ब्रजवासी महिलाएँ
कब तक पहुँचेगी परिवर्तन की किरण
- देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
इक्कीसवीं सदी की कल्पना वाले आजाद
भारत में महिला सशक्तीकरण और उनके उत्थान के लिये चल रही तमाम योजनाओं के बावजूद
उत्तर प्रदेश मूल की ब्रजवासी जाति की महिलाएँ समाज में उपेक्षित है ही साथ में
औरतों व लड़कियों की खरीद-फरोख्त की परम्परा भी इस जाति में बदस्तूर जारी है। इस
कारण नाच-गाकर लोगो के मनोरंजन का साधन बनी ब्रजवासी महिलाएँ अशिक्षा व रूढ़वादिता
की अँधेरी सुरंग में जागरूकता के अभाव के कारण घुट-घुट कर जिन्दा रहने को विवश
हैं। उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे भारत में इस जाति की बेबश महिलाओं की दयनीय
स्थिति महिला उत्थान एवं महिला सशक्तीकरण के दावों की पोल खोल रही है। हिन्दुस्तान
के पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को पुरूषों के समान बराबर का दर्जा दिलाने के
लिये सरकारी तौर पर तमाम कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं साथ ही साथ अनेक सामाजिक,
स्वैच्छिक व महिला संगठन प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को
अधिकार और सम्मान दिलाने के लिये संघर्ष काम कर रहे हैं;लेकिन
इनके क्रियाकलापों को अगर यथार्थ के आइने में देखा जाए तो इनके द्वारा किये जा रहे
तमाम प्रयास ब्रजवासी जाति की महिलाओं के लिये बेमानी और खोखले होकर रह गये हैं।
परिवार को आजीविका चलने में अहम व महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी इस जाति की
महिलाओं को 'दोयम दर्जा’ मिला ही है
साथ में पति की प्रताड़ना और अत्याचार तथा सभ्य समाज की गालियाँ सुनना इनके किस्मत
की नियति बन गई है। ब्रजवासी जाति और समाज से संबन्धित की गई खोजबीन के बाद जो
कहानी उभरकर सामने आई है उसमें महिलाओं की दशा काफी दयनीय, निरीह
एवं अबला नारी वाली नजर आती है। मजे की बात तो यह है कि इनकी स्थिति में परिवर्तन
की किरण भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है। प्राचीन परम्परा को अपने भाग्य से
जोड़कर जीवन यापन करने वाली ब्रजवासी जाति की महिलाएँ 'कठपुतली’बनी पुरूषों की अँगुलियों के इशारे पर नाचने को विवश है।
मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गोकुल
(ब्रज) क्षेत्र के निवासी होने के कारण कालान्तर में 'ग्वाल’ जाति परिवर्तन के कई दौरों से गुजरने के बाद
यह ग्वालजाति पूर्वजों की मातृभूमि के नाम पर 'ब्रजवासी'
जाति में तब्दील हो गई। यह 'ब्रजवासी ग्वाल’
प्राचीनकाल से ही नाच-गाना के द्वारा उस समय जमीदारों और धनवान
परिवारों में होने वाले मांगलिक कार्यों और उत्सवों में महिलाएँ नाच-गाकर लोगों का
मनोरंजन किया करती थीं। बदलते परिवेश के साथ ही गरीब होने के कारण ब्रजवासियों ने
नाच-गाना को आजीविका से जोड़कर वर्षो पूर्व समाज में अन्य लोगों का मनोरंजन करना
शुरू कर दिया था। ब्रिटिश शासन काल में इनका विखराव शुरू हुआ तो यह लोग गोकुल से
अपना-अपना परिवार लेकर अलग-अलग स्थानों पर 'ब्रजवासी जाति’
के नाम पर आबाद होते चले गये। चूँकि जीविका का कोई अन्य साधन नहीं
था;इसलिए इनकी महिलाओं ने नाच-गाने को पेशा बनाकर कर लोगो का
मनोरंजन करने लगी। इस तरह होने वाली आमदनी से परिवार को जीवन-पोषण का जरिया बन
गया। वर्तमान में यह स्थिति हो गई है कि प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहाँ
इस जाति के परिवार न रहते हों और इस जाति की महिलाएँ आज भी नाच-गाकर परिवार का
भरण-पोषण कर रही हैं। गाँवों में निर्धनता और अभावों की जिन्दगी गुजारने के बाद भी
ब्रजवासी समाज 'अनैतिकता’ के दलदल में धँसने
से बचा हुआ है; लेकिन आधुनिक युग में आवागमन और संचार के
साधनों के बढ़ने के साथ गाँव और शहर में जब धीरे-धीरे नाटक एवं नौटंकी का क्रेज कम
होने लगा तब जीविका की तलाश में गाँव की ब्रजवासी महिलाओं ने देश के महानगरों की
तरफ का रुख किया और वहाँ पर चलने वाले बार
में डांसर का काम करने लगी हैं। महानगरों की चकाचौंध का असर उनपर भी पड़ा और
शार्टकट से अमीर बनने के लिए अब ब्रजवासी महिलाएँ अब अपने समाज की वर्जनाओं को
तोडऩे में परहेज नहीं करती हैं।
हिन्दू धर्म के सभी देवी देवताओं की
पूजा-अर्जना करना तथा हिन्दुओं के रीति-रिवाज व त्योहारों को मानने वाले ब्रजवासी
समाज में लड़कों की अपेक्षा लड़की के जन्म पर आज भी ज्यादा खुशी मनाई जाती है; किन्तु लड़के को खानदान में बाप का नाम आगे बढ़ाने वाले 'घर के चिराग’ के रूप में मान्यता मिली हुई है।
ब्रजवासियों को अपनी बोलचाल की एक अलग भाषा 'ग्वाली’ (फारसी) है जिसको केवल इसी जाति
के लोग बोल और समझ सकते हैं ।इसका इन्हें मुसीबत के समय काफी फायदा भी मिलता है।
ब्रजवासी समाज में प्रचलित परम्परा के अनुसार वह अपने बच्चों का बाल विवाह तो नहीं
करते हैं , वरन् इस जाति के लोग अमूमन पन्द्रह वर्ष की आयु
पूर्ण करने से पहले ही लड़के-लड़की का विवाह रस्मोरिवाज से कर देते हैं। ब्रजवासी
जाति में दो प्रकार से शादियाँ धर्म विवाह एवं संविदा (कान्ट्रेक्ट) विवाह प्रचलित
है। धर्म विवाह में दहेज देने की प्रथा है और इस रीति से हुई शादी के बाद लड़की
नाच-गाने का पेशा अपनाने के बजाय घर-गृहस्थी का कार्य करती हैं। अलबत्ता इनसे होने
वाली औलादों को भविष्य में नाच-गाना का पेशा अपनाने की पूरी आजादी रहती है। इस
रीति के विपरीत संविदा विवाह में वर पक्ष के लोग प्रथा के अनुसार तयसुदा धन लड़की
के परिजनों को देकर विवाह की रस्म पूरी की जाती है। धर्म विवाह में जहाँ छुटौती
(तलाक) की गुजांइश काफी कम होती है वही संविदा रीति से किए गए विवाह में पुरुष को
तलाक देने की छूट होती है। पति-पत्नी के बीच विवाद होने की स्थिति में छुटौती
(तलाक) करने पर पति द्वारा शादी से पूर्व पत्नी के परिजनों को दी गई रकम व शादी
में लिया गया दहेज पत्नी को वापस करना पड़ता है। किन्तु इस मध्य हुए बच्चे पिता के
संरक्षण में दे दिए जाते हैं। यह कार्य बिना किसी लिखा-पढ़ी के पंचायत द्वारा किया
जाता है। तलाकसुदा महिला से पुनर्विवाह करने वाला व्यक्ति उस महिला की तय की गई 'रकम’ उसके परिवारजनों को अदा करके खानापूर्ति के तौर
पर साधारण समारोह करके ब्याह कर अपने घर लाता है। इस तरह खरीद कर लायी गई औरत को
ताजिन्दगी नाच-गाने का पेशा करना पड़ता है और इसके द्वारा कमाई गई रकम से वह
व्यक्ति उसके परिजनों को दी गई रकम की भरपाई करने के साथ ही परिवार का खर्चा भी
चलता है। इस जाति की सबसे खास बात यह है कि कुँवारी लड़कियों से नाच-गाने का पेशा
नही कराया जाता है और न ही उनको नाच-गाना की तालीम दिलाई जाती है। केवल संविदा
रीति से ब्याही गई किशोर लड़कियाँ अपनी ससुराल में ही तालीम हासिल कर नाच-गाना का
पेशा अपनाती हैं।
आजाद भारत में ब्रजवासी समाज के
भीतर औरतों की खरीद-फरोख्त की प्राचीन परम्परा को अगर नज़र अन्दाज़ कर दिया जाए तो
भी इस समाज में और भी तमाम कुरीतियाँ मौजूद हैं जिसके कारण महिलाओं की स्थिति काफी
दयनीय व भयावह बनी हुई है। लड़कियों की किशोरावस्था में ही शादी हो जाने के कारण
वह कम उम्र में ही माँ भी बन जाती हैं, इसके
कारण वह कुपोषण का शिकार बनकर अन्य तमाम बीमारियों से ताउम्र ग्रस्त रहती हैं।
परम्पराओं और रूढ़ियों के बीच पली बढ़ी इस समाज की अधिकतर लड़कियाँ व महिलाएँ
अशिक्षित 'अंगूठाछाप’ हैं। इस कारण वे
न जागरूक हैं और न ही अपने अधिकारों से परिचित हैं और न ही वे महिला संरक्षण के
कानूनों को जानती हैं। परिणामस्वरूप वे आज भी उपेक्षित और शोषित की जा रही हैं।
जबकि अशिक्षा के चलते पुरुष शराब आदि मादक पदार्थो के चंगुल में फँसे हुए हैं। इस
कारण पति-पत्नी में मारपीट, पारिवारिक कलह एवं अन्य
लड़ाई-झगड़े करना इन ब्रजवासियों में रोजमर्रा की जिन्दगी में शामिल हो गया है।
पेट की आग को शान्त करने के लिए दूसरों का मनोरंजन कर पैसे कमाने की होड़ में
शामिल ब्रजवासी समाज के परिवार बच्चों की परवरिश वाजिब ढग़ से नही कर पाते हैं।
इसके कारण ब्रजवासियों के बच्चे बाल उम्र में पढऩे-लिखने के बजाय बचपन से ही
कुसंगतियों में फँसकर अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं। बचपन से ही पान, बीड़ी, सिगरेट, शराब पीने की
आदत पड़ जाने से तरह-तरह की बीमारियाँ इन्हें पूरी जिन्दगी परेशान करती रहती हैं।
कमोवेश यही स्थिति लड़कियों की भी रहती है। शासन, प्रशासन व
समाज से उपेक्षा पाने के कारण सरकार द्वारा बाल विकास व उत्थान के लिए चलाये जा
रहे तमाम योजनाओं एवं कार्यक्रमों का लाभ ब्रजवासियों के बच्चों को नही मिल रहा है; जिसके कारण यह बच्चे नाच-गाने के उसी माहौल में बचपन से रम जाते हैं और
बढ़ती उम्र के साथ पुश्तैनी धन्धा अपनाकर आजीविका चलाने लगते है। नाच-गाने का पुश्तैनी
धंधा अपनाये ब्रजवासी औरतों के लिए इसे उनके भाग्य की विडम्बना ही कही जायेगी कि
मांगलिक अवसर हो या फिर नाटक-नौटंकी अथवा डांस पार्टियाँ या अन्य कोई सुखद अवसर ,सभी में इन औरतों द्वारा दु:खों को बनावटी मुस्कान के पीछे छिपाकर
नाच-गाना आदि के कार्यक्रम पेश किये जाते हैं, और इन
कार्यक्रमों में शामिल होने वाले सभ्य समाज के 'कुलीन
व्यक्ति’ इनसे बिजली की चकाचौंध रोशनी में भरपूर मनोरंजन
करते हैं। मजे की बात तो यह है कि समाज के इन्ही 'कुलीन
व्यक्तियों’ ने ही ब्रजवासी महिलाओं को 'बार डांसर' और 'तवायफ’आदि जैसे हिकारत वाले अपमानजनक नाम दिए हैं। जिसके कारण यह महिलाएँ आज भी 'सभ्य समाज’में गिरी दृष्टि से देखी जाती हैं। इसके
विपरीत सभ्य कहे जाने वाले समाज को यथार्थ और हकीकत के आइने में देखा जाये तो उच्च
जातियों की लड़कियाँ एवं महिलाएँ स्टेज शो अथवा आर्केस्ट्रा ग्रुपों के माध्यम से
जो डांस व गानों के कार्यक्रम पेश करती हैं उनमें काम करने वाली लड़कियाँ इन
ब्रजवासी औरतों की अपेक्षाकृत ज्यादा ही खुला प्रदर्शन कर वाहवाही लूटती है,
इनको 'कलाकार’जैसे शब्द
से नवाजा गया है। बातचीत में समाज द्वारा स्थापित किए गए दोहरे मापदण्ड पर आक्रोश
ज़ाहिर करते श्रीमती श्रद्धादेवी कहती हैं कि हम ब्रजवासिनी एक सीमित दायरे में
रहकर लोगों का दूर से नाच-गाकर अपनी कला का प्रदर्शन करके मनोरंजन करते हैं।
किन्तु कुलीन महिला कलाकारों ने तो सभी सीमाएँ तोड़ देती हैं और फिल्मी कलाकारों
की दुनिया तो हम लोगों के समाज से ज्यादा काली है। फिर यह सम्य कहा जाने वाला समाज
हम लोगो के साथ ऐसा दोहरा बर्ताव क्यों कर रहा है? इस
कटाक्षपूर्ण अनुत्तरित प्रश्नों पर महिला उत्थान की दिशा में काम करने वाली
सामाजिक संस्थाओं एवं महिला संगठनों को एक बार फिर गहराई से मनन और विचार करके
सार्थक प्रयास भी करने होगें तभी ब्रजवासी जाति की दबी-कुचली महिलाओं को उनका हक,
न्याय एवं समाज में इज्जत और सम्मान के साथ जीने का मौका मिल
पायेगा। बहरहाल दीन दुनिया की तरक्की से बेखबर और समाज से उपेक्षित रहते हुए भी
भाग्य की नियति मानकर जीवन यापन करने वाली ब्रजवासी परिवार की महिलाएँ समाज की
गालियाँ, पति की प्रताडऩाऐं खुशी-खुशी सहन करती ही हैं और
अपने गम और अत्याचार को भुलाकर कठपुतली की तरह पुरूषों की अँगुलियों के इशारे पर
नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करके अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहीं हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और
टिप्पणीकार है)
सम्पर्क:
हिन्दुस्तान ऑफिस, नगर पालिका
कॉम्प्लेक्स निकट सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, पलिया कला,
जिला- खिरी (उ.प्र) मो.०९४१५१६६१०३,
Email- dpmishra7@gmail.com
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1 comment:
श्रीमान जी मुझे इसका इतिहास चाहिए
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