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Dec 14, 2013

क्यों गाते हैं पक्षी?

क्यों गाते हैं

पक्षी?

-डॉ.अरविन्द गुप्ते

सुबह-सुबह होने वाला पक्षियों का कलरव किसे अच्छा नहीं लगता? कई पक्षियों के गीत मनुष्य को हमेशा से लुभाते आए हैं। भारत में गाने वाले पक्षियों में सबसे अधिक सराहना शायद कोयल को मिली है। कोयल से भी मधुर गाने वाले पक्षी हमारे देश में हैं, किन्तु पूरे देश में पाए जाने और मनुष्य के बहुत करीब रहने के कारण कोयल ने पहला स्थान पा लिया है। पक्षी यह मधुर गाना क्यों गाते हैं? अपने स्वयं के मनोरंजन के लिए या औरों को सुनाने के लिए?
सभी जंतुओं को एक-दूसरे से संवाद या संप्रेषण करने की ज़रूरत होती है और इसके लिए वे अलग-अलग तरीके अपनाते हैं। कई जंतु इशारों से संवाद करते हैं तो कई ध्वनि पैदा करके।
रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं में ध्वनि पैदा करने की व्यवस्था सबसे अधिक विकसित होती है, और इनमें भी सबसे अधिक है पक्षियों और स्तनधारियों में। संसार के सभी जंतुओं की तुलना में ध्वनि से संवाद करने की (यानी बोलने की) क्षमता मनुष्य में सबसे अधिक विकसित होती है। शायद मनुष्य के बाद ध्वनि की विविधता में अन्य स्तनधारियों की बजाय पक्षियों का ही नंबर आता है।
इनकी आवाज़ें दो प्रकार की होती है। एक तो वह जिसे हम 'गानाकहते हैं। आम तौर पर यह ध्वनि विशिष्ट ऋतु में (यानी उस पक्षी के प्रजनन काल में) और अधिकतर नर के द्वारा पैदा की जाती है। उसी प्रजाति के अन्य नर के लिए किसी नर के गायन का मतलब होता है 'मेरे इलाके से दूर रहना’, जबकि वहाँ से गुज़रने वाली मादा के लिए इसका मतलब होता है- 'ज़रूरत है, ज़रूरत है एक श्रीमती की। कुछ प्रजातियों में नर का गायन केवल दूसरे नरों को चेतावनी देने के लिए होता है ,तो अन्य कुछ प्रजातियों में केवल मादा को आकर्षित करने के लिए। किन्तु अधिकतर प्रजातियों में यह दोनों काम करता है।
मान लीजिए कि कोई नर दहियल (मैगपाय रॉबिन) पेड़ पर बैठ कर गा रहा है तो वह एक साथ निम्नलिखित घोषणाएँ कर रहा होता है 'मैं दहियल हूँ; मैं एक नर दहियल हूँ; मैं फलाना नर दहियल हूँ; मैं अपने क्षेत्र में हूँ; इस क्षेत्र में कोई अन्य नर दहियल आया तो मैं उसका सामना करूँगा; और मुझे एक मादा की ज़रूरत है।
आम तौर पर 'गाने’  का मतलब होता है ऐसी आवाज़ जिसमें लय और ताल हो और जो मनुष्य को मधुर लगे। इस दृष्टि से देखा जाए तो कुछ ही पक्षियों की आवाज़ को गाना कहा जा सकता है। किन्तु पक्षियों और अन्य जंतुओं के संदर्भ में गाने का आशय उस आवाज़ से है जो एक नर दूसरे नरों को चेतावनी देने और मादाओं को आकर्षित करने के लिए पैदा करता है। नर मोर और नर कौए द्वारा की गई कर्कश आवाज़ और नर उल्लू की हूक को मनुष्य भले ही गाना न माने, किन्तु जीव विज्ञान की दृष्टि से यह भी गाना ही है। इसी प्रकार, झिंगुरों की चीं-चीं और मेंढकों की टर्र-टर्र भी वैज्ञानिक दृष्टि से 'गाने’  हैं क्योंकि उनका उद्देश्य मादाओं को आकर्षित करना होता है।
हम अक्सर कहते हैं, 'कोयल गा रही है। किंतु वास्तव में वह गा रही नहीं, बल्कि गा रहा होता है; क्योंकि केवल नर कोयल ही गाता है, मादा तो सिर्फ किक्-किक् की आवाज़ ही कर पाती है। दूसरी गौरतलब बात यह है कि नर कोयल पूरा काला होता है और मादा चितकबरी। इसलिए वह आसानी से दिखाई नहीं देती। नर केवल प्रजनन काल में ही, यानी फरवरी से मई तक, गाता है।
पक्षियों की दूसरे प्रकार की आवाज़ के कई उद्देश्य होते हैं जो गाने के उद्देश्य से अलग होते हैं। इनमें एक-दूसरे को खतरे की चेतावनी देना, बच्चों को खतरे की चेतावनी देना, भोजन मिल जाने पर बच्चों को बुलाना, चोट लगने पर कराहना, अपनी प्रजाति के सदस्यों को इकट्ठा करना आदि कई बातें शामिल हैं। हर प्रजाति में हर काम के लिए अलग-अलग ध्वनि होती है।
अंग्रेज़ी में गाने को सॉग और अन्य ध्वनियों को कॉल (पुकार) कहते हैं।

गायन
गाने की अवधि के अलावा गाने वाले की स्थिति भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती है ताकि उसकी आवाज़ अधिक से अधिक दूरी तक पहुँच सके। ऐसा करने पर इनकी आवाज़ उनकी प्रजाति के अधिक से अधिक नरों तक और अधिक से अधिक मादाओं तक पहुँचती है। इसके लिए कई प्रजातियों के नर किसी ऊचे पेड़ की चोटी या भवन की छत पर बैठ कर गाते हैं। जो पक्षी ऐसे पर्यावरण में रहते हैं जहाँ ऊँचे पेड़ न हों या जो ज़मीन पर रहते हैं, वे हवा में उड़ान भर कर अपनी तान सुनाते हैं, जैसे चंडूल (लार्क) नामक पक्षी। जो पक्षी रात के समय सक्रिय होते हैं (जैसे उल्लू) या घनी झाड़ियों में रहते हैं उनकी आवाज़ तेज़ होती है।
ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले लायर बर्ड नामक पक्षी के नर घनी झाड़ियों के कारण एक-दूसरे को 3-4 मीटर की दूरी पर भी देख नहीं पाते, किंतु इनकी आवाज़ इतनी तेज़ होती है कि वे एक-दूसरे से लगभग एक किलोमीटर की दूरी रखते हैं। ग्रेट टिट प्रजाति में पाया गया है कि घने जंगलों में रहने वाले नरों की आवाज़ खुले मैदानों में रहने वाले नरों से अधिक तेज़ होती है। यहाँ तक कि शहरी क्षेत्र में रहने वाले ग्रेट टिट नरों की आवाज़ भी अधिक तेज़ पाई गई है जो कारों के शोर के बीच सुनाई पड़ जाती है।
गायन की अवधि की लंबाई और स्वरों की विविधता से फर्क पड़ता है। अधिक अच्छी तरह गाने वाला नर दूसरे नरों को अधिक डरा सकता है और अधिक मादाओं को आकर्षित कर सकता है। चूँकि पक्षियों के प्रजनन काल का समय निश्चित होता है, इस अवधि में नर अधिक समय तक गाते हैं ; क्योंकि उन्हें अपने क्षेत्र की घोषणा के साथ-साथ मादा को आकर्षित भी करना होता है। शेष समय में नर केवल क्षेत्र की घोषणा करने के लिए ही गाते हैं।
यूरोप में पाए जाने वाले फुटकी (सेज वार्बलर) नामक प्रजाति के पक्षी ठंड के मौसम में अफ्रीका चले जाते हैं और वसंत ऋतु में यूरोप लौट आते हैं। इनके नर पक्षी पहले यूरोप पहुँच कर अपना-अपना क्षेत्र निर्धारित कर लेते हैं और फिर दूसरे नरों को खदेडऩे के साथ दिन-रात गाते रहते हैं। अत: इनका गाना क्षेत्र की घोषणा करने के लिए न होकर केवल मादाओं को आकर्षित करने के लिए होता है। दूसरे नरों को तो वे पीछा करके खदेड़ते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि ये पक्षी रात में भी क्यों गाते हैं? इसका कारण यह है कि प्रवासी पक्षी दिन के साथ रात में भी सफर करते हैं। क्या पता कोई मादा अफ्रीका से रात में आ रही हो। अत: अपने को तो दिन-रात गाते रहना चाहिए ताकि कोई न कोई मादा तो अपनी पुकार सुन ही ले। मज़ेदार बात यह है कि जैसे ही किसी नर का गाना सुन कर मादा उसके साथ संसार बसाने आ जाती है, उसका गाना अचानक बंद हो जाता है।
ग्रेट टिट नामक पक्षी गाना शून्य डिग्री करने से पहले ही जोड़ी बना लेते हैं। अत: इस प्रजाति के नर का गाना केवल अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिए होता है। किंतु यदि किसी जोड़ी की मादा मर जाए या अन्यत्र चली जाए तो वही नर छह गुना जोश के साथ गाना शून्य डिग्री कर देता है ;ताकि मादाओं को पता चल जाए कि इस विरही को एक संगिनी की आवश्यकता है।

भोर के समय गायन क्यों?
अधिकतर पक्षी पौ फटने से पहले जाग जाते हैं और गाना शून्य डिग्री कर देते हैं। उस समय अंधेरा होने के कारण उनका भोजन, यानी कीड़े, सक्रिय नहीं होते। अत: उजाला होने से पहले के समय का उपयोग वे अपने क्षेत्र की घोषणा करने के लिए कर लेते हैं। अँधेरे में दूसरा नर गाने वाले को देख नहीं सकता;किन्तु सुन सकता है और गाने वाले के क्षेत्र में घुसने की गुस्ताखी नहीं करता। उजाला होने पर गाने वाला और सुनने वाला दोनों अपना-अपना भोजन जुटाने में व्यस्त हो जाते हैं। दूसरा कारक यह होता है कि भोर के समय अन्य शोर नहीं होता या बहुत कम होता है और गाने की आवाज़ दूर तक जा सकती है। तीसरे, इस समय हवा भी नहीं चलती, या चलती भी है तो हल्की होती है। यह पाया गया है कि इन सब कारकों के चलते पक्षियों का भोर का गाना दोपहर की तुलना में बीस गुना अधिक स्पष्टता से सुनाई देता है।
इसी तरह शाम का गायन या सांध्यगान भी होता है किंतु आम तौर पर इसकी अवधि प्रभात गान से कम होती है।
नर पक्षी को गाने में काफी ऊर्जा लगानी पड़ती है- लगभग उतनी ही जितनी कि उसे उडऩे में खर्च करनी पड़ती है। किंतु चूँकि सवाल अपने क्षेत्र की रक्षा करने का और मादा को आकर्षित करने का होता है, नर पक्षी इस बात की परवाह नहीं करते कि उन्हें गाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है। यलो हैमर नामक प्रजाति का नर एक दिन में लगभग 3000 बार तान छेड़ता है यानी एक मौसम में पाँच लाख बार!
ज़ाहिर है कि हर पक्षी प्रजाति के गाने की आवाज़ दूसरी प्रजाति की आवाज़ से भिन्न होती है। इसके आधार पर उस प्रजाति के अन्य नर और मादाएँ गाने वाले को पहचानते हैं। यह भी पाया गया है कि कम से कम कुछ प्रजातियों में उसी प्रजाति के नरों की आवाज़ भी एक-दूसरे से भिन्न होती है। यदि किसी स्थान पर एक ही प्रजाति के तीन नर पक्षी रहते हैं तो वे एक-दूसरे की आवाज़ पहचानने लगते हैं और अपने-अपने क्षेत्र में शांतिपूर्वक रहते हैं। किंतु यदि इनमें से किसी भी नर के क्षेत्र में चौथे बाहरी नर की आवाज़ का टेप बजाया जाए तो वह तुरंत उत्तेजित हो जाता है और घुसपैठिए की तलाश करने लगता है।
कई प्रजातियों के नरों का गाना बहुत संक्षिप्त होता है, जबकि अन्य प्रजातियों के नर लंबी-लंबी तानें छेड़ते हैं। एक ही प्रजाति के नरों में गाने की अवधि और तीव्रता भी भिन्न-भिन्न होती है।
सवाल यह उठता है कि यदि गाने का उद्देश्य समान है 'अपने क्षेत्र की रक्षा करना और मादा को आकर्षित करनातो यह भिन्नता क्यों? इसका जवाब विकास की प्रक्रिया के दौरान लैंगिक चयन से जुड़ा है। यह देखा गया है कि जो नर अधिक तेज़ आवाज़ में गाते हैं वे अपने क्षेत्र की रक्षा अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं और उनकी ओर मादाएँ भी जल्दी आकर्षित होती हैं।

युगल गीत
पक्षियों की कई प्रजातियों के नर और मादा मिल कर दो गाने गाते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली लटोरे (श्राइक) की कुछ प्रजातियों के नर और मादा के दो गाने में इतना अच्छा तालमेल होता है कि यह पहचानना कठिन होता है कि यह आवाज़ एक पक्षी की न होकर दो पक्षियों की है। हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में हुए शोध से पता चला है कि पिद्दा (बुशचैट) नामक प्रजाति की मादा भी कई परिस्थितियों में, जैसे घोंसला बनाते समय, अंडे सेते समय या घुसपैठियों को चेतावनी देने के लिए गाती हैं। किंतु इनका गाना नर पक्षियों की तुलना में काफी संक्षिप्त होता है।

पुकार
पुकार के कई उद्देश्य होते हैं। अपने साथियों को खतरे की सूचना देना एक प्रमुख उद्देश्य होता है। खतरा आसमान में है (उडऩे वाला शिकारी पक्षी) या ज़मीन पर (सांप या बिल्ली या अन्य कोई खतरनाक जंतु) यह दर्शाने के लिए अलग-अलग ध्वनियाँ होती हैं। जब कोई कौआ दुर्घटनावश मर जाता है तब कोई अन्य कौआ एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि करता है, जिसे सुन कर आस-पास के सब कौए वहाँ पहुँच जाते हैं। इसके बाद वे कुछ अलग प्रकार की ध्वनि करते हैं जो शोकसभा में दिए जा रहे भाषण की तरह लगती हैं। किसी मुर्गी को अपने नवजात चूज़ों के साथ भोजन ढूँढ़ते देखना भी एक रोचक अनुभव होता है। मुर्गी लगातार एक ध्वनि करती रहती है मानों वह बच्चों से कह रही हो कि मेरे पीछे-पीछे आओ। जब उसे भोजन मिल जाता है तब वह एक अलग प्रकार की ध्वनि करती है जिसे सुन कर सारे चूज़े दौड़ कर वहाँ पहुँच जाते हैं।
जब आकाश में बाज़ के समान कोई खतरा दिखाई देता है तब मुर्गी अलग प्रकार की चेतावनी ध्वनि करती है जिसे सुन कर चूज़े दौड़ कर इधर-उधर छुप जाते हैं। बिल्ली या लोमड़ी या कुत्ते के रूप में ज़मीनी खतरा होने पर मुर्गी अलग आवाज़ में पुकार करती है। ऐसे समय चूज़े बुत बनकर अपने स्थान पर ठिठक जाते हैं।
इसी प्रकार हर प्रजाति में झुंड से अलग हो जाने, अपने जोड़ीदार से अलग हो जाने, घायल हो जाने, चूज़ों द्वारा माता या पिता से भोजन माँगने, भोजन माँगते चूज़ों को खतरे की चेतावनी देकर चुप कराने आदि के लिए अलग-अलग ध्वनियाँ होती हैं। मज़ेदार बात यह है कि ज़मीनी खतरे की चेतावनी देने के लिए लगभग सारी प्रजातियाँ एक-सी ध्वनि करती हैं ताकि आस-पास के सब पक्षी सावधान हो जाएँ।


नकलची पक्षी
कुछ पक्षी पैदा होते ही अन्य पक्षियों की, जंतुओं की और निर्जीव चीज़ों की आवाज़ों की नकल करने लगते हैं। भारत में पाए जाने वाले भुजंगा (ड्रैंगो) और लटोरा (श्राइक) पक्षी बहुत अच्छे नकलची होते हैं। ये अन्य पक्षियों की आवाज़ के अलावा अन्य जंतुओं और निर्जीव वस्तुओं (जैसे कार का हॉर्न) की भी नकल कर लेते हैं। एक लटोरा तो कुत्ते के पिल्ले की आवाज़ की नकल करते हुए पाया गया था। घने जंगल में पिल्ले की आवाज़ सुन कर लोग चौंक पड़ते थे। इसी प्रकार, इंग्लैंड में पाए जाने वाले स्टरलिंग नामक पक्षी ने रेफरी की सीटी की आवाज़ की नकल करके फुटबॉल मैच में खलल डालना शून्य डिग्री कर दिया था। भारत में पाई जाने वाली पहाड़ी मैना मनुष्य के बोलने की इतनी अच्छी नकल कर लेती है कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। (स्रोत फीचर्स)

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