नाम नहीं बताने पर स्कूल के एक छात्र को दूसरे छात्रों ने इतना मारा कि उसकी मौत ही हो गई। दिल दहला देने वाली यह घटना छत्तीसगढ़ के एक गाँव की है। 10 वीं कक्षा में पढ़ने वाले मोहन राजपूत पूरक परीक्षा देकर स्कूल से बाहर निकल रहा था तभी 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले एक अन्य छात्र ने उसे रोका और नाम पूछा, मोहन के नाम नहीं बताने पर वह उसे मारने लगा। दोनों के बीच धक्का- मुक्की शुरू हुई। इसी बीच उसके कुछ और साथी वहाँ आ गए और सबने मिल कर मोहन को लात- घूँसों से मारते हुए नीचे गिरा दिया और इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। अजीब बात ये है कि ये छात्र एक दूसरे को जानते तक नहीं थे। इसका मतलब तो यही हुआ ना कि वे बस मौज मस्ती के लिए उसका नाम पूछ रहे थे और न बताने पर गुस्सा होकर मार- पिटाई शुरू कर दी, क्योंकि इन छात्रों के बीच न तो कोई पुरानी दुश्मनी थी न वे एक स्कूल में पढ़ते थे। सवाल उठता है कि ये बच्चे किस मानसिकता से ग्रसित थे?
इन दिनों बच्चों में इस प्रकार की आपराधिक प्रवृत्ति की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। कोई नाराज होकर माता- पिता को मार रहा है तो कोई भाई- बहन को और दोस्त को । विशेषज्ञ इसके लिए किसी एक कारक को जिम्मेदार नहीं मानते। पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक कारकों के साथ परिवर्तित जीवन शैली ने आज के बच्चों को बहुद ज्यादा गुस्सैल, आक्रामक और क्रोधी बना दिया है। विभिन्न अध्ययनों से इस बात का खुलासा हुआ है कि बच्चों की मानसिकता को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है मोबाइल फोन ने। बच्चे अब दोस्तों के साथ समय बिताने, खेल- कूद में रुचि लेने के बजाय दिन- रात मोबाइल से चिपके रहते हैं। मोबाइल में गेम खेलना उन्हें मैदान में खेलने से ज्यादा अच्छा लगने लगा है। यही कारण है कि जब उनकी मनमर्जी से काम नहीं होता, तो वे राह से भटक जाते हैं। नशे की आदत, गलत लोगों की संगत, पढ़ाई से जी चुराना, अकेले रहना जैसी बातें आज आम हो गईं हैं। किशोर उम्र के बच्चे जब इन दिनों भारी संख्या में बन रहे वेब सीरीज, जो ज्यादातर आपराधिक पृष्ठभूमि पर बने होते हैं देखते हैं और विभिन्न प्रकार के गेम जो नशे की तरह उन पर हावी होती जा रही है, उन्हें मानसिक रूप से बीमार तो बना ही रही है, साथ ही उन्हें अपराध की ओर भी धकेल रही है, जो बेहद चिंतनीय है।
इस संदर्भ में आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी बात करना सामयिक होगा जो पूर्णतः व्यावसायिक हो गई है । अच्छा नम्बर लाने के लिए माता- पिता का दबाव है, प्रत्येक अभिभावक चाहता है कि उनका बच्चा मेरिट लिस्ट में आए। बस पढ़ो- पढ़ो और रटकर पास हो जाओ। चाहे शिक्षक हो या माता- पिता यह जानने की कोशिश ही नहीं करते कि उनका बच्चा क्या चाहता है, उसकी रुचि किस विषय में है। हर गली- कूचे में खुल चुकी कोचिंग संस्थाएँ भी ऐसे दावे प्रस्तुत करती हैं कि उनके यहाँ पढ़ाई करके प्रत्येक बच्चा मेरिट में ही आएगा और उसे मनपसंद विषय ही मिलेगा। प्रतिस्पर्धा के इस भागम-भाग वाले दौर में बच्चा समझ ही नहीं पाता कि उसके लिए कौन-सा रास्ता सही है और उसकी पसंद का है। वह तो बस इस भेड़चाल में भागता चला जाता है और एक दिन मुँह के बल जब गिरता है, तब न तो माता- पिता सँभाल पाते और न ही अभिभावक। नतीजा बच्चा या तो मानसिक बीमार हो जाता है और आत्महत्या की ओर उन्मुख होता है अथवा अपराध का रास्ता चुनकर परिवार, समाज सबसे दूर चला जाता है।
एक बच्चे को अच्छा नागरिक बनाने की जिम्मेदारी घर- परिवार से होते हुए स्कूल तक जाती है। माता- पिता यदि बच्चे के मानसिक विकास की ओर ध्यान नहीं देंगे और पूरी जिम्मेदारी स्कूल पर छोड़ देंगे ,तो वह भी उचित नहीं है। हाँ, स्कूलों में जो भी पढ़ाया जा रहा है, उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था पर है, जिस पर आज ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार बच्चे के भविष्य की नींव माता- पिता डालते हैं, उसी तरह उसकी मजबूत दीवार स्कूलों में तैयार होती है, अतः जो भी पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है, वही बच्चे की नींव को मजबूत करता है।
देखा यह गया है कि प्राथमिक स्तर पर तैयार होने वाले पाठ्यक्रम को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। हमारे शिक्षाविद् यह भूल जाते हैं कि बचपन में पड़ी नींव ही आगे चलकर देश की नींव मजबूत करती है। बच्चों में नैतिक विकास के लिए जरूरी है कि आदर्श प्रस्तुत करने वाले देश के महान् व्यक्तित्व के जीवन को उनके पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। आज के बच्चों को यह पढ़ाया ही नहीं जाता कि जिस देश में वे आजादी से साँस ले रहे हैं, उस देश को आजाद कराने के लिए कैसे लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर हँसते- हँसते कुर्बानी दे दी थी। असंख्य जब्तशुदा इतिहास के पन्ने आज भी गुमनाम हैं, जिन्हें सामने लाने की जरूरत है और देश के हर बच्चे को उनके बारे में जानने का अधिकार है। इतना ही नहीं, आजादी के इन 75 सालों में देश की रक्षा में लगे हमारे हजारों नौजवान किस तरह ढाल बनकर दिन- रात प्रहरी बने हुए हैं और दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो रहे हैं, उनकी शौर्य गाथा को भी पढ़ाए जाने की अति आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक बच्चा चाहे वह काम कोई भी करे, उनके मन में देशप्रेम का जज़्बा सर्वोपरि हो।
अतः आजादी के इस अमृत महोत्सव के समय यदि थोड़ा ध्यान हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी दिया जाए, तो देश के भविष्य हमारी युवा पीढ़ी देश के लिए एक ऐसी नींव तैयार कर पाएँगे , जिसपर हर भारतीय को गर्व होगा। और आने वाली पीढ़ियाँ अपराध की ओर न जाकर और मात्र पैसे कमाने की मशीन न बनकर देश के उज्ज्वल भविष्य का सपना लेकर आगे बढ़ेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे देश के कर्णधार इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार करेंगे और आजादी का यह अमृत महोत्सव बच्चों के भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा।
13 comments:
बेहतरीन । संभवतः नए युग के शैक्षिक वातावरण का यह चिंता जनक पहलू है, इस पर गंभीरता से विमर्श की आवश्यकता है, वरना बगैर पूर्वाभास के स्कूलों में ऐसे दुःख के बादल छाए रहेंगे ।
रत्ना जी आपने एक महत्वपूर्ण विषय पर ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन यह तथ्य भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है कि बच्चों को सबसे पहली शिक्षा घर के माहोल से मिलती है।
आदरणीया,
- बहुत संवेदनशील विषय को छुआ है आपने। इसमें दोनों पक्ष उत्तरदायी हैं।
- प्रथम तो अभिभावक जिन्होंने खुद संस्कारों को तिलांजलि दे दी है
- और दूसरे शिक्षक। इनकी तो बात ही मत पूछिये। कोचिंग, ट्यूशन, जोड़ तोड़ का अनुगामी यह समुदाय ही मूल्य विघटन का उत्तरदायी है। गुरु शब्द तो चालूपन का पर्याय हो गया है।
मैं तो इन्हें केवल एक बात कहना चाहूंगा :
- ये सिर्फ़ बनने संवरने की शय नहीं नादां
- अगर शऊर-ए-नज़र हो तो आईना पढ़ना
हर बार की तरह इस बार भी आपने सबको जाग्रत करने की मुहिम को कायम रखा है। सो हार्दिक बधाई एवं आभार। सादर
बिल्कुल सही कहा आपने, पर ..
सार्थक संदेश Mam... 🌹🙏सहमत हूँ
शुक्रिया भीकम सिंह जी 🙏
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं l इस पर विमर्श की आवश्यकता तो है l
जी हाँ जोशी जी l प्रथम पाठशाला तो घर ही होती है l नींव तभी मजबूत बनती है l
इतने अच्छे शब्दों में प्रतिक्रिया देने के लिए आपका हार्दिक धन्यावाद जोशी जी l
😊
शुक्रिया अनिमा जी
बहुत सार्थक विषय आज की परिस्थितियों पर, हर माता पिता और शिक्षक के साथ नीति निर्धारकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए
यह बहुत ही विचारोत्तेजक विषय है। आज़ादी के तुरंंत बाद वाली पीढ़ी को आज़ादी के संघर्ष और उसके महत्त्व के प्रति जागरुकता रही है। आवश्यकता है कि नयी पीढ़ी को भी वही संस्कार दिये जायें। वर्तमान बच्चों की हिंसक प्रवृत्ति तथा तनाव के लिए हमारी पीढ़ी ही जिम्मेदार है। संस्कार ही व्यक्तित्व की कुंजी है और वह माता, पिता तथा शिक्षक के पास है।
समसामयिक एवं महत्वपूर्ण विषय। परिवार ही बच्चों की पहली पाठशाला होती हैं जहाँ से वे बहुत कुछ सीखते हैं लेकिन आधुनिक माता-पिता स्वयं ही संस्कारों से दूर हो रहे हैं। नंई संस्कृति पनप रही है। अमूलचूर परिवर्तन की आवश्यकता है। सुदर्शन रत्नाकर
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