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Dec 14, 2013

चिंतन

  
      तलाश अपनी जड़ों की...

               - अनुपम मिश्र

आधुनिक दौर में, अपनी जड़ों से कट कर हमने जो विकास किया, उसके बुरे नतीजे तो चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। स्थूल अर्थों में भी और सूक्ष्म अर्थों में भी। ढका हुआ भूजल, खुला बहता नदियों, तालाबों का पानी और समुद्र तक बुरी तरह से गंदा हो चुका है। विशाल समुद्रों में हमारी नई सभ्यता ने इतना कचरा फेंका है कि अब अंतरिक्ष से टोह लेने वाले कैमरों ने अमेरिका के नक्शे बराबर प्लास्टिक के कचरे के एक बड़े ढेर के चित्र लिये हैं। लेकिन अभी इस स्थूल और सूक्ष्म संकेतों को यहीं छोड़ वापस उदारीकरण की तरफ लौटें। कुछ शब्द ऐसे हैं कि वे हमारा पीछा ही नहीं छोड़ते। क्या-क्या नहीं किया हमने उन शब्दों से पीछा छुड़ाने के लिए। तब तो हम गुलाम थे। फिर भी हमने गुलामी की जंजीरों को तोडऩे की कोशिश के साथ ही अपने को दुनिया की चालू परिभाषा के हिसाब से आधुनिक बनाने का भी रास्ता पकडऩे के लिए परिश्रम शुरू कर दिया था। आजाद होने के बाद तो इस कोशिश में हमने पंख ही लगा दिए थे। हमने पंख खोले पर शायद आँखें  मूँद लीं। हम उड़ चले तेजी से, पर हमने दिशा नहीं देखी।
अब एक लम्बी उड़ान शायद पूरी हो चली है और हमें वे सब शब्द याद आने लगे हैं, जिनसे हम पीछा छुड़ा कर उड़ चले थे। अभी हम जमीन पर उतरे भी नहीं हैं लेकिन हम तड़पने लगे हैं, अपनी जड़ों को तलाशने।
यों जड़ें तलाशना, जड़ों की याद अनायास आना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इस प्रयास और याद से पहले हमें इससे मिलते-जुलते एक शब्द की तरफ भी कुछ ध्यान देना होगा। यह शब्द है- जड़ता। जड़ों की तरफ मुडऩे से पहले हमें अपनी जड़ता की तरफ भी देखना होगा, झाँकना होगा। यह जड़ता आधुनिक है। इसकी झाँकी इतनी मोहक है कि इसका वजन ढोना भी हमें सरल लगने लगता है। बजाय इसे उतार फेंकने के, हम इसे और ज्यादा लाद लेते हैं अपने ऊपर।
जड़ता हटे थोड़ी भी तो पता चले कि बात सिर्फ जड़ों की नहीं है। शायद तने की है, डगालों, शाखाओं, पत्तियों तक की है। हमारा कुल जीवन, समाज यदि एक विशाल वृक्ष होता, उसका एक भाग होता, तो जड़ों से कटने का सवाल भी कहाँ उठता। अपनी जड़ों से कटे तने, शाखाएँ, पत्तियाँ दो-चार दिनों में मुरझाने लगती हैं। पर हमारा आधुनिक विकसित होता जा रहा समाज तो अपनी जड़ों से कट कर एक दौर में पहले से भी ज्यादा हरा हो चला है- कम से कम उसे तो ऐसा लगता है। और फिर वह अपने इस नए हरेपन पर इतना ज्यादा इतराता है कि अपने आज के अलावा अपने कल को, सभी चीजों को उसने एकदम पिछड़ा, दकियानूस मान लिया है। कल की यह सूची बहुत लंबी है। इसमें भाषा है, विचार है, परंपराएँ हैं, पोशाक है, धर्म है, कर्म भी है।
सबसे पहले भाषा ही देखें।
भाषा में अगर हम किसी तरह की असावधानी दिखाते हैं, तो हम व्यवहार में भी असावधान होने लगते हैं। भाषा की यह चर्चा हिंदी विलाप-मिलाप की नहीं है। उदाहरण देखें -हिंदी में उदार शब्द बड़े ही उदात्त अर्थ लिये है। शुभ शब्द है। लेकिन इस नई व्यवस्था ने इस इतने बड़े शब्द को एक बेहद घटिया काम में झोंक दिया है। इसे आर्थिक व्यवस्था से जोड़कर अंग्रेजी के अनुवाद से एक नया शब्द बनाया गया है- उदारीकरण। जब मन उदार बन रहा है, सरकार उदार बन रही है, अर्थ-व्यवस्था उदार हो चली है तब काहे का डर भाई। मन में कैसा संशय?
उदार का विपरीत है, कंजूस, कृपण, झंझटी, संकीर्ण। तो क्या इस उदारीकरण से पहले की व्यवस्था कंजूसी की थी? संकीर्णता की थी? वह दौर किनका था? वह तो सबसे अच्छे माने गए नेतृत्व का दौर था- नेहरूजी, सरदार पटेल जैसे लोगों का था।
जड़ों की तलाश को निजी स्तर पर लेने से कोई व्यावहारिक हल हाथ लगेगा नहीं। समाज के, देश के, काल के स्तर पर जब सोचेंगे तो जड़ों की चिंता हमें उदारीकरण जैसी प्रवृत्तियों की तरफ ले जाएगी। हम उनके बारे में ठीक से सोचने लगेंगे और तब हम सचमुच सच के सामने खड़े हो पाएँगे।
यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो पाएँगे कि जड़ों की तलाश भी जारी रहेगी और हम अपनी जड़ें खुद काटते भी रहेंगे। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना कहावत में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हम खुद अपनी कुल्हाड़ी की धार चमका कर उसे और ज्यादा धारदार बनाकर गा- बजा कर अपने पैरों पर मारते रहेंगे।
आधुनिक दौर में, अपनी जड़ों से कट कर हमने जो विकास किया, उसके बुरे नतीजे तो चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। स्थूल अर्थों में भी और सूक्ष्म अर्थों में भी। ढका हुआ भूजल, खुला बहता नदियों, तालाबों का पानी और समुद्र तक बुरी तरह से गंदा हो चुका है। विशाल समुद्रों में हमारी नई सभ्यता ने इतना कचरा फेंका है कि अब अंतरिक्ष से टोह लेने वाले कैमरों ने अमेरिका के नक्शे बराबर प्लास्टिक के कचरे के एक बड़े ढेर के चित्र लिये हैं। लेकिन अभी इस स्थूल और सूक्ष्म संकेतों को यहीं छोड़ वापस उदारीकरण की तरफ लौटें।
हमारे बीच जो भी नई व्यवस्था या विचार आते हैं, वे हर पंद्रह-बीस सालों में अपना मुँह किसी और दिशा में मोड़ लेते हैं। अभी कुछ ही बरस पहले तो दुनिया के किसी एक पक्ष ने हमें यह पाठ पढ़ाया कि राष्ट्रीयकरण बहुत ऊँची चीज है। हमने वह पाठ तोते की तरह पढ़ा फिर रट लिया उसे। आगे-पीछे नहीं सोचा और देश में सब चीजों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। हमने अपने खुद के तोतों से भी नहीं पूछा कि तुम भी कोई पाठ जानते हो क्या? अपनी डाल के ऊपर बैठे तोतों की तरफ देखा तक नहीं। राष्ट्रीयकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि उसके नीचे जो कुछ भी डाला जाएगा, वह सब ठीक हो जाएगा। खूब प्रशंसा हुईं तालियाँ बजीं। कुछ नेता एकाध चुनाव भी जीत गए होंगे।
फिर इससे काम चला नहीं। समस्याएँ तो हल हुई नहीं तो फिर एक नई दिशा पकड़ ली। सरकार की सब चीजें निजी हाथों में सौंप देने का दौर आ गया। पर इसे बाजारीकरण नहीं कहा गया। नाम रखा -उदारीकरण। किसी ने भी यह नहीं कहा कि यह तो उधार में लिया गया हल है। इसका यदि कोई नाम ही रखना हो तो इसे उधारीकरण कहो न।
अपनी जड़ों से कटे इस नए विकास ने बहुत से चमत्कार कर दिखाए हैं। निस्संदेह आज कुछ करोड़ हाथों में मोबाइल फोन हैं। लाखों कंप्यूटर हैं, लोगों की टेबिलों पर और गोद में भी। अब तो हाथ में भी टेबलैट हैं। इन माध्यमों से पूरी दुनिया में तो बातें हो सकती है पर बगल में बैठे व्यक्ति से संवाद टूट गया है। सामाजिक कहे जाने वाला कंप्यूटर नेटवर्क चाहे जब कुछ लाख लोगों को कुछ ही घंटों में बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद से खदेड़कर उत्तर-पूर्व के प्रदेशों में जाने मजबूर कर देता है। इस विकास ने महाराष्ट्र में आधुनिक सिंचाई की योजनाओं पर सबसे ज्यादा राशि खर्च की है। आज उसी महाराष्ट्र में सबसे बुरा अकाल पड़ रहा है।
इस विकास ने बहुत से लोगों को अपने ही आंगन में पराया बनाया है। यह सूची भी बहुत बड़ी और यह संख्या भी। अपने ही आंगन में पराए बनते जा रहे लोगों की संख्या उस बहुप्रचारित मोबाइल क्रांति से कम नहीं है। अपनी जड़ों से जुड़े अनगिनत लोग विकास के नाम पर काट कर फेंक दिए गए हैं।
बलि प्रथा, नर बलि प्रथा कभी रही होगी। आज तो विकास की बलि प्रथा है। कुछ लोगों को ज्यादा लोगों के कल्याण, विकास के लिए अपनी जान देनी पड़ रही है। और जिनके लिए ये सब होता है, उनमें से न जाने कितने लोगों को आज यह नया जीवन अपनी जड़ों से इतना ज्यादा काट देता है कि उन्हें जीवन जीने की कला सीखने अपनी महँगी नौकरियाँ छोड़ संतों के शिविरों में जाना पड़ता है।
एक हिस्सा गरीबी में अपनी जड़ों से कट कर विस्थापित होता है तो दूसरा भाग अपनी अमीरी का बोझा ढोते हुए लडख़ड़ाता दिखता है।
ऐसी विचित्र भगदड़ में फँसा समाज अपनी जड़ों को खोज पाएगा, उनसे जुड़ पाएगा- ऐसी उम्मीद रखना बड़ा कठिन काम है। लेकिन ये शब्द हमारा पीछा आसानी से नहीं छोडऩे वाले। जड़ें शायद छूटेंगी नहीं। दबी रहेंगी मिट्टी के भीतर। ठीक हवा पानी मिलने पर वे फिर से हरी हो सकेंगी और उनमें नए पीके भी फूट सकेंगे। हमें अपने को उस क्षण के लिए बचाकर रखना होगा।                                                                 
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