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Aug 1, 2022

उदंती.com, अगस्त- 2022

वर्ष 14, अंक- 12

रचनात्मकता भविष्य में सफलता की कुंजी है। प्राथमिक शिक्षा ही वह साधन है जो बच्चों में सकारात्मकता लाती है।   - एपीजे अब्दुल कलाम


इस अंक में

अनकहीः बच्चों के भविष्य की नींव कैसी हो ? - डॉ. रत्ना वर्मा

आजादी का अमृत महोत्सवः यह आत्ममंथन की भी बेला - गिरीश पंकज

आजादी का अमृत महोत्सवः अजातशत्रु - संजोग छेत्री - शशि पाधा

आजादी का अमृत महोत्सवः नारी शक्ति का पुण्यस्मरण - अनिमा दास

यात्रा संस्मरणः सरहदें दिलों को नहीं बाँटसकतीं - नीरज मनजीत

आधुनिक बोध कथा- 8- सौदागर - सूरज प्रकाश

कविताः ओ ज़िन्दगी! - डॉ. कविता भट्ट

कविताः युद्ध के मोर्चे से चिट्ठियाँ - हरभगवान चावला

उर्दू  व्यंग्यः गरीबी हटाओ अभियान - कन्हैयालाल कपूर, अनुवाद - अख़्तर अली

कहानीः चोर - संजय कुमार सिंह

किताबेंः  मैटी बैठ जाओ! बैठ जाओ मैटी!  - कुँवर सिंह

दो ग़ज़लेंः  1. इंतजार हल्का था, 2. बारिश सी होती है  - अशोक ‘अंजुम’ 

लघुकथाः आशीर्वाद - आशमा कौल

कविताः भारत की आन - रौशन 

तीन कविताएँः 1. उठो वत्स! 2. गाँव से शहर...? 3. ठहराव - गोलेन्द्र पटेल

लघुकथाः गुरु - डॉ. उपमा शर्मा 

किताबेंः रतौना आन्दोलन- हिन्दू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध  - डॉ. गजेन्द्र सिंह अवास्या

कविताः फिर भी बाबूजी कहते हैं - रश्मि लहर

स्वास्थ्यः जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य -सुदर्शन सोलंकी

वन्य जीवनः भ्रमों का शिकार अँधा साँप - हरेन्द्र श्रीवास्तव

प्रेरकः जीवन में सबसे विरोधाभासी चीज क्या है? - निशांत

जीवन दर्शनः भाव से अभिव्यक्ति  -विजय जोशी

रचनाकारों से ...

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अनकहीः बच्चों के भविष्य की नींव कैसी हो?


- डॉ. रत्ना वर्मा 

नाम नहीं बताने पर स्कूल के एक छात्र को दूसरे छात्रों ने इतना मारा कि उसकी मौत ही हो गई। दिल दहला देने वाली यह घटना छत्तीसगढ़ के एक गाँव की है। 10 वीं कक्षा में पढ़ने वाले मोहन राजपूत पूरक परीक्षा देकर स्कूल से बाहर निकल रहा था तभी 11वीं  कक्षा में पढ़ने वाले एक अन्य छात्र ने उसे रोका और नाम पूछा, मोहन के नाम नहीं बताने पर वह उसे मारने लगा। दोनों के बीच धक्का- मुक्की शुरू हुई। इसी बीच उसके कुछ और साथी वहाँ आ गए और सबने मिल कर मोहन को लात-  घूँसों से मारते हुए नीचे गिरा दिया और इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। अजीब बात ये है कि ये छात्र एक दूसरे को जानते तक नहीं थे। इसका मतलब तो यही हुआ ना कि वे बस मौज मस्ती के लिए उसका नाम पूछ रहे थे और न बताने पर गुस्सा होकर मार- पिटाई शुरू कर दी, क्योंकि इन छात्रों के बीच न तो कोई पुरानी दुश्मनी थी न वे एक स्कूल में पढ़ते थे। सवाल उठता है कि ये बच्चे किस मानसिकता से ग्रसित थे?

  इन दिनों बच्चों में इस प्रकार की आपराधिक प्रवृत्ति की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। कोई नाराज होकर माता- पिता को मार रहा है तो कोई भाई- बहन को और दोस्त को । विशेषज्ञ इसके लिए किसी एक कारक को जिम्मेदार नहीं मानते। पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक कारकों के साथ परिवर्तित जीवन शैली ने आज के बच्चों को बहुद ज्यादा गुस्सैल, आक्रामक और क्रोधी बना दिया है। विभिन्न अध्ययनों से इस बात का खुलासा हुआ है कि बच्चों की मानसिकता को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है मोबाइल फोन ने। बच्चे अब दोस्तों के साथ समय बिताने, खेल- कूद में रुचि लेने के बजाय दिन- रात मोबाइल से चिपके रहते हैं। मोबाइल में गेम खेलना उन्हें मैदान में खेलने से ज्यादा अच्छा लगने लगा है।  यही कारण है कि जब उनकी मनमर्जी से काम नहीं होता, तो वे राह से भटक जाते हैं। नशे की आदत, गलत लोगों की संगत, पढ़ाई से जी चुराना, अकेले रहना जैसी बातें आज आम हो गईं हैं। किशोर उम्र के बच्चे जब इन दिनों भारी संख्या में बन रहे वेब सीरीज, जो ज्यादातर आपराधिक पृष्ठभूमि पर बने होते हैं देखते हैं और विभिन्न प्रकार के गेम जो नशे की तरह उन पर हावी होती जा रही है, उन्हें मानसिक रूप से बीमार तो बना ही रही है, साथ ही उन्हें अपराध की ओर भी धकेल रही है, जो बेहद चिंतनीय है। 

इस संदर्भ में आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी बात करना सामयिक होगा जो पूर्णतः व्यावसायिक हो गई है । अच्छा नम्बर लाने के लिए माता- पिता का दबाव है, प्रत्येक अभिभावक चाहता है कि उनका बच्चा मेरिट लिस्ट में आए। बस पढ़ो- पढ़ो और रटकर पास हो जाओ।  चाहे शिक्षक हो या माता- पिता यह जानने की कोशिश ही नहीं करते कि उनका बच्चा क्या चाहता है, उसकी रुचि किस विषय में है। हर गली- कूचे में खुल चुकी कोचिंग संस्थाएँ भी ऐसे दावे प्रस्तुत करती हैं कि उनके यहाँ पढ़ाई करके प्रत्येक बच्चा मेरिट में ही आएगा और उसे मनपसंद विषय ही मिलेगा। प्रतिस्पर्धा के इस भागम-भाग वाले दौर में बच्चा समझ ही नहीं पाता कि उसके लिए कौन-सा रास्ता सही है और उसकी पसंद का है। वह तो बस इस भेड़चाल में भागता चला जाता है और एक दिन मुँह के बल जब गिरता है, तब न तो माता- पिता सँभाल पाते और न ही अभिभावक। नतीजा बच्चा या तो मानसिक बीमार हो जाता है और आत्महत्या की ओर उन्मुख होता है अथवा अपराध का रास्ता चुनकर परिवार, समाज सबसे दूर चला जाता है। 

एक बच्चे को अच्छा नागरिक बनाने की जिम्मेदारी घर- परिवार से होते हुए स्कूल तक जाती है।  माता- पिता यदि बच्चे के मानसिक विकास की ओर ध्यान नहीं देंगे और पूरी जिम्मेदारी स्कूल पर छोड़ देंगे ,तो वह भी उचित नहीं है। हाँ, स्कूलों में जो भी पढ़ाया जा रहा है, उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था पर है, जिस पर आज ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार बच्चे के भविष्य की नींव माता- पिता डालते हैं, उसी तरह उसकी मजबूत दीवार स्कूलों में तैयार होती है, अतः जो भी पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है, वही बच्चे की नींव को मजबूत करता है। 

देखा यह गया है कि प्राथमिक स्तर पर तैयार होने वाले पाठ्यक्रम को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। हमारे शिक्षाविद् यह भूल जाते हैं कि बचपन में पड़ी नींव ही आगे चलकर देश की नींव मजबूत करती है।  बच्चों  में नैतिक विकास के लिए जरूरी है कि आदर्श प्रस्तुत करने वाले देश के महान् व्यक्तित्व के जीवन को उनके पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। आज के बच्चों को यह पढ़ाया ही नहीं जाता कि जिस देश में वे आजादी से साँस ले रहे हैं, उस देश को आजाद कराने के लिए कैसे लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर हँसते- हँसते कुर्बानी दे दी थी। असंख्य जब्तशुदा इतिहास के पन्ने आज भी गुमनाम हैं, जिन्हें सामने लाने की जरूरत है और देश के हर बच्चे को उनके बारे में जानने का अधिकार है। इतना ही नहीं, आजादी के इन 75 सालों में देश की रक्षा में लगे हमारे हजारों नौजवान किस तरह ढाल बनकर दिन- रात प्रहरी बने हुए हैं और दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो रहे हैं, उनकी शौर्य गाथा को भी पढ़ाए जाने की अति आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक बच्चा चाहे वह काम कोई भी करे,  उनके मन में देशप्रेम का जज़्बा सर्वोपरि हो।  

अतः आजादी के इस अमृत महोत्सव के समय यदि थोड़ा ध्यान हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी दिया जाए, तो  देश के भविष्य हमारी युवा पीढ़ी देश के लिए एक ऐसी नींव तैयार कर पाएँगे , जिसपर हर भारतीय को गर्व होगा। और आने वाली पीढ़ियाँ अपराध की ओर न जाकर और मात्र पैसे कमाने की मशीन न बनकर देश के उज्ज्वल भविष्य का सपना लेकर आगे बढ़ेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे देश के कर्णधार इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार करेंगे और आजादी का यह अमृत महोत्सव बच्चों के भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा। 


आजादी का अमृत महोत्सवः यह आत्ममंथन की भी बेला

-गिरीश पंकज

आजादी का यह अमृत महोत्सव है। मगर उत्सव मनाने के साथ यह आत्ममंथन का भी समय है कि पिछले पचहत्तर वर्षों में हमारे लोकतंत्र ने क्या खोया, क्या पाया।  क्या हमने आजादी का सकारात्मक इस्तेमाल किया अथवा आजादी को हमने स्वच्छंदता या अराजकता में बदलने की भी कोशिश की? सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद मिली स्वतंत्रता के बाद जिस महान राष्ट्र की कल्पना तमाम शहीदों ने की थी, क्या वह राष्ट्र सही मायने में हम विकसित कर सके? इस पर भी विचार करने की जरूरत है।

आत्ममंथन के लिए सबसे पहले हमें यह सोचना और देखना चाहिए कि आजाद भारत के बाद भी हमारे अपने कानून क्यों नहीं लागू हैं? क्यों आज भी हम अंग्रेजों के समय के बनाए गए  कुछ काले कानूनों को जस-का-तस लागू किए हुए हैं।  चाहे वह भारतीय दंड संहिता हो या वन कानून अथवा तरह-तरह की कर प्रणालियाँ । यानी आयकर, विक्रय कर आदि । आजादी के पहले तक 20-25 टैक्स ही इस देश की जनता पर थोपे गए थे, लेकिन अब तो इसकी संख्या लगभग सत्तर हो चुकी है।  तो हमें विचार करना होगा कि  यह लोकतंत्र है या टैक्स-तंत्र? आजादी के पहले  कामकाज की भाषा अँग्रेज़ी थी, जो अब तक कायम है। यह तो हिन्दी भाषा का सौभाग्य है कि दबाव के चलते  अंततः उसे राजभाषा का दर्जा देना पड़ गया लेकिन आज भी उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी का ही राज है । तो कैसे मान लें कि हम पूरी तरह से स्वतंत्र हो चुके हैं । अंग्रेजों के समय की ही पुलिस वर्दी, उसी समय के पुलिसिया कानून और उसी तरह की दमन की नीतियाँ।  गुलाम भारत में स्वतंत्रता सेनानी सरकार के विरुद्ध कुछ न बोल सकें;  इसलिए राजद्रोह के मुकदमे उन पर ठोक दिए जाते थे। दुर्भाग्य की बात है कि आजाद भारत में भी उसी तरह राजद्रोह के मामले समय-समय पर दर्ज होते रहते हैं । किसी भी सरकार के शीर्ष व्यक्ति पर अगर कोई आरोप लगा देता है,  तो फौरन उस पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो जाता है। लोकतंत्र में यह अपने आप में बहुत बड़ा अन्याय है। राष्ट्रद्रोह कानून तो होना ही चाहिए। अगर कोई देश के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करता है, तो उस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज होना चाहिए । जैसे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह’ कहने वालों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा जायज है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ या केंद्र अथवा राज्य सरकार में बैठे शीर्ष व्यक्ति के विरुद्ध कोई निंदनीय बात करता है, तो उस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा कायम नहीं होना चाहिए।  उसे हम अवमानना की श्रेणी में रख सकते हैं और उस तरह की धारा लगाई जा सकती है;  लेकिन सरकार की निंदा को राजद्रोह कहना लोकतंत्र का अपमान है। इस कानून को खत्म करने की आवश्यकता है। 

हमारी न्याय व्यवस्था काफी लचर है और अंग्रेजी सिस्टम के अनुसार ही अब तक संचालित हो रही है।  मामले मुकदमों की हालत यह है कि आज देशभर में करोड़ों मामले न्यायालय में लंबित पड़े हैं। और ज्यादातर न्यायालयों में संवाद की भाषा अंग्रेजी हो गई है, जो आम लोगों को पल्ले नहीं पड़ती।

अंग्रेज़ों के समय का सिस्टम...

हम जब देखते हैं कि 1947 के बाद भी अंग्रेजों के जमाने के कानून कायम हैं, तो किसी भी देशभक्त व्यक्ति को पीड़ा हो सकती है । अंग्रेजों के आने के पहले तक यहाँ पुलिस व्यवस्था नहीं थी । उनके आने के बाद ऐसी पुलिस व्यवस्था यहाँ संचालित हुई, जिसके द्वारा गुलाम भारतीयों पर दमन के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं । स्वतंत्रता सेनानियों का दमन करने के लिए पुलिस की लाठी- गोली निरंतर चलती रही है । धारा 144 इसीलिए लागू की गई कि  स्वतन्त्रता सेनानी आपस में मिल न सकें। कोई धरना प्रदर्शन सरकार के खिलाफ न किया जा सके। हम देखते हैं कि यह धारा और अन्य धाराएँ भी, अब तक लागू हैं और आजाद भारत के नागरिकों के दमन का एक बड़ा माध्यम बन चुकी हैं। मैं तो इस बात को देखकर हैरत में भर जाता हूँ कि अगर किसी को धरना-प्रदर्शन करना है,तो उसे पुलिस की इजाजत लेनी पड़ती है।  यह अंग्रेजों के समय तक के लिए तो ठीक था; लेकिन आजाद देश में नागरिक अपनी माँगों को लेकर अगर प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें  पुलिस की अनुमति क्यों लेनी चाहिए?  वहाँ सिर्फ सूचना दी जानी चाहिए, ताकि पुलिस से स्थल पर पहुँचकर स्थिति को नियंत्रित में रख सके।

इसी तरह इंडियन सिविल सर्विस एक्ट स्थापित करने के बाद पूरे देश में कलेक्टर थोपे गए। इनका काम था राजस्व वसूली करना, लेकिन आजादी के बाद वही कलेक्ट्री व्यवस्था जस की तस लागू है। और उल्टे अब तो पहले से ज्यादा अधिकार कलेक्टर को दे दिए गए हैं। उसे हमने जिला दंडाधिकारी तक बना दिया है। इस कारण हर जिले में कलेक्टर अपनी मनमानी करते हैं। आईएएस के साथ आईपीएस की भी बेहद मजबूत व्यवस्था कर दी गई है, जो लोकतंत्र के लिए घातक साबित हुई है।  हालत यह है कि ये लोग निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की बातें भी नहीं सुनते। उनका अपमान करते हैं।  हालत यह है कि इन अफसरों को बर्खास्त करने का अधिकार राज्यों के पास नहीं है।  इस कारण के नौकरशाह निरंकुश होकर राज कर रहे हैं । अपवाद स्वरूप कभी-कभी किसी गंभीर मामले का संज्ञान लेकर केंद्र की अनुशंसा पर उन्हें बर्खास्त किया जाता है, लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं। ज्यादातर मामले में यह नौकरशाह जन-प्रतिनिधियों पर भारी है। मैं इसे लोकतंत्र की विफलता मानता हूँ। इनको पॉवरफुल बनाने के कारण यह न केवल केंद्र या राज्य वरन स्थानीय निकायों तक में पॉवरफुल बने हुए हैं। कहने को हमारे यहाँ पंचायती राज व्यवस्था लागू हो गई है;  लेकिन आज भी निर्णायक भूमिका अफसरों के हाथों में ही है।

काले कानून खत्म हों-

काले कानूनों में सबसे महत्त्वपूर्ण कानून वन कानून है, जिसकी सहायता से आज भी लाखों आदिवासियों और ग्रामीणों को उनके हक से बेदखल कर दिया जाता है । वे गाँव छोड़ने पर मजबूर होते हैं।  अंग्रेजों से आने के पहले जंगल में रहने वाले लोग अपनी जरूरतों की लकड़ी काट लिया करते थे और उससे गुजर-बसर करते थे । वक्त आने पर वे पेड़ भी लगाया करते थे । तब  पूरे देश में सघन जंगल हुआ करते थे लेकिन अंग्रेज आए और उन्होंने वन कानून लागू (1872) करके लोगों को जड़ों से दूर कर दिया। जंगल बचाने के नाम पर आदिवासियों को गाँव से दूर खदेड़ दिया और जब जंगल में आदिवासी वहाँ नहीं रहे , तो अंग्रेजों ने मनमाने तरीके से पेड़ों को काटना शुरू किया। विकास के नाम पर पेड़ काटे जाते रहे और आज इस देश में वनों की क्या हालत है, यह किसी से छिपी नहीं है । तथाकथित विकास के नाम पर आज भी लोकतांत्रिक सरकारें भूमि अधिगृहीत करके जितना चाहे उतना पेड़ काट लेती है और फोरलेन, सिक्स लेन सड़कें बनाकर वाहवाही लूट रही हैं।  तो यह नए किस्म का लोकतंत्र है ।  आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है ? क्यों जंगल में रहने वाला आदिवासी ग्रामीण अपने ही जड़ों से काट दिया गया है? उसे उसके जंगल फिर वापस मिलेंगे। जंगल उसकी आत्मा थी। जंगल उसका घर था।  जहाँ पशु भी रहते थे और मनुष्य भी रहा करते थे। दोनों अपनी-अपनी भोजन व्यवस्था और सुरक्षा कर लिया करते थे।

इसी तरह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) ने इस देश में आजादी के पहले ऐसा दमन चक्र लागू किया  था, जो दुर्भाग्यवश आजादी के बाद से अब तक जारी है।  हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं और इस अमृत महोत्सव के दौरान भी अगर वही अंग्रेजों के दंड व्यवस्था लागू है, तो यह हमारे लोकतंत्र की विफलता है । हम अपना मौलिक ढाँचा विकसित नहीं कर सके कि हमें किस तरह देश की व्यवस्था संचालित करनी चाहिए । कानून व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था मैकाले जैसे शातिर दिमाग लोगों ने चौपट कर दी। मैकाले ने इस देश के सारे गुरुकुलों को नष्ट करके विश्वविद्यालयों की एक नई संस्कृति विकसित कर दी । डलहौजी जैसे लोगों ने जो हड़प नीति लागू की थी, वह बाद में स्वतंत्र भारत में भू-अधिग्रहण नियम में तब्दील हो गई।  आज भी सरकारें जब चाहे विकास के नाम पर किसी भी व्यक्ति को उसके घर से, जमीन से या गाँव से बेदखल कर सकती है। क्या इसे हम लोकतांत्रिक व्यवस्था कहेंगे? 

आश्चर्य होता है कि हमारी अदालत है फरमान जारी कर के आदिवासियों को उनके गाँव से बेदखल कर देती है। मेरे पास प्रामाणिक आँकड़े तो नहीं है;  लेकिन यह अतिरंजित नहीं है कि आज इस देश में लाखों आदिवासी अपने-अपने इलाके छोड़ने पर मजबूर हुए हैं;  क्योंकि वहाँ सरकारों को विकास करना है। भले ही हमारा आदिवासी ग्रामीण अपनी मुख्यधारा से कट जाए। आज भी फर्जी ग्राम सभाएँ होती हैं और भोले-भाले ग्रामीणों को थककर उनकी जमीनें अधिगृहीत कर ली जाती हैं और उन्हें मुआवजे के नाम पर थोड़ी बहुत राशि टिका दी जाती है । वादे किए जाते हैं कि आपके बच्चों को हम नौकरी देंगे, रोजगार मुहैया करवाएँगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। और सीधे सादे ग्रामीण वर्षों तक आंदोलन करते रह जाते हैं।

अफसरशाही को नियंत्रित करना होगा-

यह ऐसे कुछ मुद्दे हैं, जिन पर एक नागरिक होने के नाते में अक्सर अपने विचार रखता हूँ, तब मुझे निराशा हाथ लगती है।  आजादी के इन 75 वर्षों में भी हमने लोकतंत्र को सही मायने में मजबूत करने का काम नहीं किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सब चुने हुए जन-प्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण हुआ। जब हमारे राजनीतिज्ञ विपक्ष में होते हैं, तब वे लोकतंत्र की खूब बात करते हैं;  लेकिन जैसे ही वे सत्ता में आते हैं, लोकतंत्र के वस्त्र को तानाशाही-खूँटी पर लटका देते हैं।  और उसके बाद वे भी बिल्कुल दमनकारी नीति अपनाते हुए अपने विरोधियों पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हैं।  अगर ईमानदारी के साथ इस देश में लोकतंत्र लागू करना है, तो  निष्कर्ष रूप में कहूँ, तो सबसे पहले इस देश की अफसरशाही की बेहिसाब ताकत को खत्म करना होगा।  जनप्रतिनिधियों को और पॉवरफुल बनाना होगा । हर हाल में अफसरशाही जन-प्रतिनिधियों के द्वारा ही नियंत्रित रहे । हर अफसर में समस्त जन-प्रतिनिधियों का डर होना चाहिए । उनकी एक अनुशंसा पर अफसरों का निलंबन और उनकी बर्खास्तगी होनी चाहिए।  अगर हमने इतना भी कर लिया, तो लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम होगा। आजादी का अमृत महोत्सव हमें धूमधाम से मनाना है;  लेकिन लोकतंत्र की आत्मा कभी आहत न हो, इस दृष्टि से जितने भी सुधार संभव हो करने चाहिए। इसलिए इस अमृत महोत्सव को मैं आत्ममंथन की बेला भी कहता हूँ। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियों का सहारा लेकर  अंत में कहना चाहता हूँ -

हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।

आओ विचारे आज मिलकर, ये समस्याएँ  सभी।

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सम्पर्कः संपादक सद्भावना दर्पण, सेक्टर -3, एचआईजी 2/2, दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर 492010, मो.- 87709 69 574


आजादी का अमृत महोत्सवः वीरता की मिसाल अजातशत्रु संजोग छेत्री

- शशि पाधा

कल्पना कीजिये कि कोई सिंह शावक कैसे पर्वतों पर कुदालें भरता हुआ एक टीले से दूसरे टीले पर पहुँच जाता है। कभी जब जंगल में वृक्षों की डालियों से उलझ-उलझ कर खेलता है तो उसके चेहरे पर कितनी मासूमियत, कितनी खुशी विद्यमान रहती होगी। फिर बड़ा होते-होते वह मासूम शावक जंगल में रहने के सभी नियम, सभी दाँव पेंच सीखता चला जाता है और वह योद्धा हो जाता है- जंगल का राजा या यूँ कहूँ - अजात शत्रु!  संजोग छेत्री के विषय में मैं जब भी सोचती हूँ, मेरी आँखों के सामने कुछ ऐसा ही  चित्र उभरता  है।

मैं संजोग से कभी नहीं मिली थी। दो बरस पहले भारतीय सेना की प्रतिष्ठित पलटन, 9 पैरा स्पैशल फोर्सेस के 50वें स्थापना दिवस के अवसर पर मैंने उसकी कांस्य मूर्ति देखी थी। पलटन के मुख्य भवन के सामने एक छोटे से  टीले पर अपने अन्य तीन साथियों  के साथ वह  शौर्य का प्रतिमान बन कर खड़ा था। गर्व की बात यह थी कि ये चारों भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ के विजेता थे और चारों ही अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मातृभूमि की रक्षा में शहीद हो गए थे।

पलटन के स्थापना दिवस के अवसर पर लगभग एक हज़ार सैनिक और उनके परिवार एकत्र हुए थे। चारों ओर उत्सव जैसा वातावरण था। स्थापना दिवस की सुबह सबसे पहले पलटन के चार अशोक चक्र विजेताओं की मूर्तियों पर श्रद्धा सुमन अर्पण करने का कार्यक्रम था। शहीद मेजर अरुण जसरोटिया, शहीद मेजर सुधीर कुमार वालिया और शहीद लांस नायक मोहन गोस्वामी के परिवार के सदस्य उस समरोह में उपस्थित थे। लेकिन पैराट्रूपर संजोग के परिवार से कोई नहीं आया था। 

आता भी कैसे? संजोग अनाथ था। संसार में रिश्तों के नाम पर केवल उसकी छोटी बहन थी और वह भी किसी परिवार के सदस्य के पास रह रही थी। केवल 21 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले संजोग की छोटी बहन तो और भी छोटी होगी। मैं बहुत देर तक उस वीर बाल योद्धा की कांस्य- मूर्ति निहारती रही। उसी संवेदनशील क्षण में मेरा उससे भावनात्मक रिश्ता जुड़ गया। मैं संजोग के बारे में सब कुछ जानने के लिए उत्सुक थी। उस दिन मैं पलटन में उन सैनिकों से मिली जो संजोग के मित्र भी थे और अभियान में भी उसके साथ थे।

26 जून, 1981 में जन्मे संजोग मात्र 19 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हो गए थे। ट्रेनिंग के बाद उन्होंने भारतीय सेना की ऐसी पलटन में सम्मिलित होने का निर्णय लिया जो सदा सीमाओं पर ही तैनात रहती थी और आतंकवादियों से जूझने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित थी। लगभग एक वर्ष के बाद ही उन्हें अपनी पलटन की एक टुकड़ी के साथ आतंकियों के साथ युद्ध का अवसर मिला था।

पैराट्रूपर संजोग छेत्री की पलटन 9 पैरा स्पेशल फोर्सेस जम्मू-कश्मीर में तैनात थी । यह पलटन नियमित रूप से आतंकवाद विरोधी अभियानों में सक्रिय थी। 22 अप्रैल, 2003 को खुफिया सूत्रों से जम्मू के सुरनकोट जिले की पहाड़ियों के  ‘हिल काका’ क्षेत्र  में कुछ कट्टर आतंकवादियों के छिपने  की सूचना मिली थी। यहाँ एकत्रित हुए ये आतंकवादी जम्मू-कश्मीर के अन्य इलाकों में आतंक फैलाने की योजना बना रहे थे।

9 पैरा स्पैशल फोर्सेस के चार अशोक चक्र विजेताओं की
 कास्य मूर्ति- बाएँ से दाएँ-  पैराट्रूपर संजोग छेत्री,
मेजर सुधीर कुमार वालिया, कैप्टन अरुण सिहं जसरोटिया,
 और लांस नायक मोहन गोस्वामी 
 उपलब्ध सूचना  का विश्लेषण करने के बाद 9 पैरा (एसएफ) द्वारा आतंकवादियों को उस पहाड़ी क्षेत्र से बाहर निकालने के लिए एक अभियान की योजना बनाई गई थी। ऑपरेशन के लिए 20 कमांडो वाली एक आक्रामक टीम का चयन किया गया था जिसका कोड नाम ‘ऑप सर्प विनाश’ रखा गया था। पैरा ट्रूपर संजोग छेत्री इस ख़तरनाक ऑपरेशन के लिए चुने गए कमांडो में से एक थे।

 उस रात भारतीय सेना की  टीम ने संदिग्ध इलाके की घेराबंदी कर दी । हालाँकि  जैसे ही कमांडो आगे बढ़े और आतंकवादियों का ठिकाना, जो कि एक गुफा के बीच था के पास पहुँचे, आतंकवादियों ने उन्हें खुले में देख लिया और उन पर गोलियाँ चला दीं। भारी हथियारों से लैस आतंकवादी सुरक्षित स्थानों से गोलीबारी कर रहे थे और खुले में आगे बढ़ते हुए सैनिकों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे थे। एक टीले के पास पहुँचते हुए  संजोग छेत्री ने महसूस किया कि उनकी टीम के साथी दुश्मन के फायर की सीधी रेखा में थे और खतरे में थे। अचानक अपने साथियों पर आए गंभीर ख़तरे को भाँपते हुए संजोग अपने दुर्लभ साहस का परिचय देते हुए लगभग 100 गज की दूरी तक रेंगते हुए गुफा के नजदीक पहुँच गए। आतंकियों ने उन्हें ऊपर से देख लिया था और उन पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई गईं। आती हुई गोलियों की बौछार को अपने शरीर पर झेलते हुए संजोग ने अपने साथ लाये ग्रनेड फेंक कर आतंकवादियों पर हमला बोल दिया और एक आतंकवादी को मार गिराया। इस भीषण गोलाबारी में  संजोग छेत्री घायल हो गए और उनके शरीर से काफी खून बहने लगा। लेकिन वह अपनी जगह से नहीं हटे और एक और आतंकवादी का सफाया कर दिया। तब तक इन्हें  कई गोलियाँ लग चुकी थीं और वह गंभीर रूप से घायल हो गए थे । शत्रु का सफाया करते-करते वह गुफा के मुख्य द्वार  तक पहुँच  गए थे। आतंकवादियों ने इन पर पुन:  गोलियाँ  दागी  लेकिन इन्होंने  हिम्मत नहीं हारी। शत्रु को बिलकुल सामने पाकर गुत्थमुत्था युद्ध में प्रशिक्षित  कमांडो संजोग ने अपने शरीर पर बँधे  कमांडो के विशेष हथियार ‘कमांडो डैगर (चाकू ) से अंतिम आतंकवादी पर घातक  प्रहार किया जिससे वह वहीं पर ढेर हो गया । इस आमने-सामने के युद्ध में  संजोग छेत्री भी अपनी देश की आन, बान और शान के लिए  शहीद हो गए। सर्वोच्च  बलिदान और साहस के इस दृश्य को उनके साथियों ने अपनी आँखों से देखा तो उनकी शिराओं  में बहता हुआ रक्त खौलने लगा। अब उनके सामने  वहाँ  छिपे शत्रु का सफाया करना ही मुख्य उद्देश्य था। इनके  साथी उस घुप अँधेरे में आगे बढ़े और उन्होंने  उस रात  उस जंगल में छिपे 13 आतंकियों को मार गिराया। एक पाक प्रशिक्षित आतंकी जो कि गम्भीर रूप  से घायल था,  को कब्जे में कर लिया।

पैराट्रूपर  संजोग छेत्री को उनके अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान के लिए देश का सर्वोच्च शांति काल वीरता पुरस्कार, ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया। उस समय संजोग केवल 21 वर्ष के थे।

शहीद संजोग छेत्री की बहन
संजोगिता, राष्ट्रपति
 एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों
अशोक चक्र ग्रहण करते हुए

सिक्किम के एक छोटे से गाँव में जन्मे संजोग के पिता भी सेना में सेवाएँ दे चुके थे अत: सैनिक बनना उनका जन्मसिद्ध अधिकार भी था और ध्येय भी। इनकी छोटी अवस्था थी , जब इनके पिता की मृत्यु हो गई और परिवार ने इनकी माँ का पुनर्विवाह कहीं दूर कर दिया। माँ भी चली गई,  तो संजोग और उनसे छोटी बहन संजोगिता अनाथ हो गए। मौसी ने दया करके पाला; लेकिन जीवन वैसा नहीं  रहा, जैसा माँ-पिता की छत्र-छाया में था। फिर भी यह होनहार बालक जीवन की चुनौतियों से एक सिंह की तरह लड़ता रहा।

शौर्य और संगीत का अद्भुत संगम मैंने बहुत से सैनिकों में देखा है । उनके मित्रों के अनुसार संजोग भी पॉप संगीत को पसंद करते थे और अपनी प्रिय गिटार के सुरों के साथ गीत गाकर सभी का दिल बहलाते थे। फौज में भर्ती हुए, तो अपनी प्रिय गिटार भी साथ ही ले आए । अभियान में जाने से पहले इन्होंने अपनी गिटार अपने सामान के साथ पलटन में ही रखी थी।  वो गिटार इनकी अमूल्य धरोहर की तरह अभी भी पलटन के मोटिवेशन हाल में इनकी तस्वीर के साथ रखी हुई है।

अदम्य साहस और वीरता से  वर्दी की  पेटी से बँधे कमांडो डैगर से सामने खड़े खूंखार शत्रु पर अचूक प्रहार करने वाले किशोर संजोग के व्यक्तित्व में कोमल भाव भी कूट कूटकर समाहित थे। अपने स्कूल  के दिनों में चित्रकारी भी करते थे। उनके द्वारा बनाये कई चित्र उनके मित्रों ने अपने पास सहेज के रखे हुए हैं। इनके स्कूल और कॉलेज में भी इनके चित्र लगे हुए हैं। इनके स्कूल के अध्यापक अपने आप को सौभाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें ऐसे दृढसंकल्प, शूरवीर एवं मेहनती शिष्य को शिक्षा देने का अवसर मिला। उनके मित्रों के अनुसार संजोग को खेलकूद के क्षेत्र में भी छात्रवृत्ति मिली थी और वह राजकीय स्तर पर फुटबाल खेलते थे।

एक गायक, चित्रकार, फ़ुटबाल के खेल में दक्ष छात्र के लिए जीवन जीने के लिए बहुत से मार्ग थे । वह इनमें से किसी को भी चुन सकते थे। किन्तु संजोग एक बहादुर सैनिक पिता के पराक्रमी पुत्र थे । उनकी रगों में एक सेनानी  का रक्त था। सैनिक धर्म ही उनके लिए सर्वोपरि था और भारत माँ की रक्षा ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था।

जिस प्रकार महाभारत काल में अल्प आयु में वीरगति प्राप्त करने वाले वीर अभिमन्यु के शौर्य  की कहानियाँ आज भी दोहराई जाती हैं, ठीक वैसे ही आज पैराट्रूपर संजोग छेत्री के अद्भुत पराक्रम और बलिदान की वीरगाथा  युगों-युगों तक आने वाली  पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।

कौन कहता है कि वह अनाथ था। आज भारत के जन-जन के ह्रदय में वह पुत्रवत् स्नेहिल  स्थान पा चुका है।

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सम्पर्कः वर्जिनिया, यूएसए, Email:shashipadha@gmail.com


आधुनिक बोध कथा- 8 सौदागर

- सूरज प्रकाश

एक देश था। उसमें बहुत सारे शहर थे और बहुत सारे गाँव थे। गाँव वाले अक्सर अपनी खरीदारी के लिए आसपास के बड़े शहरों में जाया करते थे।

ऐसे ही एक शहर के एक बाजार में बहुत सारी दुकानें थीं। वहाँ एक ऐसी दुकान भी थी जहाँ पर ऐसी सारी चीज़ें मिलती थीं जिन पर एमआरपी नहीं लिखा होता था, जैसे साइकिलें, जूते, टोपियाँ, लालटेन और कपड़े आदि। ये दुकान दो भागीदार मिल कर चलाते थे। अक्सर भागीदार बदलते भी रहते लेकिन धंधा और धंधा करने का तरीका वही रहता। मकसद एक ही रहता, ग्राहक को बेवकूफ बना कर लूटना।

दुकानदारी करने का उनका तरीका बहुत मजेदार था। वे बारी -बारी से दुकान पर बैठते। जब भागीदार नंबर एक दुकानदारी करने बैठता तो भागीदार नंबर दो सामने वाली चाय की दुकान पर जाकर बैठ जाता। जब कोई ग्राहक कुछ खरीदने आता और पहला भागीदार उसे लगभग निपटा चुका होता तो दूसरा भागीदार टहलता हुआ आता, ग्राहक से दुआ सलाम करता और पहले वाले भागीदार से पूछता - साहब जी को क्या बेचा?

वह बताता – जी, ये माल बेचा है। तब भागीदार पूछता - कितने में दिया तो पहला बतलाता कि इतने रुपए में सौदा हुआ है।

तब दूसरा वाला सिर पीटने का नाटक करता, कहता - लुटा दे, लुटा दे दुकान। इतने में तो हमने भी नहीं खरीदा है। तेरा यही हाल रहा तो हमें एक दिन दुकान बंद करके भीख माँगनी पड़ेगी।

तब पहला वाला कहता - मुझे नहीं याद रहा कि हमने कितने में खरीदा है; लेकिन अब हम सौदा कर चुके हैं तो हम ग्राहक को इसी कीमत दे देंगे आप चाहें तो हमारे हिस्से के लाभ में से ये नुकसान काट लेना।

दोनों झगड़ा करने का नाटक करते।

पहला वाला भागीदार ग्राहक को समझाता - आप तो ले जाओ जी सामान तय कीमत पर। मैं इनसे निपट लूँगा। अपने हिस्से का मुनाफा छोड़ दूँगा।

ग्राहक खुश- खुश सामान लेकर चला जाता कि उसे बहुत सस्ते में सामान मिल गया है।

हर ग्राहक के साथ यही तरीका अपनाया जाता।

अगली बार दुकान पर भागीदार नंबर दो बैठता और पहला वाला सामने वाली चाय की दुकान पर जा बैठता और ग्राहक के आने पर यही नाटक करता।

 कहानी का अगला मोड़ ये है कि जब चीज़ बिक रही होती थी तो दोनों पार्टनर ग्राहक से विनती करते थे कि किसी को बताना मत कि कितने की ली है, इस भाव पर हम और नहीं दे पाएँगे।

वे हमेशा यही नाटक करके इस तरीके से ग्राहकों को उल्लू बनाते रहते और हर बार ग्राहक समझता कि वह भागीदारों के आपसी झगड़े में सामान सस्ते में ले आया है।

वे बेच कुछ भी रहे होते, टोपी हर बार ग्राहक को ही पहनाई जाती।

डिस्क्लेमर: यह एक विशुद्ध बोधकथा है जिसके सारे पात्र काल्पनिक हैं। इस बोध कथा का उस देश से कोई लेना देना नहीं है जहाँ पर राजनीतिक पार्टियाँ आपस में भागीदारी करके वोटरों को लगातार कई वर्षों से टोपियाँ पहना रही हैं और वोटर हर बार भ्रम में जीता है कि शायद इस बार कुछ तो उसके हाथ लगा है।

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मो. नं. 9930991424, kathaakar@gmail.com


यात्रा संस्मरणः सरहदें दिलों को नहीं बाँट सकतीं

-  नीरज मनजीत

2017 के अक्टूबर माह में कुछ रचनाकार मित्रों ने अगले साल फरवरी में बोनगाँव (कोलकाता) जाना तय कर लिया था। तब से ही मन में एक दोहरी उत्सुकता आकार लेने लगी थी। पहली उत्सुकता थी बोनगाँव में कुछ वक़्त बिताने की, जिसके बारे में बताया गया कि यह भारत-बांग्लादेश की सरहद पर स्थित एक गाँव है। यहाँ हर साल 21 फरवरी को बंग भाषा दिवस मनाया जाता है। यह एक उत्सव की तरह होता है, जिसमें दोनों देशों के लोग शामिल होते हैं।

 दूसरी उत्सुकता थी कोलकाता के प्रवास की। मैं पहली दफ़ा कोलकाता जा रहा था। कोलकाता के बारे में कुछ सुनी-सुनाई बातें मेरे जेहन में थी... कि कोलकाता एक भीड़-भड़क्के से भरा शहर है, जहाँ की तंग सड़कों में अभी भी सुस्त रफ़्तार ट्रामें चलती हैं और तपती सड़क पर पैदल रिक्शा खींचते हाँफते-झुलसते रिक्शा पुलर बलराज साहनी की फ़िल्म 'दो बीघा जमीन' की याद दिला जाते हैं।

कोलकाता की भीड़ का बड़ा ही रोचक चित्रण 1969 में भारत के दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के उप कप्तान इयान चैपल ने किया था। ऑस्ट्रेलियाई टीम टेस्ट खेलने बस में स्टेडियम के लिए रवाना हुई। स्टेडियम पहुँचते-पहुँचते चैपल ने अपने कप्तान बिल लारी से कहा, ' हमने न्यूज़ीलैंड की आबादी के बराबर लोग तो देख ही लिए।'  पहले दिन का खेल समाप्त होने के बाद होटल लौटते वक़्त शाम की भीड़ देखकर टीम के वरिष्ठ खिलाड़ी डग वॉल्टर्स ने कहा, 'अब तो हमने ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर लोग देख लिए।'

कोलकाता के बारे में मेरे कुछ सैलानी दोस्तों के ख़्यालात भी अच्छे नहीं दिखे, लेकिन मैं उनकी बातों पर यकीन नहीं कर सकता था। क्योंकि वे खूबसूरत समुद्रतटों और भव्य शॉपिंग मॉल वाले शहरों को ही बड़ा पर्यटन स्थल मानते हैं, जबकि मेरे लिए तो एक अच्छे दोस्त का किसी नगर में होना ही उस नगर को चाहने का सबब बन सकता है। फिर कोलकाता को चाहने के तो दसियों सबब थे। सो, मैं इस प्रवास के हफ़्तों पहले से इन दोनों आकर्षणों की गिरफ़्त में था।

यात्राओं के बीच, यात्राओं के साथ-साथ कुछ नोट्स अपने-आप तैयार होने लगते हैं। ऐसे ही कुछ नोट्स, जो इस प्रवास के संदर्भ में हैं....

कवर्धा छत्तीसगढ़, 9 फरवरी, 2018

20 फरवरी को कोलकाता जाना है। बोनगाँव एक सरहदी गाँव है, भारत बांग्लादेश की सरहद पर कोलकाता से 80 किमी दूर। 21 फरवरी को सारे रचनाकार वहाँ जाएँगे। यह एक विशेष दिन है, कुछ-कुछ त्योहार जैसा, जिसे दोनों देश के लोग मिलकर मनाते हैं। यह गाँव इच्छामती नदी के किनारे बसा है और इसी नदी को दोनों देशों की सीमारेखा मान लिया गया है। 22 फरवरी को कोलकाता में मेल-मुलाकात और कुछ खास जगहों का प्रवास तय हुआ है। बोनगाँव के बारे में गूगल पर सर्च किया तो कुछ ख़ास जानकारी हासिल नहीं हुई। सो, कुल मिलाकर एक अनजान सी यात्रा पर निकलना है। और यही बात ही तो है जो रोमांचित करती है।

कोलकाता के लिए ट्रेन की कन्फर्म टिकट लेने में भी थोड़ी मुश्क़िल दरपेश आई। इरादा था 20 फरवरी को रायपुर से ज्ञानेश्वरी या मेल पकड़ने का, ताकि 21 की अलस्सुबह हावड़ा पहुँच जाएँ और तैयार होकर 10 बजे तक बोनगाँव के लिए निकल जाएँ। लेकिन दोनों गाड़ियों के एसी कोच में बर्थ नही मिली। खैर, उसी दिन सुबह राजकोट-संतरागाछी स्पेशल एसी का वक़्त भी है। उसमें आसानी से बर्थ मिल गई। यह गाड़ी दोपहर बाद 4 बजे तक हावड़ा पहुँच जाती है। इरादा था रात को हावड़ा ब्रिज से हुगली नदी के नज़ारे का। पर किसे पता था कि रेलवे की लेट-लतीफ़ी इस इरादे पर पानी फेर देगी।

20 फरवरी, 2018

आज सुबह 5 बजे दुर्ग से राजकोट-संतरागाछी एसी विशेष ट्रेन पकड़ी, कोलकाता जाने के लिए। यह गाड़ी पूरे 3 घंटे विलंब से आई। बताया गया कि राजनांदगाँव के पास मेगा ब्लॉक की वजह से इस मार्ग की सभी गाड़ियाँ देर से चल रही हैं। चूँकि नेट पर ट्रेन की सही स्थिति पता नहीं चल रही थी, इसलिए मैं ठीक दो बजे स्टेशन पहुँच गया। वहाँ भी सही वक़्त पता नहीं चला। इन्क्वायरी से इतना ही बताया जा रहा था कि ट्रेन विलंब से आएगी। कितने विलंब से, यह किसी को पता नहीं था। नतीजतन ढाई घंटे  रिटायरिंग रूम में ऊँघते बैठना पड़ा। डिब्बे में 3-4 घंटे की नींद लेने का इरादा काफूर हो चुका था। खैर, फिर भी दो-ढाई घंटे की नींद ले ही ली। अभी ट्रेन चक्रधरपुर पहुँचने वाली है, तीन-साढ़े तीन घण्टे विलम्ब से। हावड़ा 8 बजे तक पहुँचना हो पाएगा। समय पर पहुँचे तो हुगली नदी और हावड़ा ब्रिज की दृश्यावलियाँ देख सकते हैं।

ट्रेन साढ़े नौ बजे संतरागाछी स्टेशन पहुँची, साढ़े चार घण्टे देर से। जिस प्लेटफार्म पर ट्रेन लगी, उसकी मरम्मत चल रही है। गाड़ी से उतरा तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अमूमन प्लेटफार्म पर दिखने वाली चाय-नाश्ते की दुकानें वहाँ एक भी नहीं थी। धीरे-धीरे चलते प्लेटफॉर्म से बाहर निकला। वहाँ प्रीपेड टैक्सी का स्टाल खाली पड़ा था और सामने लंबी लाइन लगी थी। मैं तक़रीबन उन्नीस घंटों से सफ़र में था, सो मुझमें अब वहाँ कतार में खड़े होकर इंतज़ार करने का धैर्य नहीं बचा था। थोड़ा आगे बढ़ा तो एक टैक्सीवाला हावड़ा स्टेशन के पास स्थित होटल में छोड़ने के लिए तैयार हुआ, मुँहमाँगे किराए पर। होटल पहुँचते 11 बज चुके हैं। सुबह जल्दी तैयार होकर कोलकाता के न्यू टाउन स्थित आर्किड इन गेस्ट हाउस में पहुँचना है। वहीं से हम सभी को एक साथ बोनगाँव के लिए रवाना होना है।

कोलकाता, 21 अप्रैल, 2018

सुबह 6 बजे मित्रों का फ़ोन आ गया। वे उसी वक़्त हावड़ा पहुँचे थे। कहा कि जल्दी तैयार होकर ऑर्किड गेस्ट हाउस पहुँचो, नाश्ता हम सब एक साथ करेंगे।  सुबह 8 बजे तक मैं तैयार हो गया। रात 6 घंटे की गाढ़ी नींद ले ली थी, इसलिए सुबह ताज़ा और ख़ुशगवार लग रही थी। मित्र को फोन किया। वे भी तैयार होकर हावड़ा स्टेशन के पास पहुँच चुके थे। बड़ी मुश्क़िल से एक बैटरी रिक्शा ढूँढा और उससे भी ज़्यादा मुश्क़िल से मित्र मिले। खैर, देर से ही सही हम कार से वहाँ से तकरीबन 15 किमी दूर ऑर्किड के लिए रवाना हुए। यह गेस्ट हाउस दमदम एयरपोर्ट के नज़दीक न्यू टाउन में स्थित है। यह इलाका अभी-अभी विकसित हुआ है, इसलिए बिल्कुल ताज़े खिले फूल की तरह सुंदर और आकर्षक दिखाई दे रहा है।  बिल्कुल नई-नकोर बनी इमारतें-कालोनियाँ, साफ़-सुथरी सड़कें, किनारों पर व्यवस्थित तरीके से लगाए गए हरे-भरे वृक्ष और बाग-बगीचे।

हम गेस्ट हाउस पहुँचे तो अधिकतर साथी नाश्ता कर चुके थे। मैंने जल्दी नाश्ता किया और नीचे लॉबी में बैठे साथियों के साथ हो लिया। हम तीन गाड़ियों में बोनगाँव के लिए निकल पड़े। कोलकाता के ट्रैफिक से जूझते हमें शहर से बाहर निकलने में एक घंटा लग गया। उसके बाद इकहरी सड़क पर हम बोनगाँव की ओर बढ़ने लगे। एक साथी ने बताया कि बोनगाँव का बांग्ला में असली उच्चारण है-- "बोनगाँ"। बांग्ला में गाँव को गाँ कहा जाता है। मैंने उन्हें बताया कि यह ठीक वैसा ही है, जैसे पंजाबी में गाँव को ' ग्रां ' कहा जाता है। वे बता रहे थे कि बोनगाँव को बांग्ला के ख्यात साहित्यकार बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के गृहनगर के रूप में भी जाना जाता है, जिन्होंने मर्मस्पर्शी उपन्यास 'इचामती' लिखा है। दरअसल इच्छामती नदी का बांग्ला में उच्चारण इचामती ही है।

रास्ते में हमें दोनों ओर बड़े ही भारी तने के सैकड़ों वृक्ष दिखे। ऐसे मोटे तने मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। पूछने पर कुछ पता भी नहीं चला। इनके अलावा एक बड़ी ही रोचक बात हमने देखी। रास्ते में कई गाँव मिले। इन गाँवों के तक़रीबन हर घर में एक तलैया थी और साथ लगी छोटी-सी बाड़ी में इमारती लकड़ी के वृक्ष लगे थे। उन्होंने बताया कि चूँकि मछली बंगाल का प्रमुख आहार है, इसलिए तलैया में मछलियाँ पाली जाती हैं। इमारती लकड़ियों के वृक्ष लगाना यहाँ की परंपरा है। यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसके लिए सरकार की ओर से कोई रोकटोक नहीं है।

बातचीत के दौरान हम कब बोनगाँव पहुँच गए, मालूम ही नहीं पड़ा। गाँव के बीच से होते हुए हम सरहद के पास जा पहुँचे, लेकिन हमें थोड़ा आश्चर्य इस बात को लेकर हुआ कि जिसे हम गाँव समझे थे, वह एक अच्छा-खासा बड़ा नगर है। काफी बड़े बाज़ार हमें वहाँ दिखे। दूसरा आश्चर्य हमें इच्छामती नदी की हालत देखकर हुआ। वह बिल्कुल सूखी हुई थी, कुछ पतली गंदली धाराएँ बहती दिखीं। हमने नेट पर तो इसे एक दरिया के रूप में देखा था, जिस पर स्टीमर चल रहे थे। ख़ैर, मैंने वहाँ खड़े एक ट्रैफिक हवलदार से पूछना शुरू किया तो इस क्षेत्र के बारे में बहुत सी जानकारियाँ मिलती चली गईं--दरअसल बनगाँव लोकसभा का नाम है, जबकि बोनगाँव उत्तर 24 परगना ज़िले का एक ब्लॉक है, जो बनगाँव उत्तर विधानसभा में आता है। बोनगाँव की आबादी एक लाख दस हजार की है और यह ईस्टर्न रेलवे के सियालदह सेक्शन का आखिरी स्टेशन है। विभूतिभूषण के अलावा इस नगर को राजनेता जीबोन रतन धर, पुरातत्त्ववेत्ता राखालदास बंद्योपाध्याय और आधुनिक कविता के कवि विभाष रॉय चौधरी के लिए भी जाना जाता है।

बंग भाषा दिवस को लेकर हमने वहाँ काफी उत्सह देखा। इस त्यौहार में दोनों देशों के लोग शामिल थे। बांग्लादेश के बहुत से सरहदी गाँवों के लोगों के रिश्तेदार बोनगाँव में रहते हैं। इसी तरह सरहदी भारतीय गाँवों- गोपाल नगर, दुमा, पल्ला, चाँदपारा, फुलसारा- के लोगों के रिश्तेदार सीमांत बांग्लादेश में रहते हैं। इस दिन दोनों देशों की सरहदें खोल दी गई थीं और वीज़ा धारी लोग निर्बाध रूप से आ-जा रहे थे। उस दिन हमने देखा और शिद्दत से महसूस किया कि सरहदें देशों को तो विभाजित कर सकती हैं लेकिन लोगों के दिलों को नही बाँट सकतीं। दोनों देशों के पुरुषों, स्त्रियों, बच्चों का उत्साह देखने लायक था, उनके जज़्बात जैसे छलक रहे थे। जिनके पास वीज़ा नहीं था उनके लिए एक बड़े मैदान के बराबर एक ऐसा स्थान बनाया गया था, जहाँ वे पहचान पत्र दिखाकर जा सकते थे और एक-दूसरे से मिलजुल सकते थे। किसी भी तरह का कोई तनाव हमने वहाँ महसूस नहीं किया।

शाम के समय वहाँ दोनों देशों के सैनिकों की परेड हुई। यह परेड अनोखी थी, जो दोनों देश के लोगों के ऐन बीच में हो रही थी। जैसे ही परेड खत्म हुई लोग सैनिकों के साथ फ़ोटो लेने लगे, उनसे हाथ मिलाने लगे। ये सारे सैनिक एक-दूसरे देशों के लोगों से हाथ मिला रहे थे, उनसे मिलजुल रहे थे। बड़ा ही अविस्मरणीय था सब कुछ। दोनों देशों के सैनिक भी खुलकर एक दूसरे से मिलजुल रहे थे, कहीं कोई तनाव नहीं था, जैसा हमने वाघा बॉर्डर में महसूस किया था।

और मैं सोच रहा था कि काग़ज़ों पर खींची गई रेखाएँ और नक्शे अंततः क्यों इतने ताक़तवर हो जाते है कि वे महायुद्धों और विश्वयुद्ध के बायस बनकर इस धरती पर बदनुमा दाग़ छोड़ देते हैं ? इन बेजान रेखाओं के पीछे छिपे शातिर दिमागों ने लहूलुहान मानवता को और ज़्यादा... और ज़्यादा जख़्मी करने... और ज़्यादा... और ज़्यादा खून बहाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। इन नक्शों ने वास्तविक दीवारें खड़ी की हैं और हजारों वर्षों के खूंरेज़ इतिहास से गुज़रती जो एक शांतिवादी वैश्विक व्यवस्था बनती दिखाई पड़ रही थी, वह फिर उसी खूनी दौर में वापस जा रही है।

यूरोप के एकीकरण के बाद जरूरत एशिया को एक सूत्र में बाँधने की थी, ताकि एक युद्ध रहित विश्व के सपने को साकार करने की दिशा में सामूहिक प्रयत्न किए जाते। लेकिन एशिया को ही रणभूमि बनाकर अमन-पसंदगी के सारे सपनों को तार-तार किया जा रहा है। यह एक कड़वी वास्तविकता है कि दक्षिण एशिया दुनिया का सर्वाधिक खतरनाक इलाका है, जहाँ एटमी ताकतें सर्वनाश के लिए उतारू हैं। क्या इस इलाके में कभी उस तरह दीवारें टूटेंगी, जिस तरह जर्मनी के लोग दीवार तोड़कर एक-दूसरे के गले जा मिले थे? सपनों और वास्तविकताओं में क्या फ़र्क़ हो सकता है, यह हम सब देख रहे हैं... कि कड़वी सियासी हक़ीक़तें सपनों को रौंद रही हैं !

रात्रि भोज हमें न्यू टाउन स्थित एक चार सितारा होटल 'स्विसोटल' में लेना था। यह एक बड़ा ही यादगार और आनंददायी अनुभव था। हम सभी साथी डाइनिंग हॉल में एक बड़ी टेबल से लगी कुर्सियों पर जम गए। उस बड़े हॉल में दसियों किस्म के सामिष-निरामिष स्वादिष्ट व्यंजन, फल, ड्राई फ्रूट्स, आइसक्रीम, पेस्ट्रीज, केक, मिठाइयाँ आदि रखे गए थे। मैं तो बस वहाँ के नए व्यंजनों का स्वाद चखने में लग गया। मुख्य भोजन के लिए सभी साथी जमे तो हमारे एक वरिष्ठ साथी के रोचक संचालन में एक कवि-गोष्ठी की शुरुआत हो गई। तरह-तरह के व्यंजन और बड़ी ही सुंदर, प्रभावी कविताएँ... बस सब कुछ अविस्मरणीय! बदक़िस्मती से मैं अपनी कोई कविता नहीं सुना पाया। दरअसल उस रात नेटवर्क की ख़राबी की वजह से मेरी फेसबुक वॉल नहीं चल रही थी, जबकि मेरी बहुत-सी कविताएँ उसमें मौजूद हैं। खैर, आख़िर में इन सारी कविताओं पर मुझे एक संक्षिप्त टिप्पणी कहने का सुअवसर देकर मित्रों ने इसकी भरपाई कर दी।

कुछ दोस्त ऐसे होते हैं, जो दिलो-दिमाग़ के खुले कपाट पर भी बड़ी ही शाइस्तगी से दस्तक देते हैं और अंदर आने की इजाज़त चाहते हैं, जबकि उन्हें किसी भी वक़्त आने का अधिकार पहले से ही हासिल होता है। कुछ शहर भी ऐसे ही होते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक शहर है। पकी उम्र में कोलकाता पहली बार जाने पर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। एक दिन में आप किसी महानगर को कितना जान सकते हैं! लेकिन जितना भी जाना, देखा... बड़ा ही खूबसूरत लगा। और कोलकाता के लोग, वे तो खूबसूरत हैं ही। कार से आते-जाते कुछ तस्वीरें लीं। वो 64 मंजिला इमारत भी देखी, जो अभी बन रही है और पूरी होने के बाद उसे भारत की सबसे ऊंची इमारत का दर्जा हासिल हो जाएगा।

सुबह का नाश्ता लेकर हम सभी कोलकाता की कुछ ख़ास जगहों पर गए। हमारे एक साथी वरिष्ठ पत्रकार-संपादक पारिवारिक वजहों से एक विश्राम गृह में रुके थे। वहीं उनसे और उनकी पत्नी से भेंट हुई। उनके बैठक कक्ष में सभी साथी रचनाकारों के बीच विचार-विमर्श का दौर चला। उसके बाद शेक्सपियर सरणी स्थित भारतीय भाषा परिषद के कार्यालय में बैठक जमी। दोपहर के खाने के बाद सफ़र शुरू हुआ पुराने लेकिन भव्य कोलकाता का। तंग किंतु साफ़-सुथरी सड़कों पर आराम से चलती ट्रामों औऱ पैदल रिक्शा खींचनेवालों के बीच रास्ता बनाती हमारी गाड़ियाँ कॉफी हाउस के समीप रुकीं। कोलकाता का कॉफी हाउस एक बहुत ही पुरानी इमारत की पहली मंज़िल पर स्थित है। यहाँ सब कुछ वैसा का वैसा ही है, जैसा वर्षों से चला आ रहा है। स्मृतियों को बदलने की कोई कोशिश नहीं की गई है और संभवतः यही इसकी गरिमा और सुंदरता है। कॉफी पीकर हम सब निकले और एक-दूसरे के गले मिले, हाथ मिलाए और फिर मिलने के वादे के साथ विदा ली।

सम्पर्कः हैप्पीनेस प्लाज़ा, नवीन मार्केट, कवर्धा, छत्तीसगढ़ 491995, मो. 96694 10338, 70240 13555, email- neerajmanjeet@gmail.com

आजादी का अमृत महोत्सवः नारी शक्ति का पुण्य स्मरण

- अनिमा दास  ( कटक)

पराधीन भारतवर्ष को यदि वीर पुरुषों की आवश्यकता थी, तो निडर एवं निस्वार्थ स्त्रियों की भी आवश्यकता थी। केवल घर संसार बसाकर जीवन व्यतीत करना एक स्त्री का धर्म नहीं होता है; यह प्रमाणित किया है कई महिला स्वाधीनता संग्रामियों ने। देशभर में जब महात्मा गांधी जी के आह्वान से पुरुषों ने प्राण का बलिदान दे रहे थे, तभी कई महिलाएँ स्वयं को इस यज्ञ में समिधा बनाकर होम कर रहीं थीं। हमें सदैव इन नारी आंदोलनकारियों का श्रद्धा से स्मरण करना चाहिए। ऐसे ही ओड़िशा में भी कई नारियों ने स्वाधीन भारत के स्वप्न में स्वयं के स्वप्नों को सम्मिलित किया।

1. रमादेवी चौधरी
रमादेवी चौधरी, ओड़िआ की सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी थीं। ओड़िशा के सत्यभामापुर जैसे एक छोटे से गाँव में उनका जन्म 1899 में हुआ था। उनको शैशव काल में उत्तम शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकी। 15 वर्ष के आयु में उनका विवाह गोपबंधु चौधरी से हुआ। 1921 में दोनों अपने दाम्पत्य जीवन की चिंता न करते हुए गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुए। गाँव-गाँव में जाकर प्रत्येक महिला को इस युद्ध में सहयोग देने हेतु उत्साहित करती रही रमादेवी। सन् 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में योगदान देकर वह आगे बढ़ती रही। 1930 में नमक सत्याग्रह में उन्होंने सहर्ष सहभागिता की एवं ओड़िशा में इस सत्याग्रह को सफल भी किया। वह एवं उनके कई सहयोगियों को अंग्रेजो ने 1930 में कारावास का दण्ड भी दिया। रमादेवी, कई बार अपनी महिला सहयोगियों जैसे-सरला देवी एवं मालती चौधरी, के साथ जेल गई।

हरिजनों एवं अन्य पिछले वर्गों के लिए अति सक्रियता से रमादेवी लड़ती रही। भारत छोड़ो आंदोलन में पति गोपबंधु चौधरी एवं उनके परिवार समेत कई लोग 1942 में बंदी बनाए गए। कस्तूरबा गांधी की मृत्यु के पश्चात् रमादेवी को महात्मा गांधीजी ने ओड़िशा के कस्तूरबा ट्रस्ट का प्रतिनिधित्व प्रदान किया। जुलाई 22, 1985 में उनका देहावसान हुआ। रमादेवी चौधरी के नाम पर भुवनेश्वर में रामदेवी यूनिवर्सिटी भी है।

2. अन्नपूर्णा महाराणा

अन्नपूर्णा महाराणा जो कि 'चुनी अपा' नाम से विख्यात थीं। इनका जन्म 1917 में हुआ था एवं ओड़िशा में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में वह ओड़िशा की प्रतिष्ठित 'वानर-सेना' की सदस्या थीं। स्वतंत्र भारत वर्ष गठन करने के संघर्ष में समर्पित कई बालकों का यह समूह था। अन्नपूर्णा, गोपबंधु दास से इतनी प्रभावित थी कि समाज के पिछड़े वर्गों की सेवा में जीवन समर्पित कर दिया था। ब्रिटिश सरकार के द्वारा प्रथम बार वर्ष 1930 में उन्हें कारावास दिया गया; क्योंकि नमक सत्याग्रह में उनकी अत्यंत सक्रिय भूमिका थी। जीवनभर अन्नपूर्णा जी समाज को दरिद्रता, अंधविश्वास एवं निरक्षरता से मुक्त करने में प्राण पण से कार्य करती रही। 31 दिसम्बर, 2012 को, उनके कटक स्थित गृह में उनका देहवसान हुआ।

3. मालती चौधरी

ओड़िशा की अन्येक पुत्री, स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना मालती चौधरी का जन्म 26 जुलाई 1904 को हुआ था।

1934 में मालती चौधरी ने महात्मा गांधीजी की सुसंगठित पदयात्रा में योगदान देकर ओड़िशा में इसे सफल बनाया था। वर्ष 1946 में, ओड़िशा के अंगुल में उन्होंने बाजीराऊत छात्रावास एवं वर्ष 1948 में उत्कल नवजीवन मंडल का गठन किया था। बाजीराऊत छात्रावास स्वतंत्रता सेनानियों, हरिजनों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के बच्चों की शिक्षा-प्राप्ति के उद्देश्य से बनाया गया था। एक शृंखलित समाज गढ़ने में उपयुक्त शिक्षा का दान करने के साथ ही उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी सक्रिय योगदान किया। गांधीजी स्नेह से उन्हें 'तूफानी' नाम से बुलाते थे। वर्ष 1921, 1936, 1942 में मालती चौधरी को कई बार बंदी बना कर कारागार में डाला गया।

स्वतंत्रता संग्राम की इस नारी योद्धा की मृत्यु 15 मार्च 1998 को हुई।

ओड़िशा की इन देशभक्त, देश के लिए समर्पित एवं देशप्रेम की निष्ठा में रत महिलाओं को कोटि-कोटि नमन।

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वन्य जीवनः भ्रमों का शिकार अँधा साँप

- हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में तरह-तरह के साँप दिखाई देते हैं। करैत, कोबरा, वाइपर, वुल्फ स्नेक, चेकर्ड कीलबैक और सैंड बोआ आदि घरों के समीप, खेत-खलिहानों और बाग-बगीचों में अक्सर दिख जाते हैं। इन्हीं दिनों में नम जगहों पर एक बेहद छोटे और पतले आकार का केंचुए जैसा अत्यन्त चमकीला जीव भी बहुत तेज़ी से ज़मीन और फर्श पर रेंगता दिखता है। दरअसल, यह केंचुआ नहीं बल्कि एक साँप है। इसे अँधा साँप कहते हैं। अँधा साँप दुनिया का सबसे छोटा साँप है। इसे तेलिया साँप के नाम से भी जाना जाता है।

इसे अँधा साँप क्यों कहते हैं? दरअसल इस साँप की आँखों की बनावट ऐसी होती है कि यह केवल उजाले और अँधेरे में फर्क कर सकता है। वैसे भी साँपों की दृष्टि क्षमता बेहद कमज़ोर होती है और अँधा साँप तो इस मामले में और भी ज़्यादा कमज़ोर होता है। अँधे साँप की आँखें दो काले बिन्दुओं की तरह दिखाई देती हैं। इन्हीं सब कारणों के चलते इन साँपों को अँधा साँप कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे ब्लाइंड स्नेक या वार्म स्नेक के नाम से भी जाना जाता है। 

दुनिया भर में अँधे साँपों की लगभग 250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारत में 15 से भी ज़्यादा प्रजातियाँ रिकॉर्ड की गई हैं, जिनमें ब्राह्मणी ब्लाइंड स्नेक सबसे आम है। अँधे साँप मुख्यतः नमीयुक्त जगहों, भूमिगत स्थानों और सड़े-गले पत्तों के ढेर के नीचे पाए जाते हैं। ये साँप तापमान के उतार-चढ़ाव के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। भौगोलिक विविधता एवं जलवायु के अनुसार अँधे साँपों का रंग कत्थई, काला और हल्का लाल होता है। मैंने अपने ग्रामीण क्षेत्रों में अँधे साँपों का अवलोकन करते हुए पाया कि ये प्रायः संध्याकाल अथवा गोधूलि बेला में ही ज़्यादा सक्रिय होते हैं।

बारिश का मौसम आते ही अँधे साँपों की सक्रियता बढ़ जाती है। वर्षा काल में गीली ज़मीन और फर्श पर बेहद तेज़ी से रेंगते इन खूबसूरत एवं विषहीन साँपों को देखकर अधिकांश लोग भ्रमवश इन्हें कोबरा और करैत जैसे विषैले सांपों का बच्चा समझ लेते हैं। अँधे साँपों के बारे में उचित जानकारी ना होने तथा इन्हें कोबरा और करैत का बच्चा समझने के चलते लोग इन्हें जान से मार देते हैं।

अँधे साँप का मुख्य आहार चींटियों तथा दीमकों जैसे कीटों के लार्वा हैं। वहीं, कई पक्षी और मेंढक आदि प्राणी अपने भोजन हेतु इन अंधे सांपों पर निर्भर हैं। 

आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में भी हमारे समाज में साँपों के विषय में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं है। लोगों के बीच इन अँधे साँपों के प्रति फैले भ्रम के चलते पता नहीं कितने अँधे साँप मारे जाते हैं। चींटी एवं दीमकों की आबादी को नियंत्रित कर ये हमारे पर्यावरण तथा खाद्य-शृंखला के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं। आज ज़रूरत है इन साँपों के संरक्षण की और यह तभी संभव है जब हम इनके विषय में ज़्यादा जानें, अवलोकन करें तथा इनके पर्यावरणीय महत्त्व को समझें। (स्रोत फीचर्स)  ●


कविताः ओ ज़िन्दगी!

  - डॉ. कविता भट्ट 

निहार रही हूँ राह, देखूँ! तू आती है कि नहीं,

ओ ज़िन्दगी! यहाँ बैठ, मुस्काती है कि नहीं।


यह मेरे पुरखों का पुराना पठाली वाला घर है,

ताला लगा, दूब उगी, अब होने को खंडहर है।


कोदे की रोटी-झंगोरे की खीर तेरे संग खानी है,

मरती हुई माँ को दी अपनी ज़ुबान निभानी है।


आ ना! संग में गुड़ की मीठी पहाड़ी चाय पिएँगे,

पीतल के गिलास से चुस्कियाँ लेकर साथ जिएँगे।


कोने पड़ा- दादाजी का हुक्का साथ गुड़गुड़ाएँगे,

आ ज़िन्दगी! साथ में पहाड़ी मांगुल गुनगुनाएँगे।


शब्दार्थ: पठाली- स्लेटनुमा पत्थर जो पहाड़ी घरों की छत पर लगती है, कोदे( कोदा) और झंगोरे (झंगोरा)- उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी अनाज, मांगुल- विवाह आदि समारोहों में गाए जाने वाले उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी लोकगीत।

सम्प्रति: फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी.,प्रशासनिक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल 
विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड

कहानीः चोर

- संजय कुमार सिंह

वह गर्मी की एक बेहद ऊबाऊ दोपहर थी।

इस समय तक  वह घर के  रोज के काम से निबट चुकी होती है। बस विवेक और बच्चे के आने का इन्तजार रहता है। कभी पंखे नीचे निढाल बैठने का मन होता है उसका, तो कभी टी.वी.देखने का। जाने क्यों उकवास लगा रहता है। एक अजीब सी बेचैनी !अखबार और पत्रिकाएँ सब उलट- पुलट लेती है वह। पर जैसे किसी चीज में कोई अटकाव नहीं।

ऐसा रोज होता है। सिर्फ रविवार को उसे सुकून मिलता है। कम से कम वैसी तन्हाई में रोज का इन्तजार नहीं रहता। औरत का जीवन भी कमाल होता है। उसका मन खुद पर हँसने का होता है, पर वह हँसती नहीं है! विवेक उस पर भले हँस ले। बच्चे उस पर कितना भी तंज कर लें, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

...वैसे भी उसकी परेशानी बढ़ी हुई थी । राजू गाँव गया हुआ था। उसकी माँ बीमार थी। कह कर तो गया था जल्दी लौट आएगा,पर आ नहीं पा रहा था। एक अनजानी आशंका उसे घेरे हुए थी। किसी की भी माँ को बीमार नहीं होना चाहिए। मरना तो एकदम नहीं! माँ के बिना घर और बच्चे का वजूद ही क्या है?वह बाबा के कहने पर आया था। माँ तो राजी भी नहीं थी उसकी। बेचारा भोला लड़का!

उसने घड़ी देखी, सवा बारह बज रहे थे।

महरी सुबह और शाम आती थी। उसके आने में अभी बहुत देर थी। धरती बरक रही थी। आसमान तंदूर की तरह लहक रहा था। बाहर दरख्तों की जान निकल रही थी। हवा बिल्कुल ठहरी हुई! लू और तपिश की ऐसी मार कि पूरा मोहल्ला खामोश!पेड़ तक उकठे हुए। उसने खिड़की से बाहर झाँक कर देखा,इक्के-दुक्के लोग सड़क पर चलते नजर आए। यहाँ का मौसम गर्मी में ऐसा ही रहता है। सुबह के साथ तेज चमकती धूप निकल आती है और फिर दिन भर यही हाल। बार-बार काम काज करते हुए वदन के पसीने से कपड़े के चिपकने से उसे और ऊब होती है। वह बेसिन के पास जाकर मुँह-हाथ धोती है, आँख पर छींटे मारती है...और आकर बैठ जाती है कुर्सी पर...पर  मन और विरस जाता है।

रोज का वही हाल!

वह उठी और बाथरूम में घुस गई।

नल खोल कर नहाने लगी ।देर तक नहाती रही। बाहर निकल कर केश झाड़ने के बाद चटाई पर वह लेट गई...

तभी उसकी नजर मकड़ी के जाले पर पड़ी। इस मकड़ी को अब वह क्या करे, कितना भी हटाओ, फिर लगा देती है...वह उठ कर फेन बंद करती है, और फिर जाले हटाने लगती है...मकड़ियाँ उतनी ही शैतान! आज हटाओ, पर कल फिर वही जाल!

जाल हटा कर थकान से वह फिर लेट गई। उसे लगा उसकी आँखें झुप रही हैं... नींद के साथ चेतना पर मकड़जाल...खट!

वह हड़बड़ाकर उठी और किचन की तरफ दौड़ी। किचन की खिड़की का वाल टूटा था, उसने किसी तरह खींच कर दरवाजा लगाया। फिर वापस मेन गेट को बन्द किया, फिर उस आवाज के बारे में सोचा, हो सकता है कोई बिल्ली हो...बिल्ली उस रास्ते से आती है, उसने देखा था, पर उसे चोर की आशंका हुई...

चोर! चोर!! चोर!!!

आजकल मुहल्ले में चोरियाँ हो रही थीं।

चोर प्राय: दिन में दोपहर में या फिर आधी रात बीतने के बाद आते थे और चोरी कर गायब हो जाते थे। पिछले दिनों चोरी की एक कोशिश में एक लड़का बिजली के तार से सट कर मर गया था। उससे पहले कॉलरा साहब की कोठी में रात वक्त जिस आदमी को पकड़ा गया था।  बाद में पता चला कोई पगला था। ।लेकिन तबतक उसकी इतनी पिटाई हो चुकी थी कि वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। मार-कूटकर लोगों ने उसे नीम के पेड़ के पास मरने के लिए छोड़ दिया था, वह वहीं कई दिनों तक पड़ा रहा चक्कर काटता हुआ । उसके कपड़े फट गए थे। पूरे वदन पर चोट के गहरे निशान थे। आँखें सूजी हुईं, नील स्याह!उसे दया हो आई थी। उसने महरी के हाथों खाना भिजवा दिया था। लौट कर महरी कह रही थी,"आदमी को कहीं इस तरह मारा जाता है, बाबा रे, बाबा..."

"चोर को, बोलो।" वह फुसफुसाई।

काहे चोर आदमी नहीं होता है क्या?"

"तो मारने वाले से पूछो।"

"क्या होगा पूछ कर!" उसका स्वर दुखी था।

उस दिन के बाद घिसटते हुए वह कहीं खो गया।...

उसे याद आया।

उसके पिता वाई. के. मेडिकल स्टोर में नौकरी करते थे। वाई. के. मेडिकल स्टोर के मालिक सेठ रामपाल का शहर मे बड़ा नाम था। वे दवाओं के सबसे बड़े होल सेलर थे। पिता यानी राम बाबू उनके सबसे विश्वस्त कर्मचारी, जिन पर लाखों के कारोबार का जिम्मा था। उनकी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी। परिवार मौज से चल रहा था। पढ़ाई-लिखाई। दवा-दारू सब। माँ बहुत खुश थी, पर एक दिन ऐसा कुछ हुआ, सेठ जी के गल्ले से पचास हजार रुपये गायब हो गए। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि संदेह राम बाबू पर गया।

पिता घबड़ा कर भाग आए। किसी से कुछ नहीं कहा। बस कमरा बन्द कर लिया। माँ से भी कुछ नहीं। वे बहुत नर्वस थे। किसी को कुछ पता ही नहीं चला। थोड़ी देर बाद उनके पीछे पुलिस आई।

कमरा खुलवा कर जबरन घसीट कर ले गई," साला चोर! जिस पत्तल में खाता है, उसी में छेद करता है।" दारोगा ने कहा।

तमाशा लग गया। उन्हें मार और गालियाँ पड़ रही थीं। वे गिड़गिड़ा रहे थे। अपनी बेगुनाही का रोना रो रहे थे। अपमान और जलालत! माँ रो रही थी। हम सब डर और भय से काठ! पिता ने चोरी नहीं की होगी। यह हमारा खयाल था, पर उनके छूट कर आने के बाद भी मुहल्ले वाले हमें चोर कहते।  राजन का स्कूल जाना भी  भी दूभर हो गया था। पिता चुप और खामोश! किसी से कुछ बोलते ही नहीं। सब टूट-बिखर रहा था। हम गाँव लौटने वाले थे, तभी मोटर गाड़ी पर शाम को रामपाल सेठ आए। उन्होंने पिता जी से अपनी गलती मानी। रुपये लेकर उनका बड़ा लड़का श्याम पाल कलकत्ता चला गया था। लौटा, तो घटना घट चुकी थी। कुछ दिनों बाद उसने पिता से सच्चाई बताई, तो वे भी दुखी हुए।

पिता रोते रहे। रामपाल हाथ पकड़ कर ले गए। वे क्या कर सकते थे, उनके पास विकल्प ही क्या था। पर उनकी अपनी आँखों में भी वह इज्जत नहीं लौटी। चोर का ठप्पा क्या लगा घर में वह खुशी नहीं लौटी। वे बाद के दिनों में भी सूखते चले गए।

उसने अपनी सोच को झटका दिया, फिर वही बात! कोई बात उसके दिमाग से निकलती क्यों नहीं है? उसके पीछे पड़ जाती है। वह सोचती है, तो सोचती चली जाती है रेल गाड़ी की तरह...

बुआ की बेटी की शादी में माँ के साथ  वह रेल गाड़ी पर बैठ कर जमशेदपुर गई हुई थी। बुआ की बेटी का विवाह था। फूफा वहीं टाटा की  किसी फैक्ट्री में काम करते थे। अनीता दी, किन्नी दी, और डोली दी पूरे परिवार के साथ आई हुई थीं। पूरा जमघट था। और भी बहुत से लोग आए हुए थे। गीत-नाद का माहौल और हँसी-खुशी का माहौल-

मेरी लाडो की शादी में लाज रखना।

ओ दूल्हे राजा मेरी लाडो की शादी में

एक नहीं, दो नहीं सात बहना

बस मेरी लाडो का हाथ गहना......

 गिनती की बहन वह!

उसने फिर सिर को झटका दिया, वह क्या सोच रही है? मुहल्ले में चोरी हो रही है, तो यह चोर-चोर क्या हो रहा है उसके दिमाग में? वह उठी और टहलने लगी। तुम जो नहीं चाहते हो, वही होता है,

तुम्हारे साथ तुम्हारा दिमाग चलता है, तुम बैठो तब भी...चीजें कहाँ भूलती हैं। कोई न कोई बात ऐसी हो जाती है कि सारी बातें नासूर बन जाती हैं। कितनी खुश थी वह, पर उसकी खुशी पर काले धब्बे लग गए। अवसाद को कितना भी धोओ, कहाँ धुलता है...

... 

उस भीड में अचानक बुआ की एक चेन चोरी चली गई। दुर्भागय से संदेह उसी पर गया। उन लोगों की तुलना में सबसे गरीब परिवार  उन्हीं लोगों का था; इसलिए शक की उँगली!

वह रात भर रोती रही। भगवान -भगवत्ती को हाथ जोड़ती रही कि चेन मिल जाए। अपमान और शर्म से लाज के मारे उसका मरण हो रहा था। उसे लग रहा था, जैसे सब की आँखें उसी पर हैं, सब उसे  देख कर हँस रहे हों ।

बुआ बार-बार कह रही थी," देखो रमा जरा चेन ढूँढना। नजर पड़े तो कहना। वैसे भी वह चेन तुम्हारे लिए ही बनवा रखा था..."

अब क्या कहे वह?सवेरे भी वही ताना। वही चुटकी। वही तिक्त बोल आखिर माँ ने तड़प कर कहा," लाल दाय हमारी गरीबी का इतना मजाक नहीं उड़ाइए। हम लोग अभी चले जाते हैं। गिफ्ट तो मिल ही गया। रमा के भाग में सोना-जेवर कहाँ?"

माँ सामान समेटने लगी, "ट्रेन कब है?"

"जग घिना रही हो?" फूफा कड़के, "देखोगी?"

उनका  ड्रामा शुरू हुआ। वह  बुआ को डाँटने लगे, हाथ पकड़ लिया फूफा ने। बुआ भी माफी माँगने लगी। पर विवाह में उसका मन उदास रहा। वहाँ से आने के बाद भी कान में बुआ के बोल कसैल घोलते रहे। पिता से बात छुपाई गई। वे जानते, तो उन पर क्या बीतता.....

अचानक उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर बहुत से लोग एक साथ चिल्ला रहे थे," चोर- चोर- चोर पकड़ो, भागे नहीं पकड़ो। "वह दौड़ी  जानें क्यों, दहशत से बेजान और जाकर सामने के गेस्ट रूम में बन्द हो गई। झुरझुरी सी हो रही थी पूरी देह में! उसे लगा जैसे डर से उसकी साँसें घुट रही हों...धीरे-धीर शोर गुम होता रहा उसकी चेतना में...खट!

उसका दिल धड़का। खट! वह और दुबक गई ,खट!

"रमा दरवाजा खोलो।" विवेक और बच्चे स्कूल से लौट कर दरवाजा पीट रहे थे।

"कौन?" उसकी आवाज घुट रही थी ।

"दरवाजा खोलो।" उधर आवाज तेज हो रही थी।

"मम्मी..."  राजू चिल्ला रहा था," दरवाजा खोलो..."

दरवाजा सहमते हुए खोला उसने," चो…र..."

"कहाँ है चोर?" विवेक और बच्चे हँस रहे थे।

वह पसीने से लथपथ थी," बाहर बहुत शोर हो रहा था। चिल्लाने की आवाजें...लोग दौर रहे थे, मारो, पकड़ो।"

" तुम क्यों परेशान हो रही हो?" विवेक ने घबरा कर कहा," मेरा मतलब है तुम अंदर क्यों बन्द हो गई ?"

" मैं डर गई..." वह दम लेकर बोली," हल्ला-गुल्ला इधर ही तो हो रहा था.."

"अरे क्या कह रही हो, कोई बच्चा था , सिन्हा साहब की दीवार पर चढ कर नींबू तोड़ रहा था,।डर कर नींबू भी फेंक कर कर भागा। लोगों ने पकड़ लिया, फिर छोड़ भी दिया।"

वह किसी अंदेशे से चौकी," फिर सब चीख-चिल्ला क्यों रहे थे... इतना शोर... मैं तो हलकान हो गई .... मैं दौडकर भागी...."

"तुम डरपोक हो.."  विवेक ने हँस कर कहा," तुम्हें पुलिस पकड़कर ले जाएगी..."

"क्या कह रहे हो?" अविश्वास से उसने कहा, "चोर नहीं था?... कहीं छिप गया हो, बच्चा नहीं भाग सका हो..."

" इसलिए पुलिस दूसरे को पकड़े।"

" क्या?" रमा हैरान हुई," पुलिस..."

"चुप भी करो।" विवेक ने तंज से कहा," मुहल्ले के लोग पागल हो गए हैं। एक दिन चोर क्या आया...किसी को चोर कह कर पकड़ने के लिए दौड़ पड़ते हैं.... तुम  इतना मानसिक रूप से तुरत परेशान क्यों हो जाती हो...."

" चोओओर..." वह बुदबुदायी,पर उसे लगा अभी भी कोई उसके अंदर चोर-चोर चीख रहा हो.... उसने फ्रीज से निकाल कर पानी पीया, तो उसका मन थोड़ा सहज हुआ...

...

महरी आ गई थी। कह रही थी," एक नींबू के लिए इतना चोर-चोर का हल्ला...मुआ पकड़ना है, तो अपने मन के चोर को पकड़ो, तब जानों।बीस बरस से बर्त्तन घिस रही हूँ  घर-घर।सब जानती हूँ। खाली गरीब-गुरबा ही चोर होवे है क्या?"

"तुम अपना काम करो।" विवेक ने कहा,।

"मैंने कुछ गलत कहा क्या?" महरी तुनककर बोली," मेहरा साहब के घर छापा पड़ा, तो बाथरूम से , बिस्तर से कचड़ा घर से नोटों की बंडल निकले, पर छूट गए... कोई बोले तो चोर...  गरीब  चोरी नहीं भी करे, तो सब उसी पर शक करे... एक बार मुझे भी एक घर में चोर  बनाया लोगों ने, दूसरे दिन सामान मिल गया , तो निहोरा करने लगे, पर मैंने काम छोड़ दिया.... गरीब की इज्जत नहीं होवे क्या? अमीरों की चोरी के नौ रंग... गरीब पर मूसरचंद..."

"कहा न तुम चुप रहो।" विवेक ने डाँटा, तो वह चुप हो गई।

रमा जाने कहाँ खो हुई थी। उसका मन हुआ कहे, "महरी ठीक तो कह रही है विवेक।" पर वह  महरी के साथ  काम में मशरूफ़ हो गई। 

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सम्पर्कः प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कॉलेज पूर्णिया- 854301 रचनात्मक उपलब्धियाँ- हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, नवनीत, कथाबिंब, अहा जिंदगी, परिंदे,  वर्त्तमान साहित्य, पाखी, साखी, कहन कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।, 9431867283