– डॉ.आरती स्मित
ईमेल के साथ चीड़- देवदार की फैली बाँहों का
सँदेसा मिला। आमंत्रण था -- महादेवी सृजन
पीठ एवं कुमाऊँ विश्वविद्यालय ,अल्मोड़ा द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में
अतिथि वक्ता के रूप में शामिल होने का। विषय था -- हिंदी साहित्य -चेता , विलक्षण साहित्यकार 'अमृतलाल नागर का बाल साहित्य: सृजन और संदर्भ'। यह पहला विश्वविद्यालय है, जिसे भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय
द्वारा अमृतलाल नागर के संपूर्ण वाङ्ग्मय
पर कई संगोष्ठी हेतु अनुमति और अनुदान मिला , और पिछले दो कार्यक्रम में किसी न किसी कारणवश आमंत्रण के
बावजूद मैं जा नहीं पाई तो मन मसोस कर रह गई थी।
यों तो पहाड़
का कोई भी हिस्सा हो, जाने की योजनामात्र
से ही मेरी बाँछें खिल उठती हैं और जब प्रेमपूर्वक आमंत्रण मिले तो पहाड़ के
तन पर गदराए चीड़ और देवदार के संस्कार में पगे वहाँ के वासियों की आत्मीयता के
स्मरण- मात्र से मन हुलस उठता है। सचमुच , सेवा और सत्कार का सही अर्थ सिखाता है पहाड़। आंतरिक ऊर्जा
और दीप्ति का पर्याय चीड़ है तो देवतुल्य औदात्य ,क्षमाशीलता और शीतलता का पर्याय है
देवदार। फिर इनकी छत्रछाया में पले- बढ़े व्यक्ति का व्यक्तित्व कितना
प्रकृतिप्रदत्त -- कितना नैसर्गिक गुणों से युक्त होगा ! और यह तो वही बता सकता है
जिसने अंतस्तल से महसूस किया हो।
6 जुलाई
2017 की रात को दिल्ली से रेलयात्रा आरंभ हुई।रानीखेत एक्स्प्रेस अपनी गोद में
झुलाती हुई 7 जुलाई को सुबह 5 बजे काठगोदाम पहुँच गई। कई साहित्यकार साथियों के साथ स्टेशन से बाहर निकलते ही दाहिनी ओर खड़े
पूर्वपरिचित पहाड़ ने अधखुली आँखों से निहारते हुए, मुस्कुराकर स्वागत किया। हवाएँ आ-आकर गले
मिलीं और हमें साथ ले जाने आए ड्राइवर मोनू ने अभिवादन कर ऑल्टो की ओर इशारा किया।
चंद क़दम आगे बढ़ते ही बादलों ने मधुर तान छेड़ी । टपाटप गिरती बूँदें देखते ही देखते
झमाझम बारिश में तब्दील हो गईं। बूँदें मैदानी इलाकों में भी बरसती हैं किंतु वे अपने
साथ प्रदूषित पदार्थ लाने को विवश होती हैं। पहाड़ी बूँदों के प्रति पुराना सखाभाव
है। मैंने खिड़की का शीशा खोला और बचपन की सहेली -सी इन बूँदों ने झट से अंदर आकर
मेरा चेहरा चूम लिया। आँख, नाक, गाल, कपाल, होंठ -- सबकुछ ! मैं भाव-विभोर हुई, उससे गुपचुप बतियाने लगी। मेरे साथ बैठी
रचना इस स्नेहिल छुअन से अनजान हैरान होती रही कि मैं हल्के- हल्के भीगकर इतनी ख़ुश
क्यों हो रही हूँ! दरअसल, बरसात के कारण पहाड़ के पोर- पोर में
व्यापी पीड़ा से उठती टीस का पता तबतक नहीं चल पाता जबतक कोई भुक्तभोगी इसे उजागर न
करे। जैसे , यह कोई नहीं जानता कि कब कोई बड़ा पत्थर लुढ़ककर सड़क पर आ जाए
या मध्यम व छोटे पत्थरों की पूरी सेना सड़क पर उतर आए और आवागमन ठप्प कर दे ; कब नल पानी देने से इनकार कर दे! बरसात के
मौसम में रोज़मर्रे के काम में आने वाले पानी की कमी हो जाती है। जल- संसाधनों की
ऐसी कोई समुचित व्यवस्था नहीं है कि इससे उबरा जा सके। चीड़ धुले- धुले से तो दिखते
हैं, मगर अपने निवासियों के दैनिक जीवन में आए अवरोधों पर चुपचाप
आँसू भी बहाते हैं।
बहरहाल, इन बातों से बेख़बर मैं अपनी ही धुन में
बूँदों से बतियाती रही। तंद्रा तब टूटी जब ख़ुद को मल्ला रामगढ़ की सड़क पर पाया ।
ड्राइवर मोनू ने बताया, 'खैरना वाला सीधा मार्ग अवरुद्ध हो गया है, इसलिए रामगढ़ होते हुए, यानी 20-25 किलोमीटर अधिक घूमते हुए अल्मोड़ा जाना होगा '।
बूँदें तीव्र- लय-ताल में संगीत उत्पन्न करती रहीं। गाड़ी छोटी होने और तीन खाए-पिए घर के
भीमताल
में बूँदों का नृत्य देखते ही बनता। मगर
नौकारहित इस ताल का सूनापन कहीं मन
को कोंचता रहा। भवाली बाज़ार होते हुए मौना एवं अन्य क्षेत्रों से संबद्ध राहों ने
चीड़ के हाथ हिला-हिलाकर हमारा अभिनंदन शुरू कर दिया । भवाली बाज़ार भी खामोश रहा।
सड़क दूर तक सूनी थी। उसपर हल्की कंपन भी हो रही होगी तो झमाझम गिरती बूँदों और
हमारी गाड़ी की गति के कारण। उसके साथ रेस लगानेवाला दूसरा प्रतिद्वंद्वी सड़क पर नज़र न
आया। नीचे चीड़-- ऊपर चीड़ बीच में बनी सर्पाकार सड़क पर फिसलती हमारी गाड़ी और
गाड़ी की खिड़की से झाँकती मैं। हम अल्मोड़ा प्रवेश कर चुके। लगभग हर जगह मेज़बान चीड़
ने आगवानी की । अल्मोड़ा में हमारे स्वागत हेतु देवदार भी मुस्कान बिखेरते नज़र आने
लगे। जी चाहा, गाड़ी से उतरकर एक बार फिर लिपट आऊँ और पिछली यादें ताज़ा कर
लूँ। उसे भी तो इंतज़ार होगा मेरे आने का ! मगर तेज़ बारिश में गाड़ी से उतरने की
साथियों की इजाज़त की गुंजाइश नहीं लगी। यो भी जान-बूझकर भीगे कपड़ों में होटल जाना
साहित्यकारों के बीच मेरी असभ्यता का परिचायक होता, इसलिए मन मारकर, गाड़ी से ही पलकें झुकाकर देवदार की शृंखला
को नमन किया ।
होटल
हिमाद्रि! मुख्य द्वार के बाहर मुस्कुराता देवदार! मैं चहक उठी। शुभ संयोग! देवदार
के उन्नत मस्तक के पास वाला कमरा मुझे मिला। खिड़की का परदा हटाते ही चीड़ और देवदार
से भरी पर्वत शृंखलाएँ , मंद- मंद मुस्कुराती दिखीं। ज़वाब में मैंने भी मुस्कुराहट
भेंट दी।
इस यात्रा
ने आनंद का एक नया द्वार खोला। निशंक जी द्वारा स्वामी विवेकानंद पर लिखित कृति भेंटस्वरूप मिली, कुछ पृष्ठ पढ़े और काकड़ीघाट जाने का निश्चय
कर बैठी। विवेकानंद के वास्तविक चित्र का
दर्शन कर मैं धन्य -धन्य हो उठी । स्वामी
विवेकानंद बचपन से मेरे मार्गदर्शक रहे। बचपन से उनकी या उनसे संबद्ध पुस्तकें
पढ़ती - गुनती रही हूँ।
दूसरे
सत्र के समापन के कुछ पहले , जब सूरज अपनी सुनहरी किरणों की डोरी विश्वविद्यालय परिसर से
समेटते हुए विदा होने लगा , तभी ममता ने मुझसे
भावभीनी विदाई ली, विदाई से पहले यह वादा लिया कि मैं गोलू देवता के मंदिर
अवश्य जाऊँ। मेरे प्रति ममता के स्नेह ने सोचने पर विवश कर दिया कि पास होने और
साथ होने का अंतर क्या हर कोई समझ सकता है? ममता और मेरी पिछली मुलाक़ात मुश्किल से पाँच मिनट की रही
होगी! जबकि कई लोग पूरे सत्र में मेरे पास बैठे थे। सच ही है, भावनात्मक संबंध अपने गमन के लिए राह निकाल ही लेते हैं।
होटल -वापसी
के दौरान हमारे परस्पर संवाद का विषय था--हमारा भारत, हमारी भारतीय संस्कृति और उसमें पगा समाज।
मानवता और मानवीय संवेदना, जिसमें सकल विश्व पगा है और इस इस अनकही गूँज के सहारे हम
आज भी मानने को बाध्य है कि 'विश्व एक परिवार है' -- 'वसुधैव कुटुंबकम'। विश्व की असली तस्वीर वह नहीं जो बाज़ार
या मीडिया दिखाता है-- असली तस्वीर यह है कि विश्व के हर एक कोने में एक से
घटनाक्रम अलग- अलग समय में घटित होते हैं। भिन्न- भिन्न देशों में समान मानसिकता
के लोग देखे जा सकते हैं। यह भी अनुभूत किया जा सकता है कि उनकी समस्याएँ, उनके संघर्ष , उनकी संवेदनाओं का आरोह- अवरोह लगभग समान
है।
9 जुलाई।
हमारे प्रस्थान का समय! अल्मोड़ा को शुभ विदा कहने का समय! दीक्षा जी से जल्दी-
जल्दी बहुत सी बातें कर, उनसे विदाई माँगने
और उन्हें भी 'शुभ यात्रा कहने का समय! और होटल के बाहर खड़े , मेरे कमरे में झाँकते चीड़- देवदार से फिर
मिलने का वादा करते हुए बिछड़ने का समय आ ही गया। वेटर प्रदीप, जो पास के गाँव का वासी है, अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है
और ख़र्च चलाने के लिए नौकरी भी करने को विवश है, उसे वर्तमान और भविष्य की पढ़ाई हेतु सहयोग
करने का स्वैच्छिक वादा करके , उसकी आँखों में आत्मीयता की नमी महसूसती हुई मैं गाड़ी में
जा बैठी। पीठ के सदस्य विदाई हेतु खड़े मिले -- हर बार की तरह इस बार भी पहाड़ से
ढेर सारा प्यार बटोरकर विदा हो रही हूँ।
गाड़ी ने गति पकड़ ली है। मोनू कुशल ड्राइवर है। काठगोदाम स्टेशन सामने है।... मैंने
शताब्दी में अपनी सीट ले ली है। चेयर कार में आँखें बंद किए हुए इस यात्रा को गुन
रही हूँ तो बेहतर कार्यक्रम के अतिरिक्त
मिलने वाले अतिशय लाभांश के रूप में स्वामी विवेकानंद से संबद्ध अनुभूतियाँ और इन
अनुभूतियों में मिश्रित दीक्षा नागर के आत्मीय
साथ की ख़ुशबू मेरे चारों ओर फैल रही है, फैलती जा रही है.... । शताब्दी चल रही है, स्मृतियाँ जाग्रतावस्था में मेरे साथ -साथ
चल रही हैं और चल रही है कलम ----- यात्रा
ज़ारी है..। ..
सम्पर्क: डी 136, गली न. 5, गणेशनगर पांडवनगर कॉम्प्लेक्स ,दिल्ली- 92 मो. 8376836119, Email- dr.artismit@gmail.com
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