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Dec 14, 2013

उदंती.com - दिसम्बर 2013


उदंती.com -  दिसम्बर 2013




अब तो मज़हब कोई 
ऐसा चलाया जाए,
जिसमें इंसान को 
इंसान बनाया जाए।
                 - नीरज










अनकही:  एक मानवीय फैसला - डॉ. रत्ना वर्मा
चिंतन:   तलाश अपनी जड़ों की... - अनुपम मिश्र
धरोहर:  ककनमठ खजुराहो के कंदारिया...- लोकेन्द्र सिंह
सेहत:    केला अनूठा फल...- डॉ. ओ. पी. वर्मा
विज्ञान:  सरकार से दरकरार, करें विज्ञान प्रसार - सुभाष लखेड़ा
हाइकु:   हरसिंगार - नलिनीकान्त
जीव-जगत: क्यों गाते हैं पक्षी - डॉ. अरविन्द गुप्ते
समाज:ब्रजवासी महिलाएँ-कब तक...  - देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
ग़ज़लें:  1. कतार में 2. कश्तियाँ काग़ज की - आशीष दशोत्तर
कालजयी कहानियाँ: एक छोटा सा मज़ाक - अन्तोन चेख़व
व्यंग्य: चूहों से पंगे लेना संगीन अपराध - अविनाश वाचस्पति
चार लघुकथाएँ: 1.माँ, 2.युग परिवर्तन, 3.मासूम अपराध, 4.प्रथम स्वेटर  - ऋता शेखरमधु
दो कविताएँ: बेनाम रिश्ते, उँगलियों की फितरत - रेखा मैत्र
अनुभूति: तुलसी का बिरवा - स्मृति जोशी
शोध: सोशल नेटवर्किंग पर समय बिताने का झटका
प्रेरक: आख़री सफ़र
आपके पत्र/मेल बॉक्स


आवरण चित्र: पूर्वा खिचरियाबी.ई. इलेक्ट्रानिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन
सम्पर्क: नरसिंह विहारसड़क-5, कातुलबोडदुर्ग - (छ.ग.)

एक मानवीय फैसला


      एक मानवीय फैसला

                          - डॉ. रत्ना वर्मा 

 “ मैंने सोचा कि मैं एक जज की तरह नहीं बल्कि मानवता की खातिर उसके लिए क्या कर सकता हूँ। वही मैंने किया। यदि तेजाब हमले की जगह मेरी बहन या बेटी होती तो मैं क्या करता, यही सोच कर मैं आगे बढ़ा
उक्त कथन जस्टिस कुरियन जोसेफ के हैं जो उन्होंने पिछले दिनों तेजाब पीडि़ता पर फैसला सुनाते हुए कहा है। दिल्ली सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुरियन जोसेफ ने तेजाब हमले में अपनी आँखें गवा चुकी 33 वर्षीय अनु मुखर्जी को जूनियर कोट अटेडेंट की नौकरी का ऑफर दिया है। ताकि वह सम्मान से जी सके। जस्टिस ने तेजाब पीडि़त युवती को सम्मानजनक नौकरी देकर मानवता का परिचय दिया है। उनका यह कदम प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। इस तरह के अन्य मामलों में उनके इस कदम को हमेशा उदाहरण के रूप में सामने रखा जाना चाहिए।
इस मानवीय फैसले से शासन प्रशासन, पुलिस और कानून बनाने वालों  को सीख लेनी चाहिए कि मानवता हर मामले में बड़ी है।

 तेजाब से हमला महिलाओं पर किये गए वीभत्सतम अपराधों में सबसे ज्यादा वीभत्स है। यह बहुत दु:ख की बात है कि हमारे देश में लड़कियों के शरीर और चेहरे पर तेजाब फेंक कर उसकी जिंदगी को नरक बना देने वाली घटनाएँ दिन--दिन बढ़ती ही चली जा रही है। भारत में इस तरह का पहला मामला 1967 में सामने आया था। परंतु आज स्थिति भयानक हो चुकी है। प्रति वर्ष लगभग 1000 लड़कियों पर तेजाब फेंके जाने की घटनाएँ हो रही हैं। सबसे निराशाजनक पहलू इसका यह है कि इस तरह के अधिकतर मामलों में साक्ष्य के अभाव में दोषी को सजा हो ही नहीं पाती और लड़की जीवन भर कुरूपता का अभिशाप झेलने के लिए छोड़ दी जाती है।

लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंक कर उन्हें कुरूप बना देने की पुरुष मानसिकता दरअसल उसी पुरातन सोच का नतीजा है, जहाँ स्त्री को भोग्या और एक वस्तु के रूप में देखा जाता है। आज भी हमारे समाज में लड़कियों का जिस तरह से पालन-पोषण  होता है वहाँ उसे अपना निर्णय लेने का अधिकार भी नहीं होता और यदि कोई लड़की इन सबसे अलग अपना निर्णय खुद लेती है या किसी बात से इन्का करती है अथवा असहमति जताती है तो पुरुष अपने अहंकार के चलते उससे प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से उस पर तेजाब फेंककर, बलात्कार करके या उसके साथ हिंसात्मक बर्ताव करके अपने अहं को तुष्ट करता है।

अफसोसनाक बात है कि आज इतनी तरक्की के बाद भी महिलाओं पर होने वाले इन अत्याचारों में कमी नहीं आई है। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा जैसी घटनाओं के आँकड़ें, तरक्की पसंद इस देश में कम होने की बजाय बढ़ते ही चले जा रहे हैं। आँकड़ों के बढऩे का एक कारण अवश्य ही महिलाओं का अपने अधिकारों के प्रति पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक होना भी है। जिसके कारण वे अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचार का विरोध करती हैं और उनके विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराने में शर्म महसूस नहीं करती, अन्यथा पहले तो सामाजिक उपेक्षा के भय से न केवल पीडि़ता बल्कि परिवार वाले ही बलात्कार जैसे मामलों को इसलिए दबा देते थे कि इससे परिवार की बदनामी होगी और लड़की का जीवन खराब हो जाएगा।
ऐसे में वे महिलाएँ जिनपर तेजाब फेंककर चेहरा खराब कर दिया जाता है, खुद को समाज से अलग कर लेती हैं। तेजाब पीड़िताओं के लिए कोई नीति न होने के कारण, और लम्बे समय तक चलने वाले चिकित्सा उपचार तथा न्यायिक प्रक्रिया से हताश होकर वे घर में चुपचाप बैठे रहना उचित समझती हैं। अधिकतर मामलों में देखा यही गया है कि पीडि़त, मानसिक विकृतियों का शिकार हो जाती हैं।

कहने का तात्पर्य यही है कि किसी भी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए सामाजिक सोच में परिवर्तन के साथ इस तरह के अपराधों के लिए कानून और सजा का सख्त प्रावधान होना भी बहुत जरूरी है।  पिछले साल दिसम्बर में दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में हुए गैंग रेप के बाद बने यौन उत्पीडऩ कानून में ही तेजाब से हमलों को अंजाम देने वालों की सजा भी तय कर दी गई थी। ऐसे दोषियों को दस साल का कारावास और अधिकतम उम्रकैद तक की सजा मुकर्रर की गई है।

2008 में ला कमीशन आफ इंडिया ने, सुप्रीम कोर्ट को अपने सुझाव में तेजाब हमलों से निपटने के लिये भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में अगल सेक्शन जोडऩे की सिफारि की थी। तेजाब की खुलेआम बिक्री पर अंकुश लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इस दिशा में सरकार की ओर से कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया है। पड़ोसी देश बांग्लादेश ने ऐसे अपराधों से निपटने के लिये 2002 में ही आवश्यक कदम उठा लिये थे। पाकिस्तान  एक अलग बिल संसद में पास हो गया था। इन देशों में तेजाब हमलों के पीडि़तों के पुनर्वास के भी नियम भी बनाए गए हैं, जबकि भारत में लगातार बढ़ते जा रहे तेजाब हमलों के बावजूद अब भी इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

  कानून को सख्त बनाए जाने के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और मानसिक सोच में बदलाव भी जरूरी है। लड़कियों को पुरुष से कमजोर मानने और अपने पैर की जूती समझने जैसी सोच को बदलने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ समाज में लड़कियों को सम्मानजनक स्थान दिया जाना आवश्यक है। जिसकी शुरूआत हम अपने-अपने परिवार से करें तो यह बात पूरे समाज तक पहुँचेगी।

परन्तु और एक बात ऐसे मामलों में जरूरी है – पिड़िता लड़की चाहे वह तेजाब से ग्रसित हो चाहे बलात्कार की शिकार हो, का भविष्य! उसे मानसिक सम्बल देने के साथ-साथ उसके उसे दिए गए कुरूपमय जीवन को जीने लायक भी बनाना होगा। घर-परिवार के सहयोग के साथ साथ उसे सामाज में सम्मानजनक स्थान दिलाना भी शासन, प्रशासन, समाज, न्याययिक व्यवस्था, कानून और कानून के रक्षकों का भी उत्तरदायित्व होना चाहिए।
जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा दिया गया उपर्युक्त फैसला इस दिशा में एक अनुकरणीय कदम कहा जाएगा। उनके इस कदम से पिड़िता लड़की आर्थिक रुप से सक्षम तो होगी ही- साथ ही उसे जीने का एक मकसद भी मिलेगा अन्यथा समाज और परिवार तो ऐसी पीड़ित लड़कियों, चाहे वे बलात्कार पीड़ित हो चाहे तेजाब से झुलसी, समाज उसे एक प्रकार से उपेक्षा की दृष्टि से ही देखता है। यहाँ तक कि उन्हें लगता है कि ऐसा जीवन जीने से तो अच्छा है वह मर ही जाती। उपेक्षा और क्रूरता देखकर स्वयं लड़की के भीतर भी जीने की इच्छा खत्म हो जाती है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि उपर्युक्त फैसले से देश में चल रहे ऐसे अनगिनत फैसले जो केवल गवाह और सबूतों के कारण सही अंजाम तक नहीं पहुँच पाते और जिन फैसलों में मानवीयता की कोई भूमिका ही नहीं होती; ये फैसले कानून की परिभाषा को भी बदलने में अहम भूमिका निभाएँगे।               

चिंतन

  
      तलाश अपनी जड़ों की...

               - अनुपम मिश्र

आधुनिक दौर में, अपनी जड़ों से कट कर हमने जो विकास किया, उसके बुरे नतीजे तो चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। स्थूल अर्थों में भी और सूक्ष्म अर्थों में भी। ढका हुआ भूजल, खुला बहता नदियों, तालाबों का पानी और समुद्र तक बुरी तरह से गंदा हो चुका है। विशाल समुद्रों में हमारी नई सभ्यता ने इतना कचरा फेंका है कि अब अंतरिक्ष से टोह लेने वाले कैमरों ने अमेरिका के नक्शे बराबर प्लास्टिक के कचरे के एक बड़े ढेर के चित्र लिये हैं। लेकिन अभी इस स्थूल और सूक्ष्म संकेतों को यहीं छोड़ वापस उदारीकरण की तरफ लौटें। कुछ शब्द ऐसे हैं कि वे हमारा पीछा ही नहीं छोड़ते। क्या-क्या नहीं किया हमने उन शब्दों से पीछा छुड़ाने के लिए। तब तो हम गुलाम थे। फिर भी हमने गुलामी की जंजीरों को तोडऩे की कोशिश के साथ ही अपने को दुनिया की चालू परिभाषा के हिसाब से आधुनिक बनाने का भी रास्ता पकडऩे के लिए परिश्रम शुरू कर दिया था। आजाद होने के बाद तो इस कोशिश में हमने पंख ही लगा दिए थे। हमने पंख खोले पर शायद आँखें  मूँद लीं। हम उड़ चले तेजी से, पर हमने दिशा नहीं देखी।
अब एक लम्बी उड़ान शायद पूरी हो चली है और हमें वे सब शब्द याद आने लगे हैं, जिनसे हम पीछा छुड़ा कर उड़ चले थे। अभी हम जमीन पर उतरे भी नहीं हैं लेकिन हम तड़पने लगे हैं, अपनी जड़ों को तलाशने।
यों जड़ें तलाशना, जड़ों की याद अनायास आना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इस प्रयास और याद से पहले हमें इससे मिलते-जुलते एक शब्द की तरफ भी कुछ ध्यान देना होगा। यह शब्द है- जड़ता। जड़ों की तरफ मुडऩे से पहले हमें अपनी जड़ता की तरफ भी देखना होगा, झाँकना होगा। यह जड़ता आधुनिक है। इसकी झाँकी इतनी मोहक है कि इसका वजन ढोना भी हमें सरल लगने लगता है। बजाय इसे उतार फेंकने के, हम इसे और ज्यादा लाद लेते हैं अपने ऊपर।
जड़ता हटे थोड़ी भी तो पता चले कि बात सिर्फ जड़ों की नहीं है। शायद तने की है, डगालों, शाखाओं, पत्तियों तक की है। हमारा कुल जीवन, समाज यदि एक विशाल वृक्ष होता, उसका एक भाग होता, तो जड़ों से कटने का सवाल भी कहाँ उठता। अपनी जड़ों से कटे तने, शाखाएँ, पत्तियाँ दो-चार दिनों में मुरझाने लगती हैं। पर हमारा आधुनिक विकसित होता जा रहा समाज तो अपनी जड़ों से कट कर एक दौर में पहले से भी ज्यादा हरा हो चला है- कम से कम उसे तो ऐसा लगता है। और फिर वह अपने इस नए हरेपन पर इतना ज्यादा इतराता है कि अपने आज के अलावा अपने कल को, सभी चीजों को उसने एकदम पिछड़ा, दकियानूस मान लिया है। कल की यह सूची बहुत लंबी है। इसमें भाषा है, विचार है, परंपराएँ हैं, पोशाक है, धर्म है, कर्म भी है।
सबसे पहले भाषा ही देखें।
भाषा में अगर हम किसी तरह की असावधानी दिखाते हैं, तो हम व्यवहार में भी असावधान होने लगते हैं। भाषा की यह चर्चा हिंदी विलाप-मिलाप की नहीं है। उदाहरण देखें -हिंदी में उदार शब्द बड़े ही उदात्त अर्थ लिये है। शुभ शब्द है। लेकिन इस नई व्यवस्था ने इस इतने बड़े शब्द को एक बेहद घटिया काम में झोंक दिया है। इसे आर्थिक व्यवस्था से जोड़कर अंग्रेजी के अनुवाद से एक नया शब्द बनाया गया है- उदारीकरण। जब मन उदार बन रहा है, सरकार उदार बन रही है, अर्थ-व्यवस्था उदार हो चली है तब काहे का डर भाई। मन में कैसा संशय?
उदार का विपरीत है, कंजूस, कृपण, झंझटी, संकीर्ण। तो क्या इस उदारीकरण से पहले की व्यवस्था कंजूसी की थी? संकीर्णता की थी? वह दौर किनका था? वह तो सबसे अच्छे माने गए नेतृत्व का दौर था- नेहरूजी, सरदार पटेल जैसे लोगों का था।
जड़ों की तलाश को निजी स्तर पर लेने से कोई व्यावहारिक हल हाथ लगेगा नहीं। समाज के, देश के, काल के स्तर पर जब सोचेंगे तो जड़ों की चिंता हमें उदारीकरण जैसी प्रवृत्तियों की तरफ ले जाएगी। हम उनके बारे में ठीक से सोचने लगेंगे और तब हम सचमुच सच के सामने खड़े हो पाएँगे।
यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो पाएँगे कि जड़ों की तलाश भी जारी रहेगी और हम अपनी जड़ें खुद काटते भी रहेंगे। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना कहावत में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हम खुद अपनी कुल्हाड़ी की धार चमका कर उसे और ज्यादा धारदार बनाकर गा- बजा कर अपने पैरों पर मारते रहेंगे।
आधुनिक दौर में, अपनी जड़ों से कट कर हमने जो विकास किया, उसके बुरे नतीजे तो चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। स्थूल अर्थों में भी और सूक्ष्म अर्थों में भी। ढका हुआ भूजल, खुला बहता नदियों, तालाबों का पानी और समुद्र तक बुरी तरह से गंदा हो चुका है। विशाल समुद्रों में हमारी नई सभ्यता ने इतना कचरा फेंका है कि अब अंतरिक्ष से टोह लेने वाले कैमरों ने अमेरिका के नक्शे बराबर प्लास्टिक के कचरे के एक बड़े ढेर के चित्र लिये हैं। लेकिन अभी इस स्थूल और सूक्ष्म संकेतों को यहीं छोड़ वापस उदारीकरण की तरफ लौटें।
हमारे बीच जो भी नई व्यवस्था या विचार आते हैं, वे हर पंद्रह-बीस सालों में अपना मुँह किसी और दिशा में मोड़ लेते हैं। अभी कुछ ही बरस पहले तो दुनिया के किसी एक पक्ष ने हमें यह पाठ पढ़ाया कि राष्ट्रीयकरण बहुत ऊँची चीज है। हमने वह पाठ तोते की तरह पढ़ा फिर रट लिया उसे। आगे-पीछे नहीं सोचा और देश में सब चीजों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। हमने अपने खुद के तोतों से भी नहीं पूछा कि तुम भी कोई पाठ जानते हो क्या? अपनी डाल के ऊपर बैठे तोतों की तरफ देखा तक नहीं। राष्ट्रीयकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि उसके नीचे जो कुछ भी डाला जाएगा, वह सब ठीक हो जाएगा। खूब प्रशंसा हुईं तालियाँ बजीं। कुछ नेता एकाध चुनाव भी जीत गए होंगे।
फिर इससे काम चला नहीं। समस्याएँ तो हल हुई नहीं तो फिर एक नई दिशा पकड़ ली। सरकार की सब चीजें निजी हाथों में सौंप देने का दौर आ गया। पर इसे बाजारीकरण नहीं कहा गया। नाम रखा -उदारीकरण। किसी ने भी यह नहीं कहा कि यह तो उधार में लिया गया हल है। इसका यदि कोई नाम ही रखना हो तो इसे उधारीकरण कहो न।
अपनी जड़ों से कटे इस नए विकास ने बहुत से चमत्कार कर दिखाए हैं। निस्संदेह आज कुछ करोड़ हाथों में मोबाइल फोन हैं। लाखों कंप्यूटर हैं, लोगों की टेबिलों पर और गोद में भी। अब तो हाथ में भी टेबलैट हैं। इन माध्यमों से पूरी दुनिया में तो बातें हो सकती है पर बगल में बैठे व्यक्ति से संवाद टूट गया है। सामाजिक कहे जाने वाला कंप्यूटर नेटवर्क चाहे जब कुछ लाख लोगों को कुछ ही घंटों में बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद से खदेड़कर उत्तर-पूर्व के प्रदेशों में जाने मजबूर कर देता है। इस विकास ने महाराष्ट्र में आधुनिक सिंचाई की योजनाओं पर सबसे ज्यादा राशि खर्च की है। आज उसी महाराष्ट्र में सबसे बुरा अकाल पड़ रहा है।
इस विकास ने बहुत से लोगों को अपने ही आंगन में पराया बनाया है। यह सूची भी बहुत बड़ी और यह संख्या भी। अपने ही आंगन में पराए बनते जा रहे लोगों की संख्या उस बहुप्रचारित मोबाइल क्रांति से कम नहीं है। अपनी जड़ों से जुड़े अनगिनत लोग विकास के नाम पर काट कर फेंक दिए गए हैं।
बलि प्रथा, नर बलि प्रथा कभी रही होगी। आज तो विकास की बलि प्रथा है। कुछ लोगों को ज्यादा लोगों के कल्याण, विकास के लिए अपनी जान देनी पड़ रही है। और जिनके लिए ये सब होता है, उनमें से न जाने कितने लोगों को आज यह नया जीवन अपनी जड़ों से इतना ज्यादा काट देता है कि उन्हें जीवन जीने की कला सीखने अपनी महँगी नौकरियाँ छोड़ संतों के शिविरों में जाना पड़ता है।
एक हिस्सा गरीबी में अपनी जड़ों से कट कर विस्थापित होता है तो दूसरा भाग अपनी अमीरी का बोझा ढोते हुए लडख़ड़ाता दिखता है।
ऐसी विचित्र भगदड़ में फँसा समाज अपनी जड़ों को खोज पाएगा, उनसे जुड़ पाएगा- ऐसी उम्मीद रखना बड़ा कठिन काम है। लेकिन ये शब्द हमारा पीछा आसानी से नहीं छोडऩे वाले। जड़ें शायद छूटेंगी नहीं। दबी रहेंगी मिट्टी के भीतर। ठीक हवा पानी मिलने पर वे फिर से हरी हो सकेंगी और उनमें नए पीके भी फूट सकेंगे। हमें अपने को उस क्षण के लिए बचाकर रखना होगा।                                                                 
सम्पर्क: सम्पादक, गाँधी मार्ग, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली- 110 001फोन- 011 23237491

ककनमठ

            
            ककनमठः

       खजुराहो के कंदारिया महादेव से भी विशाल

            - लोकेन्द्र सिंह राजपूत

मंदिर, मठ या अन्य पूजा स्थल महज धार्मिक महत्त्व के स्थल नहीं होते हैं। ये अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था के गवाह होते हैं। अपने में एक इतिहास समेटकर खड़े रहते हैं। उनको समझने वाले लोगों से वे संवाद भी करते हैं। ग्वालियर से करीब 70 किलोमीटर दूर मुरैना जिले के सिहोनिया गाँव में स्थित ककनमठ मंदिर इतिहास और वर्तमान के बीच ऐसी ही एक कड़ी है। मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में कछवाह (कच्छपघात) राजा कीर्तिराज ने कराया था। उनकी रानी का नाम था ककनावती। रानी ककनावती शिवभक्त थीं। उन्होंने राजा के समक्ष एक विशाल शिव मंदिर बनवाने की इच्छा जाहिर की। विशाल परिसर में शिव मंदिर का निर्माण किया गया। चूंकि शिव मंदिर को मठ भी कहा जाता है और रानी ककनावती के कहने पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया था, इसलिए मंदिर का नाम ककनमठ रखा गया। वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् श्री जयंत तोमर बताते हैं कि सिहोनिया कभी सिंह-पानी नगर था। बाद में अपभ्रंश होकर यह सिहोनिया हो गया। यह ग्वालियर अँचल का प्राचीन और समृद्ध नगर था। यह नगर कछवाह वंश के राजाओं की राजधानी था। इसकी उन्नति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ग्वालियर अंचल के संग्रहालयों में संरक्षित अवशेष सबसे अधिक सिहोनिया से प्राप्त किए गए हैं। श्री तोमर बताते हैं कि तोमर वंश के राजा महिपाल ने ग्वालियर किले पर सहस्रबाहु मंदिर का निर्माण कराया था। सहस्रबाहु मंदिर के परिसर में लगाए गए शिलालेख में अंकित है कि सिंह-पानी नगर (अब सिहोनिया) अद्भुत है।
ककनमठ मंदिर की स्थापत्य और वास्तुकला के सम्बन्ध में जीवाजी यूनिवर्सिटी के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. रामअवतार शर्मा बताते हैं कि यह मंदिर उत्तर भारतीय शैली में बना है। उत्तर भारतीय शैली को नागर शैली के नाम से भी जाना जाता है। 8वीं से 11वीं शताब्दी के दौरान मंदिरों का निर्माण नागर शैली में ही किया जाता रहा। ककनमठ मंदिर इस शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के परिसर में चारों और कई अवशेष रखे हैं। ज्यादातर अवशेष मुख्य मंदिर के ही हैं। इतने लम्बे समय के दौरान कई प्राकृतिक झंझावातों का सामना मंदिर ने किया। इनसे उसे काफी क्षति पहुँची।
मंदिर का शिखर काफी विशाल था लेकिन समय के साथ वह टूटता रहा। परिसर में अन्य छोटे-छोटे मंदिर समूह भी थे। ये भी समय के साथ नष्ट हो गए। पुरातत्वविद् श्री रामअवतार शर्मा बताते हैं कि खजुराहो में सबसे बड़ा मंदिर अनश्वर कंदारिया महादेव का है। ककनमठ मंदिर समूह इससे भी विशालतम मंदिर था। वर्तमान में परिसर की जो बाउंड्रीवॉल है, यह मंदिर का वास्तविक परिसर नहीं है। मंदिर का परिसर इससे भी काफी विशाल था। बाउंड्रीवॉल के बाहर भी मंदिर समूह के अवशेष मिले हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान शिखर की ओर से गिरने वाली विशाल चट्टानों के कारण मंदिर पर उकेरी गईं प्रतिमाओं को काफी नुकसान पहुँचा है।
ककनमठ मंदिर की दीवारों पर शिव-पार्वती, विष्णु और शिव के गणों की प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। प्रतिमाएँ इतने करीने से पत्थर पर उकेरी गईं हैं कि सजीव प्रतीत होती हैं। हालांकि ज्यादातर प्रतिमाएँ खण्डित हैं। लेकिन, अपने कला वैभव को बखूबी बयाँ करती दिखाई देती हैं।
19 अक्टूबर 2013 को ग्वालियर से अपने दोस्तों के साथ इस ऐतिहासिक महत्त्व के मंदिर का अवलोकन करने का अवसर मिला। नईदुनिया के वरिष्ठ पत्रकार हरेकृष्ण दुबोलिया, गिरीश पाल और महेश यादव के साथ हम यहाँ पहुँचे थे। साथ में गिरीश पाल के पिताजी भी थे। पथ प्रदर्शक के रूप में उनका बड़ा अच्छा साथ हमें मिला। इसके अलावा रास्ते में वे ककनमठ मंदिर से जुड़ी किंवदंतियाँ हमें सुनाते रहे। मुरैना से उत्तर-पूर्व दिशा में करीब 30 किलोमीटर दूर सिहोनिया गाँव में ककनमठ मंदिर स्थित है। 11वीं शताब्दी में चूना-सीमेंट का इस्तेमाल किए बिना पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर बनाया गया यह विशाल मंदिर आज भी मजबूती के साथ खड़ा है। यह देखकर प्राचीन भारतीय स्थापत्य और वास्तुकला कला पर गर्व महसूस हुआ। मंदिर के शिखर की तरह अपना सिर भी आसमान की तरफ जरा-सा तन गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने मंदिर को संरक्षित करने का प्रयास किया है। फिर भी लम्बे समय तक अनदेखी के कारण मंदिर को काफी नुकसान पहुँच चुका है। मुख्य मंदिर एक विशाल चबूतरे पर बना है। मण्डप पत्थर के बड़े पिलरों पर खड़ा है। मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुँचाए, इसके लिए एएसआई की ओर से दो कर्मचारियों की नियुक्ति यहाँ की गई है। केयर टेकर सुरेश शर्मा बताते हैं कि मंदिर की भव्यता और इसके स्थापत्य को निहारने के लिए कई विदेशी पर्यटक भी यहाँ आते रहते हैं। हालांकि यह संख्या अभी बहुत ज्यादा नहीं है।
ग्वालियर और मुरैना से यहाँ तक पहुँच मार्ग करीब-करीब ठीक है। बीच में कुछ जगह सड़क खराब है। ककनमठ मंदिर को पर्यटन के नक्शे पर जो स्थान मिलना चाहिए, अभी वैसा नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार इस दिशा में कुछ पहल कर सकती है। आगरा से ग्वालियर किला घूमने आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को ककनमठ मंदिर आने के लिए भी आकर्षित किया जा सकता है। पास में ही मितावली, पड़ावली, नूराबाद, बटेश्वर और शनिचरा जैसे महत्वपूर्ण स्थल हैं। ऐतिहासिक रूप से समृद्ध होने के कारण अंचल में पर्यटकों को बुलाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। बस इस दिशा में एक ठोस प्रयास की जरूरत है। निश्चित ही घुमक्कड़ स्वभाव के और पुराने सौंदर्य को देखकर आनंदित होने वाले लोग यहाँ आकर निराश नहीं होंगे। इसके साथ ही सिहोनिया में प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी दर्शनीय हैं। सिहोनिया जैन सम्प्रदाय के लिए ऐतिहासिक और पवित्र स्थलों में से एक है। यहाँ 11वीं शताब्दी के कई जैन मंदिरों और मूर्तियों के अवशेष देखे जा सकते हैं। इन मंदिरों में शांतिनाथ, आदिनाथ और पाश्र्वनाथ सहित अन्य तीर्थंकरों की विशाल और प्राचीन प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं।

सम्पर्क: गली नम्बर-1,किरार कॉलोनी,एसएएफ रोड,
कम्पू,लश्कर,ग्वालियर(मप्र)474001, मो.09893072930 
Email-lokendra777@gmail.com

केला- अनूठा फल निराला स्वाद

      केला-

      अनूठा फल निराला स्वाद

           - डॉ. ओ. पी. वर्मा

केला सर्वसुलभ, सदाबहार, सस्ता, स्वास्थ्यवर्धक और स्वादिष्ट फल है। केले का वानस्पतिक नाम मूसा सेपियेंटा है जिसका मतलब बुद्धिमान व्यक्ति का फल होता है। केला दुनिया के सबसे पुराने और लोकप्रिय फलों में से एक है। केले की गिनती हमारे देश के उत्तम फलों में होती है और हमारे मांगलिक कार्यों में भी विशेष स्थान दिया गया है। केले को असमिया में कोल, बंगला में काला, गुजराती में केला, कन्नड़ में बाले गिड़ाया बालेहन्नु, कोंकणी में केल, मलयालम में वझा, मराठी में कदलीद्व या केल, उडिय़ा में कोडोली या रोम्भा, तमिल में वझाई, तेलुगु में आसी, अंग्रेजी में बनाना (Banana) नाम से पुकारा जाता है। प्लेण्टेन(Plantain) प्रजाति का केला मीठा नहीं होता है और सब्जी के रूप में खाया जाता है।
निसंदेह सेब बहुत अच्छा और स्वास्थ्यप्रद फल माना जाता है इसीलिए An apple a day keeps doctor away कहावत बड़ी मशहूर रही है। लेकिन ताजा शोध यह बताती है कि आपको डॉक्टर से दूर रखने में केला सेब से भी आगे निकल गया है। क्योंकि केले में सेब से दुगुने कार्बोहाइड्रेटव खनिज तत्त्व, तिगुना फोस्फोरस, चार गुना प्रोटीन और पांच गुना विटामिन-ए व आयरन होता है। इसलिए सोच बदलिए, डॉक्टर को अकेला छोडिय़े, रोज केला खाकर स्वस्थ बने रहिये।
केला बुद्धिमान एवं विवेकी व्यक्तियों का प्रिय आहार है। केले का सम्बन्ध विद्या एवं बुद्धि से है, क्योंकि हमारे शास्त्रीय मतों के अनुसार विद्या बुद्धि के स्वामी भगवान बृहस्पति जी का वास केले पर होता है, इसीलिए हिन्दू धर्मावलम्बियो के अनुसार केले के पेड़ की पूजा बृहस्पतिवार के दिन करने का विधान है। हिन्दू पूजा पाठ में भी केले, उसके पत्ते एवं वृक्ष को भी अति पावन स्थान प्राप्त है।

केले का इतिहास
केले की उत्पत्ति लगभग 4000 वर्ष पूर्व मलेशिया में हुई। यहाँ से केला फिलिपीन्स और भारत पहुँचा। क्राइस्ट से 327 वर्ष पहले सिकंदर हिन्दुस्तान के केलों को यूरोप लेकर गया। फिर अरब के सौदागरों ने केलों को अफ्रीका में बेचना शुरू किया। सन् 1482 में पुर्तगालियों ने  अमेरिकी महाद्वीप को निर्यात करना शुरू किया। लेकिन यू.एस.ए. के लोग केले का स्वाद 19 वीं शताब्दी के आखिरी सालों में ही चख पाये। उसके बाद तो केला पूरी दुनिया का चहेता फल बन गया। आज सभी उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों जैसे भारत, चीन, फिलिपीन्स, इक्वाडोर, ब्राजील, इंडोनेशिया, तंजानिया, एंगोलाऔर मेक्सिको में खूब केला पैदा होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा केला उत्पादक देश है और अब दुनिया भर के बाजारों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए तैयार है। इसलिए निकट भविष्य में केला महँगा हो सकता है। हमारे यहाँ केले का सालाना उत्पादन 29.6 बिलियन किलो (220,000,000,000 केला) होता है।

पोषक तत्त्व
केले में पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, मैगनीज, कापर, आयरन, फास्फोरस,सल्फर, आयोडीन,अल्युमीनियम, जिंक, कोबाल्ट, साइट्रिक एसिड, मैलिक एसिड,आक्जेलिक एसिड आदि तत्त्व होते हैं। 
केले के बारे में कुछ रोचक और निराले तथ्य
-केले को कभी भी रेफ्रिजरेटर में नहीं रखना चाहिए।
-मच्छर काटने पर केले का छिलका रगडऩे से आराम मिलता है।
-केला मन और शरीर को ठंडक प्रदान करता है। इसलिए थाईलैंड में गर्भवती नारियाँ केला खाना पसंद करती हैं, ताकि उनका शिशु शांत प्रकृति का पैदा हो।
-केले की 500 प्रजातियाँ होती हैं। आस्ट्रेलिया की एक प्रजाति के केले लाल होते हैं और पकने पर स्वाद में स्ट्रॉबेरी की तरह लगते हैं।
-केला क्षारीय माना जाता है। 
-अधिकतर फलों के विपरीत केला पेड़ पर नहीं बल्कि एक सदाबहार पौधे पर पैदा होता है। इसका तना कई पत्तियों के जुडऩे और चिपकने से बनता है। केले के गुच्छे को हैंड और एक केले को फिंगर कहते हैं। 
-केले का छिलका भी बहुत उपयोगी है। इसके अंदर के हिस्से को मुहाँसे या मस्से पर रगडऩे से वे सूख जाते हैं। इसे चमड़े के जूतों पर रगडऩे से  वे चमक उठते हैं। केले का छिलका गुलाब के लिए बढिय़ा खाद का काम करता है।
स्फूर्ति और शक्तिदायक केला
केले में सुक्रोज, फ्रुक्टोज और ग्लुकोज नाम की तीन प्राकृतिक शर्कराएँ होती हैं। इसलिए केला तुरंत शक्ति देता है। शोधकर्ता बतलाते हैं कि सिर्फ दो केले खाने से 90 मिनट तक वर्कआउट करने की ऊर्जा मिल जाती है। इसलिए केला अधिकतर खिलाड़ी और पहलवानों का पसंदीदा फल है। लेकिन पर्याप्त फाइबर होने की वजह से कच्चे केले का ग्लायसीमिक इंडेक्स 30 और पके केले का 60 होता है। इसका मतलब इसका सेवन करने से ब्लड शुगर झटके से उछाल नहीं मारती बल्कि आहिस्ता से बढ़ती है, अत: इसे डायबिटीज में खाया जा सकता है। केले में आयरन भी पर्याप्त होता है, इसलिए यह खून की कमी भी दूर करता है।

बुद्धिमान और खुशहाल बनाए केला
बच्चों के बुद्धिमान बनाना है, तो उन्हें केला जरूर खिलाइए। केला खिलाने से विद्यार्थी ऊर्जावान्, सक्रिय और सतर्क हो जाते हैं। केले में ट्रिप्टोफेन, सीरोटोनिन और इपिनेफ्रीन होते हैं जो हमें खुश और तनावमुक्त रखते हैं और डिप्रेशन दूर करते हैं। केले में कॉपर, मेग्नीशियम और मेंगनीज भी होता है। साथ ही इसमें भरपूर विटामिन बी-6 होता है जो जो मस्तिष्क और नाडिय़ों के लिए बहुत जरूरी माना जाता है और यह अनिद्रा, व्याकुलता दूर करता है तथा मूड सही रखता है।  
हृदयरोग
केला पोटेशियम का बहुत बड़ा स्रोत है। जी हाँ, एक केले में भरपूर 467 मिलिग्राम पोटेशियम होता है जबकि सोडियम मात्र 1 मिलिग्राम होता है। इसलिए रोज एक या दो केला खाने से आपको रक्तचाप और ऐथेरोस्क्लिरोसिस होने का खतरा नहीं होगा। पोटेशियम हृदय गति को नियंत्रित रखता है और शरीर में जल के स्तर को सामान्य बनाये रखता है। शोधकर्ताओं ने सिद्ध किया है कि जो लोग अपने आहार में पोटेशियम, मेग्नीशियम और फाइबर अधिक लेते हैं उन्हें स्ट्रोक होने का जोखिम भी बहुत कम रहता है।

आहार तंत्र
केला आमाशय में होने वाले गेस्ट्राइटिस और अल्सर से सुरक्षा प्रदान करता है। केला दो तरह से आमाशय की रक्षा करता है। एक तो केला आमाशय की आंतरिक सतह की कोशिकाओं को प्रोत्साहित करता है ,जिससे वे श्लेष्मा (म्युकस) की मोटी सुरक्षात्मक परत बनाती हैं जो अम्ल से होने वाली क्षति से आमाशय की रक्षा करती है। दूसरा केले में प्रोटिएज इन्हिबीटर्स नाम के तत्त्व होते हैं जो अल्सर बनाने वाले एच. पाइलोराई और अन्य जीवाणुओं का सफाया करते हैं। केला बहुत जल्दी पचता है इसलिए छोटे बच्चों के लिए यह अच्छा भोजन है।
केला आहार पथ को गतिशील और स्वस्थ रखता है। दस्त लगने पर इलेक्ट्रोलाइट्स की एकदम कमी हो जाती है। ऐसे में केला खाने से हमें तुरंत पोटेशियम मिल जाता है जो हृदय की कार्य-प्रणाली को नियमित करता है और तरल की स्थिति संतुलित करता है।
केले में पेक्टिन नामक घुलनशील फाइबर (जिसे हाइड्रोकोलॉयड भी कहते हैं) होता है जो आहार पथ को गतिशील रखता है और कब्ज में राहत देता है। केले में कुछ जटिल स्टार्च भी होते हैं जो आँतो का शोधन करते हैं और सुकून देते हैं। 

आँख की ज्योति बढ़ाता है
आहारशास्त्री कहते हैं कि एंटीऑक्सीडेंट विटामिन ए, सी और ई और केरोटिनॉयड्स से भरपूर केला और अन्य फलों का सेवन करने से ऐज रिलेटेड मेक्यूलर डिजनरेशन (ARMD) का जोखिम कम होता है। यह रोग वृद्धावस्था में दृष्टि दोष का बड़ा कारण माना जाता है।

हड्डियों को मजबूत बनाता है केला
केला खाने से हड्डियाँ मजबूत होती हैं। केला कैल्शियम के अवशोषण और चयापचय को कई तरह से उत्साहित करता है। पहले तो केला फ्रुक्टोऑलिगोसेकेरॉयड नामक प्रिबायोटिक का बहुत अच्छा स्रोत है जो हमारी बड़ी आँत में हितकारी जीवाणुओं का पोषण करते हैं। ये हितकारी जीवाणु विटामिन्स और पाचक एंजाइम्स बनाते हैं जो कैल्शियम समेत कई पोषक तत्त्वों का अवशोषण और हानिकारक जीवाणुओं से रक्षा करने वाले यौगिकों का निर्माण बढ़ाते हैं। जब आँत के हितैषी जीवाणु फ्रुक्टोऑलिगोसेकेरॉयड को फर्मेंट करते हैं तो प्रोबायोटिक्स की सेना बढ़ती है, कैल्शियम का अवशोषण प्रोत्साहित होता है और आँते गतिशील रहती हैं।

किडनी कैंसर में कारगर है केला
इंटरनेशनल जरनल ऑफ कैंसर में प्रकाशित शोध के अनुसार रोजाना सब्जियों और फलों की औसत 2.5 सर्विंग लेने वाली स्त्रियों में किडनी के कैंसर की दर में 40ऽ कमी देखी गई। इनमें केला सबसे कारगर साबित हुआ।

एच.आइ.वी.
केले में बेनलेक नाम का लेक्टिन प्रोटीन होता है जो शर्करा से मिल कर एच.आइ.वी. संक्रमित कोशिका के चारो तरफ एक चक्रव्यूह की रचना कर डालता है, जिससे एच.आइ.वी. वायरस का विकास और प्रसार बुरी तरह प्रभावित होता है। इसलिए एच.आई.वी. रोग में केला कल्याणकारी माना गया है।

आयुर्वेद में केले के प्रयोग
केला खाए ताकतवर हो जाये - केला रोचक, मधुर, शक्तिशाली, वीर्यवर्धक, शुक्रवर्धक, मांस बढ़ाने वाला और नेत्रदोष में हितकारी है। पके केले के नियमित सेवन से शरीर पुष्ट होता है। यह कफ, रक्तपित, वात और प्रदर के विकारों को नष्ट करता है।
पेचिश रोग- में थोड़े-से दही में केला मिलाकर सेवन से फायदा होता है। पेट में जलन होने पर दही में चीनी और पका केला मिलाकर खाए। इससे पेट सम्बन्धी अन्य रोग भी दूर होते हैं। अल्सर के रोगियों के लिए कच्चे केले का सेवन रामबाण औषधि है।
खाँसी- एक पके केले में आठ साबुत काली मिर्च भर दें, वापस छिलका लगाकर खुले स्थान पर रख दें। शौच जाने के पूर्व प्रात: काली मिर्च निकालकर खा जाएँ, फिर ऊपर से केला भी खा जाएँ। इस प्रकार कुछ दिन करने से हर तरह की खाँसी ठीक हो जाती है। अगर किसी को काली खाँसी हो गयी है तो केले के तने को सुखाकर फिर जलाकर जो राख बचती है वह दो-तीन चुटकी लीजिए और शहद मिला कर चटा दीजिए। काली खाँसी जड़ से खत्म हो जाएगी।

जलने के घाव- आग से शरीर का कोई हिस्सा जल गया हो तो वहाँ केले को मसल कर रख दीजिये और ऊपर से पट्टी बाँध दीजिए। जलन भी कम होगी और घाव भी ठीक होगा।
मूत्राशय की पथरी- केले के तने की भस्म को पानी में घोल कर पीने से मूत्राशय की पथरी गल कर निकल जाती है। केले का रस पीने से खुल कर पेशाब आता है और मूत्राशय साफ़ हो जाता है। जिससे देह में संचित रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।  केला अगर एक निश्चित मात्रा में रोज खाया जाए तो ये किडनी को मजबूत बनाता है।
संग्रहणी- किसी को संग्रहणी की शिकायत हो तो वह पके केले के साथ इमली और नमक खाए, यह मिश्रण संग्रहणी दूर कर देता है। हैजे से ग्रसित रोगी को सुबह शाम एक एक पका केला जरूर खिलाना चाहिए।
साँस की बीमारी- साँस से सम्बन्धित कोई भी बीमारी हो तो एक केला लीजिए,उसमे बीच में चीरा लगाकर काली मिर्च का 3-4 ग्राम पावडर भर के रात भर रख दीजिए। सवेरे इस केले को तवे पर ज़रा सा देशी घी डाल कर सेंक कर खा लीजिए। 3 दिन लगातार इस्तेमाल करे। सांस की बीमारी ख़त्म हो जाएगी।
बबासीर- एक केले को बीच से चीरा लगाकर चना बराबर कपूर बीच में रख दे फिर इसे खाए इससे बबासीर एकदम ठीक हो जाती है।
मधुमेह- केले के फूलों का सत मिल जाए तो इसे ब्लड सुगर को कंट्रोल करने के लिए रोजाना एक चुटकी खा लीजिये। यह बहुत अचूक दवा है।
दोस्तों, एक बुरी खबर है आज पूरे विश्व में केले की जितनी भी प्रजातियाँ उपलब्ध हैं वे सभी पीले रंग की केवेंडिश प्रजाति से ही विकसित की गई हैं। हो सकता है बीमारी के कारण निकट भविष्य में यह प्रजाति पूरी तरह लुप्त हो जाये। अनुसंधानकर्ता यह मानते हैं कि अगले 20 वर्षों में ऐसा हो सकता है।
पहले भी एक बार ऐसा हो चुका है। पुराने जमाने में  ग्रोस मिशेल प्रजाति का केला प्रचलित था जो बहुत स्वादिष्ट था, शैल्फ लाइफ भी ज्यादा थी और बड़ा भी होता था। पिछली सदी के आरंभ में यह प्रजाति एक बीमारी के कारण एकदम लुप्त हो गई। इसीलिए कृषि वैज्ञानिक केले की ऐसी प्रजाति विकसित करने कोशिश कर रहे हैं जिसे बीमारी नष्ट नहीं कर सके। इसलिए मजे ले लेकर खूब केले खाइए, ताकि आप अपनी औलादों को बतला तो सकें कि केवेंडिश केला कितना स्वादिष्ट लगता था।

सम्पर्क:वैभव हॉस्पीटल और रिसर्च इन्स्टिट्यूट, 7-बी-43, महावीर नगर तृतीय, कोटा राजस्थान मो.9860816360 Email-dropvermaji@gmail.com

सरकार से दरकार, करे विज्ञान प्रसार

 सरकार से दरकारकरे विज्ञान प्रसार

          - सुभाष लखेड़ा

 भारत में विज्ञान  का प्रचार- प्रसार सरकारी हाथों में है। यहाँ निजी क्षेत्र की भागेदारी नहीं के बराबर है। निजी क्षेत्र के कुछ उद्योग धंधों  में अनुसंधान के नाम पर कुछ  काम अवश्य होता है किन्तु उसका सम्बन्ध विज्ञान के प्रसार से नहीं है। उसका सम्बन्ध तो सिर्फ विज्ञान से पैसा कमाने तक सिमित रहता है। अब सवाल उठता है कि सरकारी क्षेत्र विज्ञान के प्रचार-प्रसार में कितना प्रभावी है? विशेषकर, आजादी के बाद इस क्षेत्र में कितना कार्य हुआ और उसका हमारे समाज की दशा और दिशा को सुधारने  में क्या भूमिका रही है?
इन सवालों का जवाब खोजने के लिए जरूरी है कि हम ऐसे सभी सरकारी विभागों के बारे में पहले संक्षेप में चर्चा कर लें जिनसे हम  विज्ञान  के प्रचार-प्रसार की अपेक्षा  रखते हैं।  इनमें सर्वोपरी स्थान भारत सरकार के  विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का है। बहरहाल, भारत  सरकार में यूँ तो  कोई  भी ऐसा मंत्रालय या विभाग नहीं है जिसका रिश्ता कहीं न कहीं  विज्ञान एवं  प्रौद्योगिकी और इसके प्रचार-प्रसार से न हो किन्तु  ऐसे मंत्रालयों की संख्या भी कम नहीं है जिनका सम्बन्ध  सीधे तौर पर  विज्ञान  के सृजन और उसके प्रचार-प्रसार से है। नवीन एवं अक्षय ऊर्जा मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय, मानव संसाधन विकास और दूरसंचार एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्कृत मंत्रालय, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय, भू- विज्ञान मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, खेल एवं युवा मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय औरसूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस सूची में शामिल कर सकते है। इसके अलावा परमाणु ऊर्जा विभाग एवं अंतरिक्ष विभाग  का सम्बन्ध भी विज्ञान के प्रसार से जुड़ा  है। इन सभी मंत्रालयों एवं विभागों के तहत अनेक ऐसी संस्थाएँ एवं प्रयोगशालाएँ हैं जिनका कार्य विज्ञान का सृजन एवं प्रसार करना है। उदहारण के लिए रक्षा मंत्रालय का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, कृषि मंत्रालय का  भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से सम्बन्धित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान  परिषद्, और भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा पोषित  वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान  परिषद् ऐसे प्रमुख वैज्ञानिक संगठन हैं जिनसे यह अपेक्षा की जाती है की वे सतत रूप से विज्ञान का प्रसार करते रहेंगे।
यद्यपि ऐसे सभी संगठन आजादी से पहले भी हमारे यहाँ किसी न किसी रूप में मौजूद थे किन्तु आजादी के बाद देश की जरूरतों  को  ध्यान  में रखते हुए इन सभी में व्यापक रद्दोबदल किये गए ताकि ये भारत को वैज्ञानक और प्रौद्योगिकी दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने में मददगार हो सकें। रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन की स्थापना  वर्ष 1958 में हुई।  सम्प्रति इसके अंतर्गत 52 प्रयोगशालाओं का एक नेटवर्क है, जो देश की रक्षा जरूरतों के मुताबिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े विभिन्न विषयों पर अनुसंधान एवं विकास के कार्यों  में लगी हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान  परिषद्  के अंतर्गत 97 संस्थान और 47 कृषि विश्वविद्यालय हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद् की स्थापना वर्ष 1949 में हुई और इस समय इसके तहत 30 प्रयोगशालाएँ और छह क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र हैं। जहाँ तक वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान  परिषद् का सवाल है, इसकी 39 प्रयोगशालाएँ एवं 50 फील्ड स्टेशन हैं। इसको विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त अनुसंधान तथा उसके परिणामों के उपयोग पर बल देते हुए अनुसंधान एवं विकास परियोजनाएँ शुरू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
 इन संस्थानों / संगठनों के अलावा  विज्ञान के प्रसार के लिए हमारी  सरकार ने अलग से भी कुछ संस्थान बनाए हैं जिनका कार्य प्रत्यक्ष रूप से विज्ञान का प्रसार करना तो नहीं है किन्तु इस कार्य में सहायता पहुँचना है।  हम सभी जानते हैं कि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आत्मसात किए बिना कोई भी भाषा राष्ट्र की सम्पूर्ण जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है. केंद्र सरकार ने इस बात को समझते हुए हिन्दी में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्द मुहैय्या करवाने के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन किया। आज आयोग द्वारा किए गए परिश्रम के  बदौलत हिन्दी में ऐसे शब्दों का विपुल भंडार उपलब्ध है। सभी जानते हैं कि इन शब्दों का उपयोग वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन में होना है, ताकि  विज्ञान का प्रसार आमआदमी तक किया जा सके। इतना ही नहीं, हमारे सरकारी वैज्ञानिक संगठनों ने कुछ ऐसे स्वतंत्र संस्थान भी बनाए हैं;  जिनका कार्य सिर्फ और सिर्फ विज्ञान का प्रसार करना है। ऐसी  प्रमुख संस्थाओं  में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्विज्ञान प्रसार, राष्ट्रीय  विज्ञान संचार एवं सूचना संसाधन संस्थान, राष्ट्रीय  विज्ञान संग्रहालय परिषद् और नेहरू तारामंडल जैसे संस्थान/ इकाइयाँ शामिल हैं।                        
बहरहाल, सारे ताम-झाम के बावजूद हमारे सरकारी क्षेत्र विज्ञान का उतना प्रसार नहीं कर पायें हैं जितने की उनसे अपेक्षा थी। सरकारी विभागों ने विज्ञान प्रसार के कार्य को उसी तरह से किया जैसे कोई सरकारी बाबू पानी अथवा बिजली के बिल जमा करता है। दरअसल, विज्ञान सृजन की तरह विज्ञान प्रसार का काम भी एक मिशन के रूप में लिया जाना चाहिए। हमारे सरकारी संस्थानों ने  विज्ञान प्रसार सम्बन्धी पुस्तकें छापी तो हैं; किन्तु वे छपने के बाद आम जनता को नहीं पहुँचाई गईं। सरकारी क्षेत्र में आज तक जो भी लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाएँ छप रही हैं, उनका वितरण किसी ऐसे अधिकारी के हाथ में होता है ;जिसका पत्रिका के प्रकाशन से कोई तालुक नहीं होता है। फलस्वरूप, पत्रिकाएँ छपने के बाद भी गोदामों में पड़ी रहती हैं। विभिन्न मंत्रालयों से जुड़े वैज्ञानिक संगठनों के तहत आने वाली सभी प्रयोगशालाएँ जो गृह पत्रिकाएँ छापती हैं, उनमें विज्ञान सम्बन्धी सामग्री बहुत कम होती है। जो थोड़ी बहुत विज्ञान  सम्बन्धी सामग्री उनमें मौजूद रहती है, अक्सर उसे देखकर यही लगता है कि लिखने वाले ने उसे शायद मजबूरी में या किसी दबाव में लिखा है। यदि कोई उत्कृष्ट विज्ञान  लेख उसमें छपा भी हो तो उसके लेखक को कहीं से कोई ऐसा प्रोत्साहन नहीं मिलता है,जिससे उसमें वह भावना बलवती हो जो किसी वैज्ञानिक को लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए प्रेरित करती है।
मैं अपने दीर्घकालिक अनुभव के आधार पर यह निसंकोच कह सकता हूँ कि हमारे देश में मौजूद सैकड़ों प्रयोगशालाओं में अपवाद स्वरूप एक या दो ऐसी प्रयोगशालाएँ हो सकती हैं, जहाँ इस बात पर गंभीरता से विचार होता हो कि विज्ञान का प्रसार कैसे किया जाए? घड़ी देख कर नौकरी करने वाले लोगों से इस तरह की आशा रखना व्यर्थ है। यूँ ऐसे लोग भी आपको इन वैज्ञानिकों के बीच मिल जाएँगे जो घड़ी देख कर नौकरी नहीं करते हैं ;किन्तु ऐसा वे विज्ञान के सृजन या प्रसार के लिए नहीं अपितु अपने प्रचार-प्रसार के लिए करते हैं ,ताकि वे समय से पहले प्रोन्नति पाते रहें। ऐसे लोग देश और समाज का अपेक्षाकृत अधिक नुकसान करते हैं। ये अक्सर समाज को गलत जानकारी परोसते हैं और आँकड़ों से खिलवाड़ कर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को गुमराह करते हैं और कई बार तो पूरे देश को गुमराह करते हैं।
राष्ट्र की प्रगति के लिए विज्ञान सृजन और उसका प्रसार, दोनों ही बेहद जरूरी हैं। हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरु जिस वैज्ञानिक चेतना की बात करते थे, वह तभी संभव है जब हम सरकारी और गैर सरकारी, दोनों स्तरों पर  विज्ञान की जानकारी उस आम आदमी तक पहुँचाए जिसके आँसू पोंछने का स्वप्न बापू ने देखा था और नेहरू ने सोचा था। नेहरु जी का विचार था कि विज्ञान  की मदद से हम गरीबी से निज़ात पा सकते हैं और एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जिसकी सोच आधुनिक और प्रगतिशील हो। यह खेद की बात है की हमारे वैज्ञानिक जिस भाषा में बात करते हैं, वह आम भारतीयों की भाषा नहीं होती; वे जिन मुद्दों पर परियोजनाएँ लेते हैं ,उनका सम्बन्ध भारतीय समस्याओं से नहीं होता और वे स्वदेश के बजाए विदेश के जर्नलों में अपने कार्यों का विवरण छपवाना चाहते हैं। वे सिर्फ एक ही बात दोहराते मिलेंगे, हमारे जर्नल अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं।
ऐसे लोग क्या यह बताने की कृपा करेंगे कि हमारे जर्नलों का स्तर कैसे बेहतर हो सकता है? अगर हमारे देश को तरक्की करनी है ,तो उसके लिए किसी विदेशी को नहीं अपितु हमें ही कठिन परिश्रम करना होगा। अगर हमें अपने जर्नलों को बेहतर बनाना है, तो हमें अपने अच्छे शोध पत्र और रिव्यू आलेख उनमें छापने होंगे। हम इस तथ्य से परिचित हैं कि विदेशी जर्नल महँगे होने के कारण हमारे विद्यालयों के पुस्तकालयों तक नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप, हमारे छात्र तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नवीनतम कार्यों से परिचित नहीं हो पाते हैं। सरकार को अब अविलम्ब ऐसे सभी कदम उठाने होंगे जो विज्ञान प्रसार के कार्य को वह गति प्रदान कर सकें जो वर्ष 2020 में न सही, वर्ष 2030 तक हमें एक विकसित राष्ट्र का दर्जा दिलाने में सहायक हो सकते हैं।
और अंत में यहाँ यह उल्लेख करना चाहूँगा की अगर हमें  विज्ञान  का प्रसार करना है तो उसमें हमारे मीडिया की भूमिका भी सकारात्मक होनी चाहिए। हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया विज्ञान के प्रसार के बजाए अंधविश्वासों पर आधारित सामग्री को परोसने में रुचि रखता है। वे वैज्ञानिकों के बजाय पोंगा पंडितों और कठमुल्लाओं को वरीयता देते हैं। निर्मल बाबा और तथाकथित राधे माँ की चर्चा से समाज और देश का कोई लाभ नहीं होने वाला है। हमारे मीडिया में जादू-टोने के विज्ञापन जिस बेशर्मी से छापे जाते हैं, उसे देखकर यह कतई महसूस नहीं होता है कि हम इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के तीसरे वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं!

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