हिन्दी का
व्यवहार
और विस्तार
व्यवहार
और विस्तार
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सितम्बर का महीना आता है , तो हिन्दी के लिए हिन्दी का ज्वार उमड़ आता है। इसके बाद फिर गहन शीत निद्रा में चले जाते हैं। इस तरह हिन्दी का विस्तार सम्भव नहीं। यूनिकोड के प्रचलन ने टंकण की सुविधा प्रदान की है। मेरे सम्पर्क में ऐसे भी कई साथी हैं, जो 73-83 की अवस्था के हैं । वे अपने लेखन में यूनिकोड को अपनाकर धड़ल्ले से काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हिन्दी -प्रेमी हैं, जो बड़ी शान से कहते हैं कि मैंने कम्प्यूटर सीखा ही नहीं। एक तो ऐसे साथी भी मिले, जिन्होंने अन्तर्जाल पर प्रकाशन का सरेआम विरोध किया । कई तरह के फोण्ट -परिवर्तक मौजूद हैं , फिर भी कुछ लोग दोषपूर्ण अप्रचलित फोण्ट में टंकण करके न जाने कितने सम्पादकों का सिर दर्द बने हुए हैं। वे किसी भी हालत में अपने बनाए घेरे से बाहर नहीं आना चाहते।
सितम्बर का महीना आता है , तो हिन्दी के लिए हिन्दी का ज्वार उमड़ आता है। इसके बाद फिर गहन शीत निद्रा में चले जाते हैं। इस तरह हिन्दी का विस्तार सम्भव नहीं। यूनिकोड के प्रचलन ने टंकण की सुविधा प्रदान की है। मेरे सम्पर्क में ऐसे भी कई साथी हैं, जो 73-83 की अवस्था के हैं । वे अपने लेखन में यूनिकोड को अपनाकर धड़ल्ले से काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हिन्दी -प्रेमी हैं, जो बड़ी शान से कहते हैं कि मैंने कम्प्यूटर सीखा ही नहीं। एक तो ऐसे साथी भी मिले, जिन्होंने अन्तर्जाल पर प्रकाशन का सरेआम विरोध किया । कई तरह के फोण्ट -परिवर्तक मौजूद हैं , फिर भी कुछ लोग दोषपूर्ण अप्रचलित फोण्ट में टंकण करके न जाने कितने सम्पादकों का सिर दर्द बने हुए हैं। वे किसी भी हालत में अपने बनाए घेरे से बाहर नहीं आना चाहते।
प्रेम का अर्थ आत्मीयता होता है। आत्मीयता हवा में प्रकट होना वाला जादू नहीं। हिन्दी के ऐसे बहुत से प्रेमी मिल जाएँगे , जो साधन सम्पन्न होने पर भी हिन्दी का अखबार तक नहीं खरीदना चाहते। पत्रिकाओं के पूरे पते, मूल्य, मूल्यराशि भेजने के लिए बैंक की जानकारी होने पर भी यह पूछेंगे कि अमुक पत्रिका कैसे मँगाए। उनका मतलब मुफ़्त में प्राप्त करने के सिवाय दूसरा नहीं।उनके ड्राइंग रूम में महँगा टी वी तो मिलेगा, लेकिन पुस्तक नहीं मिलेगी। बहुत सारे ऐसे लेखक हैं , जो केवल लेखक हैं। वे न किसी की किताब खरीदेंगे, न पढ़ेंगे। मुफ़्त में मिल जाए ,तो लपक लेंगे। कभी यह सूचित करने का कष्ट भी नहीं करेंगे कि उनको वह पुस्तक कैसी लगी। लोग उनको पढ़ें, वे इतने बड़े होते हैं किसी को पढ़ना ,पढ़कर सराहना करना तौहीन समझते हैं। जन-मन को कैसा साहित्य चाहिए , इसके लिए ज़रा भी श्रम नहीं करेंगे। जिस वर्ग के लिए वे लिख रहे हैं, क्या वे उनकी पठन अभिरुचि से परिचित हैं। कुछ लिखते या छपते बाद में हैं, पहले यह योजना बनाना चाहते हैं कि उनकी पुस्तक को पुरस्कार मिले तो कैसे ? उनके लिए यह जुगाड़-धर्म ही साहित्य की सेवा है।
कुछ का काम है ,हिन्दी की संस्थाएँ बनाकर चन्दा उलीचना। गली -मुहल्ले या शहर में संस्थाएँ बनाकर यश-पिपासु साहित्यकारों को पुरस्कार देना या सम्मानित करना। शॉल और नारियल और पाँच रुपये का प्रमाण-पत्र देकर हिन्दी का कल्याण कर लेते हैं। यह संक्रामक रोग भारत से बाहर भी अपने पैर पसार चुका है। खुद ही अध्यक्ष, खुद ही सचिव ,संस्था के नाम से पहले अन्तरराष्ट्रीय शब्द जोड़ दीजिए। साल में एक बार कविता पाठ कर दीजिए। बस हो गया हिन्दी का विकास। लोगों में चर्चित होना हो, तो ट्रक पर लदकर कविता में दहाड़ते हुए नगर -परिक्रमा कर लीजिए। कुछ लोग तरह -तरह की प्रतियोगिताएँ कराएँगे,पंजीकरण के नाम पर कुछ राशि अग्रिम ले लेंगे, खुद ही निर्णायक बन जाएँगे। । वे जिस विधा में न लेखन करते हैं, न कोई उनको जानता है, उस विधा में प्रतिभागियों को प्रथम , द्वितीय, तृतीय और सान्त्वना पुरस्कार देकर हिन्दी की सेवा कर लेते हैं। इन छद्म हिन्दी सेवियों को पहचाने की आवश्यकता है।
कुछ संस्थाओं में ऐसे लोग भी घुस जाते हैं, जिनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण सरकारी अनुदान झटकना है। तब यह प्रश्न उठता है कि हिन्दी की सच्ची सेवा कौन कर रहा है? आज भी ग्रामीण अंचल में जाकर देखिए, कबीर सूर , तुलसी और मीरा की वाणी से अनपढ़ भी अनजान नहीं है। लोक भाषा और बोलियों में लोकगीत , लोककथाएँ अनगिन लोगों का हृदय-हार बनी हैं। हिन्दी भाषा और साहित्य को उन्नत करना है , तो हमें ‘लोक’ से जुड़ना पड़ेगा, उसकी धड़कन से परिचित होना पड़ेगा। छोटी-छोटी सरिताएँ अगर गंगा या यमुना में आकर नहीं मिलेंगी वे सदानीरा नहीं रह पाएँगी। हमें हिन्दी की लोक-भाषा -बोली से भी कुछ ग्रहण करना पड़ेगा, उसकी चेतना को समझना पड़ेगा। गाँव से निरन्तर पलायन के कारण कल अगर ये बोलियाँ गुम होती हैं , तो हिन्दी की सम्पन्नता घटेगी।
हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए केवल हिन्दी से अनुराग ही पर्याप्त नहीं, उसका सम्मान भी ज़रूरी है। जिन विद्यालयों में हिन्दी बोलने पर छात्रा दण्डित किए जाते हैं, अब उनको दण्डित करने का समय आ गया। जो राजनेता भाषायी दुराग्रह खड़ा करके भारतीय भाषाओं को जोड़ने की बजाय सौहार्द को समाप्त करना चाहते हैं, उनको किनारे करने का समय आ गया। हिन्दी का अधिकतम व्यवहार ही उसके विस्तार को सुनिश्चित करेगा।
सम्पर्क - सी-1702,जे एम अरोमा , सेक्टर-75, नोएडा-201301 , उत्तरप्रदेश, मोबा-09313727493
2 comments:
सच्चाई की झलक दिखा गई काम्बोजजी की लेखनी । हिंदी की सेवा के नाम पर छल हो रहा है । आज बोलियों से साहित्य की सरिता को खोज निःस्वार्थ भाव से हिंदी को समृद्ध करने की आवश्यकता है ।
ज्ञानवर्धक लेख आदरणीय भैया जी ..हार्दिक बधाई
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