वह बीच पर बैठी लहरों को उठते -गिरते देख रही थी। सैंकड़ों सैलानी अलग अलग क्रीड़ाओं का आनन्द ले रहे थे। कई घूम रहे थे, कई धूप का सेवन कर रहे थे। उस द्वीप का मूल निवासी दो घंटे तक बीच का चक्कर लगाता रहा। कुछ लोगों ने उससे स्टोल और मालाओं के दाम पूछे पर ख़रीदा कुछ नहीं। एक घंटे बाद वह फिर आया। उसने क़ीमत आधी कर दी थी। लेकिन किसी ने तब भी कुछ नहीं ख़रीदा । साँझ ढलने से पहले वह एक बार फिर आया। इस बार उसने क़ीमत और भी कम कर दी। अब बहुत सारे लोगों ने उसका सामान ख़रीद लिया था। पर वह कह रहा था कि उसने वस्तुओं की सिर्फ़ लागत ली है। उसे लाभ कुछ भी नहीं हुआ।
लाखों का ख़र्चा कर के इस टापू पर आकर मनोरंजन करने वाले सैलानी यहाँ की कला को नहीं ख़रीद सकते। मूल निवासियों की सहायता नहीं कर सकते। उसे बहुत अचरज हो रहा था। अनायास ही उसके मुख से निकला," कितने ओछे हैं लोग। "
उसका बारह वर्षीय बेटा भी वहीं खेल रहा था, बात सुन कर बोला,"आपने भी तो कुछ नहीं ख़रीदा मम्मा । "
सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001, मोबाइल 9811251135
तथाकथित आभिजात्य वर्ग के खोखलेपन और दोहरे चरित्र को उद्घाटित करती सशक्त लघुकथा।सुदर्शन रत्नाकर जी को बधाई।
ReplyDeleteलघुकथा में पाठक को बाँधने वाला शिल्प है, हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDelete- भीकम सिंह