उम्मीद की एक किरण...
-डॉ. रत्ना वर्मा
तरक्की करता हमारा देश, अपने को सभ्य और शिक्षित कहलाने वाले हमारे देश के
नागरिक... सितारों के पार पहुँचते हमारे वैज्ञानिक, दुनिया भर में हमारे देश की प्रतिभाओं का बोलबाला... कितना अच्छा लगता है यह सब सुनकर, पढ़कर... सब गर्व करने लायक बातें...
लेकिन यहीं कहीं बीच में तब हमारा सिर शर्म से झुक जाता है, मानवीयता तार- तार हो जाती है, जब यह पढ़ने और सुनने मिलता है कि छोटी-छोटी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार,
गैंगरेप, दुराचार और अत्याचार की लोमहर्षक
दुर्घटनाएँ हो रही हैं। इसी तरह तथाकथित बाबा, धर्म और अध्यात्म की आड़ में जितने घिनौने काण्ड करते हैं, उसने तो हमारी आस्था और हमारी धर्म-
संस्कृति की चूलों को हिलाकर रख दिया है। राजनेता भी इसमें पीछे नहीं।
नारी को देवी का अवतार मानकर पूजने वाले देश में नारी की यह
कैसी पूजा और कैसा सम्मान, जहाँ एक आठ साल
की बच्ची को बंधक बनाकर, नशीली दवा
पिलाकर आठ लोगों द्वारा एक मंदिर परिसर में कई- कई दिनों तक बलात्कार करके और फिर
हत्या कर दी जाती है। इंतेहा तो तब हो गई, जब इंदौर में एक
तीन माह की बच्ची को अपनी हैवानियत का शिकार बनाया गया। क्या इस तरह की घटनाएँ
कौन-सी मानसिकता का परिचायक हैं। मानव इतना ज्यादा बर्बर, हिंसक और हैवान कैसे हो गया? आखिर कोई मनुष्य कैसे इतना अमानवीय, क्रूर और हिंसक हो सकता है कि एक तीन माह
की बच्ची के साथ इतनी वीभत्सता के साथ पेश आए। रूह काँप जाती है यह सब पढ़-सुनकर।
समाज के माथे पर
कलंक की तरह हैं ये सब सवाल। आखिर ऐसे वीभत्स अपराध के पीछे कौन से
मनोवैज्ञानिक कारक काम कर रहे हैं- बदलती सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक स्थितियाँ, हमारी शिक्षा व्यवस्था, सोशलनेटवर्किंग या कुछ और जिसे हम समझ
नहीं पा रहे हैं। कारण चाहे जो भी हों ,हमें हल तो
तलाशना ही होगा। निर्भया बलात्कार काण्ड के बाद कठुआ, सासाराम, उन्नाव और मध्यप्रदेश में घटी ऐसी कई घटनाएँ हैं ,जो सवाल कर रही हैं - हमारी सुरक्षा
व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, शिक्षा व्यवस्था पर, और पूरे समाज पर कि ऐसे कौन से कारण हैं, जो मनुष्य को हैवान बना रहे हैं। छोटी बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार के
अधिकतर मामलों में देखा यही गया है कि अपराधी परिवार का कोई रिश्तेदार, पड़ोसी या वह दोस्त होता है,जिनपर परिवार वाले आँख मूँदकर विश्वास
करते हैं।
दिल को झकझोर देने वाली घटनाओं को लेकर चाहे वह निर्भया का
मामला हो या कठुआ का, देश के संवेदनशील नागरिक न्याय और सुरक्षा
की गुहार लगाते जब सड़क पर उतर आते हैं, तो यही
प्रतिक्रिया होती है कि मामला जैसे ही ठंडा होगा ,सब भूल जाएँगे कि एक मासूम बच्ची के साथ क्या हुआ था। लेकिन
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी आवाजें
ही हमारी संवेदना को जगाए रखती हैं, मानव होने की
यही सबसे बड़ी निशानी है कि वह इस तरह के मामलों में अपना आक्रोश जताए। जनता की
आवाज़ में बड़ी ताकत होती है वह व्यवस्था और कानून को बाध्य कर सकती हैंकि उन्हें
न्याय चाहिए।
दिल्ली में हुए
निर्भया प्रकरण के बाद आपराधिक कानून में संशोधन किया गया। इस सूची में एसिड हिंसा
और घृणा के सम्बन्ध में भी सजा का प्रावधान किया गया। वहीं, अपराध की गंभीरता देखते हुए अपराधी को मौत
की सजा का प्रावधान किया गया और जेल की अवधि में भी वृद्धि की गई। मई 2017 में किशोर न्याय कानून में बड़ा बदलाव
किया गया। इसके तहत जघन्य अपराध की घटनाओं में शामिल 16 साल या इससे अधिक उम्र के
किशोर पर भी वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जा सकता है। हाल ही में एक अध्यादेश जारी
कर 11 वर्ष तक की बच्चियों के साथ बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया है।
देखा यही गया है
घिनौने से घिनौना कृत्य करने वालों को सजा का ख़ौफ़ ही नहीं होता। वह सोचता है कि वह पैसे और ताकत के बूते पर पुलिस और कानून सबको खरीद
लेगा। अधिकतर मामलों में गवाह और सबूत के अभाव में वे छूट भी जाते हैं। राजनैतिक
दबाव में पुलिस भी अपराधियों का बचाव करते नज़र आती है। उन्नाव रेप मामले में यही
हुआ। मामला जब सीबीआई के पास आया ,तो उसने पीडि़ता
द्वारा लगाए गए आरोप को सही पाया। अत: कानून में सुधार और न्याय प्रक्रिया में
तेजी लाने की जरूरत है। आसाराम जैसे पाखंडी को भी अंतत: सजा मिली, भले ही उन्होंने अपनी पूरी ताकत ही क्यों
न झोंक दी हो अपने को बचाने में। आसाराम जैसे बाबाओं पर अंधश्रद्धा रखने वाली
जनता को भी समझ में आना चाहिए कि धर्म की
आड़ में ये ढोंगी बाबा कैसे- कैसे अनैतिक कार्य करते हैं।
ऐसे समय में जब चारो ओर घोर निराशा और हताशा का माहौल है, हमारी सड़ांध- भरी बहुत ही अँधियारी न्याय
प्रक्रिया के दलदल से उम्मीद की एक किरण मध्यप्रदेश के इंदौर से आई है। पिछले माह
20 अप्रैल को नवीन गोडको नामक एक व्यक्ति(जिसे मानव कहना अमानवीय होगा)द्वारा एक तीन माह की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या
के मामले में तुरंत जाँच करके अभियोग पत्र दाखिल किया गया। 29 गवाहों के बयान, सीसीटीवी की रिर्पोट और डीएनए टेस्ट की
रिपोर्ट के आधार पर इन्दौर की सेशन जज वर्षा शर्मा ने लगातार सात दिन तक सात- सात
घंटे सुनवाई करके घटना के 22 वें दिन 12 मई
2018 को अपराधी को फाँसी की सजा सुना दी। अदालत ने अपने 51 पेज के फैसले
में टिप्पणी की है कि 'मुजरिम ने जो
जघन्य और वीभत्स तरीके से क्रूरतापूर्ण और जंगली कृत्य किया है, इसे देखते हुए यह शख्स समाज में गैंगरीन
जैसे रोग की तरह है। जिस तरह चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के शरीर के गैंगरीन
प्रभावित हिस्से को ऑपरेशन के जरिए अलग कर दिया जाता है, उसी तरह ऐसे अपराधी से समाज को बचाने के
लिये उसे समाज से बिल्कुल अलग करना आवश्यक है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए घातक है। ’ अदालत का यह फैसला स्तुत्य है, और उम्मीद है कि यह फैसला देश की न्याय
व्यवस्था के लिए उदाहरण बनेगा।
यह तो मानी हुई बात है कि कानून, कानून तब बनता है, जब वह सत्य बन जाता है। यह कानून तभी
कारगर होगा जब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी इन्दौर के सेशन जज के इस फैसले पर तुरंत
ही फाँसी की मुहर लगा देते हैं, अन्यथा हजारों लम्बित मामलों की तरह 20-30
साल तक कभी गवाहों के अभाव में कभी सुबूतों के अभाव में, तो कभी और किसी दबाव में, फैसला सुनाने में देरी होती रहेगी और
न्याय की उम्मीद लगाए जनता की आँखें पथरा जाएँगी।
1 comment:
It is a very good editorial.
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