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Sep 15, 2017

35 ए जैसे दमनकारी कानूनों का बोझ देश क्यों उठाए

35 ए जैसे दमनकारी कानूनों का बोझ देश क्यों उठाए
कश्मीर हमारा है पर हम कश्मीर के नहीं हैं...
                                         - डॉ. नीलम महेन्द्र
भारत का हर नागरिक गर्व से कहता कि कश्मीर हमारा है लेकिन फिर ऐसी क्या बात है कि आज तक हम कश्मीर के नहीं हैं?
भारत सरकार कश्मीर को सुरक्षा सहायता संरक्षण और विशेष अधिकार तक  देती है लेकिन फिर भी भारत के नागरिक के कश्मीर में कोई मौलिक अधिकार भी नहीं है?
2017 में कश्मीर की ही एक बेटी चारु वलि खन्ना एवं 2014 में एक गैर सरकारी संगठन  वी द सिटिजंसद्वारा सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35 के खिलाफ याचिका दायर की गई है जिसका फैसला दीवाली के बाद अपेक्षित है।
आज पूरे देश में 35 पर जब बात हो रही हो और मामला कोर्ट में विचाराधीन हो तो कुछ बातें देश के आम आदमी के जहन में अतीत के साए से निकलकर आने लगती हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के यह शब्द भी याद आते हैं कि, ‘कश्मीरियत जम्हूरियत और इंसानियत से ही कश्मीर समस्या का हल निकलेगा
किन्तु बेहद निराशाजनक तथ्य यह है कि यह तीनों ही चीजें आज कश्मीर में कहीं दिखाई नहीं देती।
कश्मीरियत, आज आतंकित और लहूलुहान है।
इंसानियत की कब्र आतंकवाद बहुत पहले ही खोद चुका है।
और जम्हूरियत पर अलगवादियों का कब्जा है।
और मूल प्रश्न यह है कि जम्मू कश्मीर राज्य को आज तक विशेष दर्जा प्रदान करने वाली  धारा 370 और 35A लागू होने के बावजूद कश्मीर आज तक  समस्याक्यों है? कहीं समस्या का मूल ये ही तो नहीं हैं?
जब भी देश में इन धाराओं पर कोई भी बात होती है तो फारूख़ अब्दुल्लाह हों या महबूबा मुफ्ती कश्मीर के हर स्थानीय नेता का रुख़ आक्रामक और भाषण भडक़ाऊ क्यों हो जाते हैं?
आज सोशल मीडिया के इस दौर में धारा 370 और  35A 'क्या हैयह तो अब तक सभी जान चुके हैं लेकिन यह क्यों हैंइसका उत्तर अभी भी अपेक्षित है।

धारा  370 जो कि भारतीय संविधान के 21 वें भाग में समाविष्ट है और जिसके शीर्षक शब्द हैं  जम्मू कश्मीर के सम्बन्ध  में अस्थायी प्रावधान’, वो 370 जो खुद एक अस्थायी प्रावधान है, उसकी  आड़ में 14 मई 1954 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अनुशंसा पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा 35 ए को संविधान के परिशिष्ट दोमें स्थापित किया गया था।
2002 में अनुच्छेद 21 में संशोधन करके 21A को उसके बाद जोड़ा गया था तो अनुच्छेद 35A को अनुच्छेद 35 के बाद क्यों नहीं जोड़ा गया, उसे परिशिष्ट में स्थान क्यों दिया गया?
जबकि संविधान में अनुच्छेद 35 के बाद 35A भी है लेकिन उसका जम्मू कश्मीर से कोई लेना देना नहीं है।
इसके अलावा जानकारों के अनुसार जिस प्रक्रिया द्वारा 35A को संविधान में समाविष्ट किया गया वह प्रक्रिया ही अलोकतांत्रिक है एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का भी उल्लंघन है जिसमें निर्धारित प्रक्रिया के बिना संविधान में कोई संशोधन नहीं किया जा सकता।
एक तथ्य यह भी कि जब भारत में विधि के शासन का प्रथम सिद्धांत है कि  विधि के समक्षप्रत्येक व्यक्ति समान है और प्रत्येक व्यक्ति को  विधि का समानसंरक्षण प्राप्त होगा तो क्या देश के एक राज्य के  कुछनागरिकों को विशेषाधिकार देना क्या शेष नागरिकों के साथ अन्याय नहीं है?
यहाँ  कुछनागरिकों का ही उल्लेख किया गया है क्योंकि 35A राज्य सरकार को यह अधिकार देती है कि वह अपने राज्य के  स्थायी नागरिकोंकी परिभाषा तय करे।  इसके अनुसार  जो व्यक्ति 14 मई 1954 को राज्य की प्रजा था या 10 वर्षों से राज्य में रह रहा है वो ही राज्य का स्थायी नागरिक है
इसका दंश झेल रहे हैं वह परिवार ,जो 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से भारत में आए थे। जहाँ देश के बाकी हिस्सों में बसने वाले ऐसे परिवार आज भारत के नागरिक हैं ,वहीं जम्मू कश्मीर में बसने वाले ऐसे परिवार आज 70 साल बाद भी शरणार्थी हैं।
इसका दंश झेल रहे हैं 1970 में प्रदेश सरकार द्वारा सफाई के लिए  विशेष आग्रह पर पंजाब से बुलाए जाने वाले वो सैकड़ों दलित परिवार जिनकी संख्या आज दो पीढिय़ाँ बीत जाने के बाद हजारों में हो गई है ; लेकिन ये आज तक न तो जम्मू कश्मीर के स्थायी नागरिक बन पाए हैं और न ही इन लोगों को सफाई कर्मचारी के अलावा कोई और काम राज्य सरकार द्वारा दिया जाता है।
जहाँ एक तरफ जम्मू कश्मीर के नागरिक विशेषाधिकार का लाभ उठाते हैं, इन परिवारों को उनके मौलिक अधिकार भी नसीब नहीं हैं।
जहाँ पूरे देश में दलित अधिकारों को लेकर तथाकथित मानवाधिकारों एवं दलित अधिकार कार्यकर्ता बेहद जागरूक हैं और मुस्तैदी से काम करते हैं ,वहाँ कश्मीर में दलितों के साथ होने वाले इस अन्याय पर सालों से मौन क्यों हैं?
ये परिवार जो सालों से राज्य को अपनी सेवाएँ दे रहे हैं ,विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डाल सकते, इनके बच्चे व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं ले सकते।
क्या यही कश्मीरियत है?
क्या यही जम्हूरियत है?
क्या यही इंसानियत है?
वक्त आ गया है इस बात को समझ लेने का कि संविधान का ही उपयोग संविधान के खिलाफ करने की यह कुछ लोगों के स्वार्थों को साधने वाली पूर्व एवं सुनियोजित राजनीति है ।
क्योंकि अगर इस अनुच्छेद को हटाया जाता है तो इसका सीधा असर राज्य की जनसंख्या पर पड़ेगा और चुनाव में उन लोगों को वोट देने का अधिकार  मिलने से जिनका मत अभी तक कोई मायने नहीं रखता था निश्चित ही इनकी राजनैतिक दुकानें बन्द कर देगा।
आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा होते हुए भी एक कश्मीरी लडक़ी अगर किसी गैर कश्मीरी लेकिन भारतीय लडक़े से शादी करती है ,तो वह अपनी जम्मू कश्मीर राज्य की नागरिकता खो देती है ;लेकिन अगर कोई लडक़ी किसी गैर कश्मीरी लेकिन पाकिस्तानी लडक़े से निकाह करती है, तो उस लडक़े को कश्मीरी नागरिकता मिल जाती है।
समय आ गया है कि इस प्रकार के कानून किसके हक में हैं इस विषय पर खुली एवं व्यापक बहस हो।
कश्मीर के स्थानीय नेता जो इस मुद्दे पर भारत सरकार को कश्मीर में विद्रोह एवं हिंसा की बात करके आज तक विषय वस्तु का रुख़ बदलते आए हैं; बेहतर होगा कि आज इस विषय पर ठोस तर्क प्रस्तुत करें कि इन दमनकारी कानूनों का बोझ देश क्यों उठाए ?
इतने सालों में इन कानूनों की मदद से आपने कश्मीरी आवाम की क्या तरक्की की?
क्यों आज कश्मीर के हालात इतने दयनीय है कि यहाँ के नौजवान को कोई भी 500 रु में पत्थर फेंकने के लिए खरीद पाता है?
देश आज जानना चाहता है कि इन विशेषाधिकारों का आपने उपयोग किया या दुरुपयोग?
क्योंकि अगर उपयोग किया होता तो आज कश्मीर खुशहाल होता, खेत खून से नहीं केसर से लाल होते, डल झील में लहू नहीं शिकारा बहती दिखतीं, युवा एके 47 नहीं विन्डोका 7 चला रहे होते और चारु वलि खन्ना जैसी बेटियाँ आजादी के 70 साल बाद भी अपने अधिकारों के लिए कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए विवश नहीं होतीं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35
14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा संविधान के परिशिष्ट में पंडित नेहरू की अनुशंसा पर समाविष्ट किया गया था।
इस अनुच्छेद द्वारा जम्मू कश्मीर विधानसभा को यह अधिकार मिलता है कि-
1) वह अपने मूल निवासियों को परिभाषित करे
2) इसके अनुसार जम्मू कश्मीर का मूल निवासी वह व्यक्ति है ,जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक हो या फिर 10 साल पहले से यहाँ रह रहा हो।
3) राज्य सरकार के अधीन नियोजन, सम्पत्ति का अर्जन, राज्य में बस जाने या छात्रवृत्तियाँ या ऐसी अन्य प्रकार की सहायता, अधिकार अथवा विशेषाधिकार जो भी राज्य सरकार प्रदान करती है, केवल राज्य के स्थानीय मूल निवासियों को ही दिए जाएँगे।
इतिहास
1947 से पहले जम्मू कश्मीर एक रियासत थी जो कि जम्मू और कश्मीर के महाराजाके अधीन थी। 1912 से  1932 के बीच 1927 में तत्कालीन महाराजा ने एक अधिसूचना जारी की थी ,जिसमें उन्होंने केवल राज्य के मूल निवासियों को ही सरकारी सुविधाओं का लाभ एवं राज्य में जमीन खरीदने के अधिकार देने की बात की थी।
जब 26 अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर रियासत का भारत संघ में विलय हुआ तो उपर्युक्त अधिसूचना को बरकरार रखा गया।
इसके परिणामस्वरूप  बँटवारे के वक्त ,जो परिवार पाकिस्तान से भारत के किसी भी हिस्से में आकर बस गए वे भारत के नागरिक बन गए लेकिन वे परिवार ,जो जम्मू और कश्मीर में बसे वे आज तक शरणार्थी बने हुए हैं।
किस नियोजन से 1954 में एक अनुच्छेद के द्वारा जम्मू कश्मीर विधानसभा को अपने प्रदेश के मूल निवासियों को परिभाषित करने का अधिकार दिया गया?
यह बात सही है कि काफी पहले से महाराजा के समय से जम्मू कश्मीर में इस प्रकार के कानून थे कि कोई बाहरी व्यक्ति यहाँ सम्पत्ति नहीं खरीद सकता ; क्योंकि महाराजा को डर था कि कहीं अंग्रेज यहाँ पर जमीन खरीदकर अपना अधिकार स्थापित करना न शुरू कर दें।
लेकिन जब पाकिस्तान के आक्रमण के बाद जम्मू और कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय को स्वीकार किया, तो किस साजिश के तहत अंग्रेजों के समय उनके डर से बनाए गए कानूनों को धारा 370 का जामा पहनाकर जारी रखा गया?
किस मकसद के तहत 1954 में अनुच्छेद 35ए जोड़ा गया?
देश की एकता को खण्ड -खण्ड करने वाले इस प्रकार के विशेषाधिकारकश्मीर के आवाम को भारत के आवाम से जोड़ने का काम कर रहे हैं या फिर तोड़ने का?
जिस दिन जम्मू और कश्मीर का आम आदमी इस सच्चाई को समझ जाएगा कि कश्मीर को दी गई इस विशेषता का लाभ वहाँ अलगाववादियों द्वारा उठाया जा रहा है और कश्मीरी आवाम इन विशेषाधिकारोंके बावजूद देश के बाकी हिस्सों से बहुत पीछे रह गया है वो खुद ही इसके खिलाफ खड़ा होगा।

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