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Dec 14, 2013

प्रेरक

आखरी सफ़र

(अमरीकन लेखक केंट नेर्बर्न ने आध्यात्मिक विषयों और नेटिव अमरीकन थीम पर कई पुस्तकें लिखीं हैं। नीचे दिया गया प्रसंग उनकी एक पुस्तक से लिया गया है)

बीस साल पहले मैं आजीविका के लिए टैक्सी चलाने का काम करता था। घुमंतू जीवन था, सर पर हुक्म चलाने वाला कोई बॉस भी नहीं था।
इस पेशे से जुड़ी जो बात मुझे बहुत बाद में समझ आई वह यह है कि जाने-अनजाने मैं चर्च के पादरी की भूमिका में भी आ जाता था। मैं रात में टैक्सी चलाता था इसलिए मेरी टैक्सी कन्फेशन रूम बन जाती थी। अनजान सवारियाँ टैक्सी में पीछे बैठतीं और मुझसे अपनी जि़ंदगी का हाल बयान करने लगतीं। मुझे बहुत से लोग मिले; जिन्होंने मुझे आश्चर्यचकित किया, बेहतर होने का अहसास दिलाया, मुझे हँसाया, कभी रुलाया भी।
इन सारे वाकयों में से मुझे जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया  ,वह मैं आपको बताता हूँ। एक बार मुझे देर रात शहर के एक शांत और संभ्रांत इलाके से एक महिला का फोन आया। हमेशा की तरह मुझे लगा कि मुझे किन्हीं पार्टीबाज, झगड़ालू पति-पत्नी-प्रेमिका, या रात की शिफ्ट में काम करने वाले कर्मचारी को लिवाने जाना है।
रात के ढाई बजे मैं एक छोटी बिल्डिंग के सामने पहुँचा, जिसके सिर्फ ग्राउंड फ्लोर के एक कमरे की बत्ती जल रही थी। ऐसे समय पर ज्यादातर टैक्सी ड्राइवर दो-तीन बार हॉर्न बजाकर कुछ मिनट इंतज़ार करते हैं, फिर लौट जाते हैं; लेकिन मैंने बहुत से ज़रूरतमंद देखे थे, जो रात के इस पहर में टैक्सी पर ही निर्भर रहते हैं; इसलिए मैं रुका रहा।
यदि कोई खतरे की बात न हो तो मैं यात्री के दरवाजे पर पहुँच जाता हूँ। शायद यात्री को मेरी मदद चाहिए, मैंने सोचा।
मैंने दरवाजे को खटखटाकर आहट की। बस एक मिनट- भीतर से किसी कमज़ोर वृद्ध की आवाज़ आई। कमरे से किसी चीज़ को खिसकाने की आवाज़ आ रही थी।
लम्बी ख़ामोशी के बाद दरवाज़ा खुला। लगभग अस्सी साल की एक छोटी- सी वृद्धा मेरे सामने खड़ी थी। उसने चालीस के दशक से मिलती-जुलती पोशाक पहनी हुई थी। उसके पैरों के पास एक छोटा सूटकेस रखा था।
घर को देखकर यह लग रहा था जैसे वहाँ सालों से कोई नहीं रहा है। फर्नीचर को चादरों से ढाँका हुआ था। दीवार पर कोई घड़ी नहीं थी, कोई सजावटी सामान या बर्तन आदि भी नहीं थे। एक कोने में रखे हुए खोखे में पुराने फोटो और काँच का सामान रखा हुआ था।
'क्या तुम मेरा बैग कार में रख दोगे?’ - वृद्धा ने कहा।
सूटकेस कार में रखने के बाद मैं वृद्धा की सहायता के लिए पहुँचा। मेरी बाँह थामकर वह धीमे-धीमे कार तक गई। उसने मुझे मदद के लिए धन्यवाद दिया।
'कोई बात नहीं’ - मैंने कहा- 'मैंने आपकी सहायता उसी तरह की, जैसे मैं अपनी माँ की मदद करता।’
'तुम बहुत अच्छे आदमी हो’- उसने कहा और टैक्सी में मुझे एक पता देकर कहा- 'क्या तुम डाउनटाउन की तरफ से चल सकते हो?’
'लेकिन वह तो लम्बा रास्ता है?’ - मैंने फौरन कहा।
'मुझे कोई जल्दी नहीं है’- वृद्धा ने कहा- 'मैं होस्पिस जा रही हूँ। (होस्पिस में मरणासन्न बूढ़े और रोगी व्यक्ति अपने अंतिम दिन काटते हैं।)
मैंने रियर-व्यू-मिरर में देखा। उसकी गीली आँखें चमक रहीं थीं।
'मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है’- उसने कहा- 'डॉक्टर कहते हैं कि मेरा समय निकट है
मैंने मीटर बंद करके कहा- 'आप जिस रास्ते से जाना चाहें मुझे बताते जाइए।
अगले दो घंटे तक हम शहर की भूलभुलैया से गुज़रते रहे। उसने मुझे वह बिल्डिंग दिखाई; जहाँ वह बहुत पहले लिफ्ट ऑपरेटर का काम करती थी। हम उस मोहल्ले से गुज़रे; जहाँ वह अपने पति के साथ नव-ब्याहता बनकर आई थी। मुझे एक फर्नीचर शोरूम दिखाकर बताया कि दसियों साल पहले वहाँ एक बालरूम था जहाँ वह डांस करने जाती थी। कभी-कभी वह मुझे किसी ख़ास बिल्डिंग के सामने गाड़ी रोकने को कहती और अपनी नम आँखों से चुपचाप उस बिल्डिंग को निहारते रहती।
सुबह की लाली आसमान में छाने लगी। उसने अचानक कहा- 'बस, अब और नहीं। मैं थक गयी हूँ। सीधे पते तक चलो।’
हम दोनों खामोश बैठे हुए उस पते तक चलते रहे ,जो उसने मुझे दिया था। यह पुराने टाइप की बिल्डिंग थी; जिसमें ड्राइव-वे पोर्टिको तक जाता था। कार के वहाँ पहुँचते ही दो अर्दली आ गए। वे शायद हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने ट्रंक खोलकर सूटकेस निकाला और उन्हें दे दिया। महिला तब तक व्हीलचेयर में बैठ चुकी थी।
'कितने रुपये हुए’- वृद्धा ने पर्स खोलते हुए पूछा।
'कुछ नहीं’- मैंने कहा।
'तुम्हारा कुछ तो बनता है’- वह बोली।
'सवारियाँ मिलती रहती हैं’- मैं बोला।
अनायास ही पता नहीं क्या हुआ और मैंने आगे बढ़कर वृद्धा को गले से लगा लिया। उन्होंने मुझे हौले से थाम लिया।
'तुमने एक अनजान वृद्धा को बिन माँगे ही थोड़ी सी खुशी दे दी’  -उसने कहा- 'धन्यवाद
मैंने उनसे हाथ मिलाया और सुबह की मद्धम रोशनी में बाहर आ गया। मेरे पीछे एक दरवाज़ा बंद हुआ और उसके साथ ही एक जि़ंदगी भी ख़ामोशी में गुम हो गई।
उस दिन मैंने कोई और सवारी नहीं ली। विचारों में खोया हुआ मैं निरुद्देश्य-सा फिरता रहा। मैं दिन भर चुप रहा और सोचता रहा कि मेरी जगह यदि कोई बेसब्र या झुँझलाने वाला ड्राईवर होता तो क्या होता? क्या होता अगर मैं बाहर से ही लौट जाता और उसके दरवाज़े तक नहीं जाता?
आज मैं उस घटनाक्रम पर निगाह डालता हूँ तो मुझे लगता है कि मैंने अपनी जि़ंदगी में उससे ज्यादा ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण कोई दूसरा काम नहीं किया है।


हम लोगों में से अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि हमारी जि़ंदगी बहुत बड़ी-बड़ी बातों से चलती है; लेकिन ऐसे बहुत से छोटे दिखने वाले असाधारण लम्हे भी हैं जो हमें खूबसूरती और खामोशी से अपने आगोश में ले लेते हैं। (हिन्दी ज़ेन से) 

1 comment:

Unknown said...

Kahani Akhari Safar padi .dil ko chhu gai.manveeya sanvendanayen jo aajkal dab gai hai poonh jeevit kar dengi.jarur padhe.