- एल. एन. शीतल
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं, लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे।
पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत और अंधकारमय वर्तमान से गुजरते हुए जब हम भविष्य की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें संभावनाओं के अनेक टापू दिखायी देते हैं। कहीं ये टापू, बाजारवाद के मौजूदा ज्वार में न डूब जायें इसके लिए हमें उन सवालों के माकूल जवाब देने होंगे जिनकी वजह से इन टापुओं के दरकने या बेवक्त डूबने का
अंदेशा है।
एक अच्छा अखबार होने का मतलब है- लोगों के लिए, लोगों का अखबार। हर अखबार लोगों का हो, महज सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता का न हो, लोगों के लिए हो, सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता या फिर किसी व्यक्ति विशेष के लिए न हो। लेकिन वस्तुत: ऐसा है नहीं। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि हम और ज्यादा समय गंवाये बगैर ऐसे उपाय करें, जिनके कारआमद नतीजे हासिल हों और जो पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल बनायें।
इन उपायों की शृंखला में सबसे पहले एक ऐसा स्वायत्तशासी, उच्चाधिकार प्राप्त नीति नियामक आयोग बनाया जाना चाहिए जो मुख्य रूप से दो काम करे। एक तो यह, कि वह बेलगाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होड़ ले रहे प्रिंट मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता पर रोक लगाये। चूंकि, हमारे पाठक संगठित नहीं हैं, इसलिए उनके दीर्घकालकि सरोकारों से जुड़ी सामग्री के लिए, इस नियामक निकाय की भूमिका अत्यंत सार्थक रहेगी। वह निकाय तय करे कि कोई अखबार चित्रों या अन्य सामग्री ('लिंग वर्धक यंत्र', 'कंडोम के मजे', 'फुल बॉडी मसाज', 'दोस्ती करो और दिल खोलकर बातें करो' आदि के जरिये अश्लीलता न परोसे। दूसरे, उक्त नीति नियामक आयोग का दायित्व यह सुनिश्चित करना भी हो कि किसी भी अखबार में विज्ञापनों के लिए दिये जा रहे स्थान तथा समाचारों को मिलने वाले स्थान का अनुपात तर्कसंगत हो। जो अनुपात निर्धारित किया जाये उसका सख्ती से पालन भी हो।
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य है लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे। वह आयोग यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सत्ता- प्रतिष्ठान 'मित्र' और 'शत्रु' अखबारों की आंतरिक तथा गुप्त सूची बनाकर विज्ञापनों की बंदरबांट न कर पाये। चुनावों के समय मीडिया के एक बड़े वर्ग की शर्मनाक हरकतों पर तो खुद शर्म भी बेहद शर्मसार है। ऐसी स्थिति में यदि यह सुझाव अमल में लाया जाता है तो पाठकों को मिलने वाली सामग्री का स्तर सुधरेगा उन्हें ज्यादा सामग्री मिलेगी तथा अखबारों की आजादी अप्रभावति रह सकेगी।
यह आरक्षण का दौर है। वंचितों को तर्कसंगत आरक्षण का विरोध नहीं किया जा सकता। इसलिए अखबारों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ग्रामीण जनता तथा मजदूरों के दीर्घकालिक हितों को पोषित करने वाली सामग्री को समुचित तयशुदा स्थान अनिवार्यत: मिले, भले ही वे अखबारों को विज्ञापन देने की स्थिति में नहीं हैं। इसके लिए यदि कोई कानून भी बनाना पड़े, तो बनाया जाना चाहिए।
कहने के लिए अखबारों की ज्यादती के शिकार पाठकों और सरकारों के मनमाने रवैये से पीडि़त अखबारों की व्यथा-कथा सुनने के लिए एक संस्था है- प्रेस कौंसिल। लेकिन यह अधिकारविहीन संस्था एक तमाशा-मात्र बनकर रह गयी है। यह दोषियों को सिर्फ चेतावनी दे सकती है, दंड देने का हक इसे नहीं है। पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल हो, इसके लिए जरूरी है कि इस संस्था को, निर्वाचन आयोग की तरह, अखिल भारतीय स्तर पर 'प्रेस नियामक आयोग' का व्यापक स्वरूप दिया जाये और प्रदेशों में भी इसका राज्य स्तरीय ढांचा तैयार हो। यह आयोग जिला स्तर पर निगरानी जत्थे तैनात करे, जो शुरूआती स्तर पर पाठकों की शिकायतों की पड़ताल करके उन्हें अंतिम सुनवाई के लिए अग्रेषित कर सकें। इससे पाठकीय सरोकारों के प्रति अखबारों की जवाबदेही बढ़ेगी। चूंकि, प्रेस को अनौपचारिक तौर पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है, इसलिए परम आवश्यक है कि हमारे अखबारों की उत्पादन-प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसमें पाठकीय सरोकारों के प्रति जवाबदेही भी तय हो। इसे सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि अखबारों में ऐसे लोग आयें, जो योग्य हों, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वचनबद्ध हों तथा वे अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों की तुलना में मिशनरी जज्बे से ज्यादा भरे हों। ऐसे युवाओं को पत्रकारिता में लाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल, सुनिश्चित भविष्य, तथा अच्छे वेतन अनिवार्य हैं। सभी समाचार पत्र अपने मशीनी संसाधनों जितनी तवज्जो अपने इंसानी संसाधनों को भी दें, यह निहायत जरूरी है। वर्तमान में अखबारों के आंतरिक ढांचे में सबसे बड़ा ग्रहण यही लगा है कि पत्रकारों की गुणवत्ता को तिरोहित कर प्रबंधनपरस्त नरमुंडों को प्रश्रय देने की परिपाटी चल पड़ी है। ऐसे पालित पत्रकारों के वेतन पर विशेष जोर न देने के पर्याप्त निजी कारण होते हैं। इसके लिए मौजूदा दोषपूर्ण कानूनी प्रावधानों को बदलना होगा। सभी विज्ञापनदाताओं के लिए यह अनिवार्य करना होगा कि वे सिर्फ उन्हीं अखबारों को विज्ञापन दें जो अपने पत्रकारों को निर्धारित वेतनमान दे रहे हैं।
चूंकि, अखबार नाम की संस्था के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही अनिवार्य है, इसलिए यही पारदर्शिता अखबारों के संसाधनों पर भी लागू होनी चाहिए। किसी भी पत्र-पत्रिका को शुरू करने की अनुमति दिये जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अखबार के प्रकाशन पर कितनी राशि खर्च होगी, वह कहां से आयेगी और अखबार चलाने वाले का आर्थिक आधार क्या है। ज्यादा उचित तो यह होगा कि अखबार चलाने वाले प्रतिष्ठान केवल अखबार ही चलाये, कोई और धंधा न करे, क्योंकि अखबार धंधा तो हो गये हैं, लेकिन उन्हें महज धंधा ही नहीं माना जा सकता। अन्य धंधों की तुलना में वे अंतत: एक मिशन भी हैं, चौथा स्तंभ भी हैं और जन-प्रतिष्ठान भी।
बाजारवाद की अंधी होड़ में मुख्य उत्पाद के साथ एक अन्य उत्पाद मुफ्त देने के भ्रामक विज्ञापन, दरअसल उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी है। यह धोखाधड़ी तमाम धंधों में धड़ल्ले से चल रही है। हालांकि यह होनी तो इन धंधों में भी नहीं चाहिए, लेकिन अखबारों में तो हरगिज नहीं। आज अखबारों में ऐसी लंबी- चौड़ी विज्ञापनबाजी को पाठक-प्रोत्साहन का नाम दिया जाता है। उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि यदि उनके पास पांच या पचास करोड़ रुपये के पुरस्कार देने के लिए धन हैं तो वे क्यों नहीं अखबार की कीमत कम कर देते, क्यों नहीं अखबार की सामग्री को ज्यादा पठनीय बना देते, क्यों नहीं विज्ञापनदाता की देहलीज पर माथा रगडऩे या विज्ञापन ऐंठने के लिए कमजोर विज्ञापनदाताओं को धमकाने की हरकतें बंद कर देते। यानी, यह तय किया जाना चाहिए कि कोई भी अखबार इस तरह के छद्म प्रलोभनों से अपने पाठकों को हरगिज नहीं भरमायेगा।
हमारे पत्रकारिता संस्थान पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं और वह भी अधकचरे। इस पर भी उन्हें मुगालता यह कि उनकी आधी- अधूरी जानकारी ही अंतिम सच है। जब वे किसी अखबार का हिस्सा बनने की प्रक्रिया से जुड़ते हैं तो उनके उस ज्ञान की पोल पहले दिन ही खुुल जाती है। यह दुरावस्था भविष्य के लिए एक भयावह संकेत है। आज दरकार इस बात की है कि मौजूदा पाठ्यक्रम में, बदलती चुनौतियों के अनुरूप आमूलचूल परिवर्तन किया जाये। शिक्षकों और शिक्षण-शैली को भी बदलने की जरूरत है। ऐसे शिक्षक लाये जाने चाहिए जिन्हें समुचित व्यावहारिक ज्ञान हो।
वर्तमान में पूरा भारतीय समाज पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ की चपेट मेें है। वह दरक रहा है। विडम्बना यह है कि लगभग सभी अखबार इस हमले और घुसपैठ को रोकने तथा पाठक को उससे आगाह करने के बजाय खुद उसके वाहक बन बैठे हैं। चूंकि, अखबार निकालने वाले लोग वही हैं, जो उस घुसपैठ से लाभान्वित हो रहे हैं, इसलिए वे पहरुए की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। भविष्य में पश्चिम का बाजार और ज्यादा हावी होगा, सांस्कृतिक हमला और ज्यादा तेज होगा, नतीजतन हमारे मूल्य तिरोहित होंगे, समाज विखंडित होगा और कुल मिलाकर हम कमजोर होंगे। अंदेशा इस बात का है कि अखबार अपने मौजूदा चरित्र को पकड़े रहने पर आमादा रहेंगे। मात्र पाठकीय दबाव ही ऐसा अकेला जरिया है, जिसके बूते अखबारों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। इसलिए भविष्य के वास्ते पाठकों की दोहरी जिम्मेदारी है कि वे न केवल उस खतरे से खुद आगाह रहें बल्कि अखबारों की दशा और दिशा को भी नियंत्रित रखें।
एक अंगेरजी अखबार के संपादक ने पद मुक्त होने के अवसर पर लिखे अपने 'विदा- लेख' में पाठकों को 'मी लॉर्ड' से संबोधित किया। कितना अच्छा लगता है पाठक के लिए 'मी लॉर्ड' का यह संबोधन! लेकिन इसी के साथ दु:ख भी होता है कि हमारे ज्यादातर अखबार अपनी कथनी और करनी के जरिये पाठकों के इस सम्मान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हमें जागरूक पाठक होने के नाते अपनी इस अपमानजनक स्थिति को खत्म करना होगा। इसके लिए एक पाठकीय यज्ञ वक्त का तकाजा है जिसमें समिधा डालना हम सभी का युगधर्म है। तभी पत्रकारिता की उज्ज्वल संभावनाओं के जगमग टापू फैलते नजर आयेंगे।
संपर्क: 12, टाइप-4, सेक्टर बी, पिपलानी, भोपाल 462021 मो. 093018 20315
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं, लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे।
पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत और अंधकारमय वर्तमान से गुजरते हुए जब हम भविष्य की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें संभावनाओं के अनेक टापू दिखायी देते हैं। कहीं ये टापू, बाजारवाद के मौजूदा ज्वार में न डूब जायें इसके लिए हमें उन सवालों के माकूल जवाब देने होंगे जिनकी वजह से इन टापुओं के दरकने या बेवक्त डूबने का
अंदेशा है।
एक अच्छा अखबार होने का मतलब है- लोगों के लिए, लोगों का अखबार। हर अखबार लोगों का हो, महज सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता का न हो, लोगों के लिए हो, सत्ता प्रतिष्ठान या विज्ञापनदाता या फिर किसी व्यक्ति विशेष के लिए न हो। लेकिन वस्तुत: ऐसा है नहीं। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि हम और ज्यादा समय गंवाये बगैर ऐसे उपाय करें, जिनके कारआमद नतीजे हासिल हों और जो पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल बनायें।
इन उपायों की शृंखला में सबसे पहले एक ऐसा स्वायत्तशासी, उच्चाधिकार प्राप्त नीति नियामक आयोग बनाया जाना चाहिए जो मुख्य रूप से दो काम करे। एक तो यह, कि वह बेलगाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होड़ ले रहे प्रिंट मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता पर रोक लगाये। चूंकि, हमारे पाठक संगठित नहीं हैं, इसलिए उनके दीर्घकालकि सरोकारों से जुड़ी सामग्री के लिए, इस नियामक निकाय की भूमिका अत्यंत सार्थक रहेगी। वह निकाय तय करे कि कोई अखबार चित्रों या अन्य सामग्री ('लिंग वर्धक यंत्र', 'कंडोम के मजे', 'फुल बॉडी मसाज', 'दोस्ती करो और दिल खोलकर बातें करो' आदि के जरिये अश्लीलता न परोसे। दूसरे, उक्त नीति नियामक आयोग का दायित्व यह सुनिश्चित करना भी हो कि किसी भी अखबार में विज्ञापनों के लिए दिये जा रहे स्थान तथा समाचारों को मिलने वाले स्थान का अनुपात तर्कसंगत हो। जो अनुपात निर्धारित किया जाये उसका सख्ती से पालन भी हो।
कोई शक नहीं कि समाचार पत्र को चलाने के लिए विज्ञापन अनिवार्य है लेकिन ऐसा भी हरगिज न हो कि विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढऩे पड़ें। पाठकों को गुमराह करने, फुसलाने तथा उकसाने के लिए उत्पादों की प्रचार सामग्री को खबरों के रूप में परोसे जाने के चलन पर रोक लगाने का काम भी वह आयोग करे। वह आयोग यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सत्ता- प्रतिष्ठान 'मित्र' और 'शत्रु' अखबारों की आंतरिक तथा गुप्त सूची बनाकर विज्ञापनों की बंदरबांट न कर पाये। चुनावों के समय मीडिया के एक बड़े वर्ग की शर्मनाक हरकतों पर तो खुद शर्म भी बेहद शर्मसार है। ऐसी स्थिति में यदि यह सुझाव अमल में लाया जाता है तो पाठकों को मिलने वाली सामग्री का स्तर सुधरेगा उन्हें ज्यादा सामग्री मिलेगी तथा अखबारों की आजादी अप्रभावति रह सकेगी।
यह आरक्षण का दौर है। वंचितों को तर्कसंगत आरक्षण का विरोध नहीं किया जा सकता। इसलिए अखबारों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ग्रामीण जनता तथा मजदूरों के दीर्घकालिक हितों को पोषित करने वाली सामग्री को समुचित तयशुदा स्थान अनिवार्यत: मिले, भले ही वे अखबारों को विज्ञापन देने की स्थिति में नहीं हैं। इसके लिए यदि कोई कानून भी बनाना पड़े, तो बनाया जाना चाहिए।
कहने के लिए अखबारों की ज्यादती के शिकार पाठकों और सरकारों के मनमाने रवैये से पीडि़त अखबारों की व्यथा-कथा सुनने के लिए एक संस्था है- प्रेस कौंसिल। लेकिन यह अधिकारविहीन संस्था एक तमाशा-मात्र बनकर रह गयी है। यह दोषियों को सिर्फ चेतावनी दे सकती है, दंड देने का हक इसे नहीं है। पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल हो, इसके लिए जरूरी है कि इस संस्था को, निर्वाचन आयोग की तरह, अखिल भारतीय स्तर पर 'प्रेस नियामक आयोग' का व्यापक स्वरूप दिया जाये और प्रदेशों में भी इसका राज्य स्तरीय ढांचा तैयार हो। यह आयोग जिला स्तर पर निगरानी जत्थे तैनात करे, जो शुरूआती स्तर पर पाठकों की शिकायतों की पड़ताल करके उन्हें अंतिम सुनवाई के लिए अग्रेषित कर सकें। इससे पाठकीय सरोकारों के प्रति अखबारों की जवाबदेही बढ़ेगी। चूंकि, प्रेस को अनौपचारिक तौर पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है, इसलिए परम आवश्यक है कि हमारे अखबारों की उत्पादन-प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसमें पाठकीय सरोकारों के प्रति जवाबदेही भी तय हो। इसे सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि अखबारों में ऐसे लोग आयें, जो योग्य हों, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वचनबद्ध हों तथा वे अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों की तुलना में मिशनरी जज्बे से ज्यादा भरे हों। ऐसे युवाओं को पत्रकारिता में लाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल, सुनिश्चित भविष्य, तथा अच्छे वेतन अनिवार्य हैं। सभी समाचार पत्र अपने मशीनी संसाधनों जितनी तवज्जो अपने इंसानी संसाधनों को भी दें, यह निहायत जरूरी है। वर्तमान में अखबारों के आंतरिक ढांचे में सबसे बड़ा ग्रहण यही लगा है कि पत्रकारों की गुणवत्ता को तिरोहित कर प्रबंधनपरस्त नरमुंडों को प्रश्रय देने की परिपाटी चल पड़ी है। ऐसे पालित पत्रकारों के वेतन पर विशेष जोर न देने के पर्याप्त निजी कारण होते हैं। इसके लिए मौजूदा दोषपूर्ण कानूनी प्रावधानों को बदलना होगा। सभी विज्ञापनदाताओं के लिए यह अनिवार्य करना होगा कि वे सिर्फ उन्हीं अखबारों को विज्ञापन दें जो अपने पत्रकारों को निर्धारित वेतनमान दे रहे हैं।
चूंकि, अखबार नाम की संस्था के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही अनिवार्य है, इसलिए यही पारदर्शिता अखबारों के संसाधनों पर भी लागू होनी चाहिए। किसी भी पत्र-पत्रिका को शुरू करने की अनुमति दिये जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अखबार के प्रकाशन पर कितनी राशि खर्च होगी, वह कहां से आयेगी और अखबार चलाने वाले का आर्थिक आधार क्या है। ज्यादा उचित तो यह होगा कि अखबार चलाने वाले प्रतिष्ठान केवल अखबार ही चलाये, कोई और धंधा न करे, क्योंकि अखबार धंधा तो हो गये हैं, लेकिन उन्हें महज धंधा ही नहीं माना जा सकता। अन्य धंधों की तुलना में वे अंतत: एक मिशन भी हैं, चौथा स्तंभ भी हैं और जन-प्रतिष्ठान भी।
बाजारवाद की अंधी होड़ में मुख्य उत्पाद के साथ एक अन्य उत्पाद मुफ्त देने के भ्रामक विज्ञापन, दरअसल उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी है। यह धोखाधड़ी तमाम धंधों में धड़ल्ले से चल रही है। हालांकि यह होनी तो इन धंधों में भी नहीं चाहिए, लेकिन अखबारों में तो हरगिज नहीं। आज अखबारों में ऐसी लंबी- चौड़ी विज्ञापनबाजी को पाठक-प्रोत्साहन का नाम दिया जाता है। उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि यदि उनके पास पांच या पचास करोड़ रुपये के पुरस्कार देने के लिए धन हैं तो वे क्यों नहीं अखबार की कीमत कम कर देते, क्यों नहीं अखबार की सामग्री को ज्यादा पठनीय बना देते, क्यों नहीं विज्ञापनदाता की देहलीज पर माथा रगडऩे या विज्ञापन ऐंठने के लिए कमजोर विज्ञापनदाताओं को धमकाने की हरकतें बंद कर देते। यानी, यह तय किया जाना चाहिए कि कोई भी अखबार इस तरह के छद्म प्रलोभनों से अपने पाठकों को हरगिज नहीं भरमायेगा।
हमारे पत्रकारिता संस्थान पत्रकार नहीं, पीआरओ पैदा कर रहे हैं और वह भी अधकचरे। इस पर भी उन्हें मुगालता यह कि उनकी आधी- अधूरी जानकारी ही अंतिम सच है। जब वे किसी अखबार का हिस्सा बनने की प्रक्रिया से जुड़ते हैं तो उनके उस ज्ञान की पोल पहले दिन ही खुुल जाती है। यह दुरावस्था भविष्य के लिए एक भयावह संकेत है। आज दरकार इस बात की है कि मौजूदा पाठ्यक्रम में, बदलती चुनौतियों के अनुरूप आमूलचूल परिवर्तन किया जाये। शिक्षकों और शिक्षण-शैली को भी बदलने की जरूरत है। ऐसे शिक्षक लाये जाने चाहिए जिन्हें समुचित व्यावहारिक ज्ञान हो।
वर्तमान में पूरा भारतीय समाज पश्चिम के सांस्कृतिक हमले और आर्थिक घुसपैठ की चपेट मेें है। वह दरक रहा है। विडम्बना यह है कि लगभग सभी अखबार इस हमले और घुसपैठ को रोकने तथा पाठक को उससे आगाह करने के बजाय खुद उसके वाहक बन बैठे हैं। चूंकि, अखबार निकालने वाले लोग वही हैं, जो उस घुसपैठ से लाभान्वित हो रहे हैं, इसलिए वे पहरुए की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। भविष्य में पश्चिम का बाजार और ज्यादा हावी होगा, सांस्कृतिक हमला और ज्यादा तेज होगा, नतीजतन हमारे मूल्य तिरोहित होंगे, समाज विखंडित होगा और कुल मिलाकर हम कमजोर होंगे। अंदेशा इस बात का है कि अखबार अपने मौजूदा चरित्र को पकड़े रहने पर आमादा रहेंगे। मात्र पाठकीय दबाव ही ऐसा अकेला जरिया है, जिसके बूते अखबारों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। इसलिए भविष्य के वास्ते पाठकों की दोहरी जिम्मेदारी है कि वे न केवल उस खतरे से खुद आगाह रहें बल्कि अखबारों की दशा और दिशा को भी नियंत्रित रखें।
एक अंगेरजी अखबार के संपादक ने पद मुक्त होने के अवसर पर लिखे अपने 'विदा- लेख' में पाठकों को 'मी लॉर्ड' से संबोधित किया। कितना अच्छा लगता है पाठक के लिए 'मी लॉर्ड' का यह संबोधन! लेकिन इसी के साथ दु:ख भी होता है कि हमारे ज्यादातर अखबार अपनी कथनी और करनी के जरिये पाठकों के इस सम्मान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हमें जागरूक पाठक होने के नाते अपनी इस अपमानजनक स्थिति को खत्म करना होगा। इसके लिए एक पाठकीय यज्ञ वक्त का तकाजा है जिसमें समिधा डालना हम सभी का युगधर्म है। तभी पत्रकारिता की उज्ज्वल संभावनाओं के जगमग टापू फैलते नजर आयेंगे।
संपर्क: 12, टाइप-4, सेक्टर बी, पिपलानी, भोपाल 462021 मो. 093018 20315
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