- कृष्णा वर्मा
1.
छिपती ना भीतर की पीड़ा
आँसू चुगली खोर
झट कोरों पे आन बैठते
मौन मचाए शोर
बड़े सहोदर मन भावों के
पकड़े रखते डोर
व्यथा हृदय की लाख छिपाऊँ
पकड़ा देते छोर
हर दुख-सुख में पिघल पड़ें
दिल के हैं कमज़ोर
जन्म के पहले पल के साथी
नयन गाँव ही ठौर
दुख संताप सहें स्वजनों का
बैठ आँख की कोर
अन्तर्मन
के घावों पे,
करते
चुपचाप टकोर
यूँ तो जीवन यात्रा में मिले
मित्र कई बेजोड़
दिल पे पक्की यारी की बस
यही लगाए मोहर।
अंत समय तक साथ ना छोड़ें
इन सा मित्र ना और।
अभिलाषा
2.
जब-जब चाहा इस जीवन से
इसने सब भरपूर दिया
नहीं शिकायत कोई रब से
गले-गले सुख पूर दिया।
यूँ तो सदा सरल सुगम से
जीवन की की थी अभिलाषा
करुणाकर थी विधना मुझपर
पूर्ण हुईं मनचाही आशा।
प्रीत बनी प्रिय की मेरी शक्ति
धर संसार हुआ मेरी भक्ति
सहज फूल दो खिले सहन में
हर्षित मन ज्यों चाँद गगन में।
नहीं नैराश्य का संग अपनाया
संयम ही मुझे पग-पग भाया
दिन सुन्दर बने साँझ कुनकुनी
अपनों संग रही खुशी ठुमकती।
चली निरंतर पाने गंतव्य
मंज़िल पा गए
लगभग मंतव्य
प्रिय का सुख सुत श्रवण मिले हैं
नहीं जीवन से कोई गिले हैं।
बेटी की भी कमी रही ना
जब बेटी सी बहू घर आई
बेटे के बेटे ने जन्म ले
रिश्तों में मृदु गाँठ लगाई
मिले-जुले अनुभव जिए सारे
ढली उम्र के सुखद सहारे
जीवन अतल भरा यादों से
रही शिष्ट निज के वादों से।
-0-
सम्प्रति: मूलत: डी.एल.एफ सिटी, गुडग़ाँव की निवासी और वर्ष 2001 से टोरोंटो कनेडा
में निवास, ई मेल-krishnaverma8@yahoo.ca
No comments:
Post a Comment