सिमटा है सारा मुल्क ही कोठी या कार
में,
आशीष तो खड़ा हुआ कब से कतार में।
बाज़ार दे रहा यहाँ ऑफर नए-नए,
ख्वाबों की मंजिलें यहाँ मिलती उधार
में।
मिलते रहे हैं रोज ही यूँ तो हज़ार
लोग,
मिलता नहीं है आदमी लेकिन हजार में।
पल भर में मंजिलें यहाँ हसरत की चढ़
गए,
सँभले कहाँ है आदमी अक्सर उतार में।
जिसने ज़मी के वास्ते अपना लहू दिया,
गुमनाम कर दिये गए जश्ने-बहार में।
छू कर हवा गुज़र गई परछाई आपकी,
खुशबू तमाम घुल गई कैसी बयार में।
जज़्बात को निगल लिया मैसेज ने यहाँ,
आती कहाँ है ख्वाहिशें चिट्ठी या
तार में।
आशीष क्या अजीब है मेरे नगर के लोग,
अम्नो-अमा को ढूँढ़ते खँजर की धार
में।
२. कश्तियाँ कागज की
लफ्ज़ आए होठ तक हम बोलने से रह गए,
इक अहम रिश्ते को हम यूँ जोडऩे से
रह गए।
अब शिकारी आ गया बाज़ार के ऑफर लिये,
फिर परिन्दे अपने पर को खोलने से रह
गए।
हर कहीं देखी निगाहें आँसुओं से
तरबतर,
खुद के आँसू इसलिए हम पोंछने से रह
गए।
बारिशें तो थीं मगर बस्ते का भारी
बोझ था,
कश्तियाँ कागज की बच्चे छोड़ने से रह
गए।
बेरहम दुनिया के जुल्मों की हदें ना
पूछिए,
शाख पर वे फल बचे जो तोड़ने से रह
गए।
आज फिर देखी किताबें-जि़न्दगी आशीष
तो,
पृष्ठ कुछ ऐसे मिले जो मोड़ने से रह
गए।

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