोर
काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देनी चाही, परन्तु मिनी ने ली और दुगने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस तरह हुआ।
मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से पल- भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसे सिर्फ एक ही वर्ष लगा होगा। उसके बाद से जितनी देर सो नहीं पाती हैं, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट- फटकार कर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती हैं, लेकिन मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक- सा प्रतीत होता है कि मुझसे वह अधिक देर तक नहीं सहा जाता और यही कारण हैं कि मेरे साथ उसके भावों का आदान- प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहा है।
सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया - 'बाबूजी! रामदयाल दरबान 'काक' को 'कौआ' कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।' विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- 'बाबूजी! भोला कहता था, आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न? खाली बक- बक किया करता हैं, दिन- रात बकता रहता है।'
इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमें स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी- 'बाबूजी! माँ तुम्हारी कौन लगती हैं?'
फिर उसने मेरी मेज के पाश्र्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला- हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुँह चलाकर 'अटकन- बटबन दही चटाकन' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्याय में प्रताप सिंह उस समय कंचन माला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में बंदीगृह के ऊँचें झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।
मेरा घर सड़क के किनारे पर था। अचानक मिनी अपने अटकन- चटकन को छोड़कर खिड़की के पास दौड़ गई और जोर- जोर से चिल्लाने लगी, 'काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!'
मैले- कुचले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कँधे पर सूखे फलों की झोली लटकाए, हाथ में चमन के अँगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा- तगड़ा सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख कर मेरी छोटी- सी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव हैं। उसने जोर से पुकारना शुरु किया। मैंने सोचा - 'अभी झोली कन्धे पर डाले, सिर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्याय आज अधूरा रह जाएगा।'
किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढऩे लगा, त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई? उसके छोटे से मन में यह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली- कुचैली झोली के अंदर ढूढऩे पर उस जैसी और भी जीती जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।
इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए, मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा- 'वास्तव में प्रताप सिंह और कंचन माला की दशा अत्यन्त संकटापन्न हैं, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।'
कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर- उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप- शप होने लगी।
अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली- जुली भाषा में पूछा- 'बाबूजी! आप की बच्ची कहाँ गई?'
मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देनी चाही, परन्तु उसने न ली और दुगने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस तरह हुआ।
इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठकर काबुली से हँस- हँस कर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा- बैठा मुसकराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है। और बीच- बीच में अपनी राय मिली- जुली भाषा में व्यक्त करता जाता हैं। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में बाबूजी के सिवाय, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखो तो उसकी फ्रॉक का अग्रभाग बादाम- किशमिश से भरा हुआ था। मैंने काबुली से कहा, 'इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।'
यह कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।
कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूँ कि उस अठन्नी ने बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया हैं।
मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकर पदार्थ हाथ में लिए डाँट- फटकार कर मिनी से पूछ रही थी- 'तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?'
मिनी ने कहा- 'काबुली वाले ने दी हैं।'
'काबुली वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?'
मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा- 'मैने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी हैं।'
मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की और उसे बाहर ले आया। मालूम हूआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो कोई विशेष बात नहीं। इस दौरान वह रोज आता रहा। और पिस्ता- बादाम की रिश्वत दे- देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर बहुत अधिकार कर लिया था।
देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित हैं। जैसी मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसते हुए पूछती- 'काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली के भीतर क्या है?'
काबुली जिसका नाम रहमत था। एक अनावश्यक चन्द्र- बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ कहता, 'हाथी।'
उसके परिहास का रहस्य क्या हैं? यह तो नहीं कहाँ जा सकता, फिर भी इन नये मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल- सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
उन दोनों मित्रों में और भी एक- आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, 'तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?'
हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं, लेकिन हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक- सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट नहीं समझ पाती थी। इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्ध था। उलटे वह रहमत से ही पूछती, 'तुम ससुराल कब जाओगे?'
रहमत काल्पनिक ससुर के लिए अपना जबरदस्त घूँसा तानकर कहता, 'हम ससुर को मारेगा।'
सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।
देखते- देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गयी। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कोलकाता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया। शायद इसीलिए मेरा मन ब्राह्मांड में घूमा करता था। यानी, कि मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ। बाहरी ब्रह्मांड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता था। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता हैं। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता- पर्वत- बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता हैं और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवनयात्रा की बात कल्पना में जाग उठती हैं।
इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता हैं। यही कारण हैं कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप- शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण कर लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़- खाबड़, लाल- लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे गुए ऊँटों की कतार जा रही हैं। ऊँचे- ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल है जा रहे हैं। किसी के हाथों में बरछा हैं तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामें हुए हैं। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुल लोग अपनी मिली- जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहें हैं।
मिनी की माँ बड़ी वहमी स्वभाव की थी। राह में किसी प्रकार का शोर- गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार- भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर- डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी हैं। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार- बार अनुरोध करती रहती। जब मैं परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- 'क्या अभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे- तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे को उठा ले जाना असम्भव हैं?' इत्यादि।
मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितांत असम्भव हो सो बात नहीं, परन्तु भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया, परन्तु केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।
हर वर्ष रहमत माघ महीने में अपने देश लौट जाता था। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया- पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता। उसे घर- घर, दुकान- दुकान घूमना पड़ता था, मगर फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती हैं। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा हो। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर हैं। अन्धेरे में घर के कोने में उस ढीले- ढाले जामा- पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे- तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय- सा पैदा हो जाता है।
लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी 'ओ काबुलीवाला' पुकारते हुए हँसती- हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास- परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा विदा होने से पूर्व, आज दो- तीन दिन से खूब जोर से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर इस जाड़े की ही चर्चा हो रही है। ऐसे जाड़े- पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषा चरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक उसी समय एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
देखो तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उसके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले- ढीले कुरते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया और पूछा- 'क्या बात है?'
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इनकार कर दिया। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने उसे छुरा निकालकर घोंप दिया। रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न- भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में 'काबुलीवाला, काबुलीवाला', पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
रहमत का चेहरा क्षण- भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते ही पूछा- 'तुम ससुराल जाओगे?'
रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- 'हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।'
रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- 'ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।'
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।
रहमत का ध्यान धीरे- धीरे मन से बिलकुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम- धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे, तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इंसान कारागर की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं। और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे- जैसे उसकी वयोवृद्धि होने लगी, वैसे- वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगी। और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया हैं।
कितने ही वर्ष बीत गए? वर्षो बाद आज फिर शरद ऋतु आई हैं। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ- साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ- बाप के घर में अंधेरा करके सुसराल चली जाएगी।
सवेरे दिवाकर बड़ी सज- धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही हैं। कोलकाता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने इस प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।
हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो- रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्मांड़ में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।
सवेरे से घर में बवंडर बना हुआ है। हर समय आने- जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़- फानूस लटकाए जा रहे हैं और उनकी टक- टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे!', 'जल्दी करो!', 'इधर आओ!' की तो कोई गिनती ही नहीं हैं।
मैं अपने लिखने- पढऩे के कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे- लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अंत में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि यह तो रहमत है।
'क्यों रहमत कब आए?' मैंने पूछा।
'कल शाम को जेल से छूटा हूँ।' उसने कहा।
सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को अपनी आँखों से मैंने कभी नहीं देखा था। उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़- सा गया! मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।
मैंने उससे कहा- 'आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।'
मेरी बातें सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया, परन्तु द्वार के पास आकर कुछ इधर- उधर देखकर बोला, 'क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?'
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास- परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी। यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी- सी किसमिश और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग- ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली- कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
मैंने कहा, 'आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।'
मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास- सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
मेरे हृदय में न जाने कैसी एक वेदना- सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा कि वह स्वयं ही आ
रहा है।
वह पास आकर बोला- 'ये अंगूर और कुछ किशमिश, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।'
मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा- 'आपकी बहुत मेहरबानी बाबू साहब! हमेशा याद रहेगी, पैसा रहने दीजिए।' थोड़ी देर रूककर वह फिर बोला- 'बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ी- सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने
नहीं आता।'
यह कहते हुए उसने ढीले- ढाले कुरते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला- कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर
रख दिया।
देखा कि कागज के उस टुकडे पर एक नन्हें से हाथ के छोटे- से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेल चित्र नहीं, हाथ में थोड़ी- सी कालिख लगाकर, कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति- पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कोलकाता की गली- कूचों से सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता हैं।
देखकर मेरी आँखें भर आई और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूँ। फिर मुझे ऐसा लगने लगा जो वह है, वही मैं भी हूँ। वह भी एक बाप हैं और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मंैने तत्काल ही मिनी को बुलाया, हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, परन्तु मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई- सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उस अवस्था में देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला- 'लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?'
मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल- सुर्ख हो उठे। उसने मुँह फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।
मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान- पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कोलकाता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु- पर्वत का दृश्य देखने लगा।
मंैने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और बोला- 'रहमत! तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन- सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।'
रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव- समारोह के दो- एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका। अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया। घर में औरतें बड़ी बिगडऩे लगीं। सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्जवल हो उठा।

गुरुदेव और काबुलीवाला

गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर विलक्षण व्यक्तित्व के धनी, बहुआयामी कलाकार और युगप्रवर्तक साहित्यकार हैं। यह वर्ष उनका 150वां जयंती वर्ष है। देश और विदेश में उनके मूल्यवान साहित्य पर इस वर्ष लगातार चर्चा, परिचर्चा, शोध, संगोष्ठी के माध्यम से उन्हें पुन: जानने का प्रयास उनके पाठक कर रहे हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हैं।
उनकी कृतियों को हिन्दी जगत ने कुछ इस तरह आत्मसात किया है कि वे हिन्दी के महान लेखक लगते हैं। काबुलीवाला उनकी बेहद चर्चित कहानी है। इस कहानी पर यादगार फिल्म भी बनी। गुरुदेव को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए हम यादगार कहानियां स्तंभ में उनकी अमर कहानी काबुलीवाला प्रकाशित कर रहे हैं। आशा है हमारे सुधि पाठक हमारे इस प्रयास को पसंद करेंगे।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा, एलआईजी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाईनगर 490009, मो. 9827993494