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Aug 1, 2022

दो ग़ज़लें

- अशोक ‘अंजुम’

1. इंतजार हल्का था

चढ़ाव कम था तो उस पर उतार हल्का था

हमें बचना ही था ग़र्दो-गुबार हल्का था

 

उसे आना तो था पर रहगुजर से लौट गया

वो तेरी चाह तेरा इंतज़ार हल्का था

 

मुझे मालूम था ये साथ निभ न पाएगा

लगाव कम था कि जो था करार हल्का था

 

इसलिए हमने कभी तुझसे तगादा न किया

जिंदगी तुझ पे हमारा उधार हल्का था

 

 लाजमी इसका उतरना है पता था मुझको

गो तुझ पे इश्क का जो था बुखार हल्का था

 

किस तरह मुल्क अरे तुझको तरक्की मिलती

बोझ भारी था मगर हर कहार हल्का था

 

तेरे हमले से बता कैसे बच गया 'अंजुम'

मौत बोली कि वो अपना शिकार हल्का था


2. कुछ बारिश ऐसी होती है

अपनेपन को ढूँढ रहा है तेरा मेरा अपनापन

भारी-भारी कसमें-वादे हल्का-फुल्का अपनापन

 

तेरा इतना, मेरा इतना, दोनों की सीमाएँ तय

अपनेपन में है बँटवारा, ऐसा कैसा अपनापन

 

अहसानों का एक पुलिंदा रखा हुआ है सीने पर

फिर ये कैसी यारी अपनी, फिर ये कैसा अपनापन

 

हर इक आहट पर लगता था तुम होगे, तुम ही होगे

आँखें दर पर लगी रही हैं, रहा तरसता अपनापन

 

कुछ बारिश ऐसी होती हैं जिनमें सब धुल जाता है

पक्के-पक्के रिश्ते-नाते, कच्चा-कच्चा अपनापन

 

विश्वासों के कैनवास पर जिसे सजाया था ‘अंजुम’

कैसे-कैसे रंग दिखाए, पाकर मौका अपनापन


सम्पर्कः स्ट्रीट-2, चंद्र विहार कॉलोनी (नगला डालचंद), क्वारसी बायपास, अलीगढ़- 202002 (उ.प्र.). मोबाइल 9258779744

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