गुम हो गई काँव-काँव की आवाज़
उदंती के इस अंक के आवरण पृष्ठ पर
प्रकाशित कौए का चित्र और इस पृष्ठ पर प्रकाशित कौओँ के झुंड के ये अलग-अलग चित्र आपको ज़रूर आश्चर्य से भर देंगे, कि इतने सारे कौए कहाँ नकार आ गए... क्योंकि खबरें तो यही बता रही हैं कि
कौओं की संख्या लगातार कम होती जा रही है। यही नहीं पितृपक्ष में श्राद्ध के बाद
खाना खिलाने के लिए कौए नहीं मिल रहे हैं। चित्र में नज़र आ रहे कौओं का यह झुंड
पलारी गाँव में हमारे पैतृक घर के आँगन में लगे रामफल में दिखाई दिया है।
इस पेड़ पर कौओं का यह झुंड अक्सर आता
है और काँव- काँव करके सबको अपनी उपस्थिति का अहसास कराकर उड़
जाता है। माने कह रहा हो हमें लुप्त होने से बचा लो... बलौदाबाजार मार्ग पर स्थित
यह वही पलारी गाँव है, जहाँ ऐतिहासिक सिद्धेश्वर मंदिर और
खूबसूरत बालसमुंद है। कौओं के इस झुंड को अपने कैमरे में कैद किया है छोटे भाई राजेश
वर्मा ने। राजेश को फोटोग्राफी का शौक बचपन से रहा है। इन दिनों वे पक्षियों चित्र
खींचने में रुचि ले रहे हैं। उनका कहना है कि अपने आस-पास अधिक से अधिक पेड़ लगाइए
,फिर देखिए तरह- तरह के पक्षियों का कलरव आपको सुबह शाम
सुनाई देने लगेगा। और तो और जब पितृपक्ष के अंतिम दिन पितरों के विदा के लिए परिवार
की बड़ी बहू रश्मि ने पकवान बनाया और कौओं को खिलाने के लिए भोजन अलग कर जैसे ही
परछी बरामदे में रखा, पेड़ पर बैठा कौआ मानो इंतजार ही कर रहा था, तुरंत ही आया और
पुड़ी लेकर फुर्रर्र.... – रत्ना वर्मा
प्यासे कौए
की कहानी आप सबने बचपन में सुनी होगी और आज भी शायद अपने बच्चों को सुनाते होंगे
कि किस तरह एक प्यासे कौए ने अपनी सूझ- बूझ और सहनशीलता से घड़े में कम पानी होने
के बाद भी कंकड़ पत्थर के सहारे घड़े का पानी ऊपर तक लाकर अपनी प्यास बुझाई।
आप सोच रहे होंगे आज यह कौए की कहानी क्यों? पहले हमारे आस- पास गौरैया, कौआ, तोता, मैना, कबूतर आदि विभिन्न
प्रजाति के पक्षी दिखाई देते थे। जिनको देख- देखकर ढेरों प्रेरणा दायक कहानियाँ बन
जाया करती थी। बच्चे उन्हें प्रत्यक्ष अपने सामने देखकर कहानी का आशय भी बहुत जल्दी
समझ जाया करते थे। पर आज तो परिस्थिति बदल गई है। हमने अपनी थोड़ी सी खुशी के लिए
अपने आस- पास के पेड़, जंगल काट दिए है। जब पेड़ ही नहीं हैं
तो भला हमारे जन- जीवन में घुले- मिले ये पंछी भी कैसे नकार आएँगे? क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को पुस्तकों में चित्र दिखाकर यह बताएँगे कि
देखो यह कौआ है... यह प्रजाति अब विलुप्त हो गई है।
इस समय कौओं की बात इसलिए कि- पितृपक्ष चल रहा है और समाचार पत्रों में खबरे
प्रकाशित हो रही हैं कि भोजन खिलाने के लिए कौए नहीं मिल रहे है। जैसी कि मान्यता
है कि जब कोई तर्पण या श्राद्ध करता है तो
वह सबसे पहले कौए को खाना खिलाता है। आज तर्पण और श्राद्ध करने वालों की भीड़ तो
बढ़ रही है लेकिन कौओं की संख्या कम होती जा रही है।
बताया जा रहा है कि अब तर्पण और श्राद्ध जैसे धार्मिक
कर्मकांड करवाने वाले पंडित भी इससे परेशान हैं। उन्हें अब अपने यजमानों के लिए
आटे का कौआ बनाना पड़ रहा है। एक परेशान पंडित के अनुसार पहले तर्पण और श्राद्ध के
बाद कौओं के झुंड के झुंड दिखाई देते थे, लेकिन पिछले तीन-चार वर्षो से
इनकी संख्या लगातार कम होती दिखाई दे रही है। जाहिर है यह चिंता का विषय है।
पिछले कुछ वर्षो से गौरैया के लुप्त होते जाने से
चिंतित होकर गौरैया बचाओ अभियान बहुत जोर-शोर से चला। घर- घर इस पंछी को बचाने के
लिए प्रयास किए जाने लगे और यह आज भी जारी है। आह जबकि यह पता चल गया है कि कौए भी
कम होते जा रहे है, तो कागा बचाओ अभियान की भी जरूरत
महसूस हो रही है। तो क्यों न कौओं पर अध्ययन करके उसे भी बचाने की दिशा में प्रयास
आरंभ कर दिए जाएँ।
गौरैया के लिए घोंसला और दाना- पानी देकर उन्हें
बचाया जा रहा है, पर कौओं को कैसे बचाया जाएगा यह
पर्यावरणविद् ही बता पाएँगे, बड़े पेड़ तो इनके आवास स्थल
हैं ही पर इसके साथ ओर क्या प्रयास करने होंगे यह शोधकर्ता ही बता सकते हैं,
ताकि उन्हें भी बचाने की दिशा में उचित कदम उठाया जा सके।
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