सवाल बच्चों की सुरक्षा का...
मनुष्य ने अपनी बुद्धि बल से नई-नई तकनीक के चलते हमारे लिए आगे बढऩे, ज्ञान प्राप्त करने और दुनिया जहाँन को जनने के लिए अनेक रास्ते खोल दिए हैं लेकिन साथ- साथ विनाश की ओर ढकेलने के बढ़े- बढ़े गढ्ढे भी खुद गए हैं। सच तो यह है कि चढऩे के लिए सीढ़ी तो बन गई है ;
पर उतरने का रास्ता नहीं मालूम। यही वजह है कि जितनी तेजी से वह उपर चढ़ता है ;उससे दोगुनी गति से धड़ाम से नीचे गिर जाता है। नई तकनीक से सबसे अधिक प्रभावित बच्चे होते हैं, उनके सामने हम शॉटकट रास्ता बनाते चले जा रहे है, पर अंजाम क्या होता है; वही जो कुछआ और खरगोश की कहानी में खरगोश का हुआ।
दरअसल पिछले कुछ समय से देश भर में दिल को झकझोर देने वाली कुछ ऐसी घटनाएँ घटी हैं कि मन वितृष्णा से भर उठता है। इन सबके पीछे कहीं न कहीं कारण बिना मेहनत के कम समय में बहुत आगे बढऩे की चाह ही नजर आती है। पिछले दिनों घटी तीन घटनाएँ जो सीधे सीधे बच्चों के भविष्य, वर्तमान और उनके कल से जुड़ी हैं, ने हम सबके सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है-
पहली घटना में-
तथाकथित बाबाओं का खौफ़नाक चेहरा बेनक़ाब होने से लोगों की आस्था (अंध आस्था) पर चोट पँहुची है। उनकी काली करतूत सामने आने से यह तो उम्मीद बँधी है कि हमारी न्याय व्यवस्था आगे भी समाज में विकृति और अंधविश्वास का जाल फैलाने वाले इन ढोंगी बाबाओं के मायाजाल के सारे रास्ते बंद करने का इंतजाम करेगी, ताकि भोली- भाली जनता उनके मायाजाल से मुक्त हो सके। वैसे ऐसे बाबाओं के अनुयाइयों को भोली-भाली ठीक नहीं होगा; क्योंकि इन बाबाओं के जो भी अनुयायी और भक्त हैं ,
वे सब इसी समाज के प्राणी हैं।
बड़े-बड़े व्यापारी, राजनेता, नौकरशाह सभी तो इनके दरबार में मत्था टेकने जाते हैं।
सही मायने में कहें तो इन बाबाओं के बेनक़ाब होने से मासूम बच्चों की जिंदगी को नरक बनाने से रोका जा सकेगा। न जाने कितनी बच्चियों को कैद में रखकर इन बाबाओं ने उनका बचपन छीन लिया है।
दूसरी घटना में-
मोबाइल में खेले जाने वाले ब्लू व्हेल जैसे आत्मघाती खेल ने न जाने कितने बच्चों की जान ले ली है। मौत का यह सौदागर हमारे नौनिहालों को चुपके- चुपके लील रहा है। भारत में धीरे- धीरे पैर पसार रहे इस खतरनाक खेल पर काबू पाना अति आवश्यक हो गया है। इस खतरनाक खेल को खिलाने वाले व्यक्ति का क्या मकसद होगा ,यह समझ से परे है। आखिर वह क्यों बच्चों को आत्महत्या के लिए उकसा रहा है।
ऐसा लगता है यह ब्लू व्हेल कोई गेम नहीं ;बल्कि एक ऐसी लाइलाज मानसिक बीमारी है, जो एक बार किसी बच्चे को अपनी चपेट में ले लेती है, तो उसे मार कर ही छोड़ती है। आरंभ में एक बच्चे की मौत की खबर से यह विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा था कि यह आत्महत्या ब्लू व्हेल के कारण की गई है? लेकिन उसके बाद दूसरी फिर तीसरी... एक के बाद एक बढ़ते इन खबरों ने पूरे देश को हिला कर रख दिया, आत्मघाती बम की तरह इस खेल ने हर उस माता- पिता को चिंतित कर दिया है, जिनके बच्चे मोबाइल में कई- कई घंटे अपना समय बिताते हैं। किसने सोचा था आपस में सम्पर्क करने के इस सबसे सरल- सुगम साधन का इतना खतरनाक दुरुपयोग भी हो सकता है।
तीसरी घटना ने तो पूरे स्कूली शिक्षा तंत्र को हिला कर रख दिया है। सात साल के मासूम प्रद्युम्न की स्कूल परिसर के बाथरूम हत्या।
इस जघन्य हत्या के बाद समूचे स्कूल प्रबंधन पर प्रश्नचिह्न लग गया कि बच्चे फिर कहाँ सुरक्षित हैं। भारी फीस देकर माता- पिता अपने बच्चों को दिन भर के लिए स्कूल प्रबन्धन के हाथों सौप देते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षा के घेरे में हैं। घर से स्कूल और फिर छुट्टी होने पर घर पहुँचाने की जिम्मेदारी पूरी तरह स्कूल प्रबन्धन उठाता है। आजकल कई निजी स्कूलों में बच्चों के लिए शिक्षा के साथ- साथ सुबह से लेकर शाम तक भोजन की व्यवस्था भी होती है। ऐसे में एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी स्कूल प्रबन्धन पर आ जाती है। पर अफ़सोस आज शिक्षा के मन्दिर व्यवसाय के ठिकाने बन गए हैं। स्कूल के प्रधानाचार्य और प्राचार्यों को बच्चों की शिक्षा, उनकी जरूरतों, उनकी परेशानियों से वाकिफ़ होना चाहिए वे तो स्कूल के व्यावसायिक प्रबन्धनमें इतना उलझे रहते हैं कि उन्हें बच्चों से बात करने, उनकी समस्या सुनने का वक्त ही नहीं होता।
- एक ओर तो हम विकास और सर्वश्रेष्ठ होने का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते पर धर्म की आड़ में तथाकथित बाबा जनता को बेवकूफ बनाए चले जा रहे हैं और जनता बेवकूफ बने जा रही है- ऐसे में किसे दोष दें?
- तकनीकी तरक्की के हमने इतने सोपान पार कर लिए हैं कि अब पृथ्वी से परे अन्य ग्रहों पर बसने की तैयारी हो रही है ,पर वहीं ब्लू व्हेल जैसा एक मोबाइल खेल बच्चो को आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहा है, भला यह कैसी तरक्की है?
- सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर और गिरती शिक्षा व्यवस्था ने निजी स्कूलों को इतना बेखौफ कर दिया है कि वे मनमानी फीस वसूलकर भी बच्चों को पूरी सुरक्षा नहीं दे पा रहे हैं और एक सर्वसुविधायुक्त स्कूल के भीतर एक बच्चे की हत्या हो जाती है, क्यों? कौन है जिम्मेदार?
तीनों घटनाएँ एकदम अलग- अलग समय और अलग- अलग कारणों से हुईं हैं पर तीनों घटनाओं में शिकार बच्चे ही हुए हैं। स्पष्ट है कि हम वर्तमान समय में अपने बच्चों को स्वच्छ वातावरण नहीं दे पा रहे हैं। आज स्थिति ये है कि बच्चे स्कूल के लिए निकलते हैं ,तो माता- पिता तब तक चिन्तित रहते हैं ,जब तक वे घर लौट कर नहीं आ जाते। बिना कम्प्यूटर बिना नेट के आजकल की पढ़ाई पूरी नहीं होती। जरूरत को देखते हुए माता- पिता बच्चों को बहुत कम उम्र से ही मोबाइल दे देते हैं।
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जब घटना घट जाती है, तब अचानक सब जाग जाते हैं- स्कूलों में शिक्षकों के साथ, अभिभावकों के साथ चर्चाएँ और सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं कि- बच्चो को समझाया जाए कि किस व्यक्ति के कौन -से स्पर्श के क्या मायने होते हैं और किस तरह के व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए। जबकि होना यह चाहिए कि इस तरह की जागरूकता का पाठ बच्चों को अक्षर- ज्ञान के समय से ही देना शुरू कर देना चाहिए। शिक्षकों और अभिभावकों को भी ट्रेनिंग आरम्भ से देना चाहिए। एक शिक्षक की जिम्मेदारी बच्चे को एक क्लास से दूसरी क्लास में पहुँचना मात्र नहीं होना चाहिए। शिक्षा सर्वांगीण विकास का होना चाहिए।
ब्लू व्हेल जैसे जानलेवा मोबाइल खेल से बचने का फिलहाल तो एक ही रास्ता सूझ रहा है - बच्चों को तभी मोबाइल दें जब उन्हें पढ़ाई करनी हो या किसी से बात करनी हो। खेलने का समय भी निर्धारित हो ,वह भी शिक्षकों और अभिभावक की निगरानी में। अभी तक तो ब्लू व्हेल को चलाने वाला व्यक्ति पकड़ में नहीं आया है। यदि आ भी गया तो दूसरा एक और खतरनाक खेल आते देर नहीं लगेगी। तो हर समय सावधान रहने की आवश्यकता है।
रही बात बाबाओं की, तो इनके चंगुल से बचने और बचाने का एकमात्र रास्ता बाबाओं के काले कारनामों का भाण्डा फोड़कर ,उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए और जन- अभियान चला कर अंधभक्त जनता को जागरूक किया जाए। इस मामले में मीडिया महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जन- जन तक पहुँचने का आज इससे अच्छा माध्यम और कोई नहीं है।
कुल मिलाकर सिर्फ कूड़े- कचरे की सफाई ही स्वच्छता अभियान का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि आज जरूरत बच्चों के लिए बेहतर वातावरण, अच्छी शिक्षा और बेहतर तकनीक के साथ अंधविश्वास जैसे कूड़े- कचरे को साफ किया जाए। तभी सही मायनों में हमारी आने वाली भावी पीढ़ी अपने अभिभावकों और अपने गुरुओं पर अभिमान कर पाएगी और तब वे गर्व से कह पाएँगे कि वे सही मायने में सच्चे भारतवासी हैं ,जहाँ ऐसे गुरु और ऐसे माता-पिता वास करते हैं ,जिनकी बदौलत हम बेहतर नागरिक बन पाए।