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Sep 15, 2017

अब मुँडेर पर नहीं आते कागा

          अब  मुँडेर पर नहीं आते कागा
ऊँची-ऊँची इमारतों की छत पर लगे टीवी एंटीना के कोने पर अब कौए नहीं बैठते। उनकी काँव-काँव का शोर अब कानों को नहीं बेधता। एक समय था जब कौए सभी जगह आसानी से दिखाई दे जाते थे, किंतु आज इनकी तेज़ी  से घटती संख्या के कारण ही अब इनकी गणना एक दुर्लभ पक्षी के रूप में की जा रही है।
इसे प्रकृति की मार कहें या पर्यावरण में आया बदलाव मगर आज कौए की आधी से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। शेष बची प्रजातियों में से करीब 20 प्रतिशत कौए जंगलों में जाकर बस गए हैं। आज शहरी वातावरण में कौए बहुत कम पाए जाते हैं। कौओं की लगातार कम होती संख्या के पीछे हमारी उपेक्षा ही जवाबदेह है। हमने कभी कौओं के प्रति अपनी प्रीति दिखाई ही नहीं।
कौआ एक घरेलू पक्षी है, उसके बाद भी हम हमेशा उसकी उपेक्षा ही करते हैं। हकीकत यह है कि यह काली चमड़ी का कर्कश आवाज़ वाला कुरूप पक्षी चिडिय़ा से भी अधिक मिलनसार है। बार-बार यह हमारे आँगन में या छत पर बैठकर काँव-काँव की आवाज़  के साथ अपने होने का परिचय देता है। न केवल परिचय देता है बल्कि हमारे द्वारा दुत्कारे जाने पर भी, फिर से वह आता है और हमारी तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाता है। इसे इसकी मिलनसारिता न कहें तो क्या कहें?
कौआ कोवीडी परिवार का पक्षी है। यह भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, बर्मा आदि देशों के साथ ही विश्व के अनेक देशों में पाया जाता है। भारत में इसकी आठ प्रजातियाँ देखने को मिलती हैं, जिनमें पहाड़ी कौआ, जंगली कौआ तथा घरेलू कौआ प्रमुख हैं। पहाड़ी कौआ आकार में सबसे छोटा होता है। इसकी लम्बाई लगभग 10 इंच होती है तथा शरीर का रंग चमकीला काला होता है। पहाड़ी कौए के गले में भूरे रंग की एक पट्टी होती है, जिसकी सहायता से इसे सरलता से पहचाना जा सकता है। यह एशिया के पश्चिमी पहाड़ी भागों में पाया जाता है। सर्दियों में पहाड़ी कौओं के झुंड जम्मू, पंजाब तथा हरियाणा के अनेक भागों में देखे जा सकते हैं। इसकी आवाज़ बड़ी मधुर होती है, अत: लोग इसे पालते भी हैं। यूनिवर्सिटी डेस्क एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार पहाड़ी कौआ बुद्धिमान पक्षी है तथा प्रशिक्षण देने से यह मनुष्य की आवाज़ की नकल भी कर सकता है।
जंगली कौआ आकार में चील से कुछ छोटा होता है। इसके शरीर का रंग गहरा चमकीला व चोंच भारी होती है। यह सामान्यत: गाँवों के निकट रहना पसंद करता है। अत: शहरों में कम ही दिखाई पड़ता है। जंगली कौआ बहुत साहसी होता है तथा मरे हुए जानवरों का मांस गिद्ध आदि के साथ मिलकर खाता है। इसकी सहायता से बाघ या अन्य हिंसक जीव द्वारा मारे गए शिकार का पता आसानी से चल जाता है। जंगली कौए का प्रजनन काल उत्तरी भारत, असम तथा बर्मा में मार्च से मई तक तथा शेष भारत में दिसंबर से अप्रैल तक होता है। मादा एक बार में चार से छह अंडे देती है। इसके अंडे सामान्य कौओं के अंडों से कुछ बड़े होते हैं।
घरेलू कौआ आकार में कबूतर से कुछ बड़ा होता है। इसकी लंबाई डेढ़ फुट तक होती है तथा यह हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों को छोडक़र पूरे भारत में पाया जाता है। इसकी आवाज़ बड़ी कर्कश होती है तथा अक्सर यह काँव-काँव करता रहता है। घरेलू कौआ सामान्यत: झुंड में रहता है और रात झुंड के साथ ही पेड़ों पर व्यतीत करता है। मानव के बहुत अधिक निकट रहने के कारण यह काफी चालाक तथा धूर्त हो गया है। यह सब कुछ खाता है। इसके भोजन में मरे हुए चूहे, सड़ा-गला मांस, टिड्डी, दीमक, छोटे-छोटे अंडे तथा चिडिय़ा, कूड़ा-करकट, चौके की जूठन, अनाज आदि शामिल हैं।
घरेलू कौए का प्रजनन काल सामान्यत: अप्रैल से जून तक होता है। इनमें नर तथा मादा दोनों मिलकर पेड़ों की टहनियों पर तिनकों, पंखों, घास-फूस, चिथड़ों तथा रस्सी के रेशों से कटोरे के आकार का घोंसला बनाते हैं, जो भीतर से मुलायम, गद्देदार किंतु काफी मज़बूत होता है। इसी घोंसले में मादा हरे चित्तीदार या भूरी धारी वाले चार-पांच अंडे देती है, जिनका पोषण नर तथा मादा दोनों मिलकर करते हैं।
सारे कौओं में कुछ सामान्य विशेषताएँ होती हैं। जैसे, इनमें नर और मादा का रूप-रंग और आकार एक जैसा होता है। पहाड़ी कौए को छोडक़र सभी कौए पेड़ों पर लगभग एक जैसे घोंसले बनाते हैं। इनकी सभी प्रजातियों में प्रजनन काल तो अलग-अलग होता है, किन्तु प्रत्येक प्रजाति की मादा एक बार में चार से छह तक अंडे देती है।
कौआ बड़ा ही उपेक्षित पक्षी है। गहराई से उसका अध्ययन करने पर पता चलता है कि वह अत्यंत बुद्धिमान, धीर गंभीर और संवेदनशील पक्षी है। रोटी का एक टुकड़ा मिलने पर भी कौआ अपने साथियों के साथ बाँटकर खाता है। कहते हैं कि किसी कौए की मौत होने पर सैकड़ों कौए इकट्ठे होकर उसका मातम मनाते हैं और अंतिम संस्कार तक करते हैं। इनकी अपनी एक पंचायत होती है, जो दोषी कौओं को दंड भी देती है।
विज्ञान की दृष्टि से भी इसे एक अत्यंत विकसित पक्षी माना गया है। कौए के स्वभाव में भोलापन भी मिलता है। न जाने कब से यह भोला पंछी धूर्त्त कोयल के हाथों उल्लू बनता आ रहा है। यह बेचारा न सिर्फ कोयल के अंडे सेता है; बल्कि उसके बच्चों को भी स्वयं की संतान समझकर बड़ा करता है। आँगन में फुदकती चिडिय़ा तो दाना चुगकर अपने घोंसले में चली जाती है, पर कौआ छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों को अपना भोजन बनाकर घर के आसपास की गंदगी को भी साफ करता है और हमें कई संक्रामक रोगों से भी बचाता है।
चिंता का विषय है कि कौओं की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है। आज हम विकास की इस अंधी दौड़ में कौओं की महत्ता को भले ही न समझ पा रहे हों लेकिन लगातार कम होती उनकी संख्या से पर्यावरण प्रेमी जहाँ इसे पर्यावरण के लिए एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं, वहीं वैज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि कौओं की स्थिति भी कहीं गिद्धों की तरह ही न हो जाए।
कौओं की लगातार कम होती संख्या के दो कारण है। पहला कारण तो यह है कि वातावरण में अचानक जो परिवर्तन हो रहा है और खाद्य पदार्थों में जो ज़हरीली चीज़े आ रही हैं, उनकी वजह से कौओं की प्रजनन क्षमता में कमी आने लगी है। दूसरी वजह यह है कि वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से इनके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है। कौओं का स्वभाव है कि वे एकांत में अपना घोंसला बनाते हैं जो आजकल उन्हें कम मिल पा रहा है। गौरतलब है कि यहाँ कौओं की मुख्यत: दो प्रजातियाँ देखी जाती हैं। एक जो पूरे काले होते हैं और दूसरे जिनके गले में सफेद धारी होती है। सफेद धारी वाले कौवे तो अभी दिखाई पड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता काले कौओं से कुछ ज़्यादा होती है; लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सफेद धारी वाले कौओं पर बदलते पर्यावरण का असर नहीं पड़ेगा। कहना न होगा कि इनकी लगातार कम होती संख्या गिद्धों के खत्म होने से कम खतरनाक नहीं है। इनके नहीं रहने से पृथ्वी की समूची खाद्य शृंखला ही डगमगा जाएगी।
इंसानी ज़िन्दगी में कौओं के महत्त्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की ज़िन्दगी में तमाम किस्से कौओं से जोडक़र देखे जाते रहे। लेकिन अब इनकी कम होती संख्या चिंता का सबब बन रही है। जानकार कहते हैं कि इसके ज़िम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम खुद ही हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करके कौओं को नुकसान पहुँचा रहे हैं। कौए द्वारा मनुष्य के सिर पर चोंच मारना किसी इंसान के लिए अपशकुन होता है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन आज जाने-अनजाने मशीनीकरण के इस युग में हम जिस तरह प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहे हैं, वह इन कौओं के लिए अपशकुन ज़रूर साबित होने जा रहा है। अगर इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया और यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब कौए भी गिद्धों की तरह कहीं नज़र न आएँगे। (स्रोत फीचर्स)

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