प्रतिमाओं में राजकपूर
- प्रमोद भार्गव
हमारे देश में अनेक संग्रहालय हैं। इनमें से ज्यादातर पुरातत्व, संगीत, राजा-महाराजाओं के विलासपूर्ण जीवन और प्रकृति व विज्ञान से जुड़े हैं। दिल्ली में एक रेल संग्रहालय भी है, जिसमें रेल इंजन और डिब्बों के विकसित व परिवर्तित होते स्वरूपों को दर्शाया गया है। किंतु पूना में एक विलक्षण संग्रहालय देखने को मिला। यह संग्रहालय हिन्दी सिनेमा के शो-मेन राजकपूर की स्मृति में बनाया गया है। इसमें अपने अभिनय में जान डाल देने वाली रचनात्मकता एवं भावुकता राजकपूर की प्रतिमाओं में परिलक्षित है। दरअसल यह संग्रहालय उस 125 एकड़ भूमि के शैक्षिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिसर भूमि में निर्मित है, जिसे राजकपूर के परिवार ने इस संस्थान के संस्थापक विश्वनाथ डी. कराड को दान में दी थी। लेकिन राजकपूर की शर्त थी, कि शिक्षा के साथ-साथ इस संस्थान को ऐसे भारतीय संस्कृति के प्रतिबिंब के रूप में प्रस्तुत किया जाए, जिसमें भारतीय संस्कृति की विरासत झलके। शायद राजकपूर के
इसी स्वप्न को साकार रूप में ढालने की दृष्टि से इसके कल्पनाशील संस्थापकों ने महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) जैसे विशाल शिक्षा संस्थान को आकार दिया। फिर इस परिसर में संगीत कला अकादमी एवं वाद्य-यंत्र संग्रहालय, सप्त-ऋृषि आश्रम और भारतीय सिनेमा के स्वर्ण-युग से साक्षात्कार कराने वाला राज कपूर संग्रहालय अस्तित्व में लाए गए। उनकी मृत्यु के 25 साल बाद इस संग्रहालय का उद्घाटन करते हुए उनके पुत्र रणधीर कपूर ने भावविभोर होते हुए कहा था, 'इस परिसर में मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि मेरे महान पिता की आत्मा यहाँ हर जगह वास कर रही है। वे हरेक पेड़ और फूल में जीवन की तरह जीवित हैं। इस स्मारक के निर्माण के लिए मैं श्री विश्वनाथ कराड के प्रति हृदय से आभारी हूँ । इस संस्थान के जरिए उन्होंने मेरे पिता के सपने को साकार रूप दिया है।‘
मुख्य शहर पुणे से यह संग्रहालय करीब 25 किमी दूर पुणे-सोलापुर मार्ग पर लोनी ग्राम में स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए हड़पसर तक के लिए नगर सेवा बसें हैं। हड़पसर से संग्रहालय तक ऑटो आसानी से मिल जाते हैं। ये ऑटो एमआईटी परिसर के द्वार पर छोड़ देते हैं। लोनी रेलवे स्टेशन भी है। परिसर के भीतर पैदल या स्वयं के वाहन से जाया जा सकता है। यदि यहाँ के संग्रहालयों को देखना चाहते हैं तो 300 रुपए का टिकट खरीदना पड़ता है। संग्रहालय का जो परिसर है, उसे भारतीय धर्म और संस्कृति से जोड़ते हुए भगवान शिव की तांडव नृत्य करते हुए और त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशाल प्रतिमाएँ हैं। संग्रहालय का जो मुख्य द्वार है, उसके ऊपर फिल्मों के पितामह दादासाहब फाल्के की प्रतिमा बिठाई गई है। मालूम हो भारत में फिल्मों के निर्माण की शुरूआत दादा साहब फाल्के ने ही की थी। मंडप में प्रवेश के साथ सबसे पहले राजकपूर और उनकी धर्मपत्नी कृष्णा कपूर की प्रतिमाएँ
दिखाई देती हैं। इसके बाद राजकपूर ने फिल्मों में जो ग्रामीण भूमिकाएँ अभिनीत की हैं, उनकी जीवंत मूर्तियाँ हैं। कुल तीन मंडपों और उनसे जुड़ी गैलरियों में करीब 100 प्रतिमाएँ लगी हुई हैं। इन मंडपों और गैलरियों में प्रवेश के साथ ही मूर्तियों से जुड़ी फिल्मों की जानकारी ऑडियो टेप के जरिए गूँजने लगती है। मसलन यहाँ दर्शक के साथ जो गाइड चलता है, वह कोई जानकारी नहीं देता। उसके बजाय टेप में दर्ज उद्घोषक की आवाज जानकारी देती है। यही नहीं फिल्म में जिन अदाकारों ने जो संवाद बोले हैं, वे संवाद जस की तस गूँजने लगते हैं। इस समय ऐसा लगता है मानो राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद मनोज कुमार या अन्य कलाकार स्वयं संवाद बोल रहे हों।
इस संग्रहालय में उन सब अभिनेता एवं अभिनेत्रियों के भी बुत हैं, जिन्होंने राजकपूर के साथ फिल्मों में काम किया है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमा के साथ राजकपूर दिलीप कुमार और देवानंद की भी प्रतिमाएँ हैं। एक मंडप हिन्दी सिनेमा के खलनायकों को भी समर्पित है। इसमें अमजद खान, प्राण, अजीत, अमरीश पुरी, जीवन, मदन पुरी, ओमपुरी इत्यादि के बुत बने हुए हैं। इसी तरह से एक मंडप हास्य कलाकारों को अर्पित है। इसमें ओमप्रकाश, महमूद, असरानी केस्टो मुखर्जी, जॉनी वॉकर और मुकरी के बुत जीवंत अभिनय करते हुए प्रकट हैं। संग्रहालय में संगीतज्ञों, गायकों, और सह-कलाकारों की भी नयनाभिराम मूर्तियाँ हैं। एक मंडप में राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और माँ रामसरनी देवी के साथ भगवान शिव की आराधना में लीन है। इस कक्ष को इनका समाधि स्थल भी कहा जाता है। राजकपूर के मेरा नाम जोकर आवारा, आग, श्री 420 और बरसात फिल्मों में जिस पात्र का अभिनय किया है, उनके जीवंत बुत हैं। एक कक्ष में राजकपूर शांत मुद्रा में सोए हुए हैं।
इस परिसर के एक सिरे पर मूला-मूथा नदी भी है। जिस पर बाँध बनाकर पानी रोकने का इंतजाम किया गया है। इस नदी के किनारे पर सप्त-ऋृषि आश्रम हैं। इन आश्रमों में विश्वामित्र, जमदग्निी, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप ऋृषि छात्रों को शिक्षा देते हुए दिखाए गए हैं। कुटीरों के बाहर हवन-कुंड और तुलसी के बिरवे हैं। नदी के बीचों-बीच तीन छत्रियाँ हैं, जिन पर नाव के जरिए पहुँचा जा सकता है। इन आश्रमों को गुरुकुल मानते हुए विश्वनाथ कराड ने संदेश दिया है कि शिक्षा आनंद और शांति के लिए है। इस परिसर में वह बंगला भी है, जिसमें राजकपूर अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ बिताया करते थे।
परिसर में एक विशाल भवन विश्व-शांति संगीत कला अकादमी के लिए समर्पित है। इस भवन में सात मंडप हैं, जो गैलरीनुमा गोखों से जुड़े हुए हैं। इस भवन के मुख्य मंडप में देवी सरस्वती की विशाल प्रतिमा है। सात में से पाँच मंडपों में वाद्य यंत्रों के संग्रहालय हैं। ये यंत्र भारतीय संगीत की विरासत से परिचय कराते हैं, इसमें रावण द्वारा बजाए जाने वाले 'रावण-हत्था’वाद्य यंत्र की भी सचित्र जानकारी दी गई है। इसी भवन में संगीत महाविद्यालय के साथ फिल्म एँ ड टेलिविजन इंस्टीट्यूट भी है। खुले परिसर में ग्राम जीवन को दर्शाते हुए गाय,बैल और हिरणों के बुत हैं। सब कुल मिलाकर यह एक ऐसा अनूठा परिसर है, जो हमारे पारंपरिक ज्ञान और आध्यात्म के माध्यम से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को जोडऩे का विलक्षण काम कर रहा है।
सम्पर्क: शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100, फोन 07492 404524, Email - pramod.bhargava15@gmail.com
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