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May 15, 2018

उदंती.com मई 2018

उदंती.com  मई 2018
राह बनाने वाले तो, राह बनाकर ही रहते।
सच्चे मन से दुनिया को, सदा जगाकर ही रहते।
चाहे उनको बंजर दो, जंगल या वीराना दो।
जिनमें दम वे सभी जगह, फूल खिलाकर ही रहते।
                -रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

उम्मीद की एक किरण...

उम्मीद की एक किरण...  
 -डॉ. रत्ना वर्मा
तरक्की करता हमारा देश, अपने को सभ्य और शिक्षित कहलाने वाले हमारे देश के नागरिक... सितारों के पार पहुँचते हमारे वैज्ञानिक, दुनिया भर में हमारे देश की प्रतिभाओं का बोलबाला...  कितना अच्छा लगता है यह सब सुनकर, पढ़कर... सब गर्व करने लायक बातें... लेकिन यहीं कहीं बीच में तब हमारा सिर शर्म से झुक जाता है, मानवीयता तार- तार हो जाती है, जब यह पढ़ने और सुनने मिलता है कि  छोटी-छोटी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कारगैंगरेप, दुराचार और अत्याचार की लोमहर्षक दुर्घटनाएँ हो रही हैं। इसी तरह तथाकथित बाबा, धर्म और अध्यात्म की आड़ में जितने घिनौने काण्ड करते हैं, उसने तो हमारी आस्था और हमारी धर्म- संस्कृति की चूलों को हिलाकर रख दिया है। राजनेता भी इसमें पीछे नहीं।
नारी को देवी का अवतार मानकर पूजने वाले देश में नारी की यह कैसी पूजा और कैसा सम्मान, जहाँ एक आठ साल की बच्ची को बंधक बनाकर, नशीली दवा पिलाकर आठ लोगों द्वारा एक मंदिर परिसर में कई- कई दिनों तक बलात्कार करके और फिर हत्या कर दी जाती है। इंतेहा तो तब हो गई, जब इंदौर में एक तीन माह की बच्ची को अपनी हैवानियत का शिकार बनाया गया। क्या इस तरह की घटनाएँ कौन-सी मानसिकता का परिचायक हैं। मानव इतना ज्यादा बर्बर, हिंसक और हैवान कैसे हो गया? आखिर कोई मनुष्य कैसे इतना अमानवीय, क्रूर और हिंसक हो सकता है कि एक तीन माह की बच्ची के साथ इतनी वीभत्सता के साथ पेश आए। रूह काँप जाती है यह सब पढ़-सुनकर।
समाज के माथे पर  कलंक की तरह हैं ये सब सवाल। आखिर ऐसे वीभत्स अपराध के पीछे कौन से मनोवैज्ञानिक कारक काम कर रहे हैं- बदलती सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक स्थितियाँ, हमारी शिक्षा व्यवस्था, सोशलनेटवर्किंग या कुछ और जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। कारण चाहे जो भी हों ,हमें हल तो तलाशना ही होगा। निर्भया बलात्कार काण्ड के बाद कठुआ, सासाराम, उन्नाव और मध्यप्रदेश में घटी ऐसी कई घटनाएँ हैं ,जो सवाल कर रही हैं - हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, शिक्षा व्यवस्था पर, और पूरे समाज पर कि ऐसे कौन से कारण हैं, जो मनुष्य को हैवान बना रहे हैं।  छोटी बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार के अधिकतर मामलों में देखा यही गया है कि अपराधी परिवार का कोई रिश्तेदार, पड़ोसी या  वह दोस्त होता है,जिनपर परिवार वाले आँख मूँदकर विश्वास करते हैं।
दिल को झकझोर देने वाली घटनाओं को लेकर चाहे वह निर्भया का मामला हो या कठुआ कादेश के संवेदनशील नागरिक न्याय और सुरक्षा की गुहार लगाते जब सड़क पर उतर आते हैं, तो यही प्रतिक्रिया होती है कि मामला जैसे ही ठंडा होगा ,सब भूल जाएँगे कि एक मासूम बच्ची के साथ क्या हुआ था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी आवाजें  ही हमारी संवेदना को जगाए रखती हैं, मानव होने की यही सबसे बड़ी निशानी है कि वह इस तरह के मामलों में अपना आक्रोश जताए। जनता की आवाज़ में बड़ी ताकत होती है वह व्यवस्था और कानून को बाध्य कर सकती हैंकि उन्हें न्याय चाहिए। 
 दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण के बाद आपराधिक कानून में संशोधन किया गया। इस सूची में एसिड हिंसा और घृणा के सम्बन्ध में भी सजा का प्रावधान किया गया। वहीं, अपराध की गंभीरता देखते हुए अपराधी को मौत की सजा का प्रावधान किया गया और जेल की अवधि में भी वृद्धि की गई।  मई 2017 में किशोर न्याय कानून में बड़ा बदलाव किया गया। इसके तहत जघन्य अपराध की घटनाओं में शामिल 16 साल या इससे अधिक उम्र के किशोर पर भी वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जा सकता है। हाल ही में एक अध्यादेश जारी कर 11 वर्ष तक की बच्चियों के साथ बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया है।
 देखा यही गया है घिनौने से घिनौना कृत्य करने वालों को सजा का ख़ौफ़ ही नहीं होता।  वह सोचता है कि वह पैसे  और ताकत के बूते पर पुलिस और कानून सबको खरीद लेगा। अधिकतर मामलों में गवाह और सबूत के अभाव में वे छूट भी जाते हैं। राजनैतिक दबाव में पुलिस भी अपराधियों का बचाव करते नज़र आती है। उन्नाव रेप मामले में यही हुआ। मामला जब सीबीआई के पास आया ,तो उसने पीडि़ता द्वारा लगाए गए आरोप को सही पाया। अत: कानून में सुधार और न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है। आसाराम जैसे पाखंडी को भी अंतत: सजा मिली, भले ही उन्होंने अपनी पूरी ताकत ही क्यों न झोंक दी हो अपने को बचाने में। आसाराम जैसे बाबाओं पर अंधश्रद्धा रखने वाली जनता  को भी समझ में आना चाहिए कि धर्म की आड़ में ये ढोंगी बाबा कैसे- कैसे अनैतिक कार्य करते हैं।
ऐसे समय में जब चारो ओर घोर निराशा और हताशा का माहौल है, हमारी सड़ांध- भरी बहुत ही अँधियारी न्याय प्रक्रिया के दलदल से उम्मीद की एक किरण मध्यप्रदेश के इंदौर से आई है। पिछले माह 20 अप्रैल को नवीन गोडको नामक एक व्यक्ति(जिसे मानव कहना अमानवीय होगा)द्वारा  एक तीन माह की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में तुरंत जाँच करके अभियोग पत्र दाखिल किया गया। 29 गवाहों के बयान, सीसीटीवी की रिर्पोट और डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट के आधार पर इन्दौर की सेशन जज वर्षा शर्मा ने लगातार सात दिन तक सात- सात घंटे सुनवाई करके घटना के 22 वें दिन 12 मई  2018 को अपराधी को फाँसी की सजा सुना दी। अदालत ने अपने 51 पेज के फैसले में टिप्पणी की है कि 'मुजरिम ने जो जघन्य और वीभत्स तरीके से क्रूरतापूर्ण और जंगली कृत्य किया है, इसे देखते हुए यह शख्स समाज में गैंगरीन जैसे रोग की तरह है। जिस तरह चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के शरीर के गैंगरीन प्रभावित हिस्से को ऑपरेशन के जरिए अलग कर दिया जाता है, उसी तरह ऐसे अपराधी से समाज को बचाने के लिये उसे समाज से बिल्कुल अलग करना आवश्यक है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए घातक है। अदालत का यह फैसला स्तुत्य है, और उम्मीद है कि यह फैसला देश की न्याय व्यवस्था के लिए उदाहरण बनेगा।
यह तो मानी हुई बात है कि कानून, कानून तब बनता है, जब वह सत्य बन जाता है। यह कानून तभी कारगर होगा जब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी इन्दौर के सेशन जज के इस फैसले पर तुरंत ही फाँसी की  मुहर लगा देते हैं, अन्यथा हजारों लम्बित मामलों की तरह 20-30 साल तक कभी गवाहों के अभाव में कभी सुबूतों के अभाव में, तो कभी और किसी दबाव में, फैसला सुनाने में देरी होती रहेगी और न्याय की उम्मीद लगाए जनता की आँखें पथरा जाएँगी।                       

हेपटेसिया...तैं हा बिक्कट टेसिया

हेपटेसिया...तैं हा बिक्कट टेसिया


- विनोद साव

खडवली... हाँ यही लिखा था सामने एक खम्भे पर। पतली सी टीन की पट्टी पर जो चार अंगुल चौड़ी रही होगी और आठ दस इंच लम्बी। कांक्रीट के खम्भे के मध्य से थोड़े नीचे वह पट्टी चिपकी हुई थी -उस पर लिखा था 'खडवली। लगभग घंटे भर से उस पर निगाह बार बार चली जाती थी। यह नाम पट्टिका अपनी जगह अटल थी, पीछे जाने का नाम नहीं ले रही थी क्योंकि ट्रेन आगे जाने का नाम नहीं ले रही थी। भुवनेश्वर से कुर्ला जाने वाली यह निम्न-मध्यमवर्गीय ट्रेन दो घंटे लेट थी। उसने बड़े साहस के साथ एक घंटे मेकअप किया था और खड़बड़ खड़बड़ करती हुई खडवली में आ रुकी थी। अब इसे कोई हड़बड़ी नहीं थी और यह रेलवे सिग्नल की आस में घंटे भर से खड़ी थी और फिर पूर्ववर्ती  दो घंटे लेट हो चुकी थी। खडबली.. यह एक छोटा सा स्टेशन था जिसके बाद कल्याण आएगा लोगों का कहना था पर पता नहीं ट्रेन में बैठे मुसाफिरों का कब कल्याण होगा और उन्हें कल्याण जंक्षन के दशर्न होंगे। रास्ते में थाणे पडेंगा जहॉ देश की पहली रेल चली थी - बम्बई से थाणे।
उद्घोषिकाओं की संगीतमय ध्वनि बार बार गूँज रही थी और वे आने वाली लोकल ट्रेनों की शौर्य गाथा गा रही थीं। यह मधुर ध्वनि यात्रियों की बेचैनी में अब कर्कश हो चुकी थी। सारे माधुर्य के बाद भी पिछले तीन घण्टे से मुम्बई यहाँ से बहत्तर किलोमीटर की दूरी पर बनी हुई थी।
हवा में स्टेशनों की चिर-परिचित गंध थी। यह गंध महाराष्ट्र के स्टेशनों में तीव्र होती है उनकी मूत्री खोलियों  की तरह। कभी पहली बार हिन्दुस्तान आए एक अंग्रेज बहादुर को जब वे वापस अपने इंग्लैण्ड पहुँचे थे तब उनके देशवासियों ने पूछा था 'व्हाट इज इण्डिया?’तब अंग्रेज का जवाब था 'इण्डिया इज ए वास्ट लेटरीन - यू केन स्मेल नागपुर टेन माइल्स अवे’ (नागपुर की गंध दस मील दूर से ही आ जाती है)।नागपुर महाराष्ट्र का दूसरा बड़ा नगर है पिछले कुछ बरस से अच्छा हो गया है पर अपने स्टेशन की गंध को बरकरार रखे हुए है।
घंटों खड़ी ट्रेन से निजात पाने के लिए उड़िया यात्रियों का एक समूह एक लोकल को पकडऩे दौड़ा ही था कि स्थानीय शूरवीरों ने गर्जना करके उन्हें डिब्बे में घुसने नहीं दिया। अब वे दूसरी किसी लोकल की प्रतीक्षा में थे, बशर्ते वहॉ कोई लोकल शूरवीर न हो। जय महाराष्ट्र की गूँज अब पहले से बढ़ गई है।
कुर्ला जिसे टिकट में एल.टी.टी. लिखा जाता है यानी लोक मान्य तिलक टर्मिनस। एक कस्बाई स्टेशन सा लगा। थोड़ा हरा भरा और साफ सुथरा। टैक्सी वाले ने स्टेशन में ही लगेज को उठा लिया था और हम उसके पीछे दौड़े चले आए थे। उसकी टैक्सी किसी मिनीडोर की तरह थी 'पहले तो खाली फिएट ही टैक्सी में चलती थी?’मैंने पूछा।
'हाँ साब... लेकिन अब सभी गाड़ियाँ चलती हैं वो देखिए मारुति, सेंट्रो, शेवरलेट और दूसरी कारें ...खाली रंग टैक्सियों का है ऊपर पीला और नीचे काला। जिसको जइसा कार चाहिए हर किसम का टैक्सी में मिलेंगा।उसने टैक्सी घुमाते हुए थोड़ा मुम्बइया लहजे में बताया था कि 'यह मुम्बई का आउटर है; इसलिए यहाँ ऑटो भी मिलेगी ,वरना मुम्बई में घुसते ही बेस्ट (बोर्ड ऑफ इलेक्ट्रिीसीटी सप्लाय एण्ड ट्रांसपोर्ट) की टाउन बसें और कारों का काफिला मिलेंगा।बेस्ट की जानी पहचानी डबल डेकर बसें अब कम दिखती हैं पर अब वेस्टीब्यूल, लो फ्लोर, डिसेबल्डा फ्रेंडली की आधुनिक वातानुकूलित बसों में सवार होने का मजा ही कुछ और है।
मुम्बई के टैक्सी वाले नरम हैं। टैक्सी को घुमा के मीटर रीडिंग बढ़ाना है तो भी प्यार से बातें करते हुए ऐसा कर लेते हैं बिना किसी झगड़ा झंझट के। यू.पी.-बिहार की तरह चिल्ल-पों नहीं। हालॉकि यहाँ के ज्यादातर टैक्सी वाले यू.पी.बिहार से ही हैं पर उनका भी कुछ मुम्बईकरण हो गया है। जब से पेशवाओं ने धमकाया है तब से और ज्यादा। 1982 में जब पहली बार बम्बई आया था तब शिव सेना के कार्यकर्ताओं को देखा था। उनके उत्साही स्वयंसेवकों को व्ही.टी. में रेलवे स्टॉफ के साथ व्यवस्था बनाने में सहयोग करते पाया था। इन बीते बरसों में उनका उत्साह अति-उत्साह में बदला और उनमें प्रभुता व सत्ता पाने की लालसा बढ़ी और उसके साथ बढ़ी थी जय महाराष्ट्र की गूंज। सबसे पहले उन्होंने बम्बई महानगर पालिका के शेरिफ का पद पाया और उसके बाद उनके विधायकों और सांसदों की संख्या भी दिखने लगी थी। ट्रेन के एक सहयात्री मिस्टर पावस्कर ने कहा था कि 'शिवसेना फार्म्ड टू लुक-ऑफ्टर द लोकल पीपल।’                    
जब लम्बी दूरी के लिए टैक्सी हो तो टैक्सी वाले गाइड का काम करने लग जाते हैं। उन्होंने दूर से मुम्बई की उस सबसे उॅची बहुमंजिली इमारत को दिखाया था जिसे कुछ समय पहले मुकेश अम्बानी ने बनाया था अरबों में। एक तरफ दुनिया  की सबसे बड़ी गन्दी बस्ती 'धारावीऔर दूसरी तरफ अरबपतियों का इलाका। हर क्षेत्र के 'आइकॉनोंका शहर है मुम्बई। यहाँ आधी से अधिक आबादी 'धारावीजैसी बस्तियों में है। यह एशिया की दूसरी सबसे बड़ी 'स्लमहै। मुम्बई आने वाले पर्यटक इसे भी देखना चाहते हैं।  कहते हैं धारावी में पन्द्रह हजार फैक्ट्रियॉ ऐसी हैं जो एक एक कमरे से ही उत्पादन दे जाती हैं... जबकि कितनी ही बहुमंजिली इमारतें ऐसी हैं ,जो केवल रिहाइशी हैं। मुंबई में मायामी के बाद सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की बहुमंजिली इमारतें हैं ;जिन्हें मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे देखा जा सकता है। ब्रिटिशकाल की कई इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय गोथिक शैली में निर्मित हैं। इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है। कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें हैं जैसे गेटवे ऑफ इंडिया। 
रास्ते में भायखला में जे.जे. हॉस्पिटल के सामने मसीही भाइयों का बनाया 'सेवा निकेतनदिखा जहाँ तीस बरसों पहले मैं रुका था। सात मंजिलों वाले इस निवास में लिफ्ट के साथ चौबीस घंटे वाटर सप्लाई थी और किराया मात्र पचहत्तर रुपयों में ट्रिपल बैडरुम। अब तो यह किराया कल्पना से परे है। तब भी हम तीन थे - मैं, भैया और फूफाजी। दूसरी बार आया तब भी हम तीन थे - मैं, एक मित्र और उनकी बहन। इस बार भी हम तीन हैं - मैं, पत्नी और बेटी - लेकिन इस बार ट्रिपल बैड रुम का किराया हमने आर्यभवन में दिया सत्रह सौ रुपये।
मुम्बई मैं आया भी तीन ही बार हूँ। दूसरी बार जब आया था तब पृथ्वी थियेटर में एक नाटक देखा था जिसमें तब के मशहूर टी.वी. आर्टिस्ट शफी इनामदार थे। उस समय शो-मैन राजकपूर दिवंगत हुए थे, तो कुछ एक चौराहों पर होर्डिंग लगी थीं जिनमें नीली ऑखों और भूरे बालों वाले राजकपूर के खूबसूरत रंगीन चित्र थे और ऊपर लिखा हुआ था 'क्रिएटर नेवर डाई।राजकपूर सच्चे मायनों में 'मुंबइयाइट्सथे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को बहुत आधुनिक कर दिखाया था। होर्डिंग में लगे उनके चित्र को देखकर 'संगमके एक गाने का दृश्य याद आ गया जिसमें कश्मीर के संभवत: वूलर झील में धुंध और कोहरों के बीच स्पीड मोटरबोट में 'ओ महबूबागाते हुए नीली आँखों और भूरे बालों वाले हसीन राजकपूर थे।  कश्मीर और उसकी वूलर झील का ऐसा सम्मोहक पिक्चराइजेशन फिर कभी देखने में नहीं आया। चेम्बूर में पृथ्वीराज कपूर के उस पहले मकान को देखा ,जिसे उन्होंनें  पेशावर से बम्बई आकर बनवाया था। फिल्मों की दुनिया में उनके द्वारा स्थापित 'पृथ्वी थियेटरभी एक बड़ा नाम था। पूना संस्थान से पहले पृथ्वी थियेटर ही वह संस्थान था जिसने फिल्म उद्योग को अनूठी प्रतिभाएँ देकर विकसित किया। इस नाम से ही शशिकपूर ने नाट्यगृह की स्थापना की है, जो आज भी सक्रिय है और जिसने ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों को उभारा।
उन शहरों को जिन्हें हमने  तीस चालीस बरसों पहले देखा होता हैं ,तब उन्हें आज भी देखने की उत्सुकता बनी होती है। आदमी की तरह शहरों की भी दौड़ होती है। विकास की दौड़ में उसकी भी संघर्ष यात्रा होती है, जद्दोजहद होती है, उन्नति और उपेक्षा होती है। यात्री कथाकार निर्मल वर्मा कहते हैं कि 'हर शहर का अपना एक आत्म सम्मान होता है।यदि हम किसी शहर की परवाह नहीं करते, तो वह शहर भी हमारी परवाह नहीं करता है।
सड़कें लगातार संकरी और भीड़ भड़क्केदार हो रही थीं। महाराष्ट्र की गणेश पूजा का पर्व था। टैक्सी ड्राइवर ने बताया 'ये लालबाग का राजा का इलाका है।वह विशालकाय गणेश ,जिसके टी.वी. पर दर्शन होते हैं। भक्तों की न खत्म होने वाली कतारें और करोड़ों की चढ़ौती। प्रचार प्रिय फिल्मी कलाकारों का पसंदीदा गणेश। किसी फिल्म स्टार से पूछो ,तो वह कह उठता है कि 'मैं यहाँ अपनी नई फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में आया था।गणपति बप्पा उन्हें प्रमोशन दें।
अब हम मुम्बई की व्यस्ततम सड़क कालबा देवी मार्ग पर थे। यह निम्न-मध्यमवर्गीय जनता का इलाका है जिनकी आम जरूरतों की चीजें मसलन स्टील के बर्तन और साइकल व घडिय़ों की दुकानें यहाँ  खूब हैं। यह पुरानी मुम्बई है जहाँ कालबा देवी के अतिरिक्त मुम्बा माता का भी मंदिर है ,जिनके नाम पर इस महानगर का नाम बम्बई से मुम्बई हुआ है। पिछले पाँच सौ बरसों से पुर्तगालियों के दिए नाम बाम्बे या बम्बई से ही यह शहर पुकारा जाता था। पुर्तगाली में 'बाम्बेका अर्थ अच्छी खाड़ी;  (Good Bay) होता है। 'मुंबायानी देवी और मराठी में 'आईयानी माँ और इन दोनों से बनकर यह मुंबई।    
कालबा में टैक्सी रुकती है, लाल ईंटों की इमारत 'आर्य भवनके सामने। मुम्बई जैसी व्यावसायिक जगह में आर्य भवन एक ऐसी जगह है, जहाँ टेलीफोन के जरिये कमरे बुक हो जाते हैं ,बिना किसी अग्रिम राशि के। हम सामान सहित लिफ्ट से ऊपर आ गए थे ठीक रिसेप्शन के सामने।'क्या इस भवन का आर्य समाज से कोई सम्बंध है?’मैं पूछता हूँ। वे विनम्रता से कहते हैं 'जी नहीं। यह एक प्राइवेट बिल्डिंग है। कभी यहाँ अस्सी रुपये किराया था। एक दिन का, आवास एवं भोजन सहित ;लेकिन अब ढाई सौ रुपये है केवल आवास का, भोजन की व्यवस्था बंद हो गई है।हमने तीन लोगों के लिए एक वातानुकुलित कमरा ले लिया था। वैसे मुंबई में आवास महँगा है भोजन महँगा नहीं है। दक्षिण भारतीय भोजनालयों में सब वाजिब दाम में मिल जाता है। मराठियों के बाद कभी यहाँ बहुसंख्यक आबादी गुजरातियों की थी; पर अब मलयालियों की हो गई है। यह मानते हैं कि मुंबई को समृद्ध बनाने में पारसी और गुजरातियों का बड़ा हाथ रहा है। यहूदी और पारसी तो यहाँ  सोलह सौ बरस पहले आ गए थे फारस की खाड़ी से। पारसियों ने केवल धन ही नहीं कमाया ,बल्कि सिनेमा और नाटकों को भी आगे बढ़ाया। इनमें सोहराब मोदी हुए, दिलीपकुमार से पहले सोहराब मोदी ही थे जो अपनी ख़ास किस्म की संवाद अदायगी के लिए जाने जाते थे। पारसी थियेटर और रंगमंच ने ही सबसे पहले एक ऐसी हिन्दुस्तानी जुबान को पेश किया जिसने हमारी फिल्मों के संवादों को धाँसू सफलता दी, उनके एक नाटक में गाते सूत्रधार की तरह:
''न ठेठ हिंदी, न ख्रालिस उर्दू, ज़बान गोया मिली जुली हो
अलग रहे दूध से न मिश्री, डली -डली दूध में घुली हो।’’
मैंने दूसरे दिन के लिए टूरिस्ट बस में तीन टिकटें आर्यभवन में बुक करवा लीं। अब हम खाना खाकर टैक्सी लेकर बिना किसी योजना के कालबा देवी के व्यस्ततम इलाके से निकल गए थे। अब मैंने गौर से चंद्रा और शैली को देखा था, जिनके भीतर से ट्रेन की लम्बी यात्रा की थकान नहाने धोने और खाने के बाद भी नहीं गई थी और एक किसम की चुप्पी उनके साथ चली आ रही थी। इस चुप्पी के बाद नजर मिलते ही चंद्रा की चिर-परिचित मुस्कान थी ,जो अक्सर हर पत्नी के चेहरे पर पति से नजर मिलते ही आ जाया करती है। स्त्री में एक लहर होती है समुद्र की तरंगों की तरह ,पुरुष जड़ होता है समुद्र किनारे पसरे रेत की तरह।
चंद्रा ने हर पत्नी की तरह पहले भगवत दर्शन की चाह रखी थी 'गणेशजी की नगरी में आए हैं ,चलो पहले सिद्ध विनायक।मुझे मंदिर दर्शन का सबसे बड़ा लाभ यह दिखता है कि इस बहाने हम किसी शहर की स्थानीयता और उसकी प्राचीनता को आसानी से पकड़ लेते है। मुम्बई में बम धमाकों के बाद मंदिरों में सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई है। मुम्बा माता जैसे छोटे मंदिरों में भी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था देखने को मिली थी। रात बंद होते मंदिर में पुलिस अधिकारियों से अनुरोध करना पड़ा था कि 'साब...हम लोग छत्तीसगढ़ से आए हैं...कल चले जावेंगे दर्शन करवा दीजिए।उन्होंने आपसी परामर्श के बाद हमारी विश्वसनीयता को तौलते हुए दर्शन करवा दिए थे। मुम्बा माता के सुरक्षा कर्मियों की जै।
महाराष्ट्र फल फूलों का इलाका है ,जो यहाँ के हर मंदिर के सामने की दुकानों में दिख जाता है। अनार, पपीता, संतरा जैसे मीठे रसदार फल खूब हैं। विशेषकर फूलों से बने गजरे, गुलदस्ते और हारों की सुन्दरता यहाँ देखते बनती है। यह सुन्दरता भरी -पूरी है चाहे शेगॉव के मन्दिरों के सामने हों या शिरडी के, मुम्बई हो या पुणे के या नासिक। यहाँ दक्षिण की तरह महिलाओं में वेणी धारण का चलन है जिसे कहीं कहीं महाराष्ट्र की महिलाओं ने अपने दैनिक जीवन में अपनाया है। यहाँ सामान्य नैन नक्श की स्त्रियॉ बालों में फूल खोंसकर खिल उठती हैं। बेला और लताओं की तरह झूम उठती हैं। ये अपने अधिकारों के प्रति चैतन्य भी हैं। कामकाजी महिलाओं की संख्या केरल के बाद महाराष्ट्र में ही अधिक हैं। मुम्बई जैसी महानगरी में भी कामकाजी महिलाएँ देर रात तक सुरक्षित घर पहुँच जाती हैं। यहाँ महिलाएँ दिल्ली जैसी असुरक्षित नहीं हैं।
सिद्धि-विनायक मंदिर में पीतल के दो बड़े मूषक राज हैं, जिनके कान फूँककर कोई मानता माँगी जाती है। चंद्रा और शैली ने भी कान फूँके थे। स्त्रियाँ पूछने से बताती नहीं हैं ,पर अपने पति की मंगल कामना करती होंगी। चंद्रा ने मेरे लिए कुछ माँगा होगा और शैली बिटिया ने शिशिर के लिए माँगा होगा। शादी के बाद मायके में पहली तीजा मनाने आई हुई शैली को हम छोडऩे पूना जा रहे थे ,जहाँ दामाद शिशिर एक फ्रेंच कम्पनी में इंजीनियर है। हम पूना मुम्बई होते हुए जा रहे थे ;क्योंकि हम तीनों में चंद्रा ने कभी मुम्बई नहीं देखी थी। आज वह मुम्बई में मुम्बई की तरह हसीन लग रही थी।
महाराष्ट्र की मितव्ययता के दर्शन उनकी गणपति पूजा में भी होते हैं। यहाँ के मुख्य मंदिर दक्षिण भारत तथा अन्य राज्यों के मंदिरों की तरह बड़े और थका देने वाले नहीं हैं। मुम्बई और पूना में सार्वजनिक गणेश की कई प्रतिमाएँ इतनी छोटी हैं ,जितनी घरों में स्थापित प्रतिमाएँ होती हैं। सार्वजनिक स्थलों के गणेश पंडालों में वैसी फिजूलखर्ची देखने में नहीं आती ,जितनी महाराष्ट्र के पड़ोसी राज्यों मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखने में आती हैं। महाराष्ट्र में तीन दिनिया और पाँच दिनिया गणेश भी होते हैं। वहॉ गणेश पर्व में तकरीबन रोज विसर्जन देखने में आते हैं जबकि हमारे छत्तीसगढ़ में ग्यारह दिनों तक मूर्ति रखी जाती है। भक्ति भाव से भरे छत्तीसगढ़ में विराट झाँकियाँ होती हैं और ग्यारह दिनों तक बिजली की बेहिसाब खपत और लाउड-स्पीकरों की चिंघाड़ अलग। आर्थिक रुप से विपन्न राज्य बंगाल तो अपने पूजा पर्व में पाँच सौ करोड़ फूँक डालता है। यहाँ ताली बजाकर भजन गाता मराठी मानुस मुख्य त्योहार गणपति पूजा में अपने को अनावश्यक आडम्बर से बचा ले गया है। भारत की निम्न मध्यम-वर्गीय जनता को दिखावे से बचकर मितव्ययी जीवन शैली को महाराष्ट्र से अपनाना चाहिए। हो का ... बरोबर ? बरोबर...हौ !  मितव्ययी महात्मा गाँधी भी इस राज्य को खूब रास आए थे और इसीलिए गाँधीजी सर्वाधिक बीस बरस यहीं सक्रिय रहे हैं। मणि भवन और सेवाग्राम में उनकी स्मृतियाँ देखी जा सकती हैं। पुणे में आगाखाँ महल में बापू के साथ नजरबंद कस्तूरबा ने अपने प्राण तजे थे। बंबई प्रेसीडेन्सी की राजधानी के रूप में बंबई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा- इस संग्राम की प्रमुख घटना यहाँ 1942 में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था
महाराष्ट्र ने अपने पौराणिक और ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण संवर्द्धन के नाम पर अपना ज्यादा सिर नहीं खपाया है। यहाँ ज्यादातर तीरथधाम जिन स्थानों को माना गया है वे किसी पौराणिक गाथाओं से जुड़े महानायकों की धर्म-स्थली कम हैं बल्कि विगत कुछ शताब्दियों के भीतर जनमे संत व समाज सुधारकों के जन्म स्थान ज्यादा हैं जैसे - संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, तुकड़ोजी, गजानन महराज और शिरडी वाले सांई बाबा। यहाँ से अण्णा हजारे की हुंकार  उठी है। यह अपने समाज सेवियों और सुधारकों को महान बनाता है, उन्हें पूज्य मानता है। अप्रामाणिक और काल्पनिक देवी देवताओं की ओर यह ज्यादा नहीं भागता। यहाँ लोगों का नजरिया व्यावहारिक अधिक है और वर्तमान में अधिक जीते हैं। अनावश्यक भावुक और ज्यादा अतीतजीवी नहीं है- नासिक, औरंगाबाद और एलोरा की दशा देखकर यह भान हो जाता है। इसने मुंबई और नागपुर के बाद अपने तीसरे आधुनिक और रोजगारपरक केन्द्र के रुप में विकसित किया है। पुणे को जो आज पूरे देश में साइबर एजुकेशन और मल्टी-नेशनल कंपनियों का एक बड़ा अड्डा है हैदराबाद और बंगलोर की तरह। लोकमान्य तिलक ने उन्नीसवीं सदीं में पुणे में अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा की जो नींव रखी थी ,उसका परिणाम आज यहाँ अपने उत्कर्ष पर है। शिशिर कहता हैं कि 'पुणे का क्लाइमेट उसका प्लस है।शैली की तरह देश की सारी लड़कियों का प्रिय शहर है पुणे। सब वहीं पढऩा, नौकरी करना और शादी करके रहना चाहती हैं। वैसे भी पुणे रहने-बसने के लिए एक आदर्श स्थल पहले से ही माना जाता रहा है। आर्मी से रिटायर होने वाले अफसरों का यह फायनल सेटलमेंट के लिए सबसे पसंदीदा शहर रहा है। आज भी यहाँ मार्निंग वॉक में कुत्ता दौड़ाते फौजी अफसर ज्यादा मिलेंगे। क्रान्तिकारी विचारक और प्रकृति प्रेमी रजनीश ने भी अपने आश्रम के लिए पुणे को ही चुना था। उनका ओशो पार्क तो आज भी बागवानी के क्षेत्र में एक मिसाल है। प्लांटेशन का बेहद खूबसूरत और आधुनिक तरीका है जो दशकों पहले किया गया होगा।
टूरिस्ट बस का गाइड कहता है- 'लेडीज एण्ड जेंटलमैन... यह है कोलाबा। यहाँ से हम अपना मुंबई विजिट चालू करेंगा और आपको जुहु में खतम कर देंगा।गाइड ऐसी लच्छेदार शैली में मुंबई का चित्रण करता है कि पता नहीं चलता कि वह मुंबई की तारीफ कर रहा है या उसकी खिंचाई- 'यह जसलोक अस्पताल है जहाँ भरती होने वाले परलोक सिधार जाते हैं... यह रेसकोर्स मैदान हैं जहाँ दर्जनों घोडे दौड़ते हैं और जिन्हें हजारों गदहे देखते है।
कोलाबा यह कालबादेवी का नजदीकी इलाका है। कहते हैं भारत में नए फैशन की शुरुआत यहीं से होती है। यह दक्षिण मुंबई है और मुंबई दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ती है। समुद्र के किनारे किनारे मीलों दूर तक। आगे 'नवी मुंबईबस गई है। एक तरफ समुद्री किनारा और दूसरी तरफ उसकी गगनचुम्बी इमारतें। एक तरफ जल समुद्र और दूसरी ओर कंक्रीट समुद्र और इनके फुटपाथों पर है जन-समुद्र। साफ सुथरी घुमावदार सड़कें। सड़क के दोनों ओर हरियाली। पुराने दरख्तों की छायाएँ। सड़कें किसी बगीचे की वीथिकाओं की तरह और इन पर दौड़ती हुई चमचमाती कारें, काले पीले रंग की टैक्सियाँ और दो-मंजिला बसें। सड़कों के किनारे बनी पटरियों पर भागती हुई लोकल ट्रेनें। फुटपाथों पर तेज पैदल चलती जिन्दगी। जीवटता और जिजीविषा दोनों का अद्भुत तालमेल। संघर्ष करने वाले को अमिताभी उंचाइयॉ देता महानगर। कुदरत ने इस शहर को बेशुमार खूबसूरती बख्शी है, अपने समुद्री किनारों की तरह बेइन्तिहा। आँखें इस बेइन्तिहा को देखती नहीं थकतीं। हर लोकेशन जानदार। इसकी सुन्दरता के कारण ही यहाँ दुनिया की दूसरी बड़ी फिल्म सीटी है 'बॉलीवुड। जब बम्बई थी ,तब बॉलीवुड अब तो मुम्बई हो गई है तो क्या इसे मॉलीवुड कहा जाना चाहिए?
किसी राज्य को एक मेट्रो सिटी मिल गई ,तो समझो उस राज्य की किस्मत का पिटारा खुल गया। आर्थिक और सांस्कृतिक केन्द्र खूब फलते फूलते हैं इन मेट्रो-नगरों में। राजनीति, कला, साहित्य, विचार सब कुछ यहाँ तीव्रगामी हो उठते हैं। प्रतिभाओं के पनपने के कई मंच यहाँ होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय तंत्र से इनके तार जुड़े होते है। मेट्रो-विहीन राज्य दशकों पड़े रहते हैं अजगर की तरह। ऊँघते हुए, कमतर संभावनाओं के साथ।
कभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा था कि 'अपनी बम्बई मुझे दे दीजिए और फिर देखिए हमारे मध्य प्रदेश को।हालाँकि इन्दौर को मध्यप्रदेश का बम्बई कहा गया है ,पर इन्दौर मध्यप्रदेश का विकास नहीं कर सका; क्योंकि वह बम्बई की तरह मेट्रो नहीं है ,न हो सकता है। वैसे हर राज्य वाले अपना सीना फुलाने के लिए अपना एक 'बाम्बेघोषित करके रखे हुए हैं। केरल वाले एर्नाकुलम को, कर्नाटक में बंगलोर को, गुजरात में सूरत को बम्बई की संज्ञा दी जाती है। आजकल हरियाणा 'गुडगाँवको और उत्तर प्रदेश 'नोएडाको बांबे बनाने पर तुले हुए हैं। औद्योगिकीय और प्रौद्योगिकीय ऊँचाई का आधुनिक प्रतीक बन गई है मुम्बई। यह सोचकर हँसी आती है कि आज के इस समृद्ध नगर को कभी पुर्तगालियों ने एक प्राइवेट कम्पनी को फकत पाँच सौ सैंतीस रुपयों में बेच दिया था और एक बार चार्ल्स-द्वितीय को दहेज में दे दिया था।
मुम्बई के ज्यादातर दर्शनीय स्थल कालबादेवी के पास उसके पीछे बसे हैं। सी.एस.टी. या कोलाबा से शुरु करो और समुद्र के किनारे किनारे चलते चलो फिर गेटवे ऑफ इंडिया, चौपाटी, चर्चगेट, नरीमन पाइंट, एक्वीरियम, हैंगिंग गार्डन, महालक्ष्मी, हाजीअली की दरगाह, प्लेनेटोरियम फिर थोड़ी दूरी तय करते हुए जुहू बीच, जहाँ मुम्बई दर्शन खतम।  यही पुरानी बम्बई है जिसकी दिलकश अदा जॉनीवाकर के अन्दाज में है 'ये है बम्बई मेरी जान।यह महानगर अपना अपना- सा इसलिए लगता है; क्योंकि हिंदी फिल्मों ने इसके हर मोहल्ले गली चौराहों और समुद्री किनारों जैसे हर लोकेशन का इतना जमकर और खूबसूरत फिल्मांकन किया है कि देश की जनता को यह एकदम जाना पहचाना-सा शहर लगता है। पहली बार यहाँ आने पर भी कोई अजनबीपन नहीं दिखता। लगता है -जैसे बरसों से देखते आए हैं इस शहर को। अंग्रेजों ने इसे बाम्बे कहा, हिन्दी वालों ने बम्बई और अब मराठी मानस की मुम्बई।
रास्ते में जुहू बीच पहुँचने से पहले एक नया शार्टकट बन गया है वर्ली से बांदरा के बीच समुद्र के उपर छह किलोमीटर लम्बा पुल इसका नाम है राजीव गॉधी सेतु। यह समुद्र सतह से सवा चार सौ फुट ऊँचा है। इसे टैक्सी में घूमने के लिए पचहत्तर रुपयों का टोल टैक्स पटाना पड़ता है। शैली ने टैक्सी में बैठे हुए ही इसके अनेक मनोहारी और भव्य दृश्यों को अपने मोबाइल कैमरे में चुपके से कैद कर लिया ,जो बेहद खूबसूरत आए हैं हमने इसे अपने कम्पयूटर के डेस्क टॉप पर डिसप्ले कर लिया है।
समुद्र सेतु से हम देखते हैं इस नगरी के विहंगम दृश्य को जिसका उद्भव ईसापूर्व ढाई सौ वर्ष माना जाता है। कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं कि यह द्वीप समूह पाषाण युग में बसा हुआ है ,जिसमें मानव आबादी के लिखित प्रमाण मिलते हैं ,जिनका उल्लेख ग्रीक साहित्य में भी है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में ये द्वीप समूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक  महान का शासन था। कुछ पुरातन नमूने ऐलीफैंटा में इस काल के मिलते हैं। यहाँ सातवाहन राजा थे। उस काल में यह नगरी सात द्वीपों का समूह थी और हेपटेनेसियाया हेपटेसियानाम से जानी जाती थी।
'हेप्टायानी सात- लावा निर्मित सात छोटे छोटे द्वीपों से यह बनी थी। इसके कटे -फटे तटों के कारण यह प्राकृतिक बंदरगाहों के लिए सर्वथा उपयुक्त स्थान था, यह नाव और नाविकों को सुरक्षा देने वाला था। इसलिए भी यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका जैसे पश्चिमी देशों की ओर से आने वाले जहाजों के लिए यह भारत का प्रवेशद्वार था और जिसकी परिणति में बना 'गेटवे आफ इंडिया।’ 'हेपटेसियायानी सात द्वीपों का समूह जिसकी खोज का श्रेय प्रसिद्ध भूगोल वेत्ता 'पिटोलमीको जाता है। हेपटेसिया में टेसिया शब्द जुड़ा है, हमारी छत्तीसगढ़ी बोली में 'टेसिया मतलब शान जतलाने वाला होता है। मुम्बई की शान निराली है इसे जग जानता हैं। मैं छत्तीसगढ़ी में उससे कहता हूँ 'मुम्बई तेहाँ बिक्कट टेसिया हस’ (मुंबई, तू बड़ी शान जतलाने वाली है)।
चौदहवीं शताब्दी में यहाँ हिन्दू राजाओं ने राज किया फिर गुजराती मुसलमानों ने... तब हाजी अली की दरगाह बनी... फिर पुर्तगालियों के अधीन में आई.. फिर अंग्रेजों ने इसे मुख्य व्यावसायिक केंद्र के रुप में विकसित किया था लंदन की तरह। कोलम्बस ने अमेरिका खोजा और अमेरिका में 'सिविल वारहुआ तब वहाँ के कपास और कई वस्तुओं की माँग बढ़ गई, जिसकी भरपाई मुंबई ने की और तेजी से आगे बढ़ी। यहाँ काटन ग्रीन, काटन एक्सचेंज जैसे स्थान आज भी मिल जाते हैं। यह नगरी आधुनिक व पारंपरिक सभ्यता व संस्कृति के मिश्रित स्वरूप को धारण कर विकसित हुई है। कलकत्ता-बम्बई ये दो महानायक नगर भारत माता के जुड़वा बेटों की तरह थे और इन दोनों ने देश का नेतृत्व किया, देश की अर्थ-व्यवस्था को मजबूत आधार दिया। कलकत्ता अब कमजोर पड़ गया है; लेकिन बम्बई आज भी इठलाती बलखाती विकास की पट्टी पर दौड़ी जा रही है नित नया सीखने और सिखाने को आतुर। आज यह महानगरी देश को प्राप्त कुल विदेशी मुद्रा का आधा अकेली ही अर्जित कर लेती है। इस मायानगरी हेपटेसिया की चकाचौंध में जो भी आता है वह डूब जाता है। हम भी डूब गए थे।
जब दूसरे दिन हम टूरिस्ट बस में थे, तब राजीव गाँधी सेतु के ऊपर से फिर गुजरते हुए मेरा गौरव-बोध जागा और मैंने गाइड से कहा कि 'इस पुल को बनाने में जो लोहा लगा है ,वह हमारे भिलाई स्टील प्लांट का है ,जहाँ मैं कार्यरत हूँ।तब गाइड ने हुमककर कहा 'अरे साहब! तब लीजिए माइक और बताइए इन घुमन्तुओं को।माइक पकड़ते ही मैं किसी पेशेवर गाइड की तरह शुरू  हो गया था Ladies & Gentlemen.., you are welcome to Rajeev Gandhi Setu.. for construction of this bridge out of twenty two thousand meteoric tons steel used, fifteen thousand tons steel were supplied by Bhilai Steel Plant.  So being an employee of Bhilai Steel Plant, whenever I pass through this bridge I feel pround...तब बस में बैठे लोगों ने तालियाँ बजाकर मेरा अभिवादन किया। लेखक साहित्यकार को और क्या चाहिए। उसके बोले या लिखे हुए पर तालियाँ या प्रशंसा के दो शब्द... और मैंने वह यहाँ अर्जित कर लिया था हेपटेसिया की तरह.. आकांक्षाओं के लिए कसमसाती हुई मुंबई की तरह।
व्यंग्यकार शरद जोशी की एक रचना है जिसमें ट्रेन में बैठा एक साधु एक निराश युवक को देखता है और उसकी निराशा का कारण पूछता है तब युवक कहता है कि 'मैं  इस जीवन से टूट गया हूँ बाबा।इस पर साधु कहता है कि 'उदास मत हो रे बालक ...अभी तो तूने नारी के साथ संभोग नहीं किया, बम्बई नहीं देखी।यहाँ बम्बई देखने के सुख की कल्पना नारी के साथ संसर्ग से की गई है। शरद जोशी ने इसी बम्बई में अपने लेखकीय संघर्ष और जीवन के अंतिम समय बिताए थे जब वे टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में कार्यरत थे और नवभारत टाइम्स के लिए 'प्रतिदिननामक एक स्तंभ प्रतिदिन लिखा करते थे। तब बम्बई का पाठक अखबार के पहले पृष्ठ से नहीं उसे अंतिम पृष्ठ से बाँचना आरम्भ करता था ;क्योंकि अंतिम पृष्ठ पर शरद जोशी होते थे। यह था किसी साहित्यकार के प्रति पाठकों का प्रेम। आज जबकि साहित्य जगत में 'पाठकों का संकटको लेकर बहसें चल रही हैं।
शरद जोशी की याद आई और हम टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के सामने खड़े हैं जहाँ बैनट एण्ड कोलमैन का प्रकाशन समूह लम्बे समय तक देश में साहित्य और विचार के संस्कार देता रहा। धर्मयुग, सारिका, दिनमान, माधुरी और इलस्ट्रेटड वीकली जैसी बंद हो चुकी अपने समय की बेहद चर्चित पत्रिकाओं को मुद्दतों बाद शिद्दत से याद किया। कभी हिन्दी साहित्य का गढ़ थी बम्बई, अब तो सब कुछ दिल्ली ने छीन लिया है।
विक्टोरिया टर्मिनस रेलवे स्टेशन का यह चौराहा जहाँ सामने मुंबई महानगर-पालिका है और एक ओर टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग है,यह मुम्बई का सर्वश्रेष्ठ परिसर है। विक्टोरिया टर्मिनस की तरह गोथिक शैली में दिखने वाली इन इमारतों की भव्यता और उनके शिल्प को देखने वाला मुग्ध होकर देखता रह जाता है। विक्टोरिया टर्मिनस जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस हो गया है - यह सौ बरस से अधिक पुरानी इमारत है जिसे अपनी स्थापत्य कला के कारण 'विश्व धरोहरमें शामिल कर लिया गया है। इसकी बाहरी दीवारों पर सूक्ष्म नक्काशी की गई है। प्रवेश द्वार पर मोर व बाघ के विशाल बुत हैं। भवन के अग्रभाग में रानी विक्टोरिया की आकर्षक मूर्ति है। ऐसी ही चार विक्टोरियन बहनों में से एक के बेटे घनी मूँछों वाले रुडयार्ड किपलिंग याद आए, जो बंबई में जनमे, पले बढ़े थे और जिन्हें कविता कहानी के लिए 1907 में नोबल पुरस्कार मिला था। नोबल पाने वाले वे अंग्रेजी भाषा के पहले लेखक थे। बच्चों के लिए लिखी गई रुडयार्ड किपलिंग की 'जंगल बुकको पढ़ने का मजा कुछ और था।
मुंबई बाय नाइट यानी मुंबई रात की बाहों में जैसी पर्यटन सुविधाएँ भी अब उपलब्ध हैं जिसके लिए 'बेस्टकी खुली बसों का उपयोग किया जाता है। ये बसें शाम से शुरू  होकर कुछ घंटों में घुमा लाती हैं। इसमें गाइड होता है, जो रोशनी से चमचमाती मुम्बई के खास स्थानों को दिखा लाता है। इस शहर की चकाचौंध देखकर सहज ही अंदाजा हो जाता है कि यह शहर कभी सोता नहीं है। इसकी आधुनिक जीवन शैली, ऊँची-ऊँची ईमारतें, शानदार होटल, पब व डिस्कोथिक इसे रात भर जगाए  रखते हैं।
चाँदनी रात है, गेटवे-ऑफ-इंडिया से मोटरबोट लांच हुआ है और हम अरब सागर में तफरीह कर रहे हैं। हम ऐसे समय में यहाँ खड़े हैं जब गेटवे ऑफ इंडिया अपने सौ बरस पूरे कर रहा है। यह स्वागत द्वार है जो जॉर्ज पंचम व महारानी मैरी के आगमन पर उनके स्वागत में बना था। तीस बरस पहले इसी अरब सागर में अपने बेटे सिद्धार्थ के मुंडन किए बालों को डाला था भाउ-चे-धक्का में और वहाँ से जहाज द्वारा गोवा के लिए बाइस घंटे की समुद्री यात्रा की थी। अभी हमारे सामने होटल ताज और न्यू-ताज की रोशनयुक्त इमारत है। आतंकवादियों से जूझकर फिर तना खड़ा है होटल ताज। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। रात में मैरीन ड्राइव की चमक बढ़ गई है। नरीमन पाइंट का वृत्ताकार क्षेत्र बिजली की झिलमिलाहट में रत्न जडि़त हार की तरह लगता है किसी 'क्वीन्स नेकलेसकी तरह। खूबसूरत कटाव वाले तटवर्ती क्षेत्र बिजली की झालरों जैसे झिलमिल कर रहे हैं। यह झिलमिल सागर की लहरों के भीतर भी है। जहाँ तहाँ जहाज अपनी लंगर लगाए किसी साधक की तरह धीर-गंभीर खड़े हैं। ऊपर चाँद है और नीचे मुम्बई की चाँदनी। इस चाँदनी में नहाती हुई पत्नी चंद्रा है और उसके साथ रोमांचित होती हुई बिटिया शैली है जो कैमरे में मुम्बई को भर लेने को आतुर है। मैं जहाज की रैलिंग को पकड़ा हुए एक बार उन्हें देखता हूँ और एक बार चमचमाती हुई मुम्बई को जो ईसापूर्व ढाई सौ बरस पहले सात द्वीपों का समूह थी और उसका नाम 'हेपटेसियाथा। अपनी मातृ भाषा छत्तीसगढ़ी में मैं कुछ बुदबुदा रहा हूँ शायद यही कि 'हेपटेसिया... तैं हा बिक्कट टेसिया हस। मुम्बई... तू बड़ी शान जतलाने वाली है।
सम्पर्क: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001, मो. 9009884014, Email- vinod.sao1955@gmail.com