एक देश था। उसमें बहुत सारे शहर थे और बहुत सारे गाँव थे। गाँव वाले अक्सर अपनी खरीदारी के लिए आसपास के बड़े शहरों में जाया करते थे।
ऐसे ही एक शहर के एक बाजार में बहुत सारी दुकानें थीं। वहाँ एक ऐसी दुकान भी थी जहाँ पर ऐसी सारी चीज़ें मिलती थीं जिन पर एमआरपी नहीं लिखा होता था, जैसे साइकिलें, जूते, टोपियाँ, लालटेन और कपड़े आदि। ये दुकान दो भागीदार मिल कर चलाते थे। अक्सर भागीदार बदलते भी रहते लेकिन धंधा और धंधा करने का तरीका वही रहता। मकसद एक ही रहता, ग्राहक को बेवकूफ बना कर लूटना।
दुकानदारी करने का उनका तरीका बहुत मजेदार था। वे बारी -बारी से दुकान पर बैठते। जब भागीदार नंबर एक दुकानदारी करने बैठता तो भागीदार नंबर दो सामने वाली चाय की दुकान पर जाकर बैठ जाता। जब कोई ग्राहक कुछ खरीदने आता और पहला भागीदार उसे लगभग निपटा चुका होता तो दूसरा भागीदार टहलता हुआ आता, ग्राहक से दुआ सलाम करता और पहले वाले भागीदार से पूछता - साहब जी को क्या बेचा?
वह बताता – जी, ये माल बेचा है। तब भागीदार पूछता - कितने में दिया तो पहला बतलाता कि इतने रुपए में सौदा हुआ है।
तब दूसरा वाला सिर पीटने का नाटक करता, कहता - लुटा दे, लुटा दे दुकान। इतने में तो हमने भी नहीं खरीदा है। तेरा यही हाल रहा तो हमें एक दिन दुकान बंद करके भीख माँगनी पड़ेगी।
तब पहला वाला कहता - मुझे नहीं याद रहा कि हमने कितने में खरीदा है; लेकिन अब हम सौदा कर चुके हैं तो हम ग्राहक को इसी कीमत दे देंगे आप चाहें तो हमारे हिस्से के लाभ में से ये नुकसान काट लेना।
दोनों झगड़ा करने का नाटक करते।
पहला वाला भागीदार ग्राहक को समझाता - आप तो ले जाओ जी सामान तय कीमत पर। मैं इनसे निपट लूँगा। अपने हिस्से का मुनाफा छोड़ दूँगा।
ग्राहक खुश- खुश सामान लेकर चला जाता कि उसे बहुत सस्ते में सामान मिल गया है।
हर ग्राहक के साथ यही तरीका अपनाया जाता।
अगली बार दुकान पर भागीदार नंबर दो बैठता और पहला वाला सामने वाली चाय की दुकान पर जा बैठता और ग्राहक के आने पर यही नाटक करता।
कहानी का अगला मोड़ ये है कि जब चीज़ बिक रही होती थी तो दोनों पार्टनर ग्राहक से विनती करते थे कि किसी को बताना मत कि कितने की ली है, इस भाव पर हम और नहीं दे पाएँगे।
वे हमेशा यही नाटक करके इस तरीके से ग्राहकों को उल्लू बनाते रहते और हर बार ग्राहक समझता कि वह भागीदारों के आपसी झगड़े में सामान सस्ते में ले आया है।
वे बेच कुछ भी रहे होते, टोपी हर बार ग्राहक को ही पहनाई जाती।
डिस्क्लेमर: यह एक विशुद्ध बोधकथा है जिसके सारे पात्र काल्पनिक हैं। इस बोध कथा का उस देश से कोई लेना देना नहीं है जहाँ पर राजनीतिक पार्टियाँ आपस में भागीदारी करके वोटरों को लगातार कई वर्षों से टोपियाँ पहना रही हैं और वोटर हर बार भ्रम में जीता है कि शायद इस बार कुछ तो उसके हाथ लगा है।
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मो. नं. 9930991424, kathaakar@gmail.com
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