झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल की छत ढहने से सात मासूम बच्चों की जान चली गई। यह खबर सिर्फ एक हादसा नहीं है - यह पूरे देश की व्यवस्था पर एक गहरी चोट है। दिल दहल जाता है- यह सोचकर कि एक स्कूल, जो बच्चों के भविष्य की नींव होना चाहिए, वह उनकी कब्रगाह बन गया।
राजस्थान के झालावाड़ के सरकारी स्कूल के भवन ढहने से हुई बच्चों की मौत ने बहुत गहरे तक व्यथित तो किया ही, यह सोचने पर विवश भी किया कि इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जाए- शासन- प्रशासन को, व्यवस्था को या भवन- निर्माण करने वाले ठेकेदारों को? गंभीर सवाल यह है कि अगर भवन पुराना जर्जर या कमजोर था, तो वहाँ स्कूल क्यों चल रहा था । यह केवल एक स्थानीय समाचार नहीं था, यह पूरे राष्ट्र के लिए एक चेतावनी थी। इस घटना ने केवल कुछ परिवारों की दुनिया नहीं उजाड़ी; बल्कि पूरी व्यवस्था को आईना दिखाया है, एक ऐसा आईना जिसमें प्रशासनिक लापरवाही, राजनैतिक उपेक्षा और संवेदनहीन तंत्र का कुरूप चेहरा साफ दिखाई देता है।
हर बार की तरह, हादसे के तुरंत बाद प्रशासन सक्रिय हुआ। पाँच शिक्षकों और कार्यवाहक प्रधानाध्यापक को निलंबित किया गया। सभी सरकारी भवनों का तत्काल ऑडिट कराने के निर्देश दिए गए। तकनीकी रिपोर्ट देने के लिए विशेषज्ञ समिति गठित की गई और जर्जर भवनों को खाली कराने तथा छात्रों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर पढ़ाई की बात कही गई। और अंत में मृतकों के परिजनों को मुआवजा, नए भवन मृतक बच्चों के नाम पर करने जैसी बातें करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली । यानी वही सब कुछ जो हर त्रासदी के बाद की जाती है।
लेकिन सवाल यह है कि केवल निलंबन, जाँच और मुआवजा ही समाधान है? क्या जिन बच्चों की जान गई, उनके माता-पिता कभी इस दर्द से उबर पाएँगे? क्या कुछ लाख रुपये उनकी कोख उजड़ने की पीड़ा को भर सकते हैं? सच बहुत कड़वा होता है - दरअसल, असली दोषी वे अधिकारी हैं, जो शिकायतों पर कान नहीं देते, वे राजनेता हैं, जो फीता काटने और फोटो खिंचवाकर प्रचार- प्रसार के लिए स्कूलों का उद्घाटन तो करते हैं; लेकिन मरम्मत के नाम पर फंड देने से करतराते हैं, और वे ठेकेदार हैं, जो खराब गुणवत्ता वाली निर्माण- सामग्री का उपयोग करके बच्चों की ज़िंदगी से खेलते हैं। जिस देश में करोड़ों रुपये से वीआईपी गेस्ट हाउस, एयरपोर्ट लाउंज, और मंत्रियों के बंगले रोज़ चमकाए जाते हैं, वहाँ बच्चों के लिए एक मजबूत स्कूल- भवन बनाना क्या इतनी बड़ी चुनौती है?
इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए अब वक्त आ गया है कि हम खोखली राजनीतिक बयानबाजी और कागजी कार्यवाही से ऊपर उठ कर बात करें- यह नियम बनें कि हर सरकारी स्कूल भवन का वार्षिक ऑडिट अनिवार्य हो।। स्कूल भवनों की मरम्मत और रखरखाव के लिए अलग बजट हो, और उसमें पारदर्शिता हो। शिकायतों को नजरअंदाज करने वाले अधिकारियों के सिर्फ निलंबन से काम नहीं चलेगा; बल्कि उनपर सख्त कानूनी कार्रवाई हो। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं को अपराध मानते हुए एफआईआर दर्ज की जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण ग्राम पंचायत और स्थानीय समुदाय को विद्यालय भवन निरीक्षण में सहभागी बनाया जाए और उनकी शिकायतों की सुनवाई हो।
अगर समय पर भवन का निरीक्षण होता, मरम्मत की जाती, शिकायतों पर कार्रवाई होती- तो हादसा होता ही नहीं। जाहिर है बच्चों की मौत किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं हुई, यह एक मानव-निर्मित त्रासदी है, और इसके लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए।
एक बात जो सबसे ज़्यादा चुभती है, वह यह कि हमारे देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती है। एक तरफ हैं निजी स्कूल, जिनकी ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, एसी क्लासरूम हैं, खेल मैदान, लाइब्रेरी, डिजिटल स्मार्ट बोर्ड और मोटी फीस। । वहाँ वे बच्चे पढ़ते हैं, जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं। दूसरी तरफ़ हैं- ऐसे सरकारी स्कूल, जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं। जहाँ न टेबल-कुर्सियाँ होती हैं, न पर्याप्त शिक्षक, न खेल का मैदान, न शौचालय और कई जगह तो पक्की छत भी नहीं होती।सबसे बड़ा सवाल यही है कि इन दोनों व्यवस्थाओं की अनुमति कौन देता है? हमारा शासन – प्रशासन ही न ? जो एक तरफ़ निजी शिक्षा को बढ़ावा देता है और दूसरी तरफ़ सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए कोई प्रयास ही नहीं कता। ऐसा लगता है हम यह मान चुके हैं कि गरीब के बच्चों को बस नाम के लिए शिक्षा चाहिए, वह भी जान की कीमत पर?
यह सोचना भी एक बड़ी भूल होगी कि यह हादसा सिर्फ़ झालावाड़ का है। सच तो यह है कि देश भर के हजारों सरकारी स्कूल जर्जर भवनों में चल रहे हैं, जहाँ छतें टपकती हैं, दीवारें दरकती हैं और जहाँ शौचालय, पीने का पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं। देश के दूरदराज के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, और जो होते हैं वे भी शिक्षा छोड़कर प्रशासनिक कामों में उलझे रहते हैं। नतीजा एक खोखली होती शिक्षा व्यवस्था, और उसमें दम तोड़ते बच्चों के सपने।
पर अब भी समय है कि हम जागरूक बनें अपने अधिकारों के लिए, लड़ें अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए । हमें आगे आना होगा और सवाल उठाना होगा और इस तरह की लापरवाहियों के जिम्मेदार लोगों से जवाब माँगना होगा; क्योंकि बच्चों की मौत पर चुप रह जाना, सिर्फ़ संवेदनहीनता नहीं, एक सामूहिक अपराध है।
Yah bhee yad rakhna chahiye ki sarkari skoolon ke parisar kaafi bade hote hain. Yah maamla niyojit roop se bhiosampatti par kabze ka lagta hai mujhe.
ReplyDeleteआपका संपादकीय बहुत प्रभावशाली है। बहुत ज्वलंत प्रश्न उठाया है आपने। शिक्षा प्रणाली बहुत सारे सुधार मांगती है । इस घटना को हल्के में नहीं लेना चाहिए। आपको साधुवाद!
ReplyDeleteआपका सोचना बिल्कुल सही है वीना जी, हमारी शिक्षा व्यवस्था में बहुत खामियाँ है , जिन्हें हल्के में बिल्कुल नहीं लिया जाना चाहिए। प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद और आभार।
Deleteआपने गंभीर समस्या को उठाया है, शिक्षा व्यवस्था में अनेक विसंगतियाँ हैं, पुरानी जर्जर इमारतें भी उसी कड़ी में हैं, जब कोई दुर्घटना होती है तो अध्यापक जैसे सबसे निरीह व्यक्ति को निलंबित किया जाता है, जाँच चलती है और परिणाम कोई ठोस नहीं निकलता। फिलहाल एक ज्वलंत समस्या उठाने हेतु साधुवाद।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया और आभार श्रीवास्तव जी। आपने सही कहा- अध्यापक जिसका काम शिक्षा देना है , उसे दोष देना कहाँ तक उचित है।
ReplyDeleteरत्ना जी यह घटना कोई पहली बार नहीं हुई, जिसमें स्कूल की इमारत ढह जाने से मासूम बच्चों की जानेंगई हों। कई परिवारों की आशाएँ ख़त्म हो गईंऔर जो अध्यापक निलंबित हुए उनके परिवारों के सदस्य जीते जी मर गए। पर प्रशासन ने उस समय आँखें खोलीं जब सब कुछ घटित हो गया। पहले तो वे ही आँखें मूँदें सोए रहते हैं। भ्रष्टाचार के चक्कर में हर काम में विलंब होता रहता है। हमारी शिक्षा नीति ही ग़लत है। प्राइवेट स्कूल होने ही नहीं चाहिये । सरकारी स्कूल इतने अच्छे हों, जहाँ सभी वर्गों के बच्चे एक साथ शिक्षा प्राप्त कर सकें।आपने एक ज्वलंत समस्या पर कलम चलाई है। जिसके समाधान की अत्यंत आवश्यकता है । हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteApne gav-galiyre ki Shiksha ka sahi aaina dikhaya aur Eske liye sudhar ke liye sarkar kadam uthaye🙏🌺💐
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