शहरी
कॉलोनी के आख़री छोर पर स्थित उस मकान के हॉल
में रखे हुए डायनिंग टेबल की कुर्सियों पर आमने-सामने दो व्यक्ति बैठे हुए हैं।
उनमें से एक की खिचड़ी दाढ़ी, उसकी अधेड़ावस्था की चुग़ली
कर रही है। उसने अपनी आँखों पर मोटा -सा काला चश्मा लगा रखा है। चश्मे के
उस पार से झाँकती उसकी दो गहरी आँखें किसी पर भी अपना हौव्वा बिठाने में सक्षम लग
रही हैं। डॉयनिंग टेबल के एक कोने में अचार, जैम और जैली की
शीशियाँ रखी हुई हैं, और टेबल के दूसरे कोने में इमाईला ज़ोला
की 'नाना’, नीरद सी. चौधरी की 'क्लाईव ऑफ़ इण्डिया’ के अलावा मार्क्स, ओशो, गेटे,
हेमिंग्वे आदि विचारकों की लिखी हुई पुस्तकें रखी हुई हैं। सामने
ताकाज़ी अँगरेज़ू अख़बार, टाईम्स ऑफ़ इण्डिया और कुछ हिन्दी
की पत्रिकाएँ भी पड़ी हुई हैं, जो ये सिद्ध कर रही हैं कि,
वो दाढ़ी वाला व्यक्ति खाते-खाते पढ़ता है, या
फिर पढ़ते-पढ़ते खाता है। टेबल की दूसरी ओर बैठा व्यक्ति लगभग पच्चीस-तीस बरस का
है। कार्य की अधिकता के चलते उसके चेहरे पर थकान स्पष्ट झलक रही है, जिसे छुपाने की वह असहज सी कोशिश कर रहा है। दोनों व्यक्तियों के बीच सगा
रिश्ता होने के बावज़ूद अजनबीपन पसरा हुआ है। दोनों ही अजनबीयत की बीमारी से
ग्रस्त लग रहे हैं। दोनों के बीच खण्डहर सी मनहूसियत लिये हुए सन्नाटे की चादर
बिछी हुई है। बाहर ढलती हुई शाम के साये गहराते जा रहे हैं। दोनों के बीच बोझिल
संवाद प्रारंभ होता है।
दूसरा व्यक्ति- 'दीदी कहाँ हैं ?
(औपचारिक सवाल)’
दाढ़ीवाला- 'उनकी बदली भोपाल
हो गई है।’ (औपचारिक जवाब)
टाईम्स ऑफ़ इण्डिया’ में नज़रें गड़ाए-गड़ाए
दाढ़ीवाला निहायत ही औपचारिक अंदाज़ में प्रश्न करता है- कब आए?’
'जी दुपहर में’, सामने वाले का भी औपचारिक जवाब।
इतनी बातचीत के बाद उनके बीच फिर से सन्नाटा पसर जाता
है। ऊपर लगे पंखे की हवा से टेबल पर
रखी पत्रिकाओं के पन्ने फडफ़ड़ाने लगते हैं, मानो किसी खण्डहर
में चमगादड़ फडफ़ड़ा रहे हों ।
दाढ़ीवाला- तुम बहुत बीमार -से लग रहे हो...चेहरा दीप्तिरहित हो गया है तुम्हारा...।
दूसरा व्यक्ति (पास ही पड़ी एक पत्रिका के पन्ने
पलटते हुए) - 'मैं आपको स्वस्थ कब लगा?’
इतनी बातचीत के बाद उनके बीच फिर से ख़ामोशी की दीवार
खड़ी हो जाती है। घड़ी की सुईयाँ बोझिल कदमों से सरक रही हैं।
कुछ देर बाद-
दाढ़ीवाला - 'खाने के लिए कैसे किया जाए
? खाना घर पर ही बनाया जाए, या किसी रेस्तोरां में चलकर खाया जाए?’
दूसरा व्यक्ति (बेहद औपचारिकता से)- 'जैसी आपकी मरज़ी।’
दाढ़ीवाला- 'ठीक है। मैं दरवाज़े-खिड़कियाँ बंद कर लूँ, फिर किसी रेस्तराँ में चलते हैं।
घर पर ताला
लगाकर वे बाहर आ जाते हैं। बाहर कॉलोनीगत सन्नाटा उनके साथ-साथ चलता है। थोड़ी देर
बाद वे कुछ चहल-पहल वाले क्षेत्र में पहुँचते
हैं।
दूसरा व्यक्ति - 'काम की अधिकता के
चलते आज मैं बहुत थक गया हूँ... चलिए रिक्शा कर लेते हैं।’
दाढ़ीवाला- 'तुम जैसे जवानों
में तो थकान नाम की कोई चीज़ ही नहीं होनी चाहिये...हमेशा ताज़गी से भरे हुए लगना चाहिए...
इसीलिए तो मैं कह रहा हूँ
कि तुम बीमार हो...आईने में सूरत देखी है कभी अपनी? चेहरा
कांतिरहित हो गया है। तुम्हें संयमित जीवन जीना चाहिए...विचारों
को शुद्ध रखना चाहिए... (अचानक) तुम शादी कब कर रहे हो ?'
दूसरा व्यक्ति- ' जी मुझे कभी
आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई।'
दाढ़ीवाला (व्यंग्य से) - 'अच्छा !'
(चलते-चलते दूसरा व्यक्ति जेब से पाचक आँवले का पाऊच निकाल कर खाता है।)
दाढ़ीवाला (वितृष्णा से) -'तो तुम तंबाखू का भी सेवन करते हो...फिर तो शराब भी पी लेते
होगे...कभी-कभार?'
दूसरा व्यक्ति (खिन्न स्वर
में)- 'ये नशारहित पाचक पाऊच है।'
दाढ़ीवाला एक असंतुष्ट -सी हुंकार भरता है।
उनके बीच फिर से ख़ामोशी की एक दीवार खड़ी हो जाती
है। दस-पन्द्रह मिनट बाद वे एक रेस्तराँ
पहुँचते हैं।
दाढ़ीवाला (वॉश बेसिन में हाथ धोते हुए ) - तुम भी हाथ
धो लो।
दूसरा व्यक्ति- 'मै जऱा यूरिनल से
निबट आऊँ।'
हाथ धोकर दाढ़ीवाला सामने की टेबल पर बैठ जाता है, जबकि दूसरा व्यक्ति यूरिनल से आकर बेसिन में साबुन से हाथ धोता है,
और दाढ़ीवाले के बाजू में जाकर बैठ जाता है।
दाढ़ीवाला- 'तुम यहाँ नहीं,
टेबल की उस तरफ़ बैठो...।
बड़े रेस्तराँ में बैठने का यही सलीक़ा है।'
दूसरा व्यक्ति (व्यंग्य से)- 'जी अच्छा किया, जो आपने मुझे बता दिया।'
कहकर सामने वाली सीट पर बैठ जाता है।
दाढ़ीवाला (उसकी ओर मीनू सरकाते हुए)- 'क्या खाओगे ?'
दूसरा व्यक्ति (मीनू पर उचटती हुई सी दृष्टि डालकर) -
'पालक-आलू।’
दाढ़ीवाला-
'क्या पसंद है तुम्हारी भी...घास-फूस,’
कहकर मीनू उसके हाथ से लेकर ऑर्डर देता है- 'एक प्लेट दालफ्रॅाई, एक प्लेट काज़ूकरी, दो प्लेट मलाई-कोफ्ता और चार नॉन....। क्यों ठीक है न ? दाढ़ीवाला उससे ऐसे पूछता है, जैसे उसकी पसंद से उसे
कोई लेना-देना ही न हो।’
दूसरा व्यक्ति – ‘हाँ ठीक ही है।’
हॉल में दरबारी राग में ‘दाता के गुण गाओ...’ चल रहा है। स्वर मद्धिम सा है।
इसके अतिरिक्त और कोई आवाका सुनाई नहीं दे रही है। सभी लोग ख़ामोश हैं। कभी-कभी हॉल
में बैठे अन्य लोगों की खुसुर-फुसुर की ध्वनि सुनाई दे जाती है। अधिकतर लोग इस भय
से खामोश हैं कि कहीं उनकी ऊँची आवाज़ उन्हें गँवार साबित न कर दे।
लगभग आधे घंटे के बाद उनका खाना ख़त्म होता है।
दाढ़ीवाला बिल का भुगतान करता है,और वे दोनों बाहर आ जाते
हैं, और पैदल चलने लगते हैं।
दाढ़ीवाला (दबी किंतु सख़्त आवाज़ में)- ‘मैं खाना
खाते-खाते तुम्हारा अध्ययन कर रहा था...मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि, तुम बीमार हो...तुमने यूरिनल से आकर हाथ नहीं धोये, और
ऐसे ही मेरी बाजू में आकर बैठ गये। खाना खाते-खाते तुम प्लेटें तो बजा ही रहे थे,
साथ में मुँह से चप-चप की आवाज़ें भी निकाल रहे थे। कहीं और खोये हुए
थे तुम उस समय...। अबसेंट माइण्ड हो गए हो तुम...। मैं आज अच्छे मूड से घर पर ही
खाना बनाने वाला था, पर तुम्हारा चेहरा देखकर खाना बनाने की ज़रा
भी इच्छा नहीं हुई। तुम वाक़ई बीमार हो।’
दूसरा व्यक्ति (अवसाद भरे स्वर में) - 'ये कोई नई बात नहीं है। आपने छुटपन से ही मुझमें
हीनता के भाव भरकर मुझे अपने नरक की आग़ में
जलते रहने के लिए छोड़ दिया, और बीच-बीच में घी डालकर उस आग़ को भडक़ाते भी रहे। आपने मेरे
सोचने-विचारने की क्षमता पर अपने गलत विचार
थोपकर मुझ पर वैचारिक कब्ज़ा करने की साज़िश
की। आपने मुझमे विद्यमान संभावनाओं को राख करने का प्रयास किया। मेरे प्रति शुरू
से ही नकारात्मक विचार रहे आपके...। इसी के चलते मेरे द्वारा किया गया सही कार्य
भी आपको ग़लत लगता रहा। मैंने पाचक आँवले का पाऊच खोला, तो
आपको उसके भी नशारहित होने में संदेह था। मैंने यूरिनल से आकर हाथ धोए, वह आपको दिखा नहीं।’
‘पन्द्रह वर्षों पहले जब आपने हमारी दीदी के गुणों से प्रभावित होकर हमारे
दलित परिवार में अपने सामाजिक रीति-रिवाज़ों के साथ उनसे ब्याह किया था, तो मेरे मन में आपके प्रति अगाध श्रद्धा के भाव जाग्रत हुए थे। मैं अपनी थोड़ी बहुत समझ के साथ फ़ख्र
से अपने दोस्तों को बताया करता था कि हमारे जीजाजी ऊँची जाति के हैं...। असली ब्राह्मण हैं वे...। हिंसा के सख्त खिलाफ़...।
जीजाजी, आपने तो दुनिया भर की किताबें पढ़ी हैं। आप मेरी इस
बात से सहमत तो होंगे ही कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना सबसे बड़ी हिंसा है।
आप लगातार मेरी कोमल भावनाओं को ठेस पहुँचाते रहे हैं। इस हिसाब से पिछले पन्द्रह
वर्षों में आपने हिंसा की पराकाष्ठा पार कर ली है। आपके द्वारा मेरे साथ किये गए दुर्व्यवहार
की तपिश को मैंने अपने सीने में दबाकर रखा। बाहर से तो मैं शान्त नज़र आता रहा,
पर मैं अंदर ही अंदर धधकता रहा, आज मैं फूट
पड़ा हूँ...। मेरा हर शब्द उसी ज्वालामुखी का लावा है।’ इतना
कहकर वह रुक जाता है।
दाढ़ीवाला (विद्रूप मुस्कान के साथ)-' रुक क्यों
गए ? बोलते रहो...। बोलते
रहो...। मैं खुद ही चाहता था कि, तुम मुझसे निडर होकर बातें
करो...मै बेसब्री से आज के दिन की ही प्रतीक्षा करता रहा। तुमने अपनी कुण्ठा की
ग्रंथि खोलने में पूरे पन्द्रह साल लगा दिए।
तुमने आज यह सिद्ध कर दिया है कि बीमार तुम नहीं, मैं
हूँ...अपनी विद्वता की खु़शफ़हमी में जीता
हुआ... प्रबुद्ध विचारधारा के पोषणकर्ता होने का ढोंग करता हुआ...जातिगत अहं के
रोग से ग्रसित एक बीमार आदमी......।
इससे पहले की वह
दाढ़ीवाला फिर से उस पर हावी हो, वह दूसरा
व्यक्ति तेज़ी से उससे अलग हो जाता है ।
सम्पर्क:
832, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी सड्डू
रायपुर (छ.ग.), 09827406575
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