भारत की नदियों को बचाने की कोशिश
भारत की
युवा वैज्ञानिक शिली डेविड 2009 से जर्मनी के सेंटर
फॉर मरीन ट्रॉपिकल इकोलॉजी में रिसर्च कर रही हैं। शिली केरल की पम्बा नदी पर शोध
कर रही हैं। वो भारत में दम तोड़ रही नदियों में फिर से जान फूँकना चाहती हैं।
त्रिवेंद्रम के सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज में
रिसर्च करने के बाद शिली जर्मनी गईं। उन्होंने डीएएडी (DAAD) की स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया। जेडएमटी ब्रेमन के प्रोफेसरों को अपने शोध का विषय
बताने और समझाने के बाद शिली को दाखिला भी मिला और स्कॉलरशिप भी।
जेडएमटी में वह दक्षिण भारत की तीसरी बड़ी नदी पर
रिसर्च कर रही हैं। नदी प्रदूषण से बीमार है। गेस्ट साइंटिस्ट के रूप में शिली
जेडएमटी के साथ मिलकर नदी और उसके आस पास के पारिस्थिकीय तंत्र को बचाना चाहती
हैं। इसके लिए वह छह-आठ महीने में भारत आती हैं। केरल की पम्बा नदी से पानी के
नमूने लेती हैं। खेतों में डाली जाने वाली खाद के नमूने जुटाए जाते हैं। नदी
इंसानी दखलदांजी की वजह से मर रही है। शिली कहती हैं, 'पम्बा नदी के आस पास बहुत कृषि संबंधी गतिविधियाँ होती हैं। अहम बात वहाँ
श्रद्धालुओं का जमावड़ा भी है।
हम यह जाँच करना चाहते हैं कि कैसे ये सारी
गतिविधियाँ पानी की क्वालिटी पर असर डालती हैं। अब तक हमने देखा है कि श्रद्धालुओं
के सीजन में नदी में प्रदूषण अथाह बढ़ जाता है।’
प्लास्टिक और रसायनों की वजह से पानी में जरूरी पोषक
तत्व खत्म होते जा रहे हैं। पानी इतना खराब हो चुका है कि नदी के आस पास बसे
इलाकों में बीमारियाँ फैल रही हैं। खेती पर असर पड़ रहा है। शिली ऐसे बुनियादी
कारणों का पता लगा रही हैं जो नदियों को जहरीला करते हैं, 'जर्मनी में उदाहरण के लिए देखा जाए तो डिटरजेंट फॉस्फेट फ्री होते हैं।
लेकिन भारत में अभी तक डिटरजेंट में मुख्य तत्व फॉस्फेट है, जो
पानी को ज्यादा गंदा करता है।’
जैव विवधता के लिहाज से भारत में नायाब चीजें मिलती
है। हिमालय में जहाँ यूरोप जैसी मछलियाँ हैं तो दक्षिण की नदियों में विषुवत रेखा
जैसा जीवन है। लेकिन कचरा इस खूबसूरती को खत्म कर रहा है। शिली कहती हैं, 'भारत में हम कह सकते हैं कि नदियाँ धीरे धीरे मर रही हैं। पानी की
क्वालिटी के लगातार गिरने से।’
पानी में ऑक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल
रहा पारिस्थितिकीय तंत्र मरने लगता है। एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को
मृत घोषित कर दिया जाता है। एक बार कोई नदी मर जाए तो उसे फिर स्वस्थ करने में कम
से कम 30 से 40 साल का वक्त लगता है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण की वजह से
यूरोप की कई नदियाँ यह हाल देख चुकी हैं। कुछ नदियों में तो आज तक भी जीवन पूरी
तरह नहीं लौट सका है। गंदी होती नदियों का असर मौसम और समुद्र पर भी पड़ता है।
शिली के मुताबिक प्रदूषण फैलाने वाली सभी कारणों को
अगर मिला दिया जाए तो भी फायदा उतना नहीं है कि जिससे लंबे समय तक पर्यावरण को
होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके।
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
संपादन: आभा मोंढे
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